बुधवार, 12 जनवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल -5

प्रतिभा कटियार स्त्री कविता का वह चेहरा हैं जहाँ औरतों के घर-बाहर का संघर्ष प्रमुखता से दर्ज होता है।इन कविताओं से गुजरते हुए हम कामकाजी औरतों के जीवन की मुश्किलों को सहज ही देख सकते हैं।ऐसा नहीं है कि इन मुश्किलों से हम -आप अवगत नहीं हैं , हम नहीं जानते कि औरतें कितना कुछ सहती ,सुनती हैं।अपने स्व को भुलाकर कैैैसे वह हँस- मुस्कुरा लेेेती हैैंं।इसे सम्भव कर पाने की  जद्दोजहद और घर, नौकरी में संतुलन साधने की लड़ाई के यथार्थ को औरतों के त्याग के जिस तमगे के साथ किनारे कर दिया जाता रहा है,वहाँ अब औरतें अपना सच बयां करने लगी हैं।

 स्त्री- पुरुष सहजीवन के लिए एक -दूसरे को मनुष्य मान ,स्त्री को एक पूरी व्यक्ति इकाई का दर्जा मिलना आज के समय की सबसे बड़ी माँग है।वह केवल एक मादा देह नहीं, पूरी एक व्यक्ति इकाई है जिसे उन तमाम अनचाहे बन्धनों से मुक्ति चाहिए जिसे जबरन उनपर थोपा गया है।


औरतें सपने देख रही हैं

खेतों की कटाई में, धान की रुपाई में
रिश्तों की तुरपाई में लगी औरतें सपने देख रही हैं

बच्चों को सुलाते हुए, उनका होमवर्क कराते हुए
गोल-गोल रोटी फुलाते हुए
औरतें सपने देख रही हैं

ऑफिस की भागमभाग में, प्रोजेक्ट बनाते हुए
बच्चों को पढ़ाते हुए, मीटिंगें निपटाते हुए
औरतें सपने देख रही हैं

घर के काम निपटाते हुए, पड़ोसन से बतियाते हुए
टिफिन पैक करते हुए
आटा लगे हाथ से आंचल को कमर में कोंचते हुए
औरतें सपने देख रही हैं

बेमेल ब्याह को निभाते हुए
शादी, मुंडन जनेऊ में शामिल होते
हैपी फैमिली की सेल्फी खिंचवाते हुए
आँखें मूंदकर सम्भोग के दर्द को सहते हुए
सुखी होने का नाटक करते हुए
औरतें गीली आँखों के भीतर सपने देख रही हैं

कि एक दिन वो अपने हिस्से के सपनों को जी लेंगी
एक दिन वो अपने लिए चाय बनाएंगी
अपने साथ बतियायेंगी
खुद के साथ निकल जायेंगी बहुत दूर
जहाँ उनके आंसू और मुस्कान दोनों पर
नहीं होगी कोई जवाबदेही
बहुत आहिस्ता से जाना उनके करीब
चुपचाप बैठ जाना वहीं, बिना कुछ कहे
या ले लेना उनके हाथ का काम ताकि
औरतें सपने देखती रह सकें
और उनके सपनों की खुशबू से महक उठे यह संसार.


चेहरा

काम पर जाती हुई औरतें 

घर पर रहकर काम करने वाली औरतों से 

अलग नहीं होतीं

दोनों ही संभालती हैं घर और बाहर की दुनिया
दोनों ही जूझती हैं भीतर बाहर की लड़ाइयों से
दोनों के ही जीवन में है काम का भंडार
और उस पर से मिलने वाले ताने अपार

दोनों को निपटाने होते हैं समय रहते सारे काम
बुलट ट्रेन की स्पीड फिट होती है उनके हाथों में
दोनों के पास नहीं होता अपने लिए वक़्त

काम पर जाती औरतें ऑफिस में निपटाती हैं फाइलें
घर पर रहते हुए काम करती औरतें कसती हैं 

गृहस्थी के नट बोल्ट
काम पर जाती औरतें कुछ रोज ब्रेक लेकर

 घर पर रहना चाहती हैं
घर पर काम करती औरतें कुछ दिन बाहर जाकर
काम करने का सपना आँखों में पालती हैं

दोनों एक-दूसरे को हसरत से देखती हैं
दोनों को ही नहीं देखता कोई
दोनों से कोई खुश नहीं रहता

काम पर जाती औरतें ही घर पर काम करती औरतें हैं
घर पर रहकर काम करती औरतें ही काम पर जाती औरतें हैं
दोनों के चेहरे आपस में गड्डमगड्ड हैं

ये एक-दूसरे के साथ बैठकर चाय पीने के इंतज़ार में
रसोई से लेकर ट्राम तक ये भागती जा रही हैं

ऑफिस में फ़ाइल निपटानी हो, घर की रसोई समेटनी हो
या करना हो मेम साब के घर का झाड़ू, बर्तन, पोछा या मजदूरी
ये सारी औरतें एक ही हैं

फेसबुक विमर्श से दूर अपनी ही डबडबाई आँखों में
उतराते अपने कच्चे सपनों को देखती हैं

एक रोज निकालकर तनिक सी फुरसत
छोड़कर कुछ जरूरी काम
जब ये एक-दूसरे के गले लगकर हिलगकर रो लेंगी
तब सूख जायेंगे इन्हें बांटने के इरादे से बोये जाने वाले तमाम बीज

जब तक ये निपटा रही हैं अपने काम
तब तक ही चल पायेगा इन्हें बांटने का कारोबार.


