"एक स्त्री,
अपने पति से अलग होकर
आजकल पुस्तकालय की शरण में है
अब पुस्तकालय में किताबें पढ़ने के अलावा
मेरे पास एक और काम भी है
मेज़ पर झुकी हुई उस स्त्री को पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ती हूँ
गोया वह मेरे सामने खुली हुयी एक किताब हो
बिलकुल नयी
जिसका एक भी पन्ना
मुझ से पहले किसी ने पढ़ा ही नहीं
बिना पढ़े ही उसे ठहरा दिया गया
बिलकुल कोरा "
कविता में यह पड़ताल आज की बदलती दुनिया का वह चेहरा है जहाँ बहुत कुछ बन रहा है तो बहुत कुछ टूट भी रहा है ,इस बनने -बिगड़ने से लेकर टूटने-बिखरने की क्रिया को आज की स्त्री कविता में आज की कवयित्रियों ने बड़ी सुघढ़ता से परिभाषित किया है और अपना प्रतिरोध अपनी भाषा में पितासत्ता के सम्मुख दर्ज कर रही है।
(टिप्पणी- सोनी पाण्डेय)
1. चोर दरवाज़े
मन के भीतर मन
उसके भी भीतर एक और मन
मन का एक दरवाज़ा खुलता है
दूसरा बंद होता है
सबसे भीतरी मन की गहन गुफा की चौकसी पर तैनात है
मन के कई बाहरी मज़बूत और
मुस्तैद दरवाज़े
मन की एक सुरंग में डेरा है
सहेली के उस निष्ठावान प्रेमी का
जिसने जीवन-भर किसी दूसरी लड़की की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा था
दूर रिश्तेदारी के रोशन चाचा
देव आनंद सा रूप-रंग लेकर जन्में थे जो
पड़ोस की वह कुबड़ी दादी
लगती थी लगा करती थी
अपनी दादी से भी प्यारी
ढेर साड़ी गुड़ियां और उनकी गृहस्थी का छोटा-मोटा साजों-सामान
पड़ोसी दीनू जो परीक्षा के दिन उसकी साईकल का पंचर लगवा कर आया था
और आज तक साईकल में पंचर लगवाता हुआ ही दिखता है
सबने थाम रखा है मन का एक आँगन
मन के एक कोने में सिमटा हुआ है अधूरा प्रेम
जो दुनिया का ज़हर पी-पी कर
कालिया नाग बन गया था
बाहर ज़रा सी आहट हुई और
दरवाज़ा मूँद कर वह
मुस्कुराते हुए अपने शौहर का ब्रीफकेस हाथ में थाम
कह उठती है
'आप मुँह -हाथ धो आईये
मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ '
और नज़र बचा कर
अपने माथे पर चू आये पसीने को पोंछती है
आखिर मन के इतने सारे खुले दरवाज़ों का
मुँह झटके से बंद करना इतना आसन भी तो नहीं
2. पुस्तकालय में जन्म लेती नयी स्त्री
'कृपया शांत रहें' इस अनुशासन की हवा में कितने ही विचारों ने बदले हैं अपने वस्त्र
ज्ञान का यह प्रसूति-गृह
पृथ्वी के दुष्ट शोर से है कोसो दूर
याद है किसी ने बतलाया था
'किताब पुस्तकालय की ईंट होती हैं'
यह भी कह गया कोई
'हम ही नहीं किताबें भी हमें पढ़ती हैं'
तानाशाहों के ढेरों दफ़न किस्सों के बीच
अनेक शांति-दूतों को सुकून भरी नींद लेते
देखा यहीं पर मैंने
सोचती हूँ अक्सर
सबसे ज्यादा पढ़ी गयी किताब
खुद को कितना ख़ुशनसीब पाती होगी
अकेले नहीं
बरसों से किताबों की सीली खुशबू के संग
अपने घर में प्रवेश किया है मैंने
एक स्त्री,
अपने पति से अलग होकर
आजकल पुस्तकालय की शरण में है
अब पुस्तकालय में किताबें पढ़ने के अलावा
मेरे पास एक और काम भी है
मेज़ पर झुकी हुई उस स्त्री को पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ती हूँ
गोया वह मेरे सामने खुली हुयी एक किताब हो
बिलकुल नयी
जिसका एक भी पन्ना
मुझ से पहले किसी ने पढ़ा ही नहीं
बिना पढ़े ही उसे ठहरा दिया गया
बिलकुल कोरा
3. जनपद- कल्याणी- आम्रपाली
भंते,
स्मृतियाँ
मुझे अकेला छोड़
अपनी छलकती हुयी गगरियाँ कमर पर उठा
पगडण्डी-पगडण्डी हो लिया करती हैं
स्मृतियों के मुहं मोड़ते ही
अजनबी झुरियां,
झुण्ड बनाकर
मुझसे दोस्ती करने के लिये आगे
बढ़ने लगती हैं
अठखेलियाँ करने को आतुर
रहने लगी हैं
बालों की ये सफ़ेद लटें
उफ्फ
अब और नहीं
भंते औररररर नहीं
मेरा दमकता
नख-शिख
घडी- दर- घडी दरक रहा है
क्या हर चमकती चीज़
एक दिन इसी गति को जाती हैं ?
