ममता सिंह
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि सोशल मीडिया ने गढ़ों और मठो की सत्ता को ध्वस्त किया है और सबके लिए समान मंच उपलब्ध कराया है।यह व्यवस्था इतनी लोकतांत्रिक है कि हर कोई अपने " मन की बात" के तर्ज पर यहाँ बातें लिख रहा है,कोई सुने न सुने,कोई पढ़े न पढ़े,मन है लिख रहे हैं।यहाँ बहुत कुछ निर्थक है तो बहुत कुछ सार्थक भी है।
ममता सिंह अमेठी के छोटे से गाँव अग्रेसर में रहती हैं और प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका हैं,स्वभाव से संकोची और पढ़ाकू इतनी कि किताबों के मोह में अपने गाँव के बच्चों में पढ़ने की संस्कृति के विकास के लिए सावित्री बाई फुले जन पुस्तकालय की स्थापना की है।इनकी फेसबुक पोस्ट बातें बेवजह की हम सभी का ध्यान खींचती हैं और ख़ूब लोकप्रिय है। ममता कविता लिखती जरूर हैं पर प्रकाशित कराने को लेकर इतनी संकोची हैं कि गाथांतर को ही कविताएँ बहुत निहोरा करने पर मिली हैं।
ममता की आवाजाही गाँव से शहर की बनी रहती है,वह इस दोनों दुनिया को खुली दृष्टि से देखती हैं और अपनी कविताओं में उन्हें बड़ी मार्मिकता से उकेरती हैं।इनकी कविताओं में राजनैतिक चेतना के बिम्ब मुखर हैं तथा ग्राम संवेदना के चित्र बड़े सजीव ढ़ंग से उभरते हैं।ममता की कविताओं पर यहाँ बात करते हुए एक बात स्पष्ट करना चाहूँगी कि यह आवाज जीवन की आवाजें हैं जो सीधे जन से जुड़ते हुए स्त्री कविता में चुपचाप दाखिल होती हैं।
1.
"शापिंग माल में एक औरत"
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शहर के सबसे चमचमाते मॉल के
गेट पर सजी धजी खड़ी वो
लेती है तलाशी अंदर जाने
वालियों की
खंगालती है पर्स,टटोलती है
पोशीदा जगहों को कि
कुछ अवांछित मॉल में
न जा सके
कुछ पुरुष टटोलते हैं उसे
निगाहों से
बेशर्मी से घूरते
दांत चियारते
उन्हें देख
सिमट जाती है खुद में ही वो
उसके आई लाइनर और गाढ़े
काजल से सजी आंखों
में चुपचाप ठहरा है एक
सियाह अंधेरा
जिसमें छुपा है वो चेहरा
जो पिछले तीन महीनों से
सरकारी अस्पताल के जनरल
वार्ड के बेड नम्बर आठ पर
पड़ा खांस रहा
उसके सुर्ख होंठो के पीछे
छुपी है एक गूंगी चीख
जो मकान मालिक के
सीढ़ियों पर दबोचने से
फूटी थी
उसके इकहरे बदन पर
करीने से चिपकी चमचमाती
यूनिफार्म के नीचे है
जतन से छुपाई ब्रा की
वो टूटी स्ट्रैप
जिसे कई महीनों से
सिल-सिलकर पहन
रही वो ।
खड़े खड़े टांगें दुखती हैं
वह अब बैठना नहीं
लेट जाना चाहती है
उस वातानुकूलित मॉल के
चमकते फर्श पर क्योंकि
रात भर एक ही चारपाई पर अगल बगल लेटे बच्चों को
थपकते, सहलाते नहीं
बदल नहीं पाती करवट
उसने देखा है अमीर औरतों
की निगाह में खुद
के लिए हिकारत
और अपने अडोस-पड़ोस
की औरतों की नजर
में ईर्ष्या
पर
पुरुषों में अमीर-गरीब सभी
के लिए है मात्र
वह देह
शून्य में ठिठकी सी वह
अजनबी चेहरों की भीड़
में तलाशती है कोई
नर्म निगाह कि तभी ...
गेट से निकलते,खिलखिलाते लोगों के हाथों में थमे
मंहगे सामानों से भरे
दर्जनों पैकेट देख,याद आ जाता है उसे कि राशन लगभग खत्म है
चीनी-पत्ती तो कल से ही नहीं
बच्चों की कॉपी,सास की दवाई
अस्पताल के खर्चे,मकान का किराया,दूध का हिसाब
हड़बड़ाती सी सीधी खड़ी हो
पोछती है एहतियात से
नन्हें आंसू को
कि कहीं खराब न हो जाये
करीने से लगा काजल
2.
"पहलू बदलती औरत"
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कब उगता है और जाने कब
ढल जाता है यह निबहुरा दिन
पता ही नहीं चलता सर्दियों में
बँगले वाली मेम साहब के घर
दोपहर से चल रही काव्य गोष्ठी
खिंचती गई शाम... और अब रात तक
वक्त के साथ-साथ
खिंचती जा रहीं सुरसतिया के माथे की लकीरें
कविता...क़हक़हे... बहसें
तैरती ड्राइंग रूम से बाहर तक
सुनती हुई बदलाव की , औरतों के हक़ की बातें
बार-बार पानी देती, चाय बनाती, प्लेटें हटाती
रह-रह कर झाँकती है खिड़की से
जूठे कप धोती सुरसतिया
बाहर नियॉन लाइट के घेरों में नहीं
बेचैनी भरा वह अंधेरा
धीरे-धीरे उतर रहा था
ठीक सुरसतिया के कलेजे के बीचोबीच
पसर रहा था
घर पर छूटे तीन बच्चों
दो बकरियों
और आधा दर्जन मुर्गियों के वज़ूद पर
भूख ,बेचैनी और डर के अंधेरे में
पिछले बरस कच्ची की भेंट चढ़ा पति,
तो झोपड़ी का अस्तित्व लील गया
मुंसीपाल्टी का बुलडोजर
शहर के बाहरी इलाके में
भभका मारते , शहर ही की ग़लाज़त ढोते
नाले के किनारे बसी
पन्नियों ,टायरों , पतरों और बाँस से बनी
उन झोपड़ियों में से एक के लिए भी ,
कि जिनमें साहबों के कुत्ते भी
फ़ारिग होने से करते थे इन्कार ,
कितने जतन, चिरौरी , विनती के साथ
कुर्बान करनी पड़ी थी उसे
माई की आख़िरी निशानी
वह पाज़ेब - चाँदी की
औरतों के मुँह से
औरतों के पक्ष में बदलाव की बातें !
