मंगलवार, 17 जनवरी 2017

समीर कुमार पाण्डेय की कविताऐं

बागी बलिया की क्रांतिधर्मा धरती के समीर स्वभाव से ठेठ गवईं व्यक्ति हैं ,उनकी निगाह गाँव से होकर शहर जाती है और दोनों के आन्तरिक द्वन्द को बखुबी जानती -पहचानती है। समकालीन कविता में समीर तेजी से उभरता युवा नाम हैं।आईए आज गाथांतर पर समीर की रचनाधर्मिता का स्वागत करें.....

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पुरबिया कामगार औरतें

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दिल्ली भागी औरतें 

उच्छृंखल पहाड़ी नदी होती हैं 

जो भूख और गरीबी के तटों से होकर

यहाँ पहुँच कर गुम हो गयी हैं

ईमारतों और भींड भरी सड़कों में  

जिनके विरुद्ध गढ़े जाते हैं 

श्लील-अश्लील मुहावरे 

तब महानगर का वक्त मुठ्ठियों में कश जाता है...

ये आजन्म जीती है अशिक्षित 

सड़क की जिंदगी संसद के पिछवाड़े में

वह रोज सुबह निकलती है 

मुसल्सल दौड़ती, भागती, रेंगती

पूरे दिन फिरकी सी घरों में घूमती है 

उनके लिए एक पल ही काफी होता है

उन मुखौटों की हकीकत उजागर करने में 

जिस वासनागत समाज ने कभी स्नेह नही दिया 

सहलाया नही प्रेम में उन गठे जिस्मों को....।

जनवरी की ठिठुरती शाम में 

मेट्रो का दरवाजा खुलते ही 

घुस जाती है वही औरतें 

विजेता की तरह कुचलती जाती है उजले चेहरों को

ध्वस्त होते देखती है अभिजात्य ओढ़े ओहदों को

ये औरतें आदतन क्रांतिधर्मी नही होती

ये तो उदास, धूसर गली-मोहल्लों से निकल

जैसे-तैसे चली आयी हैं इस महानगर में

जहाँ आदमी कम मशीनें ज्यादे होने से 

वह भी मारना सीख गयी हैं भावनाओं को 

इस प्रदूषित हवा में 

लेती हैं साँस ईर्ष्या,अपमान की गर्म हवाओं में 

उनके फैसले से 

बंद हो जाते हैं घर के सभी दरवाजे 

केंचुल बदलते गाँव में 

उसके लिए ऐसे घृणा पसर जाती है

जैसे मेट्रो के नीचे यमुना मैली-कुचैली उदास सी...।

वे डरती नही 

चुपचाप अपनों में बतियाते

भीड़ को चीरती घुसती है मेट्रो के भीतर 

लम्बी गहन उदासी को 

झटके में उड़ा 

खिलखिलाती हैं जोर से

उनकी आँखों में तैरती है सोन मछलियाँ 

उनके शरीर में केवल

मरे पसीने की गंध नही

हाथों में मोबाईल 

और होठों पर लाल लिप्सटिक भी पुती होती है 

मॉल और मल्टीप्लेक्स की दुनिया के बीच 

वे औरतें गद्गद भावुकता 

प्रवंचित बौद्धिकता के बीच खड़े लोगों को छू कर 

बिना प्रेम किये निकल जाती है

इन औरतों का हँसना नही सुहाता दिल्ली को

कुछ छिल सी जाती है चकमक हाँफती दिल्ली

भीड़ के चेहरे की चमक झरकर

चिपक सी जाती है एक अनजान चुप्पी

पर इन्हीं पुरबिया कामगार औरतों से ही 

यह आधी-अधूरी दिल्ली पूरी दिल्ली हो पाती है....।

(2).

मजाक

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गाँव का मजाक 

क्यों नही बना सकते शहर

जब शहर मजाक करते हैं 

तो पता नही चलता वे मजाक कर रहे हैं

जब गाँव मजाक करते हैं 

तो तमाम अँधेरे के बावजूद

गेहूं, उडद और अजवायन उजाले में उगते हैं

वे दुनिया के आदिम कारीगर हैं

जिनके सिरहाने है हँसिया, हल और कुदाल

जिन विजेताओं के इतिहास में 

वास्तविकता कम मजाक ज्यादे होते है

गाँव ऐसे शहरी मजाक को नही समझ पाते

वे विहँसते हैं 

गाँव की भाषा और पहनावे पर

झुग्गी-झोपड़ियों और पगडंडियों पर

यह दुनिया जिन मिट्टी सने हाथों 

बना एक खिलौना है 

जमीन से उछला आकाश है 

इनकी मिट्टी से निकला पत्थरों का जंगल है

उनसे ऐसा रिश्ता 

कोई उचित रास्ता नही होता मजाक का....।

(3).

