नताशा की कविताओं का संसार समूची धरती है,दृष्टि का गहन आलोक उन्हें प्रकृति के उपादानों से मिलाता है तो कविता में नदी, बादल,पहाड़ उग आते हैं।वह रिश्तों के उलझे सूत सुलाझाते -सुलाझते स्त्री जीवन के बारीक तहों में जब पहुँचती हैं, उनकी राजनैतिक चेतना उभर कर हमारे सामने आती है ,जिसे यहाँ प्रस्तुत ईश्वर शीर्षक कविता में देखा जा सकता है-
ईश्वर जितना इन दिनों कमजोर हुआ
पहले कभी नहीं
जितना बदनाम हुआ
पहले कभी नहीं
ईश्वर की इतनी खरीद -बिक्री
पहले कभी नहीं हुई
ईश्वर न्याय से न्यायालय पहुंचा
अभी भी
ईश्वर पर फैसला आना बाकी है !
अक्सर हम प्रेम में उन कविताओं को पढ़ते रहे हैं जो हमसे समय के साथ दूर होते जाते हैं,नताशा दाम्पत्य प्रेम की कविताओं में उन तमाम बातों का जिक्र करती हैं जो अब तक स्त्री कविता के पन्नों पर पूरी तरह मुखरित होना शेष हैं।वह लिखती हैं-
नहीं लिखती स्त्रियाँ पतियों पर कविताएँ
इस बात को याद रखकर भी मैं लिख रही
कि उनके नायक सदैव प्रेमी ही रहे
प्रेम - कहानियों से गुमशुदा होते ये पात्र
ताउम्र ख़लनायक होते रहे दर्ज़
फिर भी ...
मूलत: बिहार के कस्बाई शहर मनेर में शिक्षिका नताशा लेखन,शिक्षण के साथ-साथ विभिन्न आन्दोलनों में सक्रिय चेतना सम्पन्न स्त्री कविता की सजग नागरिक हैं।इनकी कविताएँ चिखता हुआ विद्रोह न होकर बड़ी सुघड़ता से वाह्य जगत से स्त्रियों की सामाजिक सनरचना पर सवाल पूछती हैं।प्रस्तुत हैं आज नताशा की कविताएँ-
1.
ईश्वर -
(1)
सबके अपने-अपने ईश्वर थे
अपने तर्क अपने पक्ष थे
सभी गुनहगार ईश्वर की निगरानी में थे ।
( 2)
उन्हीं गुनहगारों में एक मैं
अपने लिये ईश्वर तलाशती रही
जिसे अपने एकांत में पूज सकूँ
मेरी गलतियों का साक्षी वह
मुझे माफ़ करता रहे
( 3)
ईश्वर जितना इन दिनों कमजोर हुआ
पहले कभी नहीं
जितना बदनाम हुआ
पहले कभी नहीं
ईश्वर की इतनी खरीद -बिक्री
पहले कभी नहीं हुई
ईश्वर न्याय से न्यायालय पहुंचा
अभी भी
ईश्वर पर फैसला आना बाकी है !
(5.)
तुम्हारे मृत होने की घोषणा भी
उतनी पीड़ादायक नहीं थी
जितनी तुम्हारे जीवित होने के प्रमाण हैं!
तुम्हारी जगह हर घर में है
पर रहते तुम कहीं नहीं हो ।
2.
दाम्पत्य के एक दशक
अनमने दिन की पीठ पर चलते हुए
लौटते हो थककर छाँव की तलाश लिए
तब भी कागज पर घिसा हुआ सा मेरा कुछ
तुम्हारी कान की ओर अपलक निहारता है
-"देखना तो,कैसा लिखा है ?"
घडी की सूई भी जब हो रही एकमेक
तब भी अपने वितान में उलझा मेरा मन
गर्दन के स्पर्श को झटक देता है
कमरे के उनींदे उजास में
बेआवाज़ बिखर जाते तरंगित स्पर्श
सर्द से जड़ हो जाते कामनाओं के दूत
मेरे व्यस्ततम क्षणों में उबासी के लिए जगह है
थकान और नींद के लिए भी
अपराध -बोध का यह बोझ
दिन - ब - दिन मेरे कंधे के दर्द को बढ़ाता है
जब तुम याद दिलाते हो
कि मैं भूल गई हूँ प्रेम करना शायद !
मैंने कई रोज़ से झाँका नहीं
उन आँखो को जो कभी आइना हुआ करती थीं
भरा नहीं हथेलियों में तुम्हारा चेहरा
पता नहीं कब से
इतनी बार में
तो प्रेमी भी चुन लेते विकल्पों की राह
प्रेमिका की चौखट से लौटकर
हृदय के सांकल में उलझी ऊँगलियां
देर तक रहतीं
प्रतीक्षारत उधेड़बुन में ...