राष्ट्र को बनाने, बिगाड़ने वाला
मेरा सौन्दर्य इतना कातर
क्योंकर हुआ, भंते
जिस जिद्दी दुख,
का रास्ता सिर्फ नील थोथे को मालूम हुआ करता था
अब वही दुःख
मेरे मदमदाते शरीर में
अपना रास्ता ढूंढने लगा है
मुक्ति की
कोई राह है भंते
सीधी न सही
आड़ी-टेढ़ी ही
वैशाली की नगरवधू जनपद कल्याणी
बौद्ध भिक्षुणी के बाने
भीतर भी
आसक्ति के कतरों को
अपने से अलग नहीं कर पा रही
इस अबूझ विवशता को क्या कोई नामकरण दिया है तुमने भंते
बिम्बिसार की मौन मरीचिका के आस-पास
एक वक़्त को मेरा प्रेम जरूर
टूटी चूड़ी सा कांच-कांच हो गया था
किन्तु बुद्धम- शरणम् के बाद भी
अनुराग, प्रीति, मुग्धता के अनगिनत कतरे मेरे तलुओं पर रड़क रहे हैं
सौंदर्य क्या इतनी मारक चीज़ है
तथागत
कि मेरे प्रश्नों पर तुमने यूँ
एकाएक मौन साध
ध्यान की मुद्रा में खुद को स्थिर कर लिया है
4. ज्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ
सत्तर की फिल्मों का दिया भरोसा कुछ ऐसा है कि मैं
अपने कंधे पर पड़े अकस्मात
धौल-धप्पे से चौंकती नहीं हूँ मैं
भीड़ भरे बाजार में
बरसों बिछड़ी सहेलियां मिल जाया करती हैं
खोयी मोहब्बत दबे पाँव आ धमकती है
पीले पड़ चुके पुराने प्रेम-पत्रों में
उस दौर की फिल्मों ने अपने पास बैठा कर यही समझाया
भरे-पूरे दिन के बीचो- बीच
बदन पर चर्बी की कई तहें ओढे
एक स्त्री मुझे देख कर तेज़ी से करीब आती है
और टूट कर मिलती है
मुड़ कर थोडी दूर खड़े अपने शर्मीले पति से कहती है
" सुनो जी मिलो मेरी बचपन की अज़ीज़ सहेली से'
और मैं हूँ कि
अपने पुराने दिनों में लौटने की बजाये
बासु दा की फिल्म के उस टुकड़े में गुम हो जाती हूँ
जहाँ दो पुरानीं सहेलियां गलबहियां डाले भावुक हो रही हैं
बस स्टॉप पर 623 की बस का इंतज़ार करते वक़्त
अमोल पालेकर तो कभी विजेंदर घटगे नुमा युवक अपने पुराने मॉडल का
लम्ब्रेटा स्कूटर
मेरी तरफ मोड़ते हुए लगा है
फिल्म 'मिली' के भोंदू अमिताभ का
मिली "कहाँ मिली थी" वाला वाक्या आज भी साथ चलता है
ताज्जुब नहीं कि
डिज़ाइनर साड़ियों के शो रूम में
(विद्या -सिन्हा की ट्रेड मार्क) बड़ी-बड़ी फूलों वाली साड़ियाँ तलाशने लगती हूँ
'मूछ -मुंडा' शब्द पर बरबस ही उत्पल- दत्त सामने मुस्तैद हो जाते हैं
भीड़ में सिगरेट फूंकता
दुबला -पतला दाढ़ीधारी आदमी दिनेश ठाकुर का आभास देने लगता है
हर साल सावन का महीना
"घुंघरुओं सी बजती बूंदे" की सरगम छेड़ देता है
और मैं 1970 को रोज़ थोडा-थोडा जी लेती हूँ
श्याम बेनेगल की नमकीन काजू भुनी हुई फिल्में
देर रात देखा करती हूँ
मेरी हर ख़ुशी का रास्ता उन्नीस सौ सत्तर से हो कर आता है
अपने हर दुःख की केंचुली को
उस पोस्टर के नीचें छोड़ आती हूँ
