शनिवार, 8 जनवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्री काल - 2

                           समकाल : कविता का स्त्रीकाल - 2

पूनम वासम

समकालीन कविता में जैसे - जैसे स्त्रियों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है , कविता का कैनवास उसके इतिहास और भूगोल के साथ उभर कर सामाने आ रहा है। यह जुड़ाव मिट्टी -पानी की सोंधी गंध लिए इतना सहज और सरल है कि हम सीधे उस दुनिया में पहुँच जाते हैं जहाँ की बात कवि अपनी कविता में कर रहा होता है।

यह सुखद है कि आज औरतों की बातें किसी और की बयानी नहीं हैं, वह अपनी दुनिया की बात अपनी ही भाषा में कर रही हैं।यह अभिव्यक्ति उस शिशु की तोतली बानी की तरह निर्दोष है जो जोई सोई कछु गा रहा होता है।यह भाषा स्त्रियों द्वारा रचित लोकगीतों की भाषा है जिसे मैं स्त्रियों द्वारा रचित आदिकविता मानती हूँ।पूनम वासम आदिवासी लोक की कवयित्री हैं ,जल,जंगल,ज़मीन उनके हमजोली हैं।पूनम ने इस आदिवासी संसार को हमारे सामने इतनी सहजता और सुघड़ता से रखा है कि हम इस लोक से  वैसेही जुड़ते जाते हैं जैसे पूनम और उनका संसार जुड़ा है। मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुलम गीत 
पूनम का वाणी प्रकाशन से प्रकाशित और चर्चित काव्य संग्रह है।आज गाथांतर  पर  समकाल : कविता का स्त्रीकाल कालम में प्रस्त्तु्त है पूनम की कविताएँ- 

( १)

नमक हमेशा नमकीन नहीं होता
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नमक तुम्हारे लिए स्वादिष्ट खाना बनाने वाला 
पदार्थ मात्र है 
तुम्हारे रसोई घर में इसकी भरमार होती है
मेरी देह के पसीने की गंध में भी तुम्हें
नमक का खारापन लगता है 
मुझे चूमकर भी तुम बता सकते हो नमक का स्वाद

नमक तुम्हारे लिए उतना ही जरूरी होता है 
जितना दाल चावल

ठीक इसके विपरीत हमारे लिए नमक उतना ही ज़रूरी है
जितना जल, जंगल, जमीन

नमक हमारे लिए स्वाद बढ़ाने वाली चीज़ नहीं 
बल्कि एक बहाना है तुम तक पहुँच पाने का

हमारे यहाँ नमक की खेती नहीं होती वरन उगा लेते 
बोरा भर नमक धान की तरह

नमक की लत ने हमें भी व्यापार करना सीखा दिया 
झोला भर टोरा,  महुआ, अमचूर और चिरौंजी के बदले तुम्हारा एक सोली नमक 
स्वाद बदल कर रख देता है मुँह का

तुम्हें नमक की कीमत का अंदाजा नहीं
चूँकि तुम्हारी दुनिया में नमक ही नमक है
सस्ता और सुलभ पर
हमारी पहुँच से आज भी हजारों किलोमीटर दूर है नमक

कि सोली भर नमक कमाने के लिए हमारे कंधे उठाते हैं
कावड़ भर सपने
खोदते हैं पताल भर गोदी अंधेरी पगडंडियों को
पाटने के लिए

लगाते हैं मील का पत्थर अपनी आदिम सभ्यता
छुपाने के लिए 
ताकि खिसक सके दो- चार किलोमीटर और 
सूरज की सीध में

बावजूद
नमक का स्वाद हमेशा नमकीन नहीं होता 
कि नमक  का स्वाद कभी-कभी पाँव के छालों की टीस जितना कीमती और
कभी-कभी बंदूक की गोली से निकलने वाली
बारूद की गंध जैसा तीखा  
तो कभी-कभी आँखों की पुतलियों पर दम तोड़ चुके
कुछ सफेद ख़्वाब से भी फीका होता है

नमक की आजादी के लिए लड़ी गई थी एक लड़ाई 
सोचती हूँ  चुपके  से इनके कानों में  किसी  ऐसी ही
लड़ाई के प्रारम्भ का बिगुल फूँक दूँ क्या ?

ताकि जान सकें ये भी नमक का असली स्वाद ।


       (२)


【हिड़मे का बेटा】

हिड़मे का बेटा इतिहास पढ़कर लौटा है 
अभी-अभी स्कूल से    

सारे पन्ने पलटने के बाद भी उसे वह कहानी नहीं मिली 
जिसे उसके बाप ने ऐतिहासिक घटनाओं में
दर्ज करते हुए उसे सुनाई थी.