इसलिए ,
कि देह की उपस्थिति
हाथ बढ़़ाने की दूरी भर है
और प्यास के बहुत करीब है सोते का मीठा जल
कोई जल्दी नहीं रहती प्रेमालापों की
इस आश्वस्ति में महीनों बीत जाते हैं
नहीं लिखती स्त्रियाँ पतियों पर कविताएँ
इस बात को याद रखकर भी मैं लिख रही
कि उनके नायक सदैव प्रेमी ही रहे
प्रेम - कहानियों से गुमशुदा होते ये पात्र
ताउम्र ख़लनायक होते रहे दर्ज़
फिर भी ...
3.
छूटी हुई चीजें
प्रसव वेदना में जननी का सुख दीप्त है
रुदन में आदि मनुष्य का हास्य
एक स्वर
जो क्षितिज के पार हो मद्धम स्वर में
गाने लगते जीवन के गीत
साँझ की नर्तकियां
दिया - बाती का मेल कराती ओठों से बुदबुदाती हैं मंत्र
मन के सूने प्रकोष्ठों में
अपरिचित - सी आहट से कांपती है देह
खोल देती है वर्षो से बंधी गाँठ को
प्रेमी विदा हुए छोड़
राग -विराग के अनचीन्हे चिन्ह
छत की उस मुंडेर पर
स्मृतियों की स्मारक इस देह में
प्रेम की आवाजाही प्राण फूंकती है
यदि तुम प्रेम की पीठ पर स्पष्टीकरण लिख रहे
तो बंद कर देना पिछला दरवाज़ा
चुंबन धरते आँखे नहीं मुंदी बेपरवाह
तो कलपने दो होठों के उतप्त गुप्तचरों को
क्षितिज के छोर पर नृत्य करती चाहनाएं
संभाले रखती हैं सिर पर
अतृप्त इच्छाओं के कलश ताउम्र
आओ प्रेयस!
कि गुलाल का कोई मौसम लाने से आता है
कि दीप जलाने से ही दीवाली आती है ।
4.
साथ-असाथ
मैं लेटी थी पीठ की ओट किए
एक प्रेम कविता पढ़ने के बाद
मन किया सहलाऊं तुम्हारे बाल
रख दूं गालों पर गर्म चुंबन
यह जानते हुए कि तुम मेरे नायक नहीं हो
तुम भी ऊबकर मोबाइल की क्रियाकलापों से
मेरी पीठ पर कोई चित्र उकेर रहे थे
यह जानते हुए कि उस चित्र में मेरा चेहरा नहीं था
आपसदारी का साझा ठीया
जहाँ फलीभूत होती रहे हमारी अव्यक्त कामनाएँ
हमने निजी स्वप्न साकार किये
अब देह से मिलती नहीं देह अक्सरहां
तब भी उपस्थित हैं एक दूसरे की अनुपस्थिति में
वाशिंग मशीन में मिलते हैं दोनों के कपड़े
सिंक में बतियाते हैं झूठे बर्तन
दोनों की चप्पलें दरवाजे पर पहरे देते साथ
तिथियों की आवृत्ति में
गठबंधन के विलुप्त सिराओं ने बाँधे रखा है एक पूरा संसार
हम एक दूसरे के साथ हैं
असाथ हैं नदी के दो किनारे ।
5.
चीज़ों से गुज़रते हुए
फूलों का कोई वज़न नहीं होता
यह सोचते वक्त
मालिनों के पीठ के छाले मत भूलना
मत भूलना
यह सोचते वक्त
कि रात निद्रा में है
श्वास के आरोह-अवरोह में लिप्त
यह महुए की टप -टप में जागी रहती है।
चिहुंकता है खग-शावक रह -रह क्यों
मत भूलना
कि नीद में उसने गति नहीं भूली।
घड़ा टूटने का दर्द
चाक जानता है
और उससे अधिक कुम्हार के हाथ!
पहाड़ तपस्या में लीन है
या पृथ्वी की छाती देख ठिठक-सा गया है
यह सिर्फ पानी जानता है
कि पहाड़ का गलना
नदी हो जाना है।
6.
