रोहिणी अग्रवाल को हम मूलतः आलोचक के तौर पर जानते रहें हैं किन्तु आप "गद्य में पद्य में समाभ्यस्त " यदि कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।यह बात अलग है कि कविता लेखन आपने अब शुरू किया है और जीवनानुभव के बारीक तन्तुओं को कविता के ताने -बाने में इन दिनों आप बड़ी खूबसूरती से बुन रही हैं। दरअसल कविता वह विधा है जहाँ संसार के दर्द से उपजे संत्रास को कवि अपनी कविता में उकेरता है।संवेदनशील मन अपनी मानवीय करुणा की चीखों को कविता भाषा में दर्ज करता है।रोहिणी जी इन दिनों कैंसर जैसी तकलीफ़देह बीमारी से उबरने के प्रयास के बीच कविता लिख रही हैं।आपकी कविताओं का हम गाथांतर पर स्वागत करते हैं-
(1)
मेरे साथ नसीहतें नहीं, सपने चलते हैं.
गंगा में बहा आई हूं
राख की अनगिन पोटलियाँ
सदियों से सीने में दाब कर जिन्हें
वानरी-मोह के साथ
मेरी दादी-नानी-मां
बनती रही हैं त्रिजटा
अपनी ही कैद की पहरेदार.
राख की पोटलियों में रहती हैं पुरखिनें मेरी
बर्तन घिसते-घिसते घिसा डालती हैं नाखून
चमकता नहीं लेकिन कुछ भी
न आँख, न त्वचा,
न नाक, न कान
लेप लेती हैं देह पर चंदन की तरह
बन जाती है अवधूत.
(जानती हैं, ‘बन जाना’ जब
अ-पूर्तियों की वर्चुअल पूर्ति करे
तब जीने की आस में जीने के ख़्याल को जुटाना
कतई नहीं है बुरा)
मैं धड़कन हूं पुरखिन नहीं,
प्रयोग की झिलमिल ज्वाला.
करती हूं इंकार
चबाए गए पान को मुँह में ठूँस कर
अबीरी मुस्कान से इतराना
उलटती हूँ राख का ढेर
नंगी उँगलियों के स्पर्श से
बटोरती हूं अधबुझे अग्निस्फुलिंग
और फूंक कर अस्वीकार की गहरी लंबी फुंकनी
धधकती लपट के आलोक में रचती हूं
आकांक्षाओं के अनलिखे महाग्रंथ.
मेरे साथ नसीहतें नहीं, सपने चलते हैं.
(2)
लिखती हूं मन
तुम तिरस्कारपूर्वक
करते रहो वक्र अपने होंठ
फ़तवे देखकर करते रहो जलील
या चुप्पी की ठंडी सिल्लियों तले दाब कर प्राण
कर दो मुझे अदृश्य
मैं फिर भी
ताल ठोक कर कहती रहूंगी
हाँ, स्त्री हूँ मैं
लेखक स्त्री
लिखूंगी अपना मनचीता
चलूंगी डगर निराली
खुदे होंगे जिस पर
मेरे अ-कंपित मजबूत कदमों के गहरे निशान.
हाँ, ठीक कहते हो तुम
स्त्री के लिखे में पराक्रम नहीं होता
बाहों की मछलियाँ फड़फड़ा दे जो,
पर उसके पास
डींग हांकती अश्लील शौर्य-कथाएं भी तो नहीं
न विजय-अभियानों के दंभ पर सवार बर्बर शोर
न भोग और घृणा की कुत्सित दलदलें.
मैं, लेखक स्त्री
लिखती हूँ अपना मन
क़ब्ज़ा ली गई ज़मीन की तरह
नींव की अतल गहराइयों में
पड़ा है किसी की मिल्कियत के संदूक में.
तुम देखते हो ज़मीन पर चिने
ठाठदार महल,
कंगूरों पर जिनके
लटके रहते हैं सूरज चाँद तारे
फिर आरती का थाल सजा कर
बना देते हो उन्हें कुरुक्षेत्र बनारस हरिद्वार
मैं नींव के नीम अंधेरों की आदी
खोलकर वह संदूक
बाहर फेंकने लगती हूं चीज़ें एक-एक कर
अहा!
धूप और हवा का स्पर्श!
ज़िंदा हो जाती हैं सारी कराहें क्रंदन
फैल जाती हैं देह को घेरते मेरे जीवन-चक्र में फिर धरती की परिधि पर
काल को आवेष्टित करते हुए
बींध देती हैं सभ्यताओं के सजीले मुखौटे
संस्कृतियों के मादक तरल सोमरस.
ज़ख़्म पुरते नहीं
निशानदेही करते हैं अ-दीखती यंत्रणाओं के
शूरवीरों की जयजयकार के तुमुल उद्घोष
शर्म से संकुचित हो
मुंह छुपाने और मुंह दिखाने के द्वंद्व में
गरजते शोर की लरजती अंतहीन सांकल में तब्दील हो जाते हैं
बाहुबलियों के चेहरों पर पुतने लगती है कालिख
तांडव के लास्य के बहाने
राख का सिंगार करने की अभिनव मुद्रा गढ़ लेते हैं वे.
