समकाल : कविता का स्त्रीकाल
(1)- उषा दशोरा
हिन्दी साहित्य का वर्तमान स्त्री रचनाधर्मिता की दृष्टि से सबसे उर्वर समय है । स्त्री कविता में लगभग तीन पीढ़ियाँ जहाँ सक्रिय हैं वहींं एक चौथी पीढ़ी के कदमों की मजबूत धमक सुनाई दे रही है। स्त्री कविता की प्रमुख प्रवृत्ति पर यदि बात करें तो सामने जो दृश्य उभर कर आता है सबसे पहले वह पितृसत्ता के विरुद्ध स्त्रियों की मुखरता है। स्त्रियों का सार्वाधिक शोषण पितासत्ता ने किया और उसे दोयम दर्जे की समाज के प्रत्येक क्षेत्र में नागरिकता दी इस लिए यह उसका पितृसत्ता के प्रतिरोध में नागरिक विद्रोह ही है कि वह निरन्तर अपनी कलम से उन बन्धनों से मुक्ति की घोषणा कर रही हैं जिनके बन्धन में कैद स्त्रियों की प्रतिभा रसोईं से लेकर सउरी तक में होम होती रही।
गाथांतर पर हम कोशिश कर रहें हैं एक स्त्री कविता की श्रृंखला प्रकाशित करने की,आज इस क्रम में राजस्थान की कवयित्री उषा दशोरा की कविताओं को प्रकाशित कर रहे हैं।उषा की कविताओं में स्त्री जीवन के संघर्ष और समाज के दोमुँहेपन की परतों को खोलने की बेचैनी साफ दिखाई देती है। पिछले साल आपका कविता संग्रह भाषा के सरनेम नहीं होते बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ और चर्चित रहा।
उषा दशोरा
जन्मदिनांक- 5 फरवरी
जन्मस्थान - उदयपुर, राजस्थान
वर्तमान निवास - जयपुर
सम्प्रति- अध्यापन
काव्य संग्रह - भाषा के सरनेम नहीं होते
बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित
कविता लेखन के अतिरिक्त थियेटर के लिए स्क्रीप्ट राईटिंग , स्क्रीन प्ले एवं निर्देशन में सक्रीय।
मेल drushadashora@gmail.com
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1.हस्तिनापुर की रिक्त हथेलियाँ
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कहाँ दर्ज हो अमानवीय पाठ्यपुस्तक के धर्मशास्त्री दाँत
कहाँ दर्ज हो चालाकियों के दोगले धारावाहिक
कहाँ दर्ज हो धोखे की आँख में बैठे यकीन के इस्तीफे
कहाँ दर्ज हो डिब्बाबंद इश्क के उपभोक्तावादी डॉयलॉग
इस वक्त हम किसी दूसरे के नहीं स्वयं की आंख के पानी के हत्यारे हैं
ऐसे ही ध्वस्त नहीं हुए कबूतर के मकान
ऐसे ही नहीं फूटे प्रार्थनाओं के भाग्य
ऐसे ही नहीं हाँफा नदी का अस्थमा
ऐसे ही नहीं उजड़ा धरती का मेरूदंड़
इन धांधलियों में एक ग्राम ही सही
धावा हमारी ओर से भी बोला गया है
भूतकाल की बाँहों कैद हम हस्तिनापुर की रिक्त हथेलियां हैं।
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2. मेरी नस्ल की ढेर औरतें
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उपले थापती औरतें
जो पीतल की परात में आटा गूँधने के बाद
चूल्हे पर दाल उबालते
टूटी फूँकनी के कपाल पर धप्प मारते
रोज धुँए से झगड़ा करती हैं
आकाश में फाइटर प्लेन
उड़ाती वे औरतें
जिनके जन्म पर कभी
लड्डु नहीं बँटे थे
जो दधिची की हड्डियाँ पहनकर
खुद ही लोहा हो जाती हैं
वो औरतें जो खोपरे का तेल
रगड़कर बाल काढती है
लहसुन छीलते मेरीकॉम की बॉक्सिंग देखती हैं
बुरे वक्त के लिए कभी -कभी
सब्जीवाली से दो-पाँच सिक्के
बचाकर झट दाल के कनस्तर में
छिपा देती हैं
वे औरतें जो नहीं जानती
क्षेत्रफल का सूत्र,
प्रकाश संशलेषण का नियम
पर वो बच्चों के होमवर्क
की चिंता में डूब कर
पूरा गूगल का पेट छान लेती हैं
