साहित्य की दुनिया में हम जिन बने बनाये मानकों के बीच घूमते रहते हैं उनमें कविता, कहानी के अतिरिक्त आज अन्य विधाओं की सामग्री ना के बराबर पढ़ने को मिलती हैं। फेसबुक ने कविता को उत्पाद बना दिया तो हर कोई चार पंक्ति लिख कर कवि होने का दावा करने लगा और सार्थक चीजों को हर किसी की पहुँच से दूर किया।पंकज जी के शब्दों में-"फेसबुक एक जंगल है और यहाँ उपयोगी पोस्टों तक पहुँचना थोड़ा मुश्किल है।"
पंकज जी के कहे से शायद ही कोई गम्भीर पाठक असहमत हो,बावजूद इसके यहाँ वाद-विवाद-संवाद की भरपूर गुँजाइश रहती है और बहुत सी साहित्यिक चर्चाओं, पुस्तकों और ख़बरों तक हम इस माध्यम से सहजतापूर्वक पहुँच जाते हैं।
इन दिनों डीजिटल दौर में फोनिक संवाद किस तरह साहित्य का हिस्सा हो सकता है का ख़ूबसूरत उदाहरण कवि/आलोचक पंकज चतुर्वेदी जी के वॉल पर देखने को मिला ।कवि आलोक धन्वा और पंकज जी का संवाद एक वरिष्ठ की जीवन और साहित्यिक दृष्टि को बेहद सुघढ़ ढ़ंग से व्यक्त करता है और हमें कभी साहित्य तो कभी उनके जीवन की गलियों में ले जाता है।
आलोक धन्वा की कविताओं में हम जिस मानवीय करुणा एवं जन चेतना का फलक देखते हैं वह ज़मीन से गहरे धसाव का प्रमाण है।वह अपने पुरखों के गाँव को याद करते मुझसे अतिशय भावुक हो जाते हैं।यह संयोग ही है कि जिला गाजीपुर, परगना पचोतर का उनका पैत्रिक गाँव लउवाडीह , राही मासूम रज़ा का गाँव गंगौली और मेरा गाँव सराय मुबारक एक ही बेल्ट में पड़ता है।ख़ूब उर्वर ज़मीन का क्षेत्र जहाँ रवि और खरीफ की दोनों फसलें गोड़ तोड़कर होती हैं,जहाँ जीवन का ठाट अपने लोक के आलोक में जगमगाता और गाता गुनगुनाता है वहाँ से आलोक जी का गहरा नाता है।
आलोक जी कभी अपने ननिहाल सेरपुर को याद करते हैं तो कभी मंगला राय पहलवान जिन्हें सितारे हिन्द की उपाधि मिली थी को याद करते हैं।इनके पुरखे रोजी -रोटी के फेर में यहाँ से बिहार गये तो वहीं के होकर रह गये।
आलोक जी ने फोनिक संवाद के दौरान जब जाना कि मैं गाजीपुर की हूँ तबसे लेकर आज तक जब भी बात हुई वह पूरी तरह भोजपुरी में होती है।गलती से भी वह एक वाक्य खड़ी का प्रयोग नहीं करते हैं।युवाओं में यह ख़ूबी युवा कवि उपासना झा में है।ख़ूब पढ़ी-लिखी उपासना का मुझसे संवाद भोजपुरी में होता है।यह सब कहने का आशय मात्र इतना है कि यह सब किसी भी व्यक्ति के ज़मीन से जुड़ाव का प्रमाण है ।
पंकज ,आलोक धन्वा संवाद केवल एक संवाद नहीं है,यह एक विमर्श खड़ा करता है और ढ़ेर सारे वाद-विवाद-संवाद के द्वार खोलता है।
पंकज जी को आभार कि उन्होंने गाथांतर पर इन संवादों के कुछ अंश प्रकाशित करने की अनुमति दी।प्रस्तुत हैं कुछ अंश-
(सोनी पाण्डेय)
(1)
आज संवाद की शुरुआत ही आलोक धन्वा ने मिर्ज़ा ग़ालिब से की : "कोई हो सकता है कि मुझे मनुष्य ही न मानता हो, लेकिन वह ग़ालिब ने कहा है न :
'ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे !'
