कार्तिक की ठंडी भोर में मिला उसका शव
परदेसी पति लौट आया शरीर पर बने घावों का दाम लेने
गाँव के चुनाव का खेल ही उलट गया
अगड़े-पिछड़े, झूठ-सच, दुष्कर्म-अकाल मृत्यु, पुलिस-अस्पताल
, अग्नि-आकाश, राजनीति- जाति, खुदबुद-खुदबुद
सरकारी अस्पताल में चुपचाप बैठा वह जूनियर डॉक्टर हतप्रभ होकर सोचता है
आदमी और गीदड़ के दांतों का अंतर
उपासना की आवाजाही गाँव से शहर की बनी रहती है,उच्च शिक्षा प्राप्त उपासना कुछ दिनों पत्रकारिता से जुड़ी रहीं और इन दिनों बिहार में शिक्षण कार्य करते हुए शोध कार्य को पूरा करने में व्यस्त हैं।महामाया शीर्षक कविता में उपासना के तेवर साफ देखे जा सकते हैं।वह पितासत्ता के साथ -साथ धर्म सत्ता से भी सवाल पूछने से गुरेज नहीं करती हैं-
सोचती हूँ तुम अगर बचपन में चोरियाँ करती तो क्या वैसा दुलार मिलता!
तुम भी गाँव के सभी पुरुषों संग रास रचाती तो क्या भगवती कहलाती
गौ-चारण के बहाने तुम कालिंदी-तट पर प्रेयस से मिलती तो गाँव आह्लादित हो भावमग्न रहता!
गीदड़ के दाँत
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आठ महीने की गर्भवती वह स्त्री
रुग्ण काया और शिथिल कदमों से कछुए की तरह
पैरों को घसीटती हुई दवा की दुकान गयी थी
इस देश की असंख्य स्त्रियों की तरह न वह पति को प्यारी थी
न ससुराल को
मायका भी कन्यादान को तिलांजलि मान संतुष्ट बैठा था
उसकी खोज-ख़बर कोई नहीं लेता
वह कितने दिनों की भूखी थी या रक्त कितना कम था यह कौन पूछता ?
थककर खरगोश की तरह लौटती बेर एक पेड़ के नीचे सो गई
कार्तिक की ठंडी भोर में मिला उसका शव
परदेसी पति लौट आया शरीर पर बने घावों का दाम लेने
गाँव के चुनाव का खेल ही उलट गया
अगड़े-पिछड़े, झूठ-सच, दुष्कर्म-अकाल मृत्यु, पुलिस-अस्पताल
, अग्नि-आकाश, राजनीति- जाति, खुदबुद-खुदबुद
सरकारी अस्पताल में चुपचाप बैठा वह जूनियर डॉक्टर हतप्रभ होकर सोचता है
आदमी और गीदड़ के दांतों का अंतर
महामाया
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ओ मेरी कुलदेवी!
कृष्ण की भगिनी
तुम्हारा नाम महामाया किसने रखा!
किशोरवय में 'माया महाठगिनी' सुनकर मैं विस्मित होती थी
सोचती थी तुमने किसका क्या ठगा!
बाद में बताया गया कि ' ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या'
सत्य तो तुम्हारा भाई था और तुम मिथ्या!
भाद्रपद के कृष्ण-पक्ष की मध्यरात्रि में
तुम भी तो जन्मी थी
लेकिन तुम्हारे प्राण का मोल कम था जोगमाया
भाई के अनमोल जीवन में अनगिनत बहनों का
चुपचाप मार दिया जाना पुरानी परंपरा रही देवि!
सोचती हूँ तुम अगर बचपन में चोरियाँ करती तो क्या वैसा दुलार मिलता!
तुम भी गाँव के सभी पुरुषों संग रास रचाती तो क्या भगवती कहलाती
गौ-चारण के बहाने तुम कालिंदी-तट पर प्रेयस से मिलती तो गाँव आह्लादित हो भावमग्न रहता!
पांचजन्य फूंकती, चक्र चलाती, गीता का ज्ञान देती हुई
तुम्हारी ओजस्विनी काया की कल्पना करती हूँ
धर्म के नाम पर अपने बांधवों का रक्त बहाने पर संसार तुम्हें पूजता!
मुझे भय है कि तुम्हें हर कदम पर लांछित और अपमानित किया जाता...
