प्रतिभा सिंह उत्तर प्रदेश के जनपद आजमगढ़ के छोटे से गांव में रहते हुए पिछले एक दशक से निरन्तर लिख रही हैं। प्राथमिक की शिक्षिका प्रतिभा की कहानी वह साँझ थी की ठहरी रही तीन परिवेश की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,सोच और निर्मिति को दर्शाती मार्मिक कहानी है।आज लेखन का आयाम कितना विकसित हुआ इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है।
सोनी पाण्डेय
वह साँझ थी कि ठहरी रही
आसमान में घुमड़ते काले-भूरे बादलों का झुण्ड मनमोहक लग रहा था।आषाढ़-सावन तो सूखे बीते,ख़ैर उतरते भादों में ही सही बेदर्दी बादल बरसे तो।ठंडी हवा के झोके बता रहे थे कि कहीं आस- पास खूब बारिश हुई है।महीनों की प्रतीक्षा के बाद आज बरसात की ठंडी बूंदों को छूकर गुजरने वाली हवा का स्पर्श सुखद था।इतने सुहावने मौसम में मैं अपनी तन्हाई के साथ सड़क की धूलभरी भीड़ में खड़ी थी पर खुद में ही मगन।बारिश से पहले की तेज आंधी अपने साथ धूल- गर्द तो उड़ा ही रही थी पर मेरा मन भी तेज हवा के झोके पर सवार हो हिचकोले खा रहा था।श्यामल सांझ की उजास मेरे मन में समाकर मुझे तरंगित कर रही थी।मेरी मनपसंद लाल रंग की स्कर्ट और सफेद टॉप जिसे मैंने आज पहली बार पहना था अब धूल धूसरित हो गई थी।फिर भी मैं बेफिक्र मन के उजास में विचरती -विचारती चहलकदमी कर रही थी।हाँ,कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि मेरे खुले बाल तेज हवा से बेतरतीब हो गए हैं।उफ ...मैंने पर्स से स्टॉल निकालकर चेहरा ढंक लिया।अब मेरी नज़र सफेद जूतों पर गई।वे धूल-मिट्टी में नहाकर अपना मूल रंग खो चुके थे।पर जो भी हो आज मौसम इतना सुहावना हुआ था कि मन आनंद सागर में हिलोरें ले रहा था।
मैंने तिराहे पर आकर एक ई रिक्शे वाले को रुकने का इशारा किया।वह मेरे ठीक सामने आकर रुका-
भैया देवकाली चलोगे?
हाँ चलिबैं मैडम जी।पर आप अकेले सवारी हौ तो पचास रुपिया देबै का परी।
अरे!लूट रहे हो।हरदम चौक से देवकाली का बीस रुपये तो देती हूँ।
"मैडम जी ! राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाये त आपसे पचास रुपिया ना लेइत।पर आपका अकेलै ही ले जाये का परी।"
"क्यों ?तुम बैठा लेना किसी और को भी।"
और इतना कहते हुए मैं बैठ गयी।
"मैडम जी अगर राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाय तौ आप बीस ही देना।ओइसे संझा का बेला है अउर मौसम भी खराब होय रहा।अब आप ही सोचौ अइसन मा घर कउन छोड़ै।"
मैं रिक्शे वाले से कहना चाहती हूँ कि कोई घर छोड़ेगा नहीं पर जिसने छोड़ दिया है वह घर जाएगा तो है न।पर मन नहीं है उससे और बोलने का।इस सुहावने मौसम में मूड खराब नहीं करना चाहती थी।मूड खराब से ध्यान आया,इसने कहा कि मौसम खराब हो रहा है।एक बात मेरी समझ में नहीं आती जब मौसम असल में सुहावना होता है तो लोग यह क्यों कहते हैं कि खराब हो रहा है।चाहे सूखा पड़े,धरतीं बंजर हो जाये,नदी नाले सूखने लगे या प्यास से पशु-पक्षी मरने लगे, चाहे लंबे अकाल के बाद ही बारिश क्यों न हो, लोग यही कहेंगे मौसम खराब है।अजीब है मानव मन भी..हर घड़ी उसपर नकारात्मकता ही हावी रहती है।ख़ैर मैंने उसे चलने के लिए कहा।उसने ऑटो स्टार्ट किया और साथ में तेज अवाज में गाने भी।कोई फिल्मी गाना बज रहा था पर गाने पर मेरा ध्यान नहीं था।