वे जींस वाली औरतें भी
जो हेयर स्पा के बाद
सनग्लास लगाकर टिक-टॉक चलती है
माँ -बहन की हजार किलो वाली गालियाँ
नुक्कड़,बस और सड़कों पर
रोज सुनती हैं
सुनो कलफ लगी साड़ियों वाली
वे ढेर सारी औरतें
जॊ मार के निशान को
मिसमेच पेटिकोट के साथ बाँध लेती है
शाम को नीले पड़े
होठ के निशान को
लाल लिपिस्टक में छुपाती हैं
ब्यूटी फेक्ट्री में बने गहरे काले काजल से
आँसू की रात दबाती हैं
फिर सुबह ऑफिस में ज्यादा
मुस्काती हैं
पुरुषों को जन्म देने वाली
मेरी नस्ल की ये ढेर औरतें
खारिज़ करती हैं मंगल पांडे तुम्हारी
अट्ठारह सौ सत्तावन की प्रथम आजाद क्रांति को
जायसी तुम्हारी पद्मावत के नख-शिख व्याख्या को
अपने सर्वस्वदान की हज़ारों किस्तों के आगे
जयप्रकाश नारायण के भूदान आन्दोलन को
मेरी नस्ल की ये ढेर और औरतें
खारिज़ करती हैं
शेर पर बैठी खुद के देवी पोस्टर को
ये औरतें खारिज़ करती हैं
चंद्र बरदाई के पृथ्वीराज रासो और चौहानवंश के
पौरुष पराक्रम को
ये औरतें खारिज़ करती है विश्व की
तमाम शांति वार्ताओं की फूटी आंखों को ।
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चित्र - सोनी पाण्डेय
3.मुख्तारनामा
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मेरा झगड़ा रोशनी के लिए था
दुर्भाग्य!
दुनिया में आज तक रोशनी की पूरी स्क्रीप्ट दरवाजों ने लिखी
टूटी झिर्री के खिलाफ़ फतवे गाड़े
जो धूप की उधारी जूतों पर
आउट ऑफ द बॉक्स पर पहला संवाद बोल रही थी
नुक्कड़ नाटक के सारे किरदार झूठ हां में हां मिलाते गए
इनको माफीनामा दिया जा सकता है
पर जिन आँखों ने सच की ध्वजा की कसमें खाई-खिलाई
फिर आधीरात को मुख्तारनामा झूठ के घर ट्रांसफर किए
उनको मिले मृत्युदंड
हम प्रवंचना की कमीज़ सिलने वाले धूर्त टेलर हैं
मनुष्यता के भूगोल पर ढेले मारने वालों में सबसे आगे
हम ही मुँह पलटने वाले
हम ही बेशर्मों की तरह चिल्लाने वाले
भाई! अब ये दुनिया भरोसे लायक नहीं रही
जबकि हमारी पीठ अब चींटी के बोझ से भी दुखती है
4. इंकलाब के जश्न
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सारे मुहासों में
एक भगतसिंह बैठा है
हमारे अपराधिक हाथ उसकी हत्या के इश्क में हैं
बिना नाम की स्त्री ने
बहुत सालों से इंकलाब के जश्न नहीं गटके
आओ न्युजएंकर
हरे पेड़ों को फांसी रात तीन बजे होगी
तैयार रहें
हमें देशभक्ति के छ्दम के मुखड़े गाने है
गलत की मृत्यु होगी।
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चित्र- सोनी पाण्डेय
5.हाँ फिर लिखूँगी कविता
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हाँ मैं लिखूँगी मनुष्यता
जब हिरोशिमा और नागासाकी का दर्द
माइनस डिग्री के पंख लेगा
जब मार्टिन लूथर की त्वचा का होगा
माल्यार्पण सामाजिक गोष्ठियों में
हाँ मैं लिखूँगी प्रेम
जब चमकी बुखार का इल्जाम
पॉलिटक्स के सोड़े पानी से बच पाएगा
जब सिरिया के बच्चों का आकाश
किताब -पेंसिल का जादुई बॉक्स होगा
हाँ मैं लिखूँगी फक्कड़ता
जब कबीर के इश्क में डूबकर
केसरिया हरा से छिन लूंगी *खास छात्रवृत्तियाँ
जब सुकरात का ज़हर एथेंस से भागकर
दुनिया के सस्ते बाजारों का अधिपति हो जाएगा
हाँ मैं फिर लिखूँगी एक नई कविता
जब कवि के अड्डे पर सूर्य मुज़रा बजाने आएगा।
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