बिहार की मिट्टी से इन दिनों कविता में स्त्री स्वर तेजी से मुखर है,गाथांतर पर उपासना झा,नताशा के बाद सीमा संगसार तीसरा नाम हैं कविता की इस कड़ी में जो बिहार की युवा स्त्री कविता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।विचार सम्पन्न एक्टिविस्ट कवयित्री सीमा की कविताओं में स्त्री मुक्ति और चेतना के स्वर तीव्रता से मुखर हैं।वह पितासत्ता से सीधे मुटभेड़ करती हैं और सवाल दर सवाल पूछते लिखती है-
मैने तो चाहा था
बस प्रेम !
जो तुम योद्धाओं के शब्दकोश में
था ही नहीं
मैं प्रेम को खंगालती रही आजीवन
तुम्हारे सपाट वक्षों में
लेकिन मुझे मिला भी क्या
वही नीति वचन
और /कोरे आदर्श
कुंती के बनाए कठोर नियमों पर चलने वाले
पंच तपस्वियों का संग ....
इन दिनों तेजी से स्त्रियों की आदर्श नायिकाओं के चेहरे बदल रहे हैं,वह पौराणिक स्त्री पात्रों से शिक्षा ग्रहण करने की जगह अपनी नायिका सावित्रीबाई जैसे जीवन्त और प्रमाणिक व्यक्तियों को मानती हैं।वह इतिहास और पुराण के झाले साफ कर उन पौराणिक नायिकाओं पर फिरसे कलम चला रही हैं जिन्हें केवल पितासत्ता के उपभोग हेतु प्रस्तुत किया गया,आज की कवयित्रियाँ इन नायिकाओं का पुनर्पाठ कर नवीन पाठ प्रस्तुत कर रही हैं।सीमा अपने समृद्ध सांस्कृतिक, साहित्यिक कस्बाई शहर बेगुसराय के लोक जीवन के विविध पक्षों को उकेरनेवाली स्त्री कविता का संवेदनशील स्वर हैं।
(1)
पांचाली का प्रेम ....
....................................
मैने कब चाहा था कि
तुम मेरा पाणि ग्रहण करो
एक फल की भांति
और / बांट लो मुझे
अपने भाइयों के बीच ....
मैने तो चाहा था
बस प्रेम !
जो तुम योद्धाओं के शब्दकोश में
था ही नहीं
मैं प्रेम को खंगालती रही आजीवन
तुम्हारे सपाट वक्षों में
लेकिन मुझे मिला भी क्या
वही नीति वचन
और /कोरे आदर्श
कुंती के बनाए कठोर नियमों पर चलने वाले
पंच तपस्वियों का संग ....
प्रेम की अग्नि से
उत्पन्न हुई
मैं पांचाली
वेदों और ऋचाओं में
ढूंढ़ती रही
प्रेम की परिभाषा
लेकिन मुझे तो मिला
एक अभिशप्त जीवन
प्रतिवर्ष शयनकक्ष बदलने का
ताकि तुम बारी - बारी से
करते रहो भरपूर उपभोग मेरा ?
लेकिन ये मत भूलो
कि मैं केशमुक्तिनी
प्रतिशोध की ज्वाला में
दहकती हुई एक असीम अग्नि पूंज भी हूँ....
मैने अपनी नियति को
गर सहर्ष स्वीकारा है तो
काल के उल्टे पहिए को
परे धकेला भी है ...
मैं तुम्हारे द्वारा बनाई गई
तय प्रतिमानों में ढलने वाली
कोई पंचकन्या नहीं
ना ही मैं
किसी और की लक्ष्मण रेखा लांघने वाली सीता हूँ ...
मैने अपनी सीमाओं को
खुद गढ़ा है / खुदके परिप्रेक्ष्य में
अपनी सीमा में
किसी और का अतिक्रमण
मेरे लिए अस्वीकार्य है ....
मेरे लिए प्रेम
किसी जाति - कुल की मर्यादा का प्रश्न नहीं
एक ताप था
जिसे मैने देखा था
कर्ण की दहकती आँखों में ...
सुनो पांडव
तुमने कोई स्वांग नहीं रचा
मेरे लिए
छल तो मैने किया
तुम्हारे साथ
आजीवन कर्ण को अंगीकार करके ...
युधिष्ठिर
तुम्हें क्या लगा था
कि तुमने मुझे
दांव पर लगा दिया था
अपनी संपत्ति समझ कर
तो शायद तुम भूल रहे हो
पासा तो उस दिन मेरे हाथ में था
और तुम सब के सब मोहरे बने
मेरे ही बिछाए चौसर के ....
शिव ने तो
समेट लिया था
गंगा को अपनी जटा में
लेकिन मैने तो खोल दिया था उसे
क्योंकि तांडव करने की बारी
अब मेरी थी ....