ग़ालिब एक बड़े प्रवक्ता थे ऐसे लोगों के, जिनके वजूद को सत्ता कुचलती थी, 'इग्नोर' करती थी। इसीलिए वह कहते हैं कि हम तो आम रस्ते पर बैठे हैं, अब यहाँ से उठाकर कहाँ ले जाओगे हमें :
'दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ'
मीर और ग़ालिब बड़े कवि हैं, भारत के सौभाग्य हैं, गौरव हैं। असल में इश्क़ की, मुहब्बत की मुलाक़ातें हमें पनाह देती हैं। जितने बड़े कवि होते हैं किसी भी ज़बान के, उनका नज़रिया मुहब्बतों की महफ़िलों से आबाद होता है। ग़ालिब ने ऐसी बातें कही हैं, जो हम सोचते हैं तो आत्मा निर्मल हो जाती है। 'आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना'--यह तो कोई लिख सकता था, लेकिन
'दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ'
यह ऐसी चीज़ है कि इसे हर कोई नहीं लिख पाता। कितने 'सेंसुअस पोएट' हैं ग़ालिब : 'फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया !' या फिर :
'ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा रहगुज़र याद आया'
ऐसे कवि निराला हैं, रवीन्द्रनाथ हैं। रवीन्द्रनाथ जहाँ जाते हैं, दुर्लभ है वह जगह। लोग उसे रहस्यवाद कहते हैं, पर रहस्य नहीं है वह, एक तरह की पुकार है। जैसे मुक्तिबोध कहते हैं : 'मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं।'
1857 की लड़ाई को कुछ लोग ग़दर कहते हैं, मगर मैं उसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम मानता हूँ। उसे ग़ालिब ने अपनी आँखों से देखा और ऐसे घर में थे वह, जहाँ पनाह ली जा सकती थी। बंद किवाड़ों की दरारों से उन्होंने दिल्ली में क़त्लेआम देखा। जो अंग्रेज़ थे, वे कुचल रहे थे अवाम को। तभी उन्होंने लिखा :
'जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है'
उर्दू शाइरी का पूरा उन्वान उन्होंने बदल दिया। सचमुच की जो ज़मीन है, ज़मीनी लड़ाइयाँ हैं, क़ुरबानियाँ हैं, उनसे उसे जोड़ा। इश्क़ तो ऐसा है कि समय का बोध ही बदल देता है। इश्क़ जो नहीं करता, उसके लिए समय बिलकुल अलहदा है। जो करता है, उसके यहाँ आके देखिए कि उसका समय कैसे बीतता है ! यह हमें ग़ालिब की शाइरी से मालूम होता है कि कैसा बुरा समय है :
'आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे'
(2)
एक दिन आलोक धन्वा सहसा कहने लगे : कवियों को जानवरों के बारे में भी जानना चाहिए, आप कितना रहे हैं उनके सान्निध्य में ? फिर वह बचपन की स्मृतियों में खो गये : "गाँव में जब हाथी आता, तो हमारे घर में जो ब्राह्मण रसोइया था, उनसे माँ कहती कि दस-बीस रोटी ले आओ इसके लिए। तभी बाबू जी आ जाते, कहते : दस-बीस रोटी से क्या होगा, पाँच किलो आटे की मोटी-मोटी रोटियाँ पकाकर लाओ और उनमें अचार का तेल मिलाकर खिलाओ इसे। कम पानी में गुड़ का घोल बनाओ और पिलाओ इसे। क्या उसे गुड़ का 'टेस्ट' नहीं होगा, गन्ना खाता है वह। गन्ना जब पेरा जाता है, तो हाथी दूर से ही सूँघ लेता है कि हवा में मिठास है। गन्ने का मौसम हो, तो उसे पाँच-छह बाल्टी रस पिलाइए ! केले खिलाइए ! पीपल के पत्ते उसे बहुत प्रिय हैं। हाथी मस्त हो जायेगा, तो बैठेगा। बैठेगा, तो समझ लीजिए, सोयेगा भी।
