स्त्री कविता: अस्मिता से चेतना तक
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मदन कश्यप
एक पुरानी और प्रचलित अवधारणा है कि साहित्य, विशेष रूप से कविता में, अर्थ विस्तार होता है, जबकि विज्ञान में तथ्य विस्तार। लेकिन, एक्कीसवीं सदी की कविता में तथ्य विस्तार भी होता दिखाई देता है, तो इसका सारा श्रेय अस्मिता विमर्श केंद्रित कविता, विशेष रूप से स्त्री और आदिवासी कविता को जाता है। ध्यान देने की बात है कि बीसवीं सदी की हिंदी कविता में प्रायः हर दौर में स्त्री कविता की सांकेतिक उपस्थिति तो रही है, लेकिन कविता की मूल प्रवृतियों के निर्धारण में स्त्री रचना की निर्णायक भूमिका पहली बार एक्कीसवीं सदी में ही दिखाई दे रही है। नयी सदी से मेरा तात्पर्य सन् 2000 अथवा 2001 से शुरु होने वाली शताब्दि नहीं, बल्कि जैसा कि अन्य प्रसंगों में पहले भी कह चुका हूं, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से यानी, 1992 से प्रारंभ होने वाली सदी ही है। यहां इस पर विस्तार से चर्चा करना उचित नहीं है, फिर भी यह अकारण नहीं है कि प्रख़्यात इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी पुस्तक 'दि एज़ ऑफ एक्सट्रीम' में बीसवीं सदी को 1991 में ही समाप्त मान लिया है। उसके बाद सब कुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं हुआ बल्कि सांप्रदायिकता के उभार और सभ्यताओं की टकराहट से कुछ बेहद त्रासद परिस्थितियाँ पैदा हुईं, जिनसे अबतक मुक्ति नहीं मिली है ,लेकिन,महावृतांत के टूटने अथवा मद्धम पड़ने से एक अच्छी बात यह हुई कि पहली बार उत्पीड़ित अस्मिताओं को सामने आने और जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह ही कविता में भी अपनी पहचान को स्थापित करने का अवसर मिला। वैसे तो 1980 के दशक, यानी नौवें दशक में ही सामाजिक सरोकारों का विस्तार होने लगा था और ओमप्रकाश बाल्मीकि, अनामिका, कात्यायनी आदि की रचनाएँ सामने आने लगी थीं।
फिर भी, इन रचनाकारों को भी सम्मानजनक जगह 1992 के बाद ही मिली। परिवर्तन हर क्षेत्र में हो रहा था, लेकिन, स्त्रियों का आगे आना एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। उस अंतिम दशक में शुभा, अनामिका और कात्यायनी के अलावा निर्मला गर्ग, अनीता वर्मा, नीलेश रघुवंशी, सविता सिंह, पूनम सिंह आदि कोई एक दर्जन स्त्री कवि सामने आयीं। विशेष रूप से सविता सिंह ने नये तेवर और अपने नये मुहावरों से चौंकाया। जहाँ तक याद आता है, सुमन केशरी, लीना मल्होत्रा, सुधा उपाध्याय, मनीषा झा आदि ने भी बीती सदी के अंतिम दशक में ही लिखना शुरु कर दिया था, लेकिन इनकी पहचान सन् 2000 के बाद बनी ओर संग्रह भी बाद ही में आये।
सन् 2000 के बाद हिंदी कविता में एक सशक्त पीढ़ी आयी और कुछ ऐसे उल्लेखनीय कवि भी आये जिनके साथ विचारधारा की वापसी भी होती दिखी। लेकिन यहाँ सिर्फ यह बताना प्रासंगिक है कि इनमें कवयित्रियों की संख्या पुरुष कवियों से कम नहीं है और गुणवत्ता की दृष्टि से तो वे कहीं आगे हैं जैसा कि पहले कहा है।प्रवृतियों के निर्धारण में इनका योगदान निर्णायक है। इनके आधार पर ही, यह कहा जा सकता है कि अस्मिता विमर्श ही हमारे समय का प्रभावी और प्रतिगामी विचारधारा का सबसे विश्वसनीय प्रतिपक्ष है। इस दौर में ज्योति चावला, वंदना शर्मा, अंजु शर्मा, मृदुला शुक्ला, रजनी तिलक, अनीता भारती, रमा भारती, अनुराधा सिंह, निवेदिता, रजनी अनुरागी, सोनी पांडेय, आभा बोधित्व, रीतादास राम आदि पहले दशक में आयीं और उसके बाद मोनिका कुमार, पंखुरी सिन्हा, पूनम शुक्ला, सीमा संगसार, रजनी सिसोदिया, पूनम विश्वकर्मा वासम, पूनम तुशामड, नीतिशा खल्खो, वंदना टेटे, शालिनी सिंह, सीमा सिंह, शिखा मौर्या, सुमन सिंह, शेफाली फ्रॉस्ट, पार्वती तिर्की के माध्यम से यह सिलसिला निरंतर आगे बढ़ रहा है। यहाँ खास तौर पर उन कवयित्रियों के नाम लिये हैं, यह भी ध्यातव्य है कि इस दौर में दलित आदिवासी कवयित्रियों की संख्या अधिक है। यानी इतिहास में पहली बार समाज के सभी तबकों की स्त्रियां इतनी बड़ी संख्या में कविता लिख रही हैं , यह स्त्री समाज की आंतरिक गतिशीलता का द्योतक है।