मैने ललकारा
अपने स्त्रीत्व को
अपनी काल की सीमाओं से परे जाकर
ताकि स्मरण रहे
किसी स्त्री ने भी भरा था
हुंकार
महाभारतकालीन युग में ....
कैफेटेरिया...
..........................
खुले बालों को समेटती हुई
टैब पर फिसलती अंगुलियों से
शहर भर का ट्रैफिक कंट्रोल करती हुई
फूल वाल्यूम म्यूजिक को
हेड फोन से मिनिमाइज करती हुई
जिन्दगी जीने का हुनर सीखती हैं
ये आज की वुमनिया ....
लव - ब्रेकअप के डिप्रेशन को
कोकाकोला के साथ गटकते हुए
चबाती हैं धीमे - धीमे उन इमोशंस को
पित्जा के स्वीट कार्न की तरह ...
सोशल मीडिया पर सर्वाइव करने वाली
ढूंढ ही लेती हैं अपने लिए
साइबर कैफे का एक कोना
चिल्ड होकर करती हैं दुनिया जहान की बातें
बॉस की किटकिट को भून लेती हैं
कुरकुरे स्नैक्स की तरह ...
कहानियों व कविताओं की पूरी डिक्शनरी को
कोहनियों में समेट कर रचती है अपना संसार
फैमिली और वर्कआउट्स के साथ जंपिंग करती हुई
वीकेंड का करती हैं इंतजार साथ गुजारने के लिए ..
छोटे से आंगन को समेट कर
पृथ्वी के नक्शे पर थिरकती हुई
यह वुमनिया खुद.एक कैफेटेरिया बन चुकी हैं
सुकून के दो पल और चेहरे पर चौड़ी सी मुस्कान
उनके उमगते सपनों के लिए काफी है ....
बदनुमा दाग ...
........................
जब आप किसी स्त्री के
बदन पर
गर्म चाय की प्यालियां
उङ़ेलते हो
तो वह चाय नहीं
अपनी कुंठा , क्षोभ और अपने पौरुष को
उङ़ेलते हो ...
इससे पहले कि आप
उङ़ेल दो
उसके चेहरे पर
दहकता हुआ चाय
वह बदनुमा धब्बे के साथ
अपनी सत्ता को स्थापित कर चुकी होगी ..
कि स्त्रियां चेहरे की नहीं
अपनी पहचान के लिए आतुर है ...
(4)
उल्टे पाँव
----------
कहते हैं
उल्टे होते हैं
भूतनी के पाँव
क्यों न हो
उल्टे पाँव वापस जो आती हैं
स्त्रियाँ
सीधे शमशान घाट से---
सौ व्रत व पुण्य भी
जो कमाया उसने जिन्दगी भर
आरक्षित न करा सकी
स्वर्ग में
अपनी जगह
अधजली लाश
फंदे पर झूलती औरतें
कहां छोड़ कर जा पाती है ?
अपनी यह दुनिया
प्रसव पीड़ा से कराहती
ये औरतें भी
वापस आ जाती हैं
उलटे पाँव
अपने दुधमूंहे बच्चों के पास
घर की चारदिवारी
जो कभी लांघ न सकी
सीधे पाँव
अपनी जिन्दगी में
बरबस खिंची चली आती है
स्वर्ग लोक से
उल्टे पाँव---
लोग जो डरते नहीं जीते जी
औरतों से
डरावनी हो जाती हैं
ये औरतें
मरने के बाद
चूड़ैल बनकर करती हैं
अट्ठाहास
शमशान घाट से
उल्टे पाँव भागी हुई औरतें ----
ऐ स्त्री तुम्हारा नाम क्या है ?
तुमने मुझे
बोलने से रोका
मैं मौन हो गई
बुद्ध की तरह...
तुमने मुझे
पढ़ने से रोका
मैं बना ली दूरी किताबों से
पढ़ने लगी कोई धार्मिक ग्रंथ
जिसे तुम ले आए थे मेरे लिए
शादी की पहली ही वर्षगांठ पर
मेरी नास्तिकता को समझते हुए ....
तुमने मुझे
लिखने से रोका
मैने प्रवाहित कर दिया नदी में
अपनी कविताओं को
उतारने लगी अपनी डायरी के पन्नों पर
मसालेदार रेसिपीज ...
तुमने मुझे
सभा सम्मेलनों में जाने से रोका
मैने बाहर निकलना छोङ़ दिया
मेरे कदम खुद - ब - खुद
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे ...
तुमने मुझे
हँसने पर रोका
मैने हँसना छोङ़ दिया
मैं सीखने लगी
मुस्कुराने की तहजीब ....
तुमने मुझे
मर्यादाओं के बंधन में बाँधा
मैं ढूँढने लगी
अपने हिस्से की नियमचर्या..
