बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

समकाल :कविता का स्त्रीकाल -18

कवि /चित्रकार वाज़दा खान समकालीन कविता में उस समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं जहाँ औरतों की आज़ादी एक मुश्किल सवाल है।मुस्लिम समाज में आज भी पर्दा प्रथा से लेकर तमाम ऐसी रूढ़ियाँ हैं जिसके तहत औरतों का मुख्य धारा में शामिल होना कठिनाइयों और चुनौतियों से भरा हुआ है।
वाज़दा खान की कविताओं का मूल स्वर प्रेम है,प्रेम के विविध बिम्ब बड़ी सजीवता से जीवन के कैनवास पर बिखेरनेवाली वाज़दा की कविताओं में प्रेम कहीं ऐन्द्रिक है तो कहीं विराट से टकराकर अपने वजूद को खोजने की अकुलाहट।                                                               


* जो सच नहीं*

तुम्हारे तलघर में सिमटा प्रेम
थोड़े समय में थोड़ा सा जीवित था
कितना पारदर्शी था 
दूर तक फैले समन्दर की तरह अथाह

बहुत सारी चांदनी रातों में
हरसिंगार के फूलों सा झरता
राग राग में बजता
फैल गया एक दिन 
काग़ज पर गिरी रोशनाई सा

छलछला आई नमी जड़ों में
शाखें पत्तियां टहनियां बेसुध होती गईं
कितने सवाल दस्तक देते रहे समय को
समय न पिघला
पिघलती रहीं शामें

पीती रही आंसुओं सा हर रात
बहती रही तुम्हारी संवेदना
जो सच नहीं कि किसी डोंगी में सवार
लाल सागर से लेकर काला सागर तक।


                                                                   
* मिथ्याभासित जगत*

एक साथ पड़ती 
पगडंडियों की कितनी मधुर 
थापें हैं मेरे भीतर 
कोई गणित नहीं कुछ भी प्रतिशत में नहीं
बस सितार की प्रतिध्वनियां 
प्रेम राग की मजलिस नज्में 
और गहन संवेदनाओं से लिपटीं 
चकित सी मासूमियत 

कैसा अनाधिकृत प्रवेश हो गया था 
बिलबिलाते दुख में माया का
कि जब तुम जल बिन छटपटातीं मछली हो गईं 
रख दो तुम अपना दुख मेरी हथेली पर 
काल की अग्नि में स्वाहा करने को 
छोड़ आऊंगी तुम्हे वापस जल में 
कुछ तो निशान बनेंगे
तुम्हारे छोटे-छोटे पंखों में 

गुजरोगी जब तुम नई-नई गाथाओं से 
हो सकता है कि तब 
शायद तुम खुद को पहचान लो कि 
ये जगत तो मिथ्याभासित है।



*इतिहास गवाह होगा*

अविश्वास की किताब पर दर्ज
तमाम तारीखें
तुमने अपने हाथों से लिखी 
फिर तुम्हीं ने उस पर टीका लिखी
जो दर्ज है हर पेड़ पौधे पर
पत्तियों की उभरी नसों पर

जन्मों तक चलेंगी टीका क्योंकि
इन्हें दर्ज होना है इतिहास में 
आने वाली सदी के लिए

इतिहास गवाह होगा





* रेगिस्तान *

आसमानी हवाओं का रुख 
मोड़ना ही होगा
दुआएं
यही एक मात्र रास्ता है
जैसे-जैसे लतर बढ़ती गई
वैसे-वैसे आसमान पीछे हटता गया

गिरी थी औंधे मुंह
मुरझा गई थी लतर सारी
मासूम पत्तियां
इतरा रही थी कल तक
चांद की शोख अदाओं पर

सच स्वीकार कर लेना था मुझे वहीं
जहां से शुरू हुई थी नदी
रेतीले जज्बातों के संग

तय है थार के
मरुस्थल से भी बड़ा
एक रेगिस्तान है भीतर
जो फैल जाएगा जो तुम्हारी आंखों की
नमी तक।।  

    
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 -*दौड़ मत लगाना *-

पागलों की तरह
अब दौड़कर मत आना
बादलों से ढके हो तो उन्हीं के साथ
बातें करना
सूरज तुम्हारे आगे हो तो अपने समय का
इन्तजार करना
मगर दौड़ मत लगाना

झील में तमाम सीपियां इकट्ठी हो जाएं
इन्तजार करें तुम्हारा युगों तक
तुम आराम से सितारों के संग आना
पर दौड़ मत लगाना

धरती अंगड़ाई ले और खिल आएं
उसमें हरसिंगार के फूल
सुगन्धित हो जाएं एक-एक नक्षत्र
फूलों का रंग जब तक नारंगी न हो जाए
तुम दौड़ मत लगाना

टहनी-टहनी, शाख-शाख पर
खिलती रहें तितलियां, धरती रहें अपने पंख
बादल-बादल पर
तुम देखते रहना वहीं से सारा
नजारा पर दौड़ मत लगाना 
जब तक कि इन्द्रधनुष आकाश में न छा जाये

रात अंधेरी हो
जुगुनूओं से काम न चले
पांवों से लेकर हृदय तक में हो जाए
जख्मों के निशान
पर तुम उगना नियत समय पर
मगर मेरे लिए तो तुम
बिल्कुल भी दौड़ मत लगाना