हाथी से सोहबत हो जाए, तो वह आपके घर रह जायेगा। जंगल जायेगा, तो हथिनी को पकड़कर आपके पास लायेगा, हथिनी होगी, तो हाथी को लेकर आयेगी। दक्षिण भारत, ख़ास तौर पर केरल में तो आप हाथियों के बिना पोंगल या नवान्न की कल्पना नहीं कर सकते। ऐसे त्योहारों पर उनका शृंगार किया जाता है।
दुनिया में जो भी प्राणी है, वह आदमी के साथ रहना चाहता है, क्योंकि उसे यह 'इंट्यूशन' है कि 'आदमी हमसे बेहतर है।' कुत्ता तो मनुष्य का सबसे पुराना साथी है। इसी तरह हाथी, घोड़े, गाय-बैल, बंदर और बिल्लियाँ वग़ैरह हैं। बकरी को अगर ज़मीन पर जाड़ा लगेगा, तो आपके ऊपर सो जायेगी। पहले के रईस लोग नेवला पालते थे, ताकि साँप से निश्चिंत रहें। हाथी पर बैठकर शेर का शिकार करने जाते थे, क्योंकि शेर में यह हिम्मत नहीं थी कि हाथी पर बैठे हुए आदमी पर हमला करे।
शेर भी जन्म से पालिएगा, तो आपके साथ रहेगा। ज़्यादातर जानवर आपके साथ रह जायेंगे, लेकिन साँप नहीं रहेगा। चला जायेगा। आप उसे दूध पिलाइए या उसके सामने बीन बजाइए, तो भी वह काट लेगा आपको। मदारी अगर उसके विष के दाँत न तोड़े, तो मर जायेगा। प्रो. यशपाल ने एक लेक्चर में कहा था कि साँप चक्षुश्रवा है। रास्ते में किसी के जाने से जो तरंगें उठती हैं, उनसे वह पहचानता है अपने आहार को और उसका पीछा करता है। चूहे और बेंग (मेढक) उसे पसंद हैं।"
मैंने पूछा : 'जब अधिकांश जानवर रह जाते हैं या रहना चाहते हैं आदमी के पास, तो साँप क्यों नहीं रहता ?'
आलोक जी बोले : "क्योंकि उसका स्वभाव अच्छा नहीं है। दूसरे, उसे डर लगता है कि आदमी हमें मार देगा।"
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(3)
आज मैंने आलोक धन्वा से पूछा : 'निराला की जीवनी के आधार पर डॉ. विनय कुमार का निष्कर्ष है कि एक दौर में वह 'साइकोटिक' {Psychotic} हो गये थे। आप क्या कहना चाहेंगे ?'
बोले : "मशहूर डॉक्टर हैं वह और अच्छे रचनाकार भी हैं। लेकिन डॉक्टरों का नज़रिया अलग है और हमारा अलग। हम तो रात-दिन दिमाग़ों को समझने का ही काम नहीं करते, बल्कि उन्हें बनाते-बिगाड़ते हैं। रामविलास जी ने मुक्तिबोध के लिए लिखा कि वह 'स्किट्ज़ोफ़्रेनिक' थे। लेकिन यह अकेलापन है इन कवियों का, जो ख़ास तरह के 'परसेप्शन', विचारों और 'स्टैंड' के चलते होता है।
मुक्तिबोध की दुनिया किसी के भी काव्य-संसार से बिलकुल भिन्न थी। यह कहते हुए भी दर्द होता है कि वह हमारे बीच के आदमी नहीं थे। जो बात वह कहना चाहते थे, उसमें 'परसेप्शन' ही 'डॉमिनेट' करता था। केवल विचार से तो 'सिंथेटिक' क़िस्म की कविता लिखी जाती है।
विचार को आप कहीं से उधार ले सकते हैं, लेकिन बड़ी कविता 'परसेप्शन' से लिखी जाती है, जिसके लिए दुनिया में जाना होता है। दुनिया बड़ी है, वह सिर्फ़ कविता नहीं है, पर उसमें कविता है।
47 साल की उम्र में मुक्तिबोध कभी चैन से नहीं बैठे। जिस भाषा में उन्होंने लिखा, उसमें हिंदी में कविता लिखी नहीं जाती थी। उन्हें तरह-तरह के शक होते थे, जैसे : खाने में ज़हर मिला है या घर से लगी बावड़ियों में कोई रहस्य है। जो चीज़ें जीवन में उनके पक्ष में या ख़िलाफ़ होतीं, वे और उनसे जुड़े लोग उनके मन में बहुत गहरे पैठ जाते थे।
यह 'साइकोटिक' या 'स्किट्ज़ोफ़्रेनिक' होना नहीं है, बल्कि कविता को जो कवि असाधारण ऊँचाइयों पर ले जाते हैं, वे मृत्यु को जानते हैं। जो ज्ञानी होता है, वह मृत्यु को पहचानता है। सार्त्र, काम्यू और काफ़्का को मालूम था कि मृत्यु क्या है !