तुमने मुझे
प्रेम करने से रोका
मैने जीना छोङ़ दिया
मैं अब वह कठपुतली भी न रही
जिसे जैसे चाहो
तुम नचा सकते थे
मैं तो बस अब एक
गंध मारती लाश हो गई हूँ
जिसे तुम जितनी जल्दी हो सके दफना दो
यह तुम्हारे हित में है ....
मैं इस एक जन्म में
न जाने कितनी बार
शमशान घाट गई / जलाई गई...
तुमने मुझे
जितनी बार अलग - अलग तरीके से मारा
मैं उतनी ही बार
वापस लौट आई
इसी शहर में
फिर से तुम्हारी पत्नी / माँ / बहन / प्रेमिका और बेटी बनकर .....
चित्र-आरती वर्मा
(6)
एक स्त्री का काम पर लौटना ...
एक स्त्री
जब काम पर लौटती है
भूल जाती है
भगोने पर रखे
खौलते दूध को
उसे याद रहती है तो बस
अपनी उफनती हुई दिनचर्या ....
एक स्त्री
जब काम पर लौटती है
वह कङ़क होने लगती है
धीरे - धीरे
कलफ लगी सूती साङ़ी की तरह
जिसके क्रीच पर
टिका होता है
उसका अस्तित्व ....
एक स्त्री
जब काम फर लौटती है
भूल जाती है
घर का वह कोना
जहाँ वह एकांतिक क्षण पाती है
उसे तलाशनी होती है
लोगों और भीङ़ के बीच
अपनी स्वतंत्र अस्मिता ....
एक स्त्री
जब काम पर लौटती है
वह दबा देती है
अपनी देह की गंध को
डियो के चंद स्प्रे से ....
एक स्त्री
जब काम पर लौटती है
तो वह अपने स्त्रीत्व.का
बना डालती है
एक नया क्लोन ...
एक स्त्री काम पर जाती हैं घर लौट आने के लिए .....
चित्र-आरती वर्मा
(7)
बंद दरवाजे और खुली खिड़कियां
कुंडियां लगा दी जाती हैं
बंद दरवाजों में
उसके बाहर निकलने के
सारे रास्ते
बं हो जाते हैं
फिर आहिस्ते से वह
खोलती है
अपने दिमाग की खिड़कियां
जब वह भोग रही होती है
अपने एकांत को ...
विचारों की कई लड़ियां
मछलियों की तरह
फिसलती जाती है
और वह
लगा रही होती है
गोता उनके साथ
बहते पानी में...
दरवाजे बंद हो तो क्या
खुली खिड़कियों से
ताजी हवा के झोंके
अंदर आ ही जाती हैं ...
5 तुम्हें होना था नागफनी ...
...................
तुमने आकाश की
लंबाई - चौङ़ाई को
मापना चाहा
अपनी कोमल बेल -लताओं से
काट दिए गए
निर्ममता से
तुम्हारे जङ़
खुले बालों की तरह
कैंची से
खपचते हुए ....
तुमीने धरातल की
गहराइयों में
उतरना चाहा
अपने वजूद को
दृढ़ता प्रदान करते हुए
उखाङ़ दिए गए
तुम्हारे सारे अरमान
समूल / सहअस्त्तिव के साथ ...
तुमने प्रेम किया
धरती के सुंदर लोगों से
उन्ह़ोंने रौंद डाला तुम्हें
अपने ही कदमों तले
कि तुमने जन्म लिया
एक मायावी लोक में
जहाँ दिखने वाले
सभी सुंदर चेहरे
एक दिन बदल जाते हैं
दानवता में ....
सुनो लङ़की
तुम्हें होना था नागफनी
जिसे छूते ही
लहूलुहान हो जाएं
इंसान
तुम्हें धरती पर नहीं
उगना था किसी पत्थर पर
और / सारे थपेङ़ों को
झेलना था
हँस - हँस कर
कि तुम इस अंधकारमय सृष्टि की
एक सुंदर रचना हो ....
आत्म परिचय ... नाम - सीमा संगसार
पता -फुलवड़िया १ , बरौनी , बेगुसराय , (बिहार)
शहर का जिन्दा होना (कविता संग्रह)- लोकोदय नवलेखन सम्मान (लोकोदय प्रकाशन)
कहवाघर - कविता संग्रह ( अभिधा प्रकाशन)
अब तक प्रकाशित : अंतरंग, नया ज्ञानोदय , नया पथ , लहक , लोक विमर्श , दुनिया इन दिनों इन्द्रप्रस्थ भारती (हिंदी अकादमी ) ,लहक , मंतव्य सहित हिन्दुस्तान समाचार पत्र व कई अन्य पत्रिकाओं और शब्द सक्रिय हैं , स्त्री काल पहली बार आदि ब्लॉगों में रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित ... संपर्क – 9304268005
ई मेल – sangsar.seema777@gmail.com
नोट- पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र युवा चित्रकार आरती वर्मा के हैं।

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