हिड़मे के बेटे को नहीं पता 
देश की आजादी-गुलामी वाले किस्से 
उसने कभी नहीं सुनी हड़प्पा संस्कृति की वैभव-गाथा 
जनरल डायर की गोलियों की धधक 
शहीद भगतसिंह की अमर कहानी 
महात्मा गांधी का सत्याग्रह व नमक का आंदोलन.

नहीं सुनाया कभी उसके बाप ने 
चन्द्र शेखर की बंदूक से निकली बागी गोलियों की दास्तां

हिड़मे का बेटा बचपन से सुनता आया है 
गुण्डाधुर, डेबरीधुर की वीरता  

 उसे वह कहानी याद है  
कैसे इंद्रावती नदी में गेयर ने मोटर गाड़ी का पेट्रोल डालकर आग लगा कर ललकारा था 
हिड़मे के बाप-दादाओं को

तीर से शिकार करने वाले योद्धाओं को 
बंदूक की नोंक पर जलती इन्द्रावती की आग दिखा कर बताया था 
अंग्रेजों के देवता 
आदिवासियों के देवताओं से ज्यादा ताकतवर है.
 
हिड़मे का बेटा सुनता आया है
'रुपया का दो पैली चावल होना ही चाहिए'
जैसी मांग को लेकर बस्तर की महिलाओं के द्वारा लड़ी गई अद्भुत मौन क्रांति के किस्से

भाले, फरसे, तीर-कमान लिए हजारों हाथ कारतूस की दिशा जाने बिना टूट पड़े उनकी ओर

जिन्होंने छुआ था 
उनके जंगल की मिट्टी में पकने वाली फसल को 
बस्तर का आदिवासी चीखता आ रहा है- 'एक पेड़ के बदले एक सिर होगा' का नारा
कहीं पहाड़ों से टकराकर पंडुम गीत की तरह कानों में बजती हैं उसकी ध्वनियां.

बस्तर में आजादी की लड़ाई से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी स्वाभिमान की लड़ाई.

हिड़मे का बेटा 
हल की नोंक से टकराकर पैदा हुआ है उसी मिट्टी में
जहाँ हिड़मे के बाप-दादा की इच्छाओं का अंतिम संस्कार होना बाकी है.

हिड़मे का बेटा 
पहाड़ को जी भर देखता है और गुनगुनाता है - डोंगरी के गागतो चो अधिकार नी हाय.

स्कूल में इतिहास का पाठ पढ़ाने के बाद गुरुजी पूछते हैं कई सारे सवाल 
हिड़मे का बेटा मात्राओं की हिज्जा करके
पढ़ने लगा है वह सब कुछ
जिसे दर्ज किया गया है देश की ऐतिहासिक घटनाओं में एक दस्तावेज की तरह

हिड़मे का बेटा अभी
पढ रहा है हिज्जा कर कर के इतिहास की सारी किताबें!

                              


     (३)

महुआ का पेड़ जानता है ]]

महुआ का पेड़ जानता है
महुआ की उम्र कच्ची है

कच्ची उम्र में टपकते हुये महुये को रोकना संभव नहीं.

गुरुत्वाकर्षण बल नहीं बल्कि  
धरती का संगीत खींचता है उसे अपनी ओर!

बाँस की टोकनी से लिपटने का मोह 
महुये को छोटी उम्र में किसी जिम्मेदार मुखिया की तरह काम करने को उकसाता है.

महुये को प्रेम है पांडु की छोटी लेकी से 
उसकी खुली देह के लिए किसी कवच की तरह टप से टपकता है महुआ.

महुआ इसलिए भी टपकता है 
ताकि इस बार साप्ताहिक बाजार में आयती के लिए जुगाड़  कर सके लुगा का.
 
आयती  के दिहाड़ी वाले काम के बारे में 
महुआ को सब पता है.

बड़े छाप वाले फूल और गहरे रंग वाली सूती लुगा भी 
कहाँ रोक पाती है उन आँखों की रेटिना को 
आयती की देह का पारदर्शी चित्र उकेरने से.

शैतानी आँखे ताड़ जाती हैं 
गदराई देह पर अंकित गहरे रंग की छाप कहाँ और कैसे फीकी पड़ जाती है.

चिमनियों से टकराकर आने वाली दूषित हवा  
किसी फुलपैंट वाले के नथुनों से होकर घुल न जाये तालाब के पानी में.

महुआ का टपकना जरूरी हो जाता है उस वक्त 
कि महुआ की मादकता बचाएं रखती है जलपरियों को खतरनाक संक्रमित बीमारियों से.

महुआ टपकता है 
अपनी मिट्टी पर/अपनी बाड़ी में/अपने गाँव-घर के बीच.

थकी देह के लिए महुआ पंडुम 
इंद्र देव के दरबार में रचाई गई रासलीला की तरह है.

