यह स्त्री कविता का वह समय है जब चारों दिशाओं से स्त्री स्वर समवेत स्वर में अपनी बात भौगोलिक दूरियों और भाषाई सीमा का अतिक्रमण कर ,कर रहा हैं।अभी तक आदिवासी समाज के उन कोने कंदराओं का जीवन यथार्थ उन लोगों की बयानी रहा जो सैलानी या खोजी बन उन क्षेत्रों में गये या पढ़ सुन कर उनके जीवन को जाना था। यह आवाजें जितनी प्रमाणिक हैं इनकी बयानी उतनी ही मौलिक है। अरूणाचल से लेकर आसाम के पहाड़ी जनजीवन और जनजातीय समाज के जीवन अनुभव और आधुनिकता की बयार से प्रभावित अपने समाज की बातों को लेकर हिन्दी कविता में जमुना बीनी जिस तरह इन दिनों सक्रिय हैंं वह बेेेहद आस्वस्ति कारक है।
1-
युवा अरूणाचली
युवा अरुणाचली
अब नहीं बोलते
अपनी बोली
अंग्रेजी और हिंदी
में ही बतियाते
औरों की बोली
अधिक सहज
और
सम्मानजनक लगता ।
आबोतानी1, आनअ दोञी2
आबो पोलो3 की कथाएँ
अब नहीं भातीं
टी.वी. पर
परोसा जाने वाला
दॉरेमोन , पोकेमोन
उसे अपना सा लगता ।
वह गा नहीं सकता
कोई लोकगीत
बॉलीवुड के
गीतों के बोल
ज्यादा मधुर लगता ।
अब नहीं खाता
हिकु - हुयुप4, होञोर5
और
उबला हुआ ओयिक6
फ़िज्जा और नुडल्स
बहुत जायकेदार लगता ।
उनमें संयम की
जबरदस्त कमी है
जल्द
गलत राह
पकड़ लेतें
दिन-ब-दिन
निगल रही उसे
उपभोक्तावादी संस्कृति ।
आबोतानी – एक मिथकीय पुरुष और अरुणाचल के तानी समुदाय के आदिम पूर्वज
आनअ दोञी – सूर्य माता और मिथकीय पुरुष आबोतानी की पत्नी
आबो पोलो – चंद्र पिता
हिकु-हुयुप – सूखा बाँस जो भोजन में मसाले के रूप में होता है ।
होञोर – एक काँटेदार सब्जी
ओयिक – एक छोटी पत्तियों वाली सब्जी ।
2-
नदी के दो पाट
तुम्हारी अधिकांश बातें
मुझे समझ
नहीं आता
बिल्कुल दूसरी बोली
बोलने लगे हो तुम
तुम्हारा पहनावा विचित्र
तुम्हारी आदतें अजीब
तुम वह हो
पर
वह नहीं
जिसे मैं जानता था ।
आज
सालों बाद
हम मिलें
तुम तो
जैसे कोई
खोजी पर्यटक
साहस
और
रोमांच के
खोज में
मेरी दुनिया को
देखने आये ।
अचरज का
विषय हूँ
मैं तुम्हारे लिए
हाँ !!
आदिम संस्कृति के साथ
जीता एक आदिवासी
अजायबघर का
आदर्श नमूना ।
सुविधा
भोगने की ललक
ले गया दूर
तुम्हें हमारे गाँव से
उन लोगों से दूर
जो तुम्हें
जानता था
समझता था
अपना मानता था ।
तुमने अपना लिया
ञीपाक1 के
तौर-तरीके
तुम्हारे
और
मेरे बीच
दूरी इतनी
बढ़ गई
जैसे
नदी के दो पाट ।
ञीपाक – गैर आदिवासी या मैदानी वासी
3-
देहात की यादयामा
शहर आई
चाचा-चाची के
साथ रहने ।
यहाँ उसे
कुछ अच्छा
नहीं लगता
उसकी उदास आँखें
मीलों दूर
कोई पेड़ खोजती
इमारतों की
लम्बी-लम्बी
कतारों में
पेड़
कहीं नहीं दिखाई देता ।
जब मन
बहुत भारी होता उसका
ऊपर
आकाश को ताकती
आकाश तो
नीला होता है
मगर
यहाँ तो आकाश
मटमैला है
कितना भद्दा रंग !
चाची उसकी
बहुत प्यारी है
उससे कहती-
‘ यूँ अकेली
और
गुमसुम
मत रहा करो
बच्चों के साथ
घुलो-मिलो
हेलमेल रखो
मन बहलेगा ’ ।
पर बात क्या करती
जब वे दोनों
टी.वी. पर
पुतला देख रहे थें
क्या कहते है उसे
कार्टून !!
हाँ ! कार्टून
सकुचाती हुई
पूछा उसने-
‘ क्या मैं भी साथ देखूँ ? ’
वे बोले-
‘ तुम्हारी देहाती बोली
हमें समझ नहीं आतीं
अंग्रेजी तो
आयेगी नहीं तुझे
हिंदी में बात करो ’
तब से तीनों में
बातचीत बंद ।
क्या उमस था
उस दिन
थोड़ी झिझक के बाद
पूछ ही लिया
चाची से-
‘ यहाँ नदी कहाँ है ?