संचालित हैं तुमसे
न जाने कितनी जमीनें, 
मैं किसी गोल पृथ्वी का 
केवल एक छोटा सा कण
 
बस तुम्हारे सूक्ष्म रूप की परिकल्पना ही
सुरक्षित है 
किसी बयां के घोसले में

नजदीक आओगे जो 
चमत्कृत हो जाएंगी प्रतीक्षारत आंखें
सुनहरा हो जाएगा आकाश
नन्हें से घोसले में

मगर कहां समा पाओगे तुम
अपने विराटतम रूप में 
इसलिए अपनी इच्छा के विरुद्ध
कदापि दौड़कर मत आना।

                                        






      **वास्तविक समय में अवास्तविकता**



  मशाल की असंख्य गूंज थी
मछली की आंख में
और कुलांचे मारती कोई प्रतिध्वनि
खुले आकाश में

क्रमश: रोशनी के विलीन हो जाने के क्रम में
जरूरतों का कोई जिस्म नहीं था वहां
न रूह कैद थी
हद सरहद से परे 
अनियन्त्रित

कई बार सफल होती
चक्रवात और नमी के बीच
असंख्य बार असफल भी
पूरी दुनिया के चांद के
बढ़ने घटने और छुप जाने के क्रम में

अपने वास्तविक समय में अवास्तविकता से उलझी
क्या सचमुच साजिश थी?
या किसी अन्धकार युग की दास्तान
न चाहते हुये भी निराशा के अदृश्य संजाल में
फंसे रहने को विवश
छोड़ देती जन्नत और दोजख के बीच
किसी रास्ते की उम्मीद।




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अन्तर्कथाएँ


                            
 हृदय की अन्तर्कथाओं में पसरे
अन्धकार से निकलकर
कल देखा था
चांद को
सुर्ख अंधेरी रात पर
भरपूर उजाला फेंकते 
अपने संपूर्ण वजूद (गोल चांद) से

तुम उसी रूप में पहली बार आए थे
ब्रह्मण्ड की पहली रात के पास

आते ही रहे फिर

तुम रूप अरूप धरकर
दर्ज होते गए तुम अपनी
तमाम सरगोशियों 
फुसफुसाहटों की मजबूत
अदृश्य उपस्थिति के संग
उन तमाम काली रातों में
जो धरती की दरारों में
शिद्दत से समाई थी।

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*ये सच है*

बवन्डर के इस दौर में
चांद मेरे दोस्त
तुम सांस न ले रहे होते मुझमें मैं बनकर
तो उड़ा ले गया होता मुझे बवन्डर

मुझे डुबो दिया होता किसी बर्फीली
झील की अतल गहराइयों में
जम जाते मेरे सपने हमेशा के लिए

दोस्त जो मुझमें तुम
आकांक्षा बनकर न बह रहे होते
तो थम जाती ये हवा 
उड़ जाते रंग सारी दुनिया के फूलों के 

चिड़ियों के डैने
हौसला होते हुए भी
उड़ान भरने से इनकार कर देते
चांद मेरे दोस्त

और हां
मुझे ये भी याद है 
ईश्वर मिला था सचमुच तुम्हारे भीतर
एक पोटली थमाई थी उसने
कहा था संभाल कर रखना
तुम्हारे जीवन का पर्याय रूप है ये

संभाल कर रखा है उसे आज तक
क्या थी ये पोटली
कभी खोला नहीं
न खोलने का वादा जो था तुमसे
चांद मेरे दोस्त

फिर भी उससे
दु:ख छन छन कर
मेरी आंखों में गिरता रहा
निकलती रही अंतर्ध्वनि
न मांग और मन्नतें
न कर और ख्वाहिशें
न बुन और ख़्वाब
कि सब दफ्न है
तुम्हारे जलते सीने में।


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*चलती रहो निरन्तर*

मेरे भीतर उगी हुई आसमानी रातों में
उतरा चांद
निरन्तर ह्रास के क्रम में ही समाहित
कब अपनी परिपूर्णता पर उतरेगा
हर सुबह से
हर रात से पूछती हूं मैं
किन्तु वे मौन हैं

मगर मेरे भीतर रिस रहा है धीरे-धीरे
ख़ून का क़तरा बनकर
तुम्हारे भीतर तो ढेर सी
चांदनी थी
या यूं कहूं
परम शिवम् सुन्दरम् सृजित करने का
दौर तुम्हीं ने शुरू किया था

तुम्हीं ने तो कहा था
बहुत उजाला है सूखी पगडंडियों पर
चलती रहो
मैंने मुड़कर देखा तुम्हारी ओर
तो वहां रात थी
घबराकर मुंह फेरा
रात सामने आ खड़ी हुई
उजाले को रौंदती हुई
शायद अधूरापन बहुत बढ़ गया था चांद का।


परिचय


    
 जन्म-15 जून 1969

 जन्म स्थान-सिद्धार्थनगर, उत्तरप्रदेश, भारत।
 कुछ प्रमुख कृतियाँ

                                               जिस तरह घुलती है काया (कविता-संग्रह)।
 विविध
                                                 पेशे से चित्रकार 
                                                  अनेक प्रदर्शनियाँ
                                                  त्रिवेणी कला महोत्सव द्वारा सम्मानित
                                                   हेमंत स्मृति कविता सम्मान


नोट- कविताओं के साथ संलग्न सभी चित्र वाज़दा खान द्वारा बनाए गये हैं।

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