मैं ऑटो की खिड़की पर बैठी बाहर देख रही रही थी।सामान्य दिनों में फैजाबाद की मार्किट में शाम को ही रंगीनियत रहती है। जैसा की हर शहर में होता है।पर उसदिन मौसम का मिजाज कुछ और ही था।रोड पर ठेले खोमचे लेकर खड़े रहने वाले जल्दी- जल्दी घर की ओर भाग रहे थे।छोटी दुकानों के शटर बंद हो रहे थे।जबकि बड़ी दुकानों में अभी वैसी ही रौनक थी।आजकल मैं जब भी घर से निकलती हूँ न जाने क्यों मेरा मन अजीब सी उदासी से भर जाता है।जब दो साल पहले मैं फैजाबाद आयी थी तो यह बिल्कुल ऐसा नहीं था।सड़कों के दोनों किनारों पर खूब छायादार ऊँचे -ऊँचे वृक्ष हुआ करते थे।पर अब जबसे राम मंदिर मामले का निस्तारण हुआ है पूरे अयोध्या जनपद में निर्माण कार्य तेज हो गया है।सड़के सिक्स और फोर लेन की जा रही हैं।फाइव और सेवन स्टार हॉटेल बनाये जा रहे हैं।सरकार के इस फैसले से यहाँ के अधिकतर लोग खुश हैं।किन्तु जिनकी बहुमूल्य जमीनों का अधिग्रहण औने- पौने दाम में किया जा रहा है वह दुःखी हैं और वर्तमान सरकार को कोस रहे हैं।पर बहुसंख्यक अयोध्यावासी सरकार की इस ऐतिहासिक जीत को धर्म की जीत बता रहे हैं और प्रसन्न हैं।वे अब पारस्परिक अभिवादन में नमस्ते न कहकर जय श्री राम कहने लगे है,उनके शहर का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर चर्चा का केंद्र होने से वे उत्साहित हैं।वैसे मैं चाहती हूँ कि जब भी लोग राम का नाम लें सीता का नाम भी जरूर लें।उनके नाम का भी जयकारा लगाएं।मेरे विचार से उनका त्याग राम से अधिक ही था।पर मेरे चाहने से क्या होता है।अयोध्या तो राम की ही है।
खैर ऑटो चल रही थी और मैं मनमोहक शाम की रंगीनियत में डूबती -उतराती विचारों में मग्न।ठंडी हवा से तन में सिहरन होने लगी थी।जैसे -जैसे शाम गहरा रही थी मन और चंचल हुआ जा रहा था।अबतक तो हल्की बारिश शुरू हो गयी थी ।मैं हाथ को ऑटो से थोड़ा बाहर निकालकर पानी की बूंदे उछालने लगी थी। कुछ देर में बारिश और तेज हो गई।मैं खिड़की से ही बाहर देख रही थी,जिसे जहाँ जगह मिल रही थी वह उधर ही भाग रहा।लोगों को भागते -दौड़ते देखकर मैं सोच रही थी कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है जो इतनी अफरा-तफरी मची है।इंसान ही तो हैं सभी कागज तो नहीं कि गल जाएंगे।भला इतनी प्रतीक्षा के बाद बारिश हुई है तो लोग आनंद क्यों नहीं मना रहे।लोग भाग रहे थे जबकि मैं ठहरना चाहती थी।वैसे सच कहूँ तो मैं सड़क पर खड़े होकर भींगना चाहती थी,इन नन्ही -नन्ही बारिश की बूंदों से खेलना चाहती थी।पर ऐसा तो बस फिल्मों में ही होता है।अभी मैं फैजाबाद की सड़क पर उतरकर ऐसा करूँ तो लोग साइको ही समझ लेंगे।तभी मुझे बचपन की स्मृतियाँ घेरने लगीं।जब कभी स्कूल से छुट्टी हुई और रास्ते में बारिश होने लगे तो क्या ही आनंद आ जाता।फिर कहाँ खयाल की किताब-कॉपी भी भींग रही है।कभी-कभी तो इस कदर भीगकर घर आती की माँ से खूब मार पड़ जाती।यह सब याद करते मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई।पर अभी मेरी बगल से एक प्रेमी जोड़ा बाइक पर सवार हो भीगते हुए गुजर रहा था।वह खूब खुश लग रहे थे।लड़की अपने दोनों हाथ खोलकर बारिश की बूंदों को हथेली पर रोक रही थी, इतरा रही थी।लड़का फिदा हो रहा था उसके इस मासूम बचपने पर।मैं तो आज तक इस रहस्य को नहीं समझ पायी की प्रेम करने वाले बच्चे क्यों बन जाते हैं।काश की दुनिया का हर व्यक्ति बस प्रेम ही कर सकता।काश ऐसा होता की घृणा हमारे भावकोश में ही न होती।
मेंरी नजर सड़क के किनारे लगे गुलाब के पेड़ों पर जाती है।फूलों से लदी गुलाब की डाली मनमोहक लग रही थी।ठीक इसी समय मुझे एक घटना याद आ रही थी।वह दिसम्बर की कोहरे भरी शाम थी।मैं गोमती नगर के एक साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित थी।कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं जब मंच से उतरकर दस कदम आगे गेट की तरफ बढ़ी तो एक लड़का गुलाब का फूल लिए मेरे सामने खड़ा हो गया।मैं कुछ समझ पाती की उसने कहा सॉरी मैम।पर आप ड्रीम गर्ल हो।मैं यकीन से कह सकता हूँ की दुनिया का मेरे जैसा हर लड़का आप जैसी लड़की के ही ख्वाब देखता होगा।