यह 'साइकोटिक' होने के बजाय बोध का घनत्व है, 'इंटेंसिटी ऑफ़ सफ़रिंग' {यातना की तीक्ष्णता} है--ये जिसमें होंगी, उसका व्यवहार भिन्न हो जायेगा, भाषा भिन्न हो जायेगी। यह शमशेर में भी है, जिन्होंने लिखा :
'तरु गिरा जो
झुक गया था
गहन छायाएँ लिये'
कौन बतायेगा, उस पेड़ की छायाएँ किस गहनता में गयी थीं, जिसे आपने काट दिया ? इस तरह की कविता लिखनेवाले कौन हैं हिंदी में ? कोई नहीं है।
मुक्तिबोध एक ऐसा 'हॉरर' दिखाते थे, जिसका सारा कारोबार तलघर में चलता है। वह हमारे समय के तलघरों में चल रहे क्रांतिकारियों के 'एनकाउंटर्स' देखते थे--उनकी कविता में उसके चित्र आते हैं। एक ऐसी व्याकुल पुकार वहाँ है, जैसी हमें नेरुदा के यहाँ सुनने को मिलती है :
'मुझे वे कालकोठरियाँ दिखाओ, जिनमें तुम्हें रखा गया
वे कोड़े, जिनसे तुम्हारी खाल उधेड़ी गयी
वह तख़्त, जिस पर तुम्हें फाँसी दी गयी
मैं आ रहा हूँ, तुम्हारे मृत मुख से बोलने।'
मुक्तिबोध के यहाँ आशा और निराशा के परे हमेशा एक संघर्ष है, जो आत्म-संघर्ष की भाषा में व्यक्त हो रहा है। 'टु बी ऑर नॉट टु बी' या जीवन और मृत्यु के द्वंद्व में जीवन कभी मृत्यु के सामने धराशायी नहीं हुआ, क्योंकि जब आप जानते हैं कि आपका रास्ता सही है, तो उस पर चलते हुए थकते नहीं हैं। मुक्तिबोध जब कहते हैं : 'एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं'--तो उसका मतलब यही है कि निर्विकल्पता नहीं है। हम चल सकते हैं और रास्ता है चलने के लिए--सैकड़ों राहें हैं, जो सैकड़ों जगहों पर ले जायेंगी और सैकड़ों तरह के लोगों से मिलवायेंगी।"
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(4)
आलोक धन्वा कहते हैं : 'प्यार ही कला को सबसे ज़्यादा महानता देनेवाली चीज़ है।'
और फिर इसके समर्थन में यह वाक़या सुनाते हैं : "मैक्सिम गोर्की जो थे, समाजवादी थे और बहुत संघर्ष किया उन्होंने। मालगाड़ी के डिब्बों में बैठकर घूमे--पूरे रूस के जीवन को अपनी आँखों से देखा। मालगाड़ी के गार्ड उनसे कहते थे--हमारे जानवरों को खाना खिलाओ, डिब्बे साफ़ करो, तो हम तुम्हें घूमने देंगे। उन्होंने बेकरी में भी काम किया--दो मन आटा गूँधते थे और उसे पकाते थे तंदूर में।
टॉल्सटॉय उस तरह थे वहाँ, जैसे हमारे यहाँ तथागत बुद्ध थे। गोर्की से उनकी असहमति रही। पूरी दुनिया के लोग उनसे मिलने आते थे। गांधी से भी उनका पत्र-व्यवहार रहा। मगर अंत समय में उन्होंने सिर्फ़ एक आदमी, गोर्की को तार दिया और लिखा : 'जैसे-जैसे मैं मृत्यु के निकट जा रहा हूँ, वैसे-वैसे मुझे लगता है कि तुम प्यार में मुझसे बड़े हो और त्याग में भी बड़े हो। अपनी रोटी तुमने ख़ुद कमाई और ख़ुद पकाई भी।' "