महुआ के फूल से खेत-खलियान अटे रहें  
मन्नत के साथ गायता देता है बलि सफेद मुर्गे की.

दोना भर मन्द पीते ही, पत्तल भर भात खाते ही 
पांडु की इंद्रिया लंकापल्ली जलप्रपात के कुंड में डुबकी लगा आती हैं.
फुसफुसा आती है चिंतावागू नदी के कान में 
अपनी मुक्ति का कोई संदेश गोदावरी के नाम!
        
काली शुष्क हड्डियों से चिपका हुआ.
उसका मांस सब कुछ भुला कर पंडुम गीत गुनगुनाने लगता है.

किसी मुटियारी का धरती से अचानक रूठकर
आसमान पर चमकने की जिद्द पूरी करने के लिए 
महुआ को टपकना ही पड़ता है.

महुआ का टपकना 
मिट्टी के भीतर संभावित बीज के पनपने का संकेत मात्र नहीं है.

कि महुआ का टपकना,
गाँव के सबसे बुजुर्ग हाथ की नसों में स्नेह की गर्माहट का बचा रहना भी है.


        (४)

         【सही अंत】

तुम्हारे शरीर से महुए की गंध आती है
तुम्हारा चेहरा किसी बर्फ़ीली नदी सा सफेद हुआ जाता है
टोरा बीज फोड़ते हुए कठोर हुए जाते हैं तुम्हारे हाथ

तुम लूगा घुटनों तक बाँधती हो
तुम्हारे पैरों के नीचे फूटने वाला कोयला
तुम्हारी देह की गर्मी से आग हुआ जाता है
तुम्हारी फटी हुई एड़ियाँ सोख लेती हैं 
धरती का कसैलापन

तुम्हारा मन पुड़गा के जले हुए पत्ते पर
झर कर बिखर जाता है यहीं कहीं खेत की मिट्टी में

विदा से पहले तुम भर लेती हो आँचल में
मौसमी फलों के बीज

जीवन का सही अंत सिर्फ तुम्हें पता है 
मरने के बाद तुम्हारी आत्मा सरई का पेड़ होना चाहती है 
ताकि किसी मोटियारी के गुदना में 
तुम देख सको संसार का सुख

                         



       (५)

【फुलगुना】

तुम्हारी फुलगुना का आकार
तय करता है 
तुम कितनी सुखी हो 
तुम्हारी
नाक पर दमकता फुलगुना
तुम्हारे भीतर का ताप मापने का 
पैमाना भर नहीं 
बल्कि
तुम्हारे अस्तित्व का वह स्तम्भ है
जिस पर खड़ी होकर तुम
देख  सकती हो  
धरती के
वंचित समुदाय को नेपथ्य में 
धकेलने का सच

नाक पर उठा हुआ यह फुलगुना
तुम्हारी साँसों में क्रांति गीत की ऊष्मा 
बनाये रखती है

तुम जानती हो फुलगुना का इतिहास 
श्रृंगार से कहीं ज्यादा यह 
तुम्हारे आत्मभिमान का प्रतीक है

     (६)


 【मैं  धरती से  क्षमा मांगना चाहती हूँ 】

मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती हूँ
बड़ी जोर से धक्का मारकर चाहे तो धरती खुद को धकेल सकती है सालों साल पीछे

जहाँ मेरे  पूर्वज दरवाज़े पर पानी का कसेला लिए इंतजार कर रहे हैं पाँव पखारने का 
जहाँ जंगल के प्रेम में बौराई  प्रेमिका
अपने जुड़े में पके फलों की महक लिए लौटती है
जहाँ हल की नोंक से धरती तोड़ती है अपनी अंगड़ाइयाँ

मैं  धरती से  क्षमा मांगना चाहती हूँ 
टूटे हुए घरों  की कसम खा कर
बोनसाई के पौधों से 
एक्वेरियम में साँस लेती मछलियों से 
पिंजरे में कैद मेरी मैना से
उन तमाम पेड़ों की छालों से जंगली फूलों से 
मधुमक्खी के छत्तों से 
पहाड़ों की घटती हुई उम्र से 

मैं धरती को अपने दोनों हाथ उधार देती  हूँ 
धरती चाहे तो उगा सकती है मेरी हथेलियों पर एक पेड़ 

पेड़  धरती के लिए काला टीका है जिसके होने से उतारी जा सकती है धरती की बुरी से बुरी नज़र


     (७)


【शहर की छत से】

एक उजड़े हुए शहर की छत से उड़ते हुए 
मैंने स्वीकार किया मेरा जंगली होना कितना हरा भरा रखता है मुझको

एक रेस्टोरेंट में खाने का ऑर्डर देते हुए
मेरी जीभ बेस्वाद हुई जा रही थी.