चित्र - सोनी पाण्डेय
इसमे शामिल ज़्यादातर कवयित्रियां, फेसबुक पर बहुत सक्रिय हैं, लेकिन फेसबुकिया कवि कत्तई नहीं हैं। देवयानी भारद्वाज से अनुपम सिंह तक सबकी अपनी पहचान है, इनके जीवन संघर्ष, वैचारिक संघर्ष और रचना संघर्ष के अंर्तसंबंधों की पड़ताल के माध्यम से ही इनकी कविता के महत्व को समझा जा सकता है। जब मैं नयी सदी की युवा हिंदी कविता की कुछ ऐसी पहचानों की चर्चा करता हूं, जो इन्हें पूर्ववर्ती कविता से अलग करती हैं। जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, ऐसे लगभग सभी सूत्र आज की स्त्री कविता से ही निकलते हैं। उदाहरणार्थ आज की कविता ताक़त के विरुद्ध सहअस्तित्व की अवधारणा प्रस्तुत करती हैं- यह सूत्र स्त्री और आदिवासी कविता से निकलता है। आज की कविता में ज्ञानमीमांसात्मक विभ्रम नहीं है, अनुभवमूलक अन्वेषण है; कला है, लेकिन कला का कर्मकांड नहीं है; सूचना का आतंक की बजाय संवेदना का विस्तार है; ज्ञान का निरपेक्षीकरण है; प्रतिरोध का सहज स्वर है। जटिल मनोभावों की सरल अभिव्यक्ति है, आदि जैसी विशेषताओं का सूत्रीकरण भी स्त्री कविता और किसी हद तक आदिवासी कविता के आधार पर ही संभव हो सका है। पिछले दो दशक में स्त्री कविता का फलक बहुत व्यापक हुआ है, एक साथ सभी कवयित्रियों की चर्चा करना संभव नहीं है, सबको पढ़ा भी नहीं है।
सन 2000 के बाद जो नयी कवयित्रियां आयी हैं, उनमें से कुछ दलित-आदिवासी को छोड़ दें, तो बाकी सबका अनुभव संसार मिलता-जुलता है, मध्यवर्गीय जीवन की एक जैसी दुश्वारियां हैं, लेकिन स्त्री के दुख को पहचानने की सबकी अपनी अलग-अलग दृष्टि है और भाषा की ताक़त भी अलग-अलग प्रतिशत में है। विपिन चौधरी बहुस्तरीय यथार्थ को एक ताक़तवर भाषा में सामने लाती हैं, वह भूमि की मुक्ति के माध्यम से एक नयी अवधारणा को प्रस्तुत करती है। उसके यहां स्थितियों का चित्रण नहीं गतिविधियों का सम्मिलन है, वह बिम्बों का बखान नहीं करती, उन्हें अपनी स्मृति में बसाती है। ‘फ्यूजन ऑफ एक्टिविटीज’ का इससे एक बिल्कुल ही अलग रूप लवली गोस्वामी की कविताओं में है।
स्मृति को रचने का एक अनोखा ढंग अनामिका अनु के पास है-
"मैं लौटना चाहता हूँ माँ के पास
मैं टटोलता हूँ डिब्बे में साबुत धनिया
उसे भूनने पर माँ फैल जाती है
इस विरान घर में।"
हालांकि यह समझ में नहीं आता कि इस कविता का नौरेटर पुरुष क्यों हैं! वैसे स्मृति स्त्री कविता का एक महत्वपूर्ण घटक है और सौंदर्य की रचना में प्रकृति के साथ इसकी बड़ी भूमिका तो होती ही है। अनामिका चक्रवर्ती की स्मृति में डर भी शामिल हैं, वहाँ ‘डरे हुए सपने हैं। वह बहुत छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से स्त्री के दुख और डर को व्यक्त कर देती है। रश्मि भारद्वाज की कविता में मृत्युबोध तो है, लेकिन वह आधुनिकतावादियों की तरह आकर्षक नहीं है, बल्कि उसके साथ भी डर है, जो स्त्री-अस्मिता और चेतना की सहज समझ से आता है। ‘मृत्यु के पास सौ दरवाजे थे। हमारे पास उससे बचने के लिए एक भी नहीं।’
लीना मल्होत्रा हमारे समय की महत्वपूर्ण कवि हैं, उन्हें सिर्फ स्त्री कविता के दायरे में नहीं देखा जा सकता। उन्होंने कहन की अपनी शैली विकसित की है और ऐसी काव्यभाषा भी अर्जित की है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। उनकी भाषा शहरातू होकर भी रघुवीर सहाय से एकदम अलग है। अब स्त्री के दुख को कोई ऐसे भी व्यक्त कर सकता है—
‘‘क्यों नहीं रख कर गयी तुम घर पर ही देह
क्या दफ़्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था
बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त
न थी वह उंगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा ही भेज देती.’’