छोड़ना
हम छोड़ देते हैं रोज़ ज़रूरी बात
वे छोड़ देते हैं अपनी सूची में मेरा नाम शामिल करना
मैं जिरह नहीं करती इस आश्वस्ति मेें
कि छूटे हुए लोगों की भी एक सूची होती है
मेरे 39वें वसंत में भी वह अधूरी इच्छा शामिल है
कि छोड़ जाते कागज़ का कोई टुकड़ा मेज़ पर
तुम्हारे देर लौटने से पहले मैं जान जाती
कि तुम देर से लौटोगे
मुझे रोज़ घर छोड़ते - छोड़ते
तुमने छोड़ दिया यह रस्ता
मैंने भी छोड़ दिया आखिर
तुम्हारी राह तकना
कितनी तो स्मृतियां हैं
स्त्रियों के जीवन में छोड़े जाने को लेकर
कहां तक गिनाऊं
लड़कपन छोड़ा
पीहर छोड़ा
छोड़ी न जाने कितनी शाम विदाई की कोख में
गौतम ने छोड़ा उस स्त्री को
जो बुद्धत्व का रहस्य जान सकती थी
राम ने छोड़ा जानकी को
जिसने छोड़ दिया था वैभव प्रेम के पीछे
तुम कहते हो बार-बार
कि छोड़ो ना
जाने दो
पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे
तो याद रखना
पानी में रहकर मगर से बैर नहीं करोगे
तब भी नहीं बचोगे
जब तक पानी बचाने की ज़िद नहीं होगी तुममें
इस ज़िद को मत छोड़ना
एक कापुरुष छोड़ देता है बलात्
स्त्री की देह पर अनगिन घाव
एक प्रेमी घाव पर रख चुंबन
छोड़ देता है महीनों ना भूली जाने वाली स्मृति
पृथ्वी छोड़ रही है अक्ष
पक्षी छोड़ रहे हैं वृक्ष
नदिया छोड़ रही है रेत
हम छोड़ते जा रहे कर्तव्य
अधिकार की लिप्सा में
इससे पहले कि पिघल जाए ग्लेशियर
पकड़ ले छूटते लम्हों के पंख
फिसल भी जाए हाथों से
तो रह जाए उंगलियों पर इंद्रधनुष चिन्ह !
7.
दक्षिण दिशा
जिस दिशा में गमन करती हैं आत्माएँ
श्वास के आरोह-अवरोह से
खलल पड़ती उनकी निद्रा में
तीनों दिशाओं ने मंत्रणा कर
जात बाहर कर दिया इस दिशा को
हमारी पुरखिनें
जो झेलती रही ताउम्र लांछन, उपेक्षा
उन्हें भी दया नहीं आई
दक्षिण दिशा पर
कभी नहीं दिया अर्घ्य उस ओर
नहीं उठे प्रार्थना के कोई हाथ !
आजी अपनी कहानियों में
डरी रहतीं सदैव उन स्त्रियों से
आँचल में छिपा , देती हिदायतें अक्सर
-"उस दिशा की ओर मुख कर खाने वाली
डायनें हुआ करती हैं ।"
मैंने ताउम्र अंधेरे का सूत्र पकड़
उस स्त्री को तलाशा
जिसकी छाती भी कभी दूध से भींगी होगी !
मैं सबसे छिपकर सोऊंगी कोई रात इस दिशा की ओर
मरकर नहीं, जीते जी !
शायद एक इंच भी खिसके सवाल का वह पत्थर
जो सदियों का बोझ बना है मेरे हृदय पर
इस दिशा की तमाम गलियां
मृतकों की देह से भर गई है
कोई सांस भर फूंक दें
कि जी उठे दक्षिण दिशा!
परिचय-
नाम- नताशा
जन्म - 22 जुलाई 1982 बिहार
शिक्षा – एम. ए .हिन्दी साहित्य, (पटना वि.वि.)
बी.एड. (राँची कॉलेज, राँची), पत्रकारिता, (एन.ओ.यू), संगीत शिक्षण।
पुस्तक- 'बचा रहे सब' (कविता संग्रह)
मुन्नी का है आज जन्मदिन - सर्व शिक्षा अभियान मध्य प्रदेश के तहत बालगीत संग्रह प्रकाशित
कविताएं प्रकाशन - प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं तथा ब्लॉग पर में कविताएं, आलेख,समीक्षा एवं कहानियाँ प्रकाशित । कई पत्रिका विशेषांकों में कविताएँ संकलित ।
दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से निरंतर रचनाएं प्रसारित ।
शिरकत -नीलाम्बर कोलकाता , भारत भवन , रज़ा फाउण्डेशन , साहित्य अकादेमी इत्यादि महत्वपूर्ण मंचों से कविताएँ वाचन ।
अनुभव- पटना से निकलने वाली लघु पत्रिका 'चेतांशी' तथा 'वातायन प्रभात' में क्रमशः रिपोर्टर और समन्वय संपादक के कार्य का अनुभव । पटना दूरदर्शन में 'साहित्यिकी' कार्यक्रम का निरंतर संचालन ।
संप्रति- बिहार सरकार के अन्तर्गत उच्च माध्यमिक विद्यालय में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन ।
पुरस्कार एवं सम्मान - भारतीय भाषा परिषद् युवा कविता पुरस्कार (कोलकाता) फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार (पटना विवि) वुमन एचीवर्स अवार्ड्स 2018 साहित्य के लिए । पाखी देश विशेषांक कविता पुरस्कार
संपर्क-
नताशा
C/O-डी.एन.बैठा
आजाद नगर ,
पोस्ट- मनेर
जिला -पटना ,पिन-801108
मोबाइल-9955140065/9708707504
ईमेल- vatsasnehal@gmail.com
कविता की दुनिया विविध प्रयोगों से भरी हुई है,आपकी कविताएॅ यह सिद्ध करती है,जब हम प्रयोगों से गुजरते है तभी एक मुकम्मल इंसान बन पाते है। आपको बथाई
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