टॉल्सटॉय मृत्यु को क़रीब जानकर अपना घर छोड़कर दूर एक छोटे-से रेलवे स्टेशन पर चले गये थे। वह एक अज्ञात जगह पर जीवन से विदा लेना चाहते थे, जहाँ उन्हें कोई न जानता हो। आलोक जी के अनुसार : "टॉल्सटॉय उसी ऊँचाई के लेखक हैं, जिस ऊँचाई के हमारे यहाँ निराला हैं....और मृत्यु की आशंका से उनके घर छोड़कर चले जाने से निराला के ही शब्द याद आते हैं :
'मैं रहूँगा न गृह के भीतर
जीवन में रे मृत्यु के विवर।' "
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(5)
आज आलोक धन्वा ने कहा : 'पटना में भी ओमिक्रोन फैल गया है मेरे चारों ओर, लेकिन मुझे अभी नहीं है।...हम मरेंगे, तो किसी और ही बीमारी से मरेंगे, जिसका बीमारियों की सूची में नाम नहीं होगा। बीमारी क्या, आंदोलन के दिनों में मैं तो गोलियों से बचा हूँ।'
फिर कुछ रुककर बोले : '...हम संताप से ही मरेंगे। भारत में सच का जो विनाश किया जा रहा है, बच्चों के भविष्य का, स्त्रियों की और ज्ञान की गरिमा का विनाश, इसके संताप से।'
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(6)
आलोक धन्वा जब अपने बचपन में जाते हैं, तो उनका बयान इतना कोमल, संवेदनशील और सुंदर होता है कि गोया आप भी उस दौर को जीने लगते हैं : "आज ठंड काफ़ी है। धूप खिली है, पर उसका कोई असर नहीं होता है। बच्चे--कितनी भी ठंड हो, बदली छाई हो, माँ कितना भी रोके--ऐसा रास्ता तैयार कर लेते हैं कि माँ की हिदायतों के पार चले जाएँ। मैं भी ऐसा करता था, लेकिन मेरी माँ इतनी सहृदय थी कि डाँटती नहीं थी। वह इतना ही कहती : 'अरे, ठीक से कपड़े पहन लेते !' गुनगुने पानी से बदन पोंछती और मुँह धो देती। किसी को बोलती : 'इसके बाल सँवार दो !' वह मुझे काजल नहीं लगाती, कहती थी : 'लड़कियाँ काजल लगायेंगी, लड़का क्या काजल लगायेगा !'
माँ मेरे बाल नहीं काटने देती थी। इसी वजह से लम्बे बाल रखने का मुझे शौक़ पड़ा। देवघर में मेरा मुंडन हुआ था। माँ ने कहा : 'यह हमारा सबसे दुलारा बच्चा है। ये सिर हिला देगा, तो इसको ख़ून आ जायेगा। इसलिए उस्तरा नहीं चलेगा। यह धर्म-वर्म अपने पास रखो ! थोड़े-से बाल काट लो, जहाँ चढ़ाना हो, चढ़ा दो !' वह मुझे बारह साल की उम्र तक एक बड़ी चारपाई पर अपने साथ सुलाती थी। बाबूजी नाराज़ होते : 'यह क्या बाल बढ़ाए रहता है ? यह बेकार हो जायेगा, पढ़ता कम है, तुम्हारे प्रेम में ज़्यादा घूमता है।' माँ जवाब देती : 'पढ़ता नहीं है, तो क्या हुआ ? किसी का नुक़सान तो नहीं कर रहा है।'
मुंगेर ज़िले में मेरे गाँव बेलबिहमा के चारों ओर नदियाँ थीं। आसपास के पहाड़ों की चट्टानें हलकी लाली लिये हुए थीं। बारिश होती, तो बालू के चलते नदियों में लाल पानी आ जाता। स्कूल के लिए नदी पार करके जाना पड़ता। माँ कहती : 'यह नदी में पैठकर स्कूल नहीं जायेगा।' बाबूजी बोलते : 'सब जाते हैं। क्या सिर्फ़ इसी के लिए बाढ़ आयेगी ?' माँ अपनी बात पर क़ायम रहती : 'ये यहीं पढ़ेगा। नहीं पढ़ेगा, तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा !'