जमीन से उगे लोग

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मैंने देखा है 

मिट्टी में गड़े पैरों की दरारें

कुहरे संग अडिग खेतों में खड़ी परछाइयाँ

कर्ज में दबे हृदय के चेहरे पर मुस्कान

कच्ची दीवार से भुर-भुराती पक्की संवेदनाएं

चूल्हे की आंच के आसरे सोये जांत 

आभाव में भाव धारण किये झुके कंधे

छान्ही के तले पुआल पर पड़ा सिकुड़ा जीवन...।

मैंने देखा है 

झोपड़ियाँ उजड़ते 

चूसे खून के गारे से बनी 

राख के ढेर पर बनी भव्य इमारतें 

चिमनियों के धुँए में मरते खेत और पेड़

हरे पेड़ों के बेहतरीन ताबूत पर अगराये शहर

खेतों की हरियाली को कंकरीट में बदलना      

धरती को बचाने के लिए नही

नायकत्व धारण कर इसे नष्ट करने को आतुर लोग...।

मैंने देखा है 

सत्ता के बदलते रूप के बीच

लोकतंत्र के चूहों द्वारा अन्न की बोरियाँ कुतरते  

धरती की कोख से पैदा भाग्य विधाताओं के 

पंजे में दबे भूखे, कुपोषित और बेघर जन

सत्य से अनजान पालतू सुग्गों की उम्मीद 

कि मंच और मंच से बाहर का नाटक सही चल रहा 

साज़िश में लिप्त महलों को पता नही

कि नही उखड़ते लाख कोशिशों के बावजूद 

नदी-नाले, खेत-बघार और जमीन से उगे लोग...।

(4).

हस्तक्षेप जरुरी है

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एक टटका फूल रोज खिलता है

ओस से भीगा निर्दोष लाल फूल

रोज सुबह उम्मीद की पेट से 

सुनहली गुनगुनी धूप निकल आती है 

बच्चों के मुँह में दाना डालकर 

रोज चिड़िया पंख खुजा रही होती है 

रोज खुली धूप में आलोचक 

खरगोश की आँखों के चटक रंगों को नकार

बकरियों को घास चरते देख खूब खुश होता है....।

सब कुछ ठीक है

तो यह क्या है जो मन में गड़ता है

क्या है जो रोज कील सा चुभता है 

यहाँ सब कुछ ठीक करने का शोर बहुत है

पर वह सच्चाई से कतराकर गुजर जाता है

दुःख के दुःख की पीठ में कील ठोकने वाले 

लोगों में श्रेष्ठ लोगों मुझे माफ़ करना 

इस महादेश में 

सत्ता के सामने नतमस्तक

तुम्हारा डरा मन रोज बजाता है आयातित बाजा

चट्टी-चौराहों, शराबखानों और सम्मेलनों में...।

हस्तक्षेप जरूरी है

मेरे मन में है भूख और हाथ में कलम 

धार का मुकाबला कलम की नोक से है

मेरे कविता के सहमे पैर 

उस वंचित कुनबे की ओर अनायास बढ़ जाते हैं

जहाँ ऐसे ख़ुशामद मौसम में भी 

पेड़ पर टंगे हैं कर्ज में डूबे लोग

जिनकी मुठभेड़ हर वक्त होती है ताकत से

जहाँ तन के खड़े होने मात्र से बढ़ जाती है

अकड़, अश्लीलता, मठों और तंत्र की मार....।

(5).

गाँव नही मरते

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घोषणा हो चुकी है

कि अब कोई गरीब नही रहा 

विकास के बड़े-बड़े दावे के बीच

कुछ कहना-सुनना ठीक नही समझा जाता...

जब फटी छाती वाली धरती चीखती है

तब मुहावरेदार अर्थ निकलते हैं

कि झोपड़-पट्टियाँ खतरनाक हो चली हैं

और कुछ बंद रास्ते 

वक्त आने पर ही स्वयं ही खुल सकते हैं...। 

इस शोर में

आओ तलाशते हैं

कुहरे से घिरे इलाके में राह

जहाँ कुहरा जल रहा है आग की तरह...

वहाँ तंत्र की गरमी से 

नही जल जाते हैं अपने गाँव

पर सत्ता के इंद्रजाल से भींग जाते हैं 

तब जरूर जब मुखौटेधारी 

सत्ता का खून पसीना बन जाता है 

और वही पानी चुल्लू भर पानी में डूब मरता है....।

यह निर्विवाद है

कि रास्ते हर जगह होते हैं 

दीवार के भीतर कठोरता में

नदी के बहाव के बीच में 

खेतों की कट चुकी डँड़ारों पर

अँधेरी रातों और अनिश्चय के जखाड़ में...

रास्ते कभी नष्ट नही होते 

वे अपनी जीवन्त भूमिका में 

खो जरूर जाते हैं 

मगर जमीन पर आश्रित गाँव मरते नही है....।

      समीर कुमार पाण्डेय

        बलिया


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