                                                             चित्र- अनुष्का पाण्डेय


कामकाजी औरतें

कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज सुबह घर से
आधे रास्ते में याद आता है सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं
उलझन में पड़ जाता है दिमाग
कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया
जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम
ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है
खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर
बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं
सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर
नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए
अटेंड करती हैं मीटिंग
काम करती हैं पूरी लगन से

पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल
सास की दवाई के बारे में
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए
बाहर जाने का
उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम
ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें.
दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट
जो लेते हुए जाना है घर
दवाइयां, दूध, फल, राशन

ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि
तय हो जाती है कोई मीटिंग
जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा
बच्चे की मनुहार जल्दी आने की
रुलाई बन फूटती है वाशरूम में
मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस
शामिल होती है मीटिंग में
नजर लगातार होती है घड़ी पर
और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत
साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स
दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

घर पहुंचती सामान से लदी-फंदी
देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ
शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है घर पर
जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए
सबकी जरूरत का सामान देते हुए
करती हैं डैमेज कंट्रोल

मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर
टूर पर जाने की बात
कैसे मनाएगी सबको
कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर

ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार
कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से
कि शाम को आराम मिलेगा
रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले
कि सुबह हड़बड़ी न हो

ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचें
घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचें

हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में
एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख

किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से
कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में
वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से

'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें
भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज़
और तब उनके साथी कहते हैं
'ऐसा भी क्या खास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो.'

मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें
एक रोज तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर
जीना शुरूकर देती हैं
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम
सामाजिक समीकरण.

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ओ ईश्वर

ओ ईश्वर,
मन है तुमसे बातें करने का
जानने का तुम्हारे मन का हाल

कैसे हो तुम
कैसा लगता है तुम्हें
जब तुम्हारे नाम पर
होती हैं हत्याएं
मचती है मार काट

क्या बीतती है तुम पर
जब मंदिरों के भीतर
और मस्जिदों के साये में
अंजाम लेते हैं अपराध

कैसे रोकते हो तुम अपने आंसू
जब नन्ही बच्चियां तुम्हारा नाम पुकारते हुए
रौंद दी जाती हैं
किसके काँधे पर सर टिकाकर
तुम फफक ही पड़ते हो
जयकारों के साथ गालियाँ सुनते हुए

अच्छी सी चाय बनाना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए
जानती हूँ भूखे हो सदियों से
कुन्टलों चढ़ते भोग से निर्विकार हो तुम
क्योंकि मुठ्ठी भर अनाज के इंतजार में
दम तोड़ देते लोगों की भूख ही तुम्हारी भूख है

कितने बच्चे, स्त्रियाँ, बूढ़े, जवान
कभी न खत्म होने वाले सफर पर
चलते ही जा रहे हैं
लाठियां और गालियाँ खाते हुए
तुम्हारे पाँव खूब दुःख रहे होंगे न?

सोये नहीं हो न तुम अरसे से
कैसे सो सकता है कोई इन हालात में
कि कर्मकाण्ड की होड़ में
इंसानियत से ही दूर चा चुके भक्त
भला कहाँ सोने देते हैं पल भर भी

कितने अकेले पड़ गए हो
अज़ान, घंटे, घडियालों की आवाज के बीच
बहुत उदास हो न तुम?
ओ ईश्वर मैं समझती हूँ तुम्हारा दुःख
आओ बैठो यहाँ मेरे पास
यह उदास मौसम है...

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उगना बसंत का 


एक कवि को उसकी कविता के लिए
भेज दिया जाना सीखचों के पीछे
खुलना है उम्मीदों की पांखे
कि बची है कविता में कविता
और भागते-दौड़ते जिस्मों में
बची ही ज़िन्दगी 


नज़रबंद किया जाना लिखते-पढ़ते लोगों को
ऐलान है इस बात का कि
नज़राना हैं ऐसे खूबसूरत लोग दुनिया के लिए
कि उनमें बचा है हौसला
सच लिखने का

गुम हुए युवा बेटे को ढूंढती माँ की धुंधलाती नज़र
उसे मिलने वाली धमकियां
सड़कों पर मिलते धक्के
बताते हैं कि कितना डरा हुआ है
सत्ता का चेहरा
और उतना ही है बेनक़ाब भी

परोसी गयी हर बात पर भरोसा करती
बिना सोचे समझे व्यक्ति से भीड़ बनती
और क्रूर खेल में शामिल होती जनता
गवाही है इस बात की
कि शिकार वही है सबसे ज्यादा
(7(7(उसी सत्ता की जिसके वो साथ है

अपना ही मजाक उड़ाते चुटकुलों को फॉरवर्ड करती
उड़ाती अपना ही परिहास
कैद करती खुद को खुद की मर्जी से
त्याग, समर्पण और देवी जैसे शब्दों के 

कैदखानों में कैद स्त्रियाँ
सदियों पुरानी पितृसत्ता की साजिश का आईना हैं

इन सबके बीच
लेना पंछियों का बेख़ौफ़ ऊंची उड़ान

बच्चों की आँखों से छलकना उम्मीद
उनका यक़ीन करना प्रेम पर
मनाना बसंत का उत्सव
उगना है बंजर ज़मीन पर 

उम्मीद की नन्ही कोपलों का. 


परिचय-

लखनऊ में पली-बढ़ी प्रतिभा कटियार ने राजनीति शास्त्र में एमए किया, एलएलबी के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा किया. 14 वर्ष तक मुख्यधारा की पत्रकारिता करने के बाद वे इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथ जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में देहरादून में रहते हुए काम कर रही हैं. हाल ही में रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा पर लिखी इनकी जीवनी ‘मारीना’ काफ़ी चर्चित है. वे हिंदी की लगभग सारी महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लगातार लिखती रही हैं. अंडमान यात्रा पर लिखा संस्मरण और एक कविता ‘ओ अच्छी लड़कियों’ कर्नाटक की रानी चेनम्मा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं.

                                                                 प्रतिभा कटियार

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