मैं लिखती हूँ मन
कि तुम भी देख सको
दूसरों की आँख में बसी अपनी तस्वीर
वरना तो आज तक तुम ही दर्ज करते आए हो
हड़प ली गई ज़मीन पर
भोग का माल
और गढ़ गढ़ने का मायावी कमाल.
मैं लिखती हूँ मन
कि गुमशुदगी की दलदल से निकाल बाहर
लफ़्ज़ों को दे सकूँ शफ्फाक सीधे मायने
कि जब वे कहना चाहें “शोषण”
तो बाहुबलियों के पराक्रम भरे अश्लील किस्से
रेशमी थानों की तरह सड़कों-गलियों में सरसरने लगें.
हाँ जनाब
स्त्री हूं मैं
लेखक स्त्री!
मेरे शब्दों में
चुप करा दी गई घुड़कियों के
नकाब पलटने की ताक़त है.
फिर चाहो तो, कांप कर
जान ले सकते हो मेरी!
जब कहती हूं
जब कहती हूं
तुम पूरक हो मेरी अपूर्णताओं के
मैं फैल कर अछोर आसमान की तरह
पूर रही होती हूं तुम्हारे अभाव
और पढ़ लेती हूं
अकिंचनता की निस्सीम परिधि में घूमते
विराट का दार्शनिक सार.
समर्पित हो जब कहती हूं
तुम में पाया है मैंने अंतिम शरण्य स्थल,
तुम्हारी प्रकंपित कातरताओं
भीत विलासिताओं
और खोखली क्षुद्रताओं के
नुकीले शर से बिंधे मृतप्राय स्वत्व को
अपनी उत्तप्त सांसों से फूंक कर
जीवन-दान दे रही होती हूं.
पोर-पोर सर्वस्व देकर जब कहती हूं
तुम हो उर्वर उद्धारक मेरी वंध्या ज़मीन के
तुम मुकुट में सजाने लगते हो
लंबे सलोने ताड़ के गाछ,
मैं लेती हूं तुम से बूंद भर तुम
और गूंथ कर तमाम सपने-अरमान
अनदेखे लोकों के अनंत सफर
हौसलों के भीषण तूफान
लौटा देती हूं तुम्हें
अपना धड़कता संसार विशाल.
मेरे सहयात्री!
हर घाट से लेकिन तुम
क्यों चले आते हो प्यासे भला?
(4)
हृदय-नाल
देखती हूं
चरम तृषा की कोख से उपजा
परम तृप्ति का वह अनंतिम पल
रुंध गया जाने कब
कंठ में सिसकारी बन
स्वर देकर अपरिमित आनंद का
मुक्त सलिला की तरह बहा दिया तुमने
तुम्हारे मैं और मेरे मैं के
दो अभिन्न प्रशस्त कूलों के बीच.
देने के पल में छकने का कैसा अनूठा उजास!
न दी जाने वाली वस्तुएं गिनने का लोभ
न पावतियों को संभालने का होश.
जानती हूं बांध लिया है तुमने
हृदय-नाल से मुझे
आरक्षित करती हूं अजन्मे शिशु के लिए
अपनी नाभि-नाल
----------------------------------
परिचय
जन्म : 9 दिसंबर 1959, मानसा (पंजाब)
विधाएँ : कहानी, आलोचना, संस्मरण,कविता
मुख्य कृतियाँ-
कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ
आलोचना : स्त्री लेखन : स्वप्न और संकल्प, हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नजर कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की सरंचना और संरूप (पंद्रह वर्ष के प्रतिमानक उपन्यास), समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार
संपादन : - प्रतिनिधि कहानियाँ (मुक्तिबोध)
सम्मान
हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पुरस्कार, स्पंदन आलोचना पुरस्का
फोन-
09416053847
ई-मेल-
rohini1959@gamil.com
रचनाएँ-
कहानियाँ
--------------
1)-आओ माँ! हम परी हो जाएँ
2)-आत्मजा
3)-कंजकें
4)-चिट्ठियाँ
5)-बेटी पराई नहीं होती, पापा
आलोचना
----------------
1)-कबीर का वैचारिक दर्शन
2)-जान्हवी, जैनेंद्र और प्रेम
3)-‘बरजी मैं काही की नाहिं रहूँ’
4)-समकालीन हिंदी उपन्यास और दिकू समाज का आदिवासी चिंतन
5)-समकालीन हिंदी उपन्यास और पारिस्थितिकीय संकट
विमर्श
1)-देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियाँ और हिंदी कथा साहित्य
2)-प्रेमचंद के संग : पहली बार उर्फ रसोई और स्टडी के बीच हरसिंगार के फूलों की बरसात
Appreciated
जवाब देंहटाएं