जहाँ 'रोटी कपडा और मकान' के पोस्टर में मनोज कुमार मंद-मंद मुस्कुराते
हुए खड़े हैं
और नीचे लहरदार शब्दों में लिखा है
'मैं ना भूलूंगा इन रस्मों इन कसमों को'
गायक, मुकेश
4. स्त्रियों के नाम सावधानी के कई परतें
कुछ धनी प्रक्रियाओं में शामिल आवाजों से
उनका आवाजों का घनत्व और भी बढ़ जाता है
घनत्व के इसी भार के भीतर नहाती हैं
हमारी ग्रामीण औरते
खाट, चादर की ओट में
तो कभी दुपट्टे की छत्र-छाया तले
नहाने का साबुन ना होने पर
बिना किसी हो हल्ले के
कपडे धोने की टिकिया से भी उनका काम चल जाता है
नाहन पटरी पर कमर को धनुष बना
वे व्यस्त हो जाती है केवल अपने लिए
पत्थर की रगड से जब उनकी एडियाँ उजली हो रही होती हैं
तो उस पल
समूचा सोंदर्य-शास्त्र उनके नाजुक क़दमों
तले पनाह मांगता दिखाई देता है
काम काज से निपट कार
पुरुष नाम का प्राणी के घर से प्रस्थान करने के बाद
वे रसोई के एक शांत कोने को नाहनघर में तब्दील कर देती हैं
पूरी तरह निवस्त्र औरत
नहाते हुए भी चौकनी रहती है
कि सुई की नोक बराबर भी देह का कोना
उजागर ना हो जाये
खेल-खेल में उसके करीब आई गेंद को
अपने छः साल के गोनू की तरफ फेंक कर कहती है
बेटा इधर ना देख्यो
नहाते समय संसार की हर स्त्री उतनी सुन्दर होती है
जितना सुंदर एक स्त्री को होना चाहिये
केलि क्रीडाएं करती रीतिकालीन नायिकाएं
खंडर महलों के बड़े-बड़े कुंड में रानियों की जीवित याद को सुरक्षित रखने के बाद
गांव की वे स्त्रियों याद आती हैं
जो एक बाल्टी पानी में नहाने का सोंधा काम करती है
अधजली लकडियों की गंधशुदा पानी
उनके देह से मिल कर अपनी पुरानी गंध खो बैठता है
कोई स्त्री नहाते-नहाते स्त्री सोचने लगती है
कहीं इस वक्त खुदा की आँख तो खुली ना रह गयी हो
यह सोच
पानी का डब्बा उसके सिर से कुछ ऊपर थम सा जाता है
फिर कुछ सोच औरत खुद ही शर्माती है
‘धत’
भोर होते ही
गुडुप गुडुप और छन-छन की आवाजें
बांध लेती है कुएं की मुंडेर का गोल दायरा
गांव की पुरानी बहुओं चुपचाप नहा कर
आ जाती है अपनी चौखट पर
नई बहुए सुबह कुए पर नहीं नहाती
कुछ वर्षों के बाद ही वे अपनी सास और ददिया सास
का अनुकरण कर कुएं पर स्नान का लुत्फ़ उठाएंगी
तब तक वे सावधानी की कई परतों को अपने
पल्लू से बाँध चुकी होंगी
5. दस्यु सुंदरी
किसी रोज़ हम एक दस्यु सुन्दरी से मिलने गए थे
सदी यही थी
तारीख और साल दिमाग की तंत्रिकाओ से जम गए लगते हैं अब
उस रोज़ उस दस्यु सुंदरी से बाकायदा हमने गर्मजोशी से हाथ भी मिलाया
मुलाकात से पहले जहाँ जहन मे फिअरलेस नाडिया सी चंचल युवती का अक्स था
मिलने पर पुराने फ्रेम मे तस्वीर बदल दी गयी हुई दिखाई दी
वीरान, बेरोनक, अथाह ग़मगीनता मे लिपटी