सुनने में कितनी सुंदर , मनभावन कितनी !
पर हक़ीक़त में कुछ नहीं बदलता
छोटी और बड़ी
मर्दों से अलग मिट्टी से थोड़े न बनी हैं औरतें
सोचती है
अभी ज़रा ही देर पहले
घर जाने की इल्तिज़ा पर
कस के डाँट खा चुकी सुरसतिया
रुपहले सपनों पर हमेशा भारी होती है
हिसाब की धमकी !
चाय और बहस की गर्मी पर
हावी थी दिसंबर की सर्दी
मीठी आँच परोस रहे थे
भव्य कक्ष में जल चुके हीटर
ख़ूबसूरत उन्हीं हाथों में कप की जगह
आ गए थे बेशकीमती शीशे के गिलास
बातें अब भी थीं वही
पर सुर में सुरूर तारी था
छोटी और बड़ी औरत के
क़दों में अंतर बहुत भारी था
बाहर बदल रहे थे जाम
भीतर एक औरत
कुछ न बदलते हुए भी
बदल रही थी
पहलू
3.
"क्या फ़र्क पड़ता है?"
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बूँद बूँद
झर रहा कुहासा
लीलता जा रहा
सारी दृश्यता
जकड़ रहा चेतना को
सुन्न हो रहीं शिराएँ
कहीं रौशनी की कोई किरण नहीं
कोई आहट नहीं , ताप नहीं
बुझे अलाव से सटकर
गुड़ी - मुड़ी सोये कुत्ते चुप हैं
हुआँ - हुआँ की भेदक आवाज़ भी
खो चुकी है किसी माँद में
मौत सी निष्क्रिय निस्तब्धता
हर जगह तारी है
मगर ज़िन्दगी है कि अब भी
मौत से नहीं हारी है
टूटती साँसों को बचाने के लिए
अब भी जद्दोज़हद जारी है
जारी हैं पेट भरने के उपक्रम
न जाने किसकी पारी है
कौन है जो इस सर्द रात में
फावड़ा लिए , आया है सींचने गेहूँ
रात में ही आती है बिजली
सेंवार के इस सन्नाटे में
कौन बोल रहा यह ?
कोई भी हो सकता है
होरी,धनिया ,अलगू ,झबरा - कोई !
कोई भी हो
क्या फर्क पड़ता है नाम से ?
हैं तो मुंशी जी के किसान ही!
अब भी जी रहे वे
कमोबेश वही जिंदगी
क्या फर्क पड़ता है
कि पूस की इस रात
भारत की जी डी पी कितनी है
या कि कितना गेंहू इस बरस
होगा आयात या निर्यात
क्या फर्क पड़ता है कि
लू से मरे कोई या शीत लहर से
ए टी एम की लाइन में खड़े होकर मर जायें
या अच्छी चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ें
या फिर लटकी देहों का बोझ सहें सभी दरख़्त
तय नहीं हुए हैं अभी भी
उलटे खड़े सवालों के जवाब
मसलन , यह कि
किसानों - ग़रीबों की मसीहा हैं सरकारें
या ग़रीब - किसान ही
हमेशा से मसीहा हैं सरकारों के
सच तो अब तक इतना ही है
कि इस बेरहम रात भी
चार हाथ जुटे हैं
ट्यूबवेल से खेत तक
निर्बाध पानी पहुँचाने में
मौत को
मुर्दा बनाने में !!
- 4
*रौशनी*
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लालटेन ने फीकी कर दी थी
रौशनी चाँद और जुगनुओं की
फिर आया बल्ब जिसने
मंद किया लालटेन का तेज
विकास के क्रम में
विकसित होने के भ्रम में
हम रचते और गढ़ते रहे
रौशनी के नित नए प्रतिमान और
दूर होती गई प्रकृति रोज ब रोज हमसे
आज चारों ओर चमकते ये
एल इ डी बल्ब और
नियोन साइन बोर्ड
जिनकी भव्यता में बिला गए
जाने कितने चाँद,जुगनू,लालटेन
और बल्ब
आँखों में चौंध भरते ये नए सूर्य
नहीं जगा पाते स्वप्न और संवेदना
जो कभी खिलखिलाती थी यूँ ही
आँखों में,होंठों पर,सांसों में
आँगन से चाँद की छाँव में लेट
रातभर बतकही का सुख
रौशनी का नसों में पिघलकर बहना
और निहारना मौन पीपल से झरते
जुगनुओं की झालर को
अब हजारों बल्ब मिलकर भी नहीं
रच पायेंगे रौशनी का वो
ऐन्द्रजालिक वितान
और संवेदना की तरलता
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ममता सिंह
आपकी यह पहल सराहनीय है। हार्दिक शुभकामनाएँ.💐💐💐
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