उसके इतना कहते- कहते मैंने उसे नज़र भर ध्यान से देखा था।वह छः फुट का गोरा और हैंसम नौजवान था।मैंने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से फूल ले लिया था और आगे बढ़कर पास में ही खड़े पति की शर्ट में लगा दिया।वह लड़का प्रश्निल दृष्टि से मेरी ओर देखने लगा था।तब मैंने बताया.. ही इज माय हसबेंड।मुझे आश्चर्य हुआ था उसका कॉन्फिडेंस देखकर।उसने असहज होने या झेंपने के बजाय खुद ही आगे बढ़कर मेरे हसबेंड से हाथ मिलाते हुए कहा-यू आर वेरी लकी सर।रियली योर वाइफ इज सो ब्रिलियंट और ब्यूटीफुल।बदले में वह बस मुस्कुरा रहे थे।उसने सी यू कहते -कहते मेरी ओर देखा और गेट से बाहर निकल गया।मैंने महीने भर बाद न्यूजपेपर में उस लड़के की फोटो देखी थी।उसने आई .ए .एस. में ग्यारहवीं रैंक हासिल की थी।उसदिन मैं फिर उस दिन की घटना को याद करके खूब हंसी थी।पर सचमुच यह पढ़कर मुझे बेहद खुशी हुई थी।
अचानक ही मेरे ध्यान को भंग करती हुई एक तेज आवाज कानों में गयी।वह मेरी ही बगल में बैठी क़रीब तीस-पैंतीस साल की औरत थी,साथ में दो बेटियाँ भी।बड़ी की उम्र शायद सात-आठ साल की रही हो और छोटी की चार से पांच।वह कब मेरी ऑटो में बैठी मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं।मैं तो अबतक अपनी ही विचार यात्रा में थी।पर वह औरत कुछ ज्यादा ही कर्कशा लग रही थी।मैं मामला समझने के लिए उसे ध्यान से सुनने लगी।वह अपनी बेटियों का किराया नहीं देना चाहती थी जबकि ड्राइवर सबका बीस-बीस रुपए मांग रहा था।उसे भी देवकाली ही जाना था।बस मैं चाहती थी कि किसी भी तरह वह चुप रहे ।मैंने ड्राइवर को डांट लगाई और उसे याद दिलाया की उसने पचास रुपये में देवकाली छोड़ देने की बात कहीं थी।और अब मैं उसे उतना ही दूँगी।वह चाहे कितने भी पैसेंजर बैठा ले उनसे उसे एक रुपये न लेने दूँगी।अब वह शांत होकर ऑटो चलाने लगा।ऑटो वाले को बोलते -बोलते मैंने एक नज़र उस औरत की ओर देख लिया ,वह मुझे कृतज्ञता के भाव से देख रही थी।शायद मुझसे कुछ और भी कहना चाहती थी।किन्तु संकोच या भय से चुप थी।
मैं काफी देर से ध्यान दे रही थी कि उस औरत की छोटी बेटी समोसे खाने की जिद कर रही है।और वह उसे जब तब एक दो चपत लगा कर चुप करा दे रही थी। बड़ी तो यूँ भी शांत बैठी थी।तीनों के कपड़े बहुत ही साधारण या कहूँ की इतने घिस चुके थे कि रंग का पता ही नहीं चला रहा था।
मैं कुछ देर बाद देवकाली बाई पास पर उतर गयी।किन्तु अब बारिश और तेज हो गई थी।शाम की खूबसूरती में लिपटे फैजाबाद का दिलकश बाजार घोर सन्नाटे में तब्दील हो चुका था।मुझे अंदाजा था कि शाम ढल गई होगी शायद,बादल से समय का कुछ पता नहीं चल रहा था।मैंने कलाई घड़ी पर नज़र डाली ,शाम के छः बज रहे थे।यहाँ से उतरकर करीब पाँच सौ मीटर की दूरी पर मेरे घर पहुँचते -पहुँचते तो मैं पूरी तरह भीग जाती।इसलिए मैंने कुछ देर पनाह लेने की गरज से आस-पास नज़र दौड़ाई।पास ही एक रेस्टोरेंट दिखा ,भूख तो खूब लगी थी ।चलकर चाय पी जाए यही सोचकर उधर लगभग दौड़ते हुए पहुँची।
इस मूसलाधार बरसात में गरमा गरम चाय के साथ समोसे। वाह ! मजा ही आ जाये।मैं अपना ऑर्डर देकर नज़र भर टेस्टोरेंट का जायजा लेने लगी।मेरे सामने वाली टेबल से एक सीट आगे वही युवा जोड़ा बैठा था जिन्हें मैंने अभी कुछ देर पहले बारिश में सड़क पर सरपट बाइक दौड़ाते हुए देखा था।।मैंने जैसे ही उनकी ओर देखा ठीक उसी समय लड़की ने भी मेरी ओर देख लिया।उसने मुझसे नज़र फेरते हुए लड़के के कान में कुछ कहा तो लड़के ने भी मेरी ओर देखा।शायद मेरा यूँ देखना उन्हें बुरा लग रहा था।पर उन्हें मैं नहीं बता सकती कि यह इत्तेफ़ाक से हुआ है।उन्हें मुझसे असहज होने या डरने की कोई जरूरत नहीं।पर मुझे यकीन हो गया कि वो प्रेमी जोड़े ही थे।।वैसे सच कहूँ तो प्रेम ही वह अहसास है जो बताता है कि आप जिन्दा हैं।
कुछ देर बाद मेरा ऑर्डर आ गया।इस भीगी शाम में चाय और समोसे की तलब ऐसी थी कि अब बस कब मुँह में जाये।किन्तु मैंने जैसे ही समोसे का पहला निवाला मुँह में डालने के लिए हाथ बढ़ाया ,मुझे उन माँ -बेटी का ध्यान हो आया।वह छोटी बच्ची समोसे की जिद किये जा रही थी और जब-तब माँ पीट दे रही थी।मैं लगभग दौड़ते हुए रेस्टोरेंट से बाहर निकली।अनायास ही मेरी नज़र उन माँ- बेटी को ढूंढने लगी।वह कहीं नहीं दिख रही थीं ।मैं निराश हो गयी।अभी कुछ देर पहले भूख से जान निकल रही थी परन्तु अब अचानक ही मुझे खुद पर झल्लाहट होने लगी थी।मैं भला उस छोटी बच्ची का एक समोसे के लिए रोता हुआ मासूम चेहरा और उसकी माँ की बेबसी कैसे भूल गयी ।
मैं पाँच मिनट बाहर ही निस्पृह खड़े रहने के बाद जैसे ही रेस्टोरेंट के गेट की ओर मुड़ी कि मेरी नज़र ब्रिज के नीचे पड़ी।वहाँ बहुत सारे फल के ठेलों के बीच वह माँ- बेटी भी खड़ी थीं। छोटी लड़की मेरी ओर ही देख रही थी।मैं बता नहीं सकती कि उन्हें देखकर मुझे कितनी खुशी हुई।मैं उन्हें थोड़ा सा कुछ खिलाकर शायद आत्मग्लानि से मुक्त होना चाहती थी।मैंने उस लड़की को अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।किन्तु उसने अपनी माँ का मटमैला पल्लू और जोर से पकड़ लिया। मैंने पुनः उसे अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।लड़की अपनी माँ से शायद बता रही थी।अब उसकी मां और बड़ी बहन भी मेरी ओर देख रही थीं। मैंने उन दोनों को भी हाथ से इशारा कर अपनी ओर बुलाया।बारिश अब कुछ कम हो गई थी।वह औरत शायद समझ गई और अपनी बेटियों का हाथ पकड़कर मेरी ओर आने लगी।उनके आते ही मैंने उन्हें रेस्टोरेंट के अंदर चलने को कहा।यह सुनकर दोनों लड़कियाँ खुश हो गयीं,लेकिन वह औरत सकुचा रही थी।मैंने लगभग डांटते हुए उस औरत को अंदर चलने के लिए कहा।वह तीनो घबराकर धीरे -धीरे कदमों से अंदर गयीं।
मैंने अपने टेबल पर बैठते हुए उन माँ -बेटियों को पास की खाली कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।छोटी बच्ची के सूखे होंठ बता रहे थे कि वह काफी देर से भूखी और प्यासी है।मैंने अपना प्लेट उसकी तरफ बढ़ाते हुए उसे खाने के लिए कहा और खुद चाय पीने लगी।वेटर को बुलाकर कुछ स्नैक्स और तीन कप चाय का ऑर्डर दे दिया।
"मुझे लग रहा है आप काफी परेशान हैं।" मैंने उस औरत की तरफ देखते हुए कहा
"जी मैडम जी हूँ तो"
"आप चाहें तो मुझे अपनी समस्या बता सकती हैं मैं शायद कुछ मदद कर सकूँ।"
"तकदीर की मारी हूँ मैम जी।आपको क्या परेशान करूँ।"
"ठीक है अगर आप मुझसे कुछ नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं।पर यह रखिये मेरा मोबाइल नम्बर।आपको कोई समस्या हो तो मुझसे कह सकती हैं।" मैंने अपना मोबाइल नम्बर एक कागज के टुकड़े पर लिखकर उसे देते हुए कहा।
उसने वह टुकड़ा लेकर अपने साड़ी के पल्लू में ऐसे बांधा जैसे कोई खजाना मिल गया हो।
इस बीच मैं ध्यान दे रही थी कि रेस्टोरेंट में बैठे लगभग हर व्यक्ति की निगाह मेरे ही टेबल पर थी।यहाँ तक की वह प्रेमी जोड़ा भी मुझे ही घूर रहा था।जाहिर है वहाँ कोई प्रेम या सम्मान से नहीं अपितु घृणा बोध और आश्चर्य से ही मुझे देख रहा था।उन सबकी नज़र में या तो मैं मन्द बुद्धि थी अथवा कोई रसूखजादी ,जिसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके आस -पास क्या हो रहा।मैंने देखा वह वेटर जो मेरा ऑर्डर लेकर गया है रेस्टोरेंट के मालिक से कुछ कह रहा है और अब उसका मालिक मेरे पास आकर खड़ा हो गया -
"एक्सक्यूज मी मैम!"
"जी कहें।"
"आप ऐसा नहीं कर सकती।"
"क्या नहीं कर सकती?"
"यही की इस रेस्टोरेंट में बेगर्स का आना मना है।आप प्लीज इन्हें बाहर कीजिये।"
"पर आपको बता दूँ कि ये बेगर्स नहीं हैं, और जब मैं आपको इनके खाने का पे कर रही हूँ तो आपको कोई हक नहीं कि इन्हें अपमानित कर बाहर करें।"
"Sorry ma'am it's restaurant rules.अगर हम ऐसे ही बेगर्स को आने की परमिशन देते रहेंगे तो हमारे सारे कस्टमर्स भाग जाएंगे।फिर बिजनेस तो गया।"
मैं चुपचाप अपमान के घूंट पिये उन्हें देख रही थी।वह महिला अबतक अपनी दोनों बच्चियों को लेकर बाहर निकल गयी थी। मैं उनका बिल पे करके जल्दी से बाहर निकली,किन्तु तबतक वह औरत अपनी बेटियों के साथ स्याह साँझ में गुम हो चुकी थी।
लगभग महीने भर बाद सुबह के करीब दस बजे उस औरत का फोन आया,जिससे मैं उसदिन ऑटो में मिली थी और फिर रेस्टोरेंट ले गयी।मैंने फोन रिसीव किया तो उधर से बस सिसकियां आ रही थी।वह औरत रोये ही जा रही थी।मुझे अनुमान तो था कि वह कभी न कभी मुझसे सम्पर्क जरूर करेगी।परन्तु इस तरह रोते हुए तो मैंने सोचा भी नहीं था।मैंने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और रोने का कारण पूछा।किन्तु उसने मिलकर ही कुछ बताने की जिद पकड़ ली थी।फिर क्या था ?मुझे उसका पता लेना पड़ा।मैंने तय किया कि कल स्कूल से छूटते ही सीधे उसके घर जाना है।
उसके घर का रास्ता पेपरमिल के पीछे एक सुनसान गली से होकर जाता था।रास्ता सीलन भरा और इतना गंदा था कि एक बार तो मन में आया की वापस लौट जाऊँ।किन्तु उस औरत की रुआंसी आवाज मेरे कान में अभी भी गूंज रही थी। और अब मैं उसी आवाज का पीछा करते हुए एक अपरिचित और सीलनभरे रास्ते पर चल रही थी।मुख्य सड़क से लगभग दो किमी अंदर चलने के बाद एक धूल-मिट्टी और कीचड़युक्त बस्ती दिखी।करीब दस-बारह घर थे वहाँ।घर क्या ईंट और सीमेंट के सहारे खड़े किए गए एक या दो कमरे।उनमें से कुछ के सामने घास-फूस की झोपड़ी रखी थी।अब इनमें से उस औरत का घर कौन सा है मेरे लिए पहचानना मुश्किल था।फिर याद आया कि उसने कहा था आगे के तीन घर छोड़कर चौथा घर उसका है।मैं अविलम्ब उस घर के दरवाजे पर पहुँची और दरवाजा खटखटाया।
दरवाजा जितने झटके से खुला मुझे उम्मीद नहीं थी इसकी।जैसे वह औरत मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी।यूँ तो वह घर दो छोटे कमरों का ही था ,किन्तु था साफ़ सुथरा।उस औरत की दोनों बेटियां खेल रही थीं,मैंने जब छोटी वाली की ओर देखा तो वह मुझे देखकर माँ के आँचल में छिपने लगी ,कुछ देर बाद माँ के आग्रह पर उसकी गोद में आकर चुपचाप बैठ गयी।जबकि बड़ी वाली बाहर चली गयी।बाद में पता चला उसकी बड़ी लड़की पढ़ने में काफ़ी होशियार है और माँ के काम में हाथ भी बंटाती है।घर में फर्नीचर के नाम पर बस दो पुरानी कुर्सियां ही दिख रही थीं।उस औरत ने एक कुर्सी आगे बढ़ाते हुए मुझे बैठने का आग्रह किया।मैंने संकोच से बैठते हुए कहा-
"तो तुम यहाँ रहती हो ?"
"जी मैडम!ओइसे ई घर हमार बाबूजी का रहा पर अब त उ यह दुनिया मा रहे ना सो हमार ही हुआ।"उसने पास वाली दूसरी कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
"अच्छा !मतलब यहाँ तुम्हारा मायका है।"मैंने कुछ देर रुककर धीरे से कहा।
"जी"
"और माँ ?"
"उ त छुटपने मा चल बसी !"उस औरत ने उदास लहजे में मायूसी से कहा।
"ओह!कोइ बात नहीं।जीवन में उतार -चढ़ाव आते रहते हैं।खैर अब तुम बताओ मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ?"
"मैडम जी ,हम बस एतने चाहत हैं कि हमार दूनो बिटियन का आप कउनो अच्छा सा अंगरेजी इस्कूल मा एडमिसन दिलाय दो।"
"अग्रेजी स्कूल ?"मैंने चौककर पूछा।
"काहें मैडम जी?का हमार बिटियन का अंग्रेजी इस्कूल मा एडमिसन नाय हो सकित ?"
"अरे नहीं वो बात नहीं।मैं तो यह सोच रही हूँ कि तुम इंग्लिश मीडियम स्कूल की महँगी फीस भर कैसे पाओगी ?"
"मैडम जी आप पइसा का चिन्ता तनिक नाय करो।ओकर इंतजाम त हम करी देबै।आप त बस हमार बिटियन का नाम लिखाई दो।आपकै ई अहसान हम जिनगीभर नाय भुलैबैं।
"ठीक है।"अगर तुम फीस दे सकती हो तो मैं इनका एडमिशन जरूर करा दूँगी।"
सच कहूँ तो उस बेहद साधारण से घर को देखकर मुझे अब भी चिंता हो रही थी, कि यह औरत भला कैसे महंगे स्कूल की फीस भर पाएगी।यद्यपि की वह औरत मेरी मनसा ताड़ गई थी, और मुझे बार- बार इस बात के लिए आश्वस्त कर रही थी कि वह समय से स्कूल की फीस भरती रहेगी।
उस औरत को जब उसदिन मैंने पहली बार ऑटो में देखा था तभी मुझे लगा कि मेरे साथ एक कहानी चल रही है।अब बस मुझे उसे पकड़ना शेष था।इस मामले में मैं अक्सर ही कुछ स्वार्थी हो जाती हूँ।मैं इससे इंकार नहीं कर सकती कि मेरे स्वार्थ ने ही उसदिन माँ-बेटी को रेस्टोरेंट में बुलाया था।और आज उस औरत के एक फोन कॉल पर मैं उसके घर तक आ गयी थी।किन्तु मुझे लग रहा था वह औरत शायद मुझे कोई बड़ा ऑफिसर या सोशल वर्कर समझ रही थी।और यही सोचकर उसने मुझसे छोटा सा सहयोग मांगा था।मुझे ध्यान आया कि अभी तक उसका नाम नहीं पूछा मैंने-
"ओह!देखो मैंने तो अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा।"
"सनीचरी।"
"सनीचरी.. यह कैसा नाम...?"अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया।
"जी।हम सनिच्चर के दिने भय रही न।सनीचरी जन्मते ही बाप का खाय गयी।"
उसने एक उदास हंसी के साथ कहा।
"ओह!"मुझे उसकी उदास हंसी इस समाज के मुँह पर जोरदार तमाचा लगी।ठीक उसी समय मुझे रुदाली फ़िल्म की डिंपल कपाड़िया का रोल भी याद हो आया।जिसमें उसका नाम भी शनिचरी होता है।एक सीन में ठीक ऐसे ही उदास हंसी के साथ वह अपना परिचय देती है।
"वैसे सबकुछ नियति के अनुरूप होता है।स्वयं को दोष देना उचित नहीं।अच्छा हो कि अब तुम अपनी बच्चियों की बेहतर परवरिश पर ध्यान दो।"मैंने बात दूसरी दिशा में मोड़ना चाहा।
"जी मैडम जी।पर अब हम केका समझाय सकित हैं कि सब नीयती है।अब तौ बस हम एतने जानत है कि जउन कुछ हमरे साथे हुआ उ हमरे बच्चिन कै साथे ना होए देबै कबहूँ।"
मुझे उस औरत में और इंटरेस्ट आता जा रहा था।
"क्या हुआ तुम्हारे साथ ? बताना चाहोगी ?यदि ठीक लगे तो ?"
"अरे मैडम जी हम गरीबन कै पास अइसन कुछ नाय होत जवन छिपाय के ऊपर ले जायका परै।हमार अम्मा को बाबूजी बंगाल से भगाकर लाय रहै।लभ मेरीज हुआ था न दूनो का।हम उनके ब्याह के सात साल बाद भई रही।अम्मा बतावा रहे कि खूब खुश थे तोहार बाबूजी।संझा जब पेपर मिल से लौटकर आये तो हाथ मा देशी दारू का पाउच रहा ओह दिन।बच्ची के भय की खुशी मा मुर्गा अउर दारू कै पारटी भई।हम दस दिन की थी तब।हमार बाबू ओह रात सोए तो सोए ही रह गए।कबहूँ उठे ही नाहीं।अम्मा कई दिन तक दहाड़ मारकर बिलखती रही।पास-पड़ोस के भइया-बहिनी लोगन कि सहारे उनका किरिया- करम हुआ।अम्मा हमार नाम सनीचरी रख दिहिंस तबसे उ हमहि का कोसत रही जिनगीभर।सनीचरी बाप का खा गयी।"
वह आँचल से ढलते आँसुओं को पोछने लगी।अनजाने में मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था।यह मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।
"अरे शनिचरी।जो बीत गई उसपर क्या रोना।जो हो रहा उसकी सोचो।अब बच्चों और खुद पर ध्यान दो बस।"इतना कहते-कहते मैं उठने लगी।
"अरे आप जाय रही का मैडम जी ?"
"हाँ,अब तुम अपना काम करो।बहुत बात हो गई।"
"पर हमरी बात तो अभी शुरू भी नाय भई।अउर आप जाए रहीन।"
"शनिचरी !मैं नहीं चाहती कि तुम मेरी वजह से बीती बातों को याद कर दुखी होओ।इसलिए ।चलो अब फिर किसी दिन।"
"नहीं -नहीं ।आज तो आपका हमें सुनै का परी।हमार मन होत है कि हम आपसे उ सब बतायें जवन हमरे मन मा कांटा अस चुभित है दस साल से।"
इतना कहते-कहते उसने मेरा हाथ पकड़कर बैठा दिया।खैर मैं तो चाहती ही थी कि कहानी आगे बढ़े।
"शनिचरी अब जब तुमने मुझे बैठा ही लिया है तो एक बात पूछूँ..?"
"पूछौ मैडम जी।एहमें इतना सकुचाये वाली बात का है?"
"उसदिन जब मैंने तुम्हें पहलीबार देखा था तो तुम बहुत परेशान हाल थी।तुम्हारी बच्चियां भी घबराई और भूखी लग रही थीं ...!"
"अब का कहें मैडम जी।सब किस्मत का खेला है।ई मरद जात औरतन का बस खेलै का समान समझत है।हमार अम्मा भलही सनीचरी का जिनगीभर कोसती मर गयी पर कबहूँ भूखे पेट फटे हाल ना रहे दिहिस।पर उ मउगा हमार जिनगी नरक से भी बदतर बनाय दिया।"
मैं समझने की कोशिश करते हुए भी कुछ समझ नहीं पा रही थी।आखिर वह कहना क्या चाहती थी।उसने मेरी ओर ध्यान से देखा।फिर मेरी आँखों में आँखे डालकर कहा-
"मैडम जी ई जवन इश्क आ पिरेम का बोखार चढ़त है न जवानी मा।त अच्छन-अच्छन को धूल फांके का परित है। हम त ठहरी तिरिया जात ओहपर से गरीब दुखियारी।कोउका बिगाड़ ही का सकित है।"
अबतक मैं इतना निष्कर्ष निकाल पा रही थी कि उसने प्रेम किया था और उसके प्रेमी ने धोखा दिया।
"अम्मा देवकाली मंदिर के साम्हने ही फूल बेचती थी तो हमहूँ ओकरे साथे ही तड़के चली जाती।ओहरे सोहना भी सब्जी-भाजी का ठेला लेकर घूमता रहता था।बस देखते-देखते होई गया पिरेम।था तो अपने बिरादर से बाहर का ही।पर अब अम्मा बिचारी भी का कर सके।हाथ में एको कौड़ी तो थी नाहीं।ओही देवकाली मंदिरे मा भगवान भोलेनाथ का साखी मान बियाह कर लिया हम दूनो ने।बियाह के महीना- दूई महीना तो सब ठीके रहा ।पर ओकरे बाद उ आपन गिरगिट अस रंग दिखावै लगा।"
इतना कहते-कहते वह गम्भीर मुद्रा में चुप हो गयी।
"क्यों ?क्या किया उसने?"
उसे कुछ देर चुप देखकर मैंने कहा।
"हमार घर में रहबे कौन करा, हम माँ- बिटिया के अलावा।बियाह के बाद तो उहो एही मड़ई मा रहे लगा।हमहूँ नवा-नवा पिरेम पाय खुशी से निहाल होय गयी थी।घर मा बाबूजी की मरे के बाद से कउनो मरद नाहीं बचा था।हमका पोषने में अम्मा ने केतना दुःख सहा है उ तो बस हमही जानत हैं।पहिले तो हमका भी ठीके लगा जब उ हमार घर मा रहत रहा तौ।अगर हम ओकरे साथ चली जाती तो भला अम्मा का खियाल कौन रखता।पर ई का बात भई कि महीना दूई महीना ना सालभर बीत गया।पर हमार मरद कबो हमका आपन गाँव नाय ले गया।"
"क्यों ?क्या वह तबसे कभी अपने गाँव-घर नहीं गया ?" मैंने पूछा।
"काहें नाहीं दीदी।उ तो महीना दूई महीना मा हो ही आता था।अउर जब भी जाता था हप्ता भर रहकर ही आता था।बियाह से पहिले तो अपने माई-बाप, घर-दुआर इहां ले कि खेत- खलिहान तक की भी खूबै बात किया करता था।बाकी बियाह होत उ एकदम से बदल गवा।हम जब भी ओकरै घर कै बात छेड़ती उ हमहीं पर चिल्लाये लागत रहा।एक बार तो हमही तूल गयी ओकरै घर जाये खातिर।काहें से की अब हमका कुछ-कुछ शक होवे लगा रहा ओहपर।कउनो बात तो जरूर थी जउन उ हमसे छुपाय रहा था।ओहदिन उ हमका खूब मारा।उ हमका चरित्तरहीन अउर अवारा भी बनाय रहा।"
"क्यों तुम भला चरित्रहीन क्यों हुई?"
"दीदी हम उसे पिरेम किये थे न।तभी उ कहता था कि तू आवारा थी तभी न मुझपर डोरा डाली।"
"अरे !इस हिसाब से तो उसने भी तुमपर डोरे डाला।तो वह भी चरित्रहीन हुआ न?"