हमें अपने आस पास बीहड जंगल का भान होने लगा
हम डरते नहीं थे पर
मामला दस्यु सुन्दरी का था
एकबारगी यह भी लगा अचानक इस सुन्दरी ने हम पर हमला कर दिया तो
हम निहत्थों की लाश भी अपने ठिकाने नहीं पहुंचेगी
पर उस खामख्याली की उम्र कुछ पलों की थी
सींखचों को थामे दस्यु-सुन्दरी भूतकाल का खोया सिरा तलाशती तो
हर बार गिनती गड़बड़ा जाती
बार-बार फिर से उसे अंधेरी कोठरी मे गहरे उतरना पड़ता
ठाकुर, कुआ, चंबल, बंदूक, आंसू, चीख
उसके स्लेटी जीवन का पहाडा इन्ही चीजों ने मिलकर लिखा था
'यह ताबीज दादी ने बचपन मे पहनाई थी'
पूछने पर उसने बताया
सब कुछ लुटने के बाद यह ताबीज़ उम्मीद की तरह उसके सीने से लगी हुई थी
अपने आकालग्रस्त बचपन की देहरी लांघ कर
वह जवानी के उस बेड़े मे शामिल हुई
जहाँ शामियाने मे छुपी हुई कीले
उसके जिस्म पर एक साथ चुभी
जब उस जवान जहान संसार ने
उसका वह निवस्त्र पागलपन
देखा जो पुरुष की छाया के आभास से ही अपना सब कुछ उघाड़ कर रख देता था
सुन्दरी के निशाने पर
पहला भी पुरूष
दुसरा भी पुरूष
और आखिरी भी पुरूष ही था
धरती पर मौजूद इस प्रजाति के प्रति वाजिब घृणा के बाचजुद
दस्यु सुंदरी अब भी
इक पुरूष के वरण की आस को पाल कर
नारीवादीयों की तिरछी नज़र की शिकार बन गयी थी
इधर हमे भी अपने पुरुष-अवतार पर संदेह रहा होगा
या फिर हमारी चमकीली खानदानी विरासत के चलते
हमारी स्मृतियों ने दासु सुन्दरी की भयावह कहानी को भूलने पर मजबूर किया
याद रही तो केवल वह विश्व सुन्दरी
जो प्लाज़्मा टीवी के भीतर हिलती डुलती थी और
जिसकी विस्तृत नीली आँखों मे कई नक्षत्र गोते लगाने का जोखिम उठाते रहे थे.
परिचय
जन्म : 2 अप्रैल, 1976, गाँव : खरकड़ी माखवान, जिला भिवानी( हरियाणा)
शिक्षा: बी.एस.सी. ( प्राणी विज्ञान)
एम्.ए. (लोक प्रकाशन)
एम्.ए. (राष्ट्रीय मानवाधिकार)
प्रकाशित कृतियाँ :-
1. कविता संग्रह
अँधेरे के मध्य से (2008)-ममता प्रकाशन
एक बार फिर (2008)-ममता प्रकाशन
नीली आंखों में नक्षत्र ( 2017)-बोधि प्रकाशन
2. कथेतर साहित्य
' मैं रोज़ उदित होती हूँ'
अश्वेत लेखिका माया एंजेलो की जीवनी (2013)-दखल प्रकाशन
3. अनुवाद
रस्किन बांड, (कहानी- संग्रह)- सस्ता साहित्य मंडल
ऐमिली ब्रोंटे, (आत्मकथा)- संवाद प्रकाशन (प्रकाशनाधीन)
मैरीवूलेनस्टोनक्राफ्ट (आत्मकथा)-संवाद प्रकाशन (प्रकाशनाधीन)
4. कहानी संग्रह : ज़ेब्रा क्रासिंग, जगरनॉट (प्रकाशनाधीन)
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
विपिन चौधरी
प्रत्येक कविता मन को गहराई तक छू रही है। स्त्री मन की परतों का मार्मिक आख्यान और पड़ताल । विपिन जी को बधाई ।
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