मैंने  चावल के साथ एक ही तरह की दाल खाई है 
सब्जियों के स्वाद में जरूर अंतर रहा 
कोचई ,खट्टा भाजी, पोपट बीजा, सुक्सी हमेशा से पसन्द है.
पुड़गा खाते हुए मैंने जाना मेरा देहाती होना मुझे स्वाद के आनंद से भर देता है

एक बड़े पुल से गुज़रते हुए मैंने पानी में एक रुपये का सिक्का उछाला.

पत्थर की पीठ से टकराकर लौटते हुए सिक्के ने  
मेरी प्राथर्नाओं को मछलियों तक पहुँचा आने में अपनी असमर्थता जताई.

मेरे गाँव में ऐसी नदी नहीं है 
जिस पर पुल बनने की कोई गुंजाइश हो.

एक पुराना कछुआ
गाँव के तालाब में अब भी दरबार लगा कर लेता है सबकी
अर्जियां.
मेरा पिछड़ा होना गायता की पूजा थाली को फूलों से भर देता है.

दुनिया की भीड़ से गुजरते हुए 
मैंने बस इतना जाना 
कि हम सिमटते जा रहें हैं फस्ट क्लास , सेकेण्ड क्लास की बोगियों में.

मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हो रहा है 
कि मैं जंगली हूँ  

दुनिया बहुत आगे की चीज बनती जा रही है 
जिसे पकड़ पाना मेरे वश की बात नहीं.

                      



     (८)


【 प्रतीक】

सब भूलते हैं अपना धर्म
पेड़ नहीं भूलते 

उनके रोमछिद्र खुले होते हैं 
प्रार्थनारत ध्वनियों के लिए
इसलिए
दुनिया के तमाम पेड़ों को
ईश्वर का प्रतीक मान लिया
जाना चाहिए .
 

(९)


【तुम्हें चूमकर
--------------------
चूमकर तुम्हारे माथे को
एक दिन पृथ्वी को
चूमना चाहती हूँ 

ताकि तुम्हारे माथे की 
उर्वर भूमि का स्वाद
चख सकें धरती के  वो तमाम बच्चे 
जिनकी जीभ को नहीं पता
स्वाद और स्वाद में अंतर

तुम्हारे माथे से टपकता पसीना
हल की नुकीली चोंच और 
धरती की मुलायम मिट्टी के बीच 
किसी सुरक्षा कवच की तरह है  

तुम्हारे माथे को चूमना  
मेरे लिए धरती पर प्रेम पुष्पों की 
पहली फसल का लहलहाना है ।

       (१०)

सागौन

सागौन के वृक्ष बस्तर भूमि पर उग आए
दो मजबूत हाथ हैं
जिनकी हथेलियों पर 
लिखा भूमकाल का विद्रोह 
धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है 

सागौन की चौड़ी पत्तियाँ समेटना चाहती हैं 
जल,जंगल,जमीन की दुनिया
अपनी रेशों में 
टहनियों में बांध कर लाल मिर्च 
बनाना चाहती हैं
डारामिरी सा कोई प्रतिक चिन्ह
चूस कर छोड़ दी गई हरियल  छाती के लिए

सागौन की मोटी जड़ें भीतर ही भीतर 
जमा कर रही हैं दर्द का मवाद 
गीली मिट्टी की नमी में 
आँसू छुपाती सुबक रही जड़ें
अब लिखना चाहती हैं
उपेक्षा का एक पूरा का पूरा इतिहास

सागौन के दोनों हाथ चाहते हैं एक बार फिर
शोषण के खिलाफ़ लामबंद होना
एक बार फिर चाहते हैं 
अपनी इस धरती पर 
गुण्डाधुर जैसा 
कोई नन्हा बीज बोना।



नाम  - पूनम  वासम
शिक्षा - एम. ए .(समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र ) वर्तमान में बस्तर विश्वविद्यालय से शोध कार्य जारी है।
सम्प्रति - शासकीय शिक्षिका  बीजापुर
निवास - ब्लॉक कॉलोनी बीजापुर, जिला बीजापुर   बस्तर (छत्तीसगढ़) पिन 494444

साहित्यिक परिचय-  मूलतः आदिवासी विमर्श की कविताओं का  लेखन,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,युवा कवि संगम 2017 बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रतिभागी,लिटरेरिया कोलकाता 2017 के कार्यक्रम में शामिल,भारत भवन भोपाल में कविता पाठ, रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम युवा 2018 में शामिल, बिटिया उत्सव ग्वालियर में कविता पाठ,साहित्य  अकादमी दिल्ली में कविता पाठ, साहित्य अकादमी भोपाल में कविता पाठ.



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