इसी दुनिया की बातें
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स्त्री सुन्दर हुई तो तुमने उसके सौंदर्य पर कालिख मली
कमनीय हुई तो कहा काया का जाल पसारती है
लंबी हुई तो तुमने उसे असम्भव कहा
कद में छोटी हुई तो छाँट दिया
काली हुई रंग में तो तुम उसे बचपन से दिखाते रहे आईना
चमड़ी हुई उजली तो तुम उस पर तेजाब से कलाकृति बना देते रहे
वजन बढ़ गया तो भैंस हो गयी
दुबली रही तो कंगलो के घर से आई कहलाई
कभी तुमने उसे विषवृक्ष कहा कभी मायाविनी
तुम उसे रिझा न सके तो मानिनी हो गयी
दबा न सके तो दुष्टा, पा ना सके तो कुलटा
कलंक का जल सदैव उसपर छिड़कने को आतुर रहे तुम
हँसती मिली स्त्री तो चरित्रहीन हो गयी
गम्भीर हो गयी तो घमंडी
डिग्रियाँ न बटोर सकी तो मूर्खा हो गयी
पढ़ कर कुछ बन गयी तो फूहड़ कह दिया उसे
बच्चा नहीं जन्मा तो बाँझ हो गयी
बेटियों की माँ बनी तो बोझ हो गयी
औरतों ने तुम्हारे घरों को स्वर्ग बनाया और वे खुद नर्क का द्वार हो गईं
तुमने उसे जब भी देखा संदेह और संशय से देखा
काश तुम स्त्री को प्रेम से देखना सीखते
फाँस गड़ी है करेजवा में
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चूल्हे में लकड़ियाँ और अपना जीवन झोंकती किसी भी औरत को बेर-कुबेर घर-दालान के बाहर
ओसारे के पीछे
हवा-बयार में कौन सी डाकिन इन्हें कब कैसे ग्रस लेती है
कोई नहीं जानता
बंसबाड़ियों से न जाने कितनी कथाएँ हवा में तेज टिटकारी मारती चीलों सी उठती हैं
तेज तीख़ी आवाज़ में अट्टाहास करती ये औरतें गाँव भर की चटखारेदार गप्पों का केंद्र बनी रहती हैं
कैसे फलना-बहु देह उघाड़ कर ठाकुरबाड़ी पर लोट गयी
कैसे फलना की पुतोहु अपनी कोठड़ी बन्द कर टिहुक पार रोती रही
गाँव की कुलदेवी, ब्रह्म देवता और ओझा-भगतों की महिमा कुछ और बढ़ जाती है
ये बेसुध पीले मुखों वाली औरतें, ये बिखरे केशों धूल सनी औरतें
ये कभी बड़बड़ाती कभी सोती कभी रोती औरतें
ये कलही-कुटनी कही जाने वाली औरतें
ये गुम पड़ी गूँगी हुई औरतें
ये शून्य में निहारती औरतें
करूण आवाज़ में बटगमनी गाती ये औरतें
ये सदियों से मार खाती औरतें
ये तरुणाई में ब्याही गयी औरतें
ये साल दर साल बच्चे जनती औरतें
ये भूत-प्रेत-पिचाश ग्रस्त, रक्तहीन, वयसक्षीण औरतें
इन्हें ओझा-वैदाई, पूजा-बलि, मंत्र-तंत्र नहीं
माथे पर रखा ममत्व सना एक हाथ चाहिए और सुनने वाला गहरा हृदय
ये बिलख-बिलख कह जायेंगी कि कौन सी
फाँस गड़ी है करेजवा में
मेरे गाँव की लड़कियाँ
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गाँव की छाती पर पैर रखकर सरपट दौड़ती जा रही हैं
मेरे गाँव की लड़कियाँ
हाँफती-काँपती, सिर पर पैर रखकर भागती जा रही हैं ये नन्हीं किशोरियाँ
घर लीपतीं, चूल्हा-जोड़तीं, बासन माँजती, घर का सौदा-सुलुफ लातीं, गाली खातीं
कब बन गईं ये अदद जीवित मनुष्य!
बभनटोले से लेकर जुलहाटोल तक टुनटुना रहा है नए समय का औजार!
गालियों के स्वस्तिवाचन से आकाश कट कर गिर रहा
सूर्य की तरफ मुँह करके दैव को अरोगती ये मातायें
उनके पैदा होते ही मर जाने का अरण्य श्राप जाप रहीं
दबी फुसफुसाहटों में इन अभागिनों के उरहर जाने की कथाएँ
प्रागैतिहासिक काल से सुन रहा है स्तब्ध गाँव
एक तरफ बेमेल विवाह का गड्ढा है दूजी तरफ कमउम्र का मातृत्व
निशीथ-रात्रि या सुनसान दुपहरों में कौन दैत्य इन बालिकाओं को गायब कर रहा
कौन बरगला रहा है इन सिया-सुकुमारियों को
हर छमाहे, साल बीतते कोई न कोई लड़की भाग जाती है
इस विकट दुष्चक्र को तोड़ना क्या संविधान में लिखना भूल गए थे मेरे पूर्वज
और उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बस समझा जाँघ पर बिठाकर पुण्य अर्जने का सामान
उपासना झा
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