ठंडे पानी में
डुबकी लगाने की
चाह हो रही है ’ ।
चाची हँसी
जोर से
एक खनकदार हँसी
‘ यहाँ तो नदियाँ
डम्पिंग ग्राउंड बन चुकी है
इधर नदियों में
कूड़ा-कचरा
बहाया जाता है
खुजली हो जायेगी
नहाओगी तो ’ ।
बाजार में
कितनी भीड़ थी
वह चली कहाँ !
चाची का हाथ थाम
भीड़ के साथ
बस बही जा रही थी ।
घर लौटी
तो नथुनों में
कुछ कुलबुलाहट हुआ
छोटी उँगली डाल
साफ किया
अरे ! उँगली एकदम काली हो गई
यामा बहुत डरी
चाची ने ढाढ़स दी-
‘ हवा दूषित है
अगली बार
मास्क जरुर
लगाकर निकलना ’ ।
हरा पेड़ नहीं
साफ पानी नहीं
स्वच्छ हवा नहीं
अपनी बोली नहीं
आह!
रह-रह कर उसे
देहात याद आती ।
वह सहेलियों संग
छायादार पेड़ के नीचे
लेटकर सीने में
खूब साँस भरकर
नीले आकाश की ओर फूँकना
पर दूर
ऊपर
आकाश में छिटका
इक्का-दुक्का
सफेद बादल
उन साँसों से
नहीं छितराता ।
दोपहरी की
चिलचिलाती धूप में
बेफिक्री से तैराकी करना
यापी की माँ
चिल्लाकर डाँटती-
‘ बावली लड़कियों
तेज धूप में
मत नहा
रंगत काला पड़ जायेगा ’
यापी और वह हँसती
बंदरियों की तरह
‘ खीं खीं खीं ’ !!
याद है उसे
पिताजी की
बूढ़ी-बेबस
आँखों का वह कहना-
‘ चाचा-चाची के साथ रहकर
मन लगाकर पढ़ना
कुछ बनना
और
अपने भाई-बहनों का भी
कुछ करना ’
उसके फूल-सा
नाजुक कंधों पर
यह बोझ नहीं लादा होता
तो यामा
कब की
देहात लौट चुकी होती
*********************
4-
डर
मन के अंदर
एक डर
पैठ गया
कल कहीं
किसी हादसे का शिकार
हो जाऊँ मैं ।
लोग अपनी-अपनी
जेब से , बैग से
तुरंत निकालेंगे
मोबाइल अपना
फिर फोटो
और
वीडियो लेने की
आपस में
होड़ाहोड़ी मच जायेगी ।
शाम तक
सारे सोशल मीडिया में
छा जाएगा
मेरा क्षत-विक्षत शरीर
नंग-धड़ंग बदन ।
निश्चय ही
हमारी संवेदनाएँ
जंग खाती जा रही हैं
वीभत्स रस में
लोग अब
रसास्वादन लेने लगे ।
तकनीक के
इस अंधी दौड़ में
सब सोशल हो गया
निज कुछ भी न रहा
न जन्म न मृत्यु ।
5-
वे और हम
वे कहते हैं
सदा से हम
ऐसे ही हैं
बहुत जिद्दी
बहुत ढीठ
समय के
आरंभ बिंदु से ।
बदलाव से डर
बदलाव से अंजान
हम बदल नहीं सकते
पर जरूर
बदलना होगा ।
वे कहते हैं
सभ्य
और
प्रबुद्ध समाज में
पिछड़ा कोई न रहे
विकास सब तक पहुँचे
चलो शहर बसाए
इनके गंदे
गाँव उजाड़कर
पढ़-लिख जाए
और
बने ये
आला अफसर ।
वे पूछते हैं
इनकी पहचान
क्या है
घुमंतू
और
शिकारी
अनगढ़ धातु के
औजारों से लैस ।
तीर-धनुष में
डूबा रहने वाला
कंद-मूल खा
जिंदा रहने वाला
हिंस्र पशुओं के संग
सोने वाला
चलो इनके
घने जंगलों को
साफ करें
आदमखोर जानवरों से
छुटकारा पाने ।
इन्हें सिखाया
जाना चाहिए
पेड़ , जंगल
और
पहाड़ अनमोल हैं
परंतु
इनको चीरना , उखाड़ना
और
काटना चाहिए
अधिक से अधिक
संसाधन , विकास
और
सभ्यता के लिए
आदिवासियों को
बदलते हैं वे
अपने फायदे के लिए ।
जंगली , वहशी
कहकर विभूषित
हमें करते
क्योंकि हम
आदिवासी हैं
और
हम पता नहीं क्यों
बदलना नहीं चाहतें
या उनके अनुचित
माँगों के आगे
झुकना नहीं चाहतें ।
परिचय
डॉ. जमुना बीनी
जन्म : 20 अक्टूबर 1984
शिक्षा : एम. ए. हिंदी ( स्वर्ण पदक ), पी. एच. डी. ( राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश ) ।
प्रकाशित रचनाएँ : दो रंगपुरुष-मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड ( आलोचना ); जब आदिवासी गाता है ( कविता संग्रह ); उईमोक ( न्यीशी लोककथा संग्रह ) ।
कविताओं एवं कहानियों का संताली, असमिया, मलयालम, पंजाबी, राजस्थानी, अंग्रेजी , तुर्की आदि भाषाओं में अनूदित ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में कविताएँ शामिल ।
वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश स्थित राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत ।
संपर्क : हिंदी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश, पिन 791112
ईमेल : jamunabini@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें