मंगलवार, 10 जनवरी 2017

संजय कुमार अविनाश की दो कविताऐं

1-----

पगली

पगली, मैँ कैसी पगली
गोबर उठाती हूँ
सड़े-गले खाती हूँ
बिन पगार काम करती हूँ

कपड़े के बिना
अपनत्व का अभाव
अधनंगे तन की
नुमाईश करती हूँ
पगली, कैसी पगली ?

आँखेँ फार-फार कर
देखा करते हो
हँसी ठिठोली मेँ
मानव कहलाते हो
मेरा तन तुम्हेँ हँसाया
बच्चोँ को भी ललचाया
ततक्षण मौका पाकर
हमबिस्तर भी बनाया
पगली, कैसी पगली ?

अपने को श्रमसाध्य मानी
सेवा की भावना मेँ भागी
अंधेरी रात
प्रकाशमान दिवा
धूप-बरसात
मान ली निष्प्राण
लगी रही औरोँ की काम
पगली, कैसी पगली ?

दवा के बिना
अन्न के बिना
अपनोँ के बिना
स्वतंत्रता की चाह मेँ
स्वाधीनता के अभाव मेँ
कहलाती हूँ
पगली, पगली, पगली !

तन से
मन से
कपड़ोँ से
सगा-संबंध से
अपनत्व से
इसलिए कि मैँ तुम्हेँ न मानी !

प्रकृत को मानी
कर्त्तव्य को समझी
अधिकार पहचानी
सड़क-चौराहे
गली-मुहल्ले
रात अंधेरी
चलती रही
भागती रही
आखिर कर
पगली कहलाई !

सोच ! समझ !
पुरुषार्थ को
नारीत्व को
भावना को
निर्मात्री को
जननी को !

हर तन मेँ ,
मन मेँ ,
कण-कण मेँ ,
मैँ ही हूँ
पगली , पगली ,
हाँ पगली !!

संजय कुमार अविनाश

2-----टूटी चप्पल

कचड़ा बीनती, नन्हेँ हाथ
गली-मुहल्ले , कब्र-श्मशान
पीठ पर लदे गंदे , बदवूदार
निःसहाय गरीबी की पहचान
टूटी चप्पल, फटी ब्लॉऊज, चिथड़े मन
अस्मत का कवच !

दिन, माह, वर्ष यूँ ही बीता
बदवू से स्नेह
मायावी से द्वेष
पश्चिमी झुकाव
सबसे अलगाव
टूटी चप्पल !

अचानक चमचमाती गाड़ी
नजरोँ मेँ चमचमाई
कालू के पापा
डगमग-डगमग
चप्पल छोड़
आहिस्ता-आहिस्ता
पास खड़े
बड़बड़ाया-
साहव ! साहव !
स----ब ---स--ब
हाँ -- स-ब
गाड़ी , बंगला , रुपया !

मैँ भी भरमाई
कहाँ ? क्योँ ?
आखिर कहाँ ?
बताओ क्योँ ?

मैँ पास खड़ी , खड़ी रही !
नाक, भौँहे दबाये
चमचमाती गाड़ी
ओझल हो चली ,
टूटी चप्पल , फटी ब्लॉऊज
निहारती रही ---
देखी , समझी ,
संभाली !

चमचमाती ब्लॉऊज
रंगीन चप्पल
छीटदार साड़ी
एक दिन आँखेँ खुली
अस्पताल मेँ !
लड़खराती आवाज,
बेहोशी ,
खून से लथपथ
आस-पास
कई टूटी चप्पल
फटी ब्लॉऊज
बदवूदार भीड़
निहार-निहार
कोसे जा रहा
सजा मिली
कचड़े बीनने की
रंगीन चप्पल की
चमचमाती ब्लॉऊज की
बदवू से नाता तोड़ने की
चारोँ तरफ
रेप , ब्लात्कार
कचड़े के साथ
कचड़े का साथ !!

संजय कुमार अविनाश
9570544102

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