बाद में बाबूजी ने नदी पर छोटा पुल बनवा दिया, तो मैं स्कूल जाने लगा। पुल पर जब जाते, तो साथ में लड़कियाँ पढ़ने जातीं, जो मुझसे बड़ी थीं। बरसात में कीचड़ और काँटों से बचाने के लिए बड़ी लड़की मुझे गोद में उठा लेती। लड़के और लड़कियों का मेल असाधारण था, नैसर्गिक था। 'को-एड्यूकेशन' से हमने एक-दूसरे के सुख-दुख में हिस्सा लेना सीखा। मेरा जो बचपन था, उसमें किसी भी मामले में अवरोध या मनाही जैसी कोई चीज़ नहीं थी। हम कहीं भी खाने के लिए जाएँ, तो माँ बिलकुल चिंतित नहीं होती। हाईस्कूल में जब मैं आया, तो अपने मुस्लिम दोस्तों के गाँव चला जाता। बाबूजी के चलते मुझे प्रेम और सम्मान मिलता था। आज भी उन गाँवों में जाऊँ, तो लोग कहेंगे : बेनी बाबू का लड़का है।
मेरे बाबूजी का नाम बेनीमाधव सिंह था। वह 2003 में नहीं रहे। बहुत सुदर्शन थे, गोरे और लम्बे। उजली टोपी और खादी के कपड़े पहनते। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, कांग्रेस में थे। उन्हें स्वाधीनता संग्राम सेनानी की पेंशन मिलती थी। वह चुनाव कभी नहीं लड़े। हमारे गाँव के पन्द्रह साल निर्विरोध सरपंच रहे। मुखिया थे जमुना पासवान, जो हमारे घर में बहुत प्रतिष्ठित थे। जब मैं स्कूल से लौटकर बाबूजी के पैर छूने के लिए बढ़ता, तो वह कहते : पहले मुखिया जी के पैर छुओ ! मेरे माँ-बाबूजी, दोनों कोई जाति या छुआछूत नहीं मानते थे। हमारे प्रथम गुरु--जिन्होंने मुझे अक्षर-बोध कराया--आरती प्रसाद सिंह मेरे बाबूजी के मित्र थे। वह भी छुआछूत नहीं मानते थे। इस बात ने मुझमें बहुत रौशनी दी, मेरे मन को बहुत प्रकाशित किया।
उस ज़माने में अस्पताल नहीं था--ठेठ गाँव में मैं पैदा हुआ, मेरी माँ को देर से दूध आया। मेरी नाल जिसने काटी, वह मेहतर स्त्री थी। कुछ दिनों पहले उसके भी बच्चे का जन्म हुआ था। वह मेरी माँ की सहेली थी। उसने पूछा : 'हे मलकिनी ! ये बच्चा रो रहा है आपका। इसको दूध पिला दें ?'
माँ बोली : 'तू आपन दूध पिया द ! माई के भल कौनो जात होला का ?' {यानी : तुम अपना दूध पिला दो ! माँ की भला कोई जाति होती है ?}"
आलोक धन्वा, पंकज चतुर्वेदी संवाद करते हुए,साथ में युवा लेखक गीतेश
नोट- प्रकाशित सामग्री पंकज चतुर्वेदी जी के फेसबुक वॉल से उनसे अनुमति लेकर ली गयी है,कृपया यहाँ का कोई भी अंश पंकज जी की बिना अनुमति के अन्यत्र प्रयोग न किया जाए।
कितनी अच्छी बातें और जानकारी…. आलोक सर को प्रणाम और इस वार्ता को हमें पढ़ाने के लिए शुक्रिया🙏
जवाब देंहटाएंबात का ज्ञान और ज्ञान का आलोक...अद्भुत...स्मरणीय
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