शैलजा पाठक के लिए कविता कला से कहीं अधिक चुनौती पेश करने का मंच है। उनकी जैसी बहुत कम स्त्री कवि हैं, जिन्हें कविता की कार्यकर्ता कहा जा सकता है। प्रतिभा कटियार और श्रुति कुशवाहा को भी उसी धारा में रखा जा सकता है, हालांकि श्रुति के यहाँ व्यंग्य का स्वर और अधिक तीखा है। सुजाता अपनी कविताओं में विमर्श के दायरे का विस्तार करती हैं और समय की नयी चुनौतियों से टकराती हैं। इंदु सिंह विवेकपूर्ण ढंग से स्त्री के पत्र को सामने लाती हैं, तो सपना भट्ट नारी की शक्ति को रेखांकित करती हैं, वह लिखती है- ‘रोने की आदत ने हमें, कायर नहीं, साहसी बनाया।’ अनुपम सिंह स्त्री विमर्श के उस पक्ष को सामने लाती हैं, जिसे चर्चा में लाया जाना अभी बाकी है। कह सकते हैं कि वह अग्रगामी स्त्री चेतना की कवि हैं।
चित्र - सोनी पाण्डेय
जसिंता केरकट्टा इस चयन में शामिल एकमात्र आदिवासी कवयित्री हैं, जबकि पिछले दो दशक में हिंदी में बड़ी संख्या में आदिवासी-दलित कवयित्रियाँ सामने आयी हैं, सो किसी भी चयन में उन्हें और अधिक जगह मिलनी चाहिए थी। साथ ही ज्योति चावला, मृदुला शुक्ल, अनुराधा सिंह, सीमा संगसार, निवेदिता, पूनम शुक्ल, शिखा मौर्य आदि के काव्य वैशिष्टय को भी रेखांकित किया जाना चाहिए, तभी दो दशक की स्त्री कविता का पूरा परिदृश्य सामने आ सकेगा। फिलहाल और सबसे अंत में, इस चयन में शामिल एक और कवयित्री नेहा नरूका की चर्चा करना चाहूँगा। सोच और व्यवहार दोनों ही स्तर पर बहुत अधिक सौम्य और शांत दिखने वाली नेहा अपनी कविता में हमें सिर्फ चौंकाती नहीं है, बल्कि कई बार बहुत डरा देती है। वह हमारे आस-पास के सुपरिचित यथार्थ के कुछ ऐसे पक्षों को सामने लाती हैं कि बस...। उनकी एक कविता की महज तीन पंक्तियाँ देखिएः
‘‘मैं उन बच्चियों को जानती हूँ
जिनकी माएँ जब मायके गयीं
तो वे भयभीत रहीं अपने पिताओं से भी’’
यह कुछ -कुछ ऐसा ही है कि आप एक नरम वस्तु को ‘बिन बैग’ समझकर आराम से टेक लगाकर बैठे हों, कि अचानक कोई स्त्री आकर कहे, ‘आप तो अजदहे की पीठ पर बैठे हैं।' सोचिए फिर आपकी क्या हालत होगी। कुछ इसी तरह, आज की स्त्री कविता हम जिस यथार्थ के बीच सुकून और इत्मीनान के साथ जी रहे होते हैं, उसके भयावह पक्ष को अचानक हमारे सामने उजागर कर देती है।
मदन कश्यप
बेटिना-2786, महागुन मॉडर्न
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मो. 9999154822
मदन कश्यप
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