रविवार, 15 जनवरी 2017

हेमन्त सिंह राणा की कविताऐं


जब तक कविता है ,जीवन में सहजता ,तरलता और उम्मीद बची रहेगी। कविता गहन निराशा में कुछ बूंद आशा है ,ऐसे ही आशा और निराशा के बीच उलझते/सुलझते कवि हैं हेमन्त सिंह राणा। स्वभाव से संकोची राणा का सम्बन्ध आज़मगढ़ से भी उतना ही है जितना बनारस से। हिन्दी ,उर्दू,बांग्ला ,मैथिली भाषाओं का ज्ञान और विभिन्न प्रांतों की यायवरी ने अनुभव का दायरा बढ़ाया तो कविता की पृष्ठभूमि पर संवेदना के सहज बिम्ब कविता में फूट पड़े। हेमन्त सिंह राणा की कविताओं में जीवन के सहज बिम्ब ऐसे आते हैं जैसे सबकुछ सामने घट रहा हो। आईए आज पढ़ते हैं गाथांतर ब्लाग पर राणा की कविताऐं......






1----

वह लिखता रहा......

उसने पानी लिखा
मैं भींग गई
उसने प्यास लिखा
मेरा हलक सूख गया 
उसने आग लिखा
फफोले मुझ पर उगे
और भी लिखा उसने
बहुत कुछ
वह लिखता गया
मैं यथार्थ जीती गई....

एक दिन उसने प्रेम लिखा
मैं चहक उठी
उसने विरह लिखा
मैं तड़पी
और अन्तत:
उसने विदा लिखा
मैं पत्थर हो गयी.....

_____________

2...
तुम्हारी जीत...

मेरी घुटी चीखो पर
तुम्हारा चीखता अहल्लाद
मेरे निचले होठों  को कचोटते 
तुम्हारे ऊपरी दांत 
भिंची मुठिओ में
कैद मेरा स्त्रीत्व
तुम्हे तृप्त करती रहा.
सोचती रही
तुम्हारा दंभी पुरुषार्थ
कितना सुखद है न ?
कितना सुखद लगा होगा तुम्हे 
जब 
तुम अपने साँसो की मदमयी गन्ध
जबरन मेरे नथुनो में उड़ेल गये होगे 
वो क्षण 
कितना सुखद होगा तुम्हारे लिए
जब मैं एक रक्त रंजित वसुंधरा सी
अपने ही लहू में सनी 
वही पड़ी हूँ 
और तुम 
एक थके विजेता की तरह
अपने मष्तिष्क पर
विजय का स्वनिर्मित ताज पहने 
चले जा रहे हो..

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3.

कल्पनाऐं  बेहद उन्मादी होती हैं....

कल्पनायें बेहद उन्मादी होती है
उन्मुक्त और स्वच्छन्द
जरा सी शह पर
तोड़ देती है सारे तटबन्ध
किसी पहाड़ी नदीं की तरह
अपने उन्माद में बहा ले जाती है
यथार्थ के क्रूर और बीभत्स मलबे
मैं खुद ही इस नदी को बुनता हूँ
किसी जाल की तरह
खुद उसमें कूद पड़ता हूँ
और डूबने तैरने का अभिनय करता हूँ 
जब जीवन में सबकुछ जड़ हो जाये
बहना भाता है मुझे 
इस नदी में 
मैं तुम्हे उस अत्यंत खूबसूरत स्त्री की तरह पाता हूँ
जो मेरी प्रेमिका है 
जो नित्य इस नदी में घण्टो नहाती है
मैं तट पर बैठा मौन
रोज उसे घण्टो देखता हूँ 
मगर
जिसके सामीप्य का सुख 
मुझे नही 

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4.

और अब मैं मौन रहना चाहता हूँ.....

तुम्हारा कुछ सामान पड़ा है
बेतरतीब सा फैला पसरा
मेरे छोटे से कमरे में
आ के इन्हें
तुम क्यूँ ले नहीं जाते ?
कुछ खाने की मेज से चिपकी
कुछ दीवारो पर औंधी लटकी
कुछ बिस्तर, कुछ फर्श पे बिखरी
इक मुद्दत इक उम्र से ठहरी 
कमरे से किचन तक
इनकी जैसे
एक गर्त जमी है 
साफ करू तो 
और फ़ैल जाती है
इनमें चिकनाई सी नमी है 
जैसे चिकनी चुपड़ी बातें
आ के इन्हें
तुम क्यूँ ले नहीं जाते?
अब क्या रक्खा है इन बातो में 
खत में 
फूल में 
सौगातों में 
सायं -सायं बजते रहते हैं
उम्र से लम्बी इन रातो में 
ये वज़ा हैं
पर क्यूँ है ?
इसकी कोई वजह नहीं है
कसक है इनमे
तड़प है इनमे 
चीजे तुम बिन सहज नहीं है 
कभी आ जाओ तुम आते -आते 
आके इन्हें
ले जाओ
कि ये सब मेरे जीने के सामान हैं
और मैं अब मौन रहना चाहता हूँ......

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5.

लौटना कितना सुखद है

लौटना बसन्त का 
लौटना मधुमास का
लौटना उम्मीद का
लौटना उल्लास का
लौटना कितना सुखद है
थका दिन फिर तृप्त रात का
तपती जेठ फिर बरसात का
किसी विरहन के मीत का 
भूले अनायास किसी गीत का
लौटना कितना सुखद है
मगर सब कुछ कहाँ लौटता है
मिट गए पदचिन्ह जो
धूल गए कुछ बिम्ब जो
जो काल साथ ले गया
बस खाली हाथ दे गया 
मगर सब कुछ कहाँ लौटता है
जो गुजर गया सो गुजर गया
कहाँ गया किधर गया 
वक़्त था चला गया
बुरा गया भला गया 
लौटना कितना सुखद है
मगर सबकुछ कहाँ लौटता है

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6.

यहाँ देवता भी अमरत्व लेकर नहीं आते....

एक दिन
माएँ पुत्रो का मोह त्याग देती है
सिरो पर हाथ फेरना छोड़ देती है
पिता अंगुलियां थमाना भूल जाते है
भाई , भाई के हिस्से की रोटियां छीनने की कला सीख लेता है
पत्नियां छल के भाव समझने लगती है
पति दमन का अर्थ समझ लेता है 
सम्बन्धो के मायने
जीवन के निमित्त अर्थ
बदल जाते है
तुम कहती हो
तुम्हारा प्रेम अमर है
मैं बरबस मुस्कुरा पड़ती हूँ 
यह धरा है प्रिये
यहाँ देवता भी अमरत्व लेकर नहीं आते 

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हेमन्त सिंह राणा

Rana

41 years 

M.com , st.vinova bhave University , Hazaribagh , Jharkhand

From,.... varanasi 

रेखा चित्र
अनुप्रिया

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