इन दिनों कुछ ज्यादा ही मेरे घर का सांकल खटखटाने लगीं हैं वे औरतें,..विचित्र स्थिति है,सुनाई केवल मुझे ही देता है। वे आती हैं और विक्रम के बैताल की तरह कन्धे पर झूल जातीं हैं जबरन ,लगती हैं सुनाने अपनी कथा और अन्त में कहती हैं ....न्याय करो!, नहीं तो हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। अजब -गजब हालत है,...कोर्ट जाऊं की कचहरी मियाँ,या लगवाऊं थानेदार से हथकडियाँ पिया ,...वाला नुस्खा भी नहीं चल सकता । सब मर - मरा गये हैं मेरे सिवा ज़ालिम ज़माने में। एक है बड़की दी,...खुदा ऐसी दोज़ख सी जिन्दगी किसी दुश्मन की भी बेटी को न मिले,दूसरी झुलनिया वाली भउजी,....बेचारी महेसर के मोह में कलक्ते से मऊ चली आई और ऐसी बिलाई की बिलाने जैसी ,वह भी मुँह बाए रोज खड़ी हो जाती है सिराहने। एक ठो पन्नडब्बे में मिसरी रख चबाने वाली मिसराइन चाची हैं जो मिसिर चाचा को बता के रहेंगीं कि हर जुल्म का अन्त हो कर रहेगा ।एक साधना सिंह हैं जिनका इन्कलाब शेष है।अम्मा भी है,बड़की माई और गोड़उल वाली आजी भी हैं,.... मैं भागती हूँ सरपट,रास्ता बदलती हूँ और ठहरते सब सामने हांफती खड़ी मिलती हैं और कन्धे पर लद जाती हैं ,जैसे विक्रम का बैताल।इनकी मुक्ति बस इसमें है कि कथा लिखूँ इनकी ...सब पढ़े और दो आँसू बहाए इनके नाम पर कि किसी ने इनकी मौत पर मातम नहीं मनाया था।
दिन बीत रहे हैं ,मौसम उमंगों के ढ़लान की ओर हैं। अक्सर लगता है पेट के दाहिनी ओर जो गेंद अॉटो में चढ़ते समय फेफड़े में अड़स जाता है ,एक धमाके में फटेगा और मौत गले लगा लेगी ।कभी लगता है गर्भाशय का फुलता पचकता गुब्बारा किसी दिन इलहाबादी अमरुद की तरह ट्यूमर मे बदल जाएगा और एक झटके में पूर्ण विराम ,या जननांगों के नीचे करौंदे के बतिये सा लटकता लाल मांस पिंड कछुए सा बढ़ कर पंजो में जकड़ लेगा। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि मेरे पास समय कम है और इन औरतों की मुक्ति कथा शेष...इस लिए आज फैसला ले ही लिया कि दर्ज करो कही भी इन्हें ,वरना मौत आ गई तो इनकी मुक्ति रह जाएगी और ये मुझे कई जन्मों तक जकड़े रहेंगी।......
कथा ....1
जियते पियवा बात न पूछे,मुवले पिपरे पानी...
ये स्मृतियों के किवाड़ खोलने की ऋतु है, एक सुनहरी चादर ताने दिन जब चढ़ता है पीले सरसों के गन्ध में नहाई हवा हौले से माँ के कुछ मधुर गीत रस आत्म में घोल कहती है कि "...आओ स्वागत करें बसन्त का कि पतझड़ लौट गया है नंगे पाँव। मैं अँचरा भर बथुआ,चना खोंट कर लाल फीता बाँधे खेतों की मेंढ़ पर गाँव की अल्हढ़ लड़कियों संग गाती फुदकती घर लौटना चाहती हूँ कि ....मोरी कुसुमी रे चुनरिया इतर गमके।" ये मेरी देहरी से प्रेम की पराकाष्ठा है कि कुछ और सोचे बगैर फिर- फिर लौटती हूँ कोयल के कूंकते उस देस, जहाँ सोलहवां साल आम की फुनगी पर सतरंगी पतंग सा टंगा है।
बेटियाँ ब्याह दी जाती हैं उस देश ,जहाँ खून का कोई सम्बन्ध दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। मैं भी उम्र के बाईसवें पड़ाव पर उखाड़ दी गयी जड़ समेत ,पर हाय कि उठती है हूक और जड़ें स्मृतियों के पोषण में पोषित हो तंय कर लेती हैं लम्बी यात्रा और सुदूर उस चौखट पर जाकर वन बेला सी फूट पड़ती हैं। मह -मह महकती बेटियों की सोंधी खुशबू आँचल के कोर में बाँधे अम्मा निहार आती है रोज उस ओर दुवार पर ,जिधर से बेटियाँ विदा हुई थीं। पर पिता......?......एक विराट सन्नाटे को चीरता उनका अथाह धैर्य,उफ्फ! कैसे सहते रहे होंगे बाबूजी चार बेटियों के विवाह के लिए दर -दर अपमान की पीड़ा?...एक अपराजेय योद्धा कैसे जीवन के उस आत्मिक अपमान और उपेक्षा के दंश पर मौन धरे देस देस यात्रा कर लौटता रहा होगा घर के उस ऊँचे फाटक से घर में,जहाँ उनके सम्मान की कई गाथाऐं तमगे की तरह टंगी ईठलाती थीं? सोचती हूँ....सोचते -सोचते रात घिरने लगती है।बिस्तर पर करवट फेर कर सोती हूँ उससे,जो शायद आज करवट फेरने से खासा नाराज है।तकिया भींगने लगता है और खुलती है पहली खिड़की.....सामने बड़ी बहन को लोग चारपाई पर लाद कर फातिमा अस्पताल ले जा रहे हैं,मुझसे बारह साल बड़ी बहन,ये चित्र बहुत धुधला है....रह रह कर गायब हो जाता है। अम्मा रो रही है....मियादी बुखार उतरता ही नहीं। लोगों का मेला चला जा रहा है।चित्र उतर रहा है आँखों के सामने से ,जैसे उतर जाता है चौराहे पर लगा विशाल पोस्टर। वह लौट आई थी, बस इतना याद है।बाबूजी जेब में रुपया भरके ले जाते थे...अम्मा बक्से में धरे कपड़ों का तह तह खंघालती और रुपये बटोरती थी।घर पर बड़की बुआ गोद में कुछ माह के इकलौते भाई को लिए बैठी रहती और मनातीं कि सब कुशल हो।
बड़ी दी के ब्याह का चित्र भी कुछ साफ नहीं,इतना याद है छोटी का हाथ थामें हम मोंछू अचारजी के स्कूल जाते थे।गोल - मटोल प्यारी दुलारी छोटी साथ रहती,साये की तरह।बारत वाला दिन कुछ -कुछ याद है,रेलिंग पर सजी -धजी औरतें खड़ी कोरस में गा रही थीं,शायद अम्मा गा रही थी ....आपन खोरिया बहोरा हो तिवारी जी,आई गइलें दुलरु दमादsss....
ये गीत अम्मा चारों बेटियों के द्वारपूजे पर गाती रही...अड़ोसियों- पड़ोसियो,रिश्तेदारों की बेटियों के ब्याह तक में।सुनते - सुनते कण्ठस्थ हो गया ,जैसे पिता से मानस की तमाम चौपाइयाँ कण्ठस्थ हुईं।
क्रमश:...
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