"हुआ तो दीदी।पर ई मरदों का समाज है।उ त गंगा अस पवित्तर होत हैं।गंदगी तो हम मेहरारुन मा होत है ,जो बिना जाने-समझे केहू पर भरोसा कर लेइत हैं।अब हम अजोध्या की माटी मा जनम कर सीता मइया का दुःख भुलाय सकित है का।आप ही बताओ।"
"हम्म।"मैंने धीरे से गरदन हिलाते हुए कहा और आगे शनिचरी के बोलने की प्रतीक्षा करने लगी।
"ओहदिन उ हमका मारा त दूई थपरा ही था।लेकिन मन पर लगा घाव भी कबहूँ सूख सकित है का।ओइसे ओह दिन के बाद ओकर हाथ खुल गवा।हम जब भी ओका घर चले की बात कीन्ह उ हमका पीटा। अईसे ही खिंचते -खाचते सात बारिस बीत गवा।ए बीच हमार दूनो बच्ची होय गयी थी।अम्मा बेचारी हमार फूटी किस्मत पर रोवत ही मर-हर गयी।हमार मरद त अब सब्जी -भाजी खरीदना भी छोड़े दिया रहा।अउर ना ही तौ हमका कहीं केहू का घर मा काम करे का भी नाय जाए दिहिस रहा कि कुछ ना तौ हम झाड़ू-बर्तन धोय के आपन बच्चन के जियाय लिहिंस।।उ तो अम्मा अस रही कि बाबू-भइया लोगिन कै घर काम -धाम करिकै हम सबै का पेट पाली रही थी।"
"क्यों?वह तुमको किसी के घर क्यों न जाने देता था.?"
"अब का कहिन दीदी।जउन अदमी दूसरे की बहिन-बेटी पर गन्दी निगाह डाले रहत है उहे अपनी मेहरारू आ लईकी पर शासन चलावत है।ओका सोच बहुत घटिया रहा दीदी।उ हरदम इहे सोचत रहा कि हमार चक्कर केहू अउर से तो ना चलि रहा।चौबीस घन्टा हमार निगरानी।हमार बूढ़ महतारी हमार आ हमरी बच्चिन का तो पेट भरते रहे ओहू का खियावत रहे बइठा के।ओकर कमाई त हम कबहूँ जनबे ना किहिन।
लेकिन जब कोरोना की चपेट मा हमार महतारी भी आय गयी, तो दीदी सच कहत हैं हम हमार जिंदगी अन्हार मा बुझाए लगी।उ धोखेबाज अपनी महतारी की तबियत बिगड़ै का बहाना बनाकर हमका आ हमरी दूनो बिटियन का छोड़ के घर भाग गवा।हमार अम्मा को तो अइसन कोरोना हुआ कि ओके लेके ही माना।हम उ दुःख का पहाड़ जइसन दिन-रात अकेले ही काटे रहे।पर पेट का करी ओके तो भरे का परी।आपन तो आपन दूई बच्चिन का मुँह भी देखै का था।उनका छोड़ी के कहीं काम भी तो नैय कर सकित रहिन।कुल मिलायके हमार पास एक्के गो रस्ता बचा रहा।अब अपने उ मरद को बुलाये या ओकरे घरे जाए।जाये के बाद से त उ कब्बो हमका फोन भी नाय किया रहा। और हमका उ हमार बच्चिन कै कसम दिलाय रहा कि उ जब घरे रहै तो हम ओका फोन ना करै कबहूँ।उ बियाह के बाद से ही हमसे कहत रहा कि ओकर माई-बाबू तोसे बियाह पर एतराज करत हैं।उहा जाए से दुनिया भर का बवाल होई ओस ले बढ़ियां एही जा रहे का रही।अब भला हम का जाने की ओकरे मन मा का चलत रहा।लेकिन तब्बो हम ओह दिन ओके फोन किये रहे,पर हमार दिल धक से किया जब जाने की उ तो हमका बिलाक कर दिया था।दीदी सच कहें रहिन।ओह दिन हम रातभर रोअतै रह गयी।लेकिन मन ही मन फइसला भी कर लिन थी कि चाहे जवन होय जाय कल ही हम दूनो बच्चिन का लेके ओकरे गाँव पहुँचूँगी।ओइसे उ त कबहूँ हमका आपन पता नाय दिया पर ओकर गाँव का नाम हमका मालूम था।
बस भिनसारे उठी के रुख-सूख बनाय दूनो बच्चिन का खिलाय -पिलाय तइयार किन्ही।आ दुपहरिया होत- होत पहुँच गयी ओकरा गाँव।"
"शनिचरी!तुम तो इसके पहले कभी उसके घर गयी नहीं थी।फिर तो बड़ी परेशानी हुई होगी तुम्हें उसका गाँव-घर ढूंढने में ?"
"अरे दीदी!ना पूछो केतना फजीहत हुई ओह दिन।हम कसम खाय रही दीदी कबहूँ फैजाबाद लांघ के बाराबंकी,लखनऊ तक नाय गयी रही एसे पहिले।पर ओह मरकिरवना के नाई हम बहुत दुःख भोगी।एक तो पहिली बार आपन टूटी छान से बाहर निकली रही ओपर से न पता ,न ठिकाना।आगे का होगा मन मा धुकधुकी लाग रहा।उ कब्बो- कब्बो बात की बात मा आपन गाँव का नाम लेत रहा।रसूलपुर नाम रहा ओकरे गाँव का,ई अतरौलिया के लागे रहा,आजमगढ़ मा।हम दुपहरिया होत पहुँच तो गयी दीदी भइया-बाबू से पूछत-पाछत।पर मन बहुत घबराय रहा था।न जाने का होवे कवन बीपत-आफत परे।बड़ा हिम्मत करिकै एक ठो लरिका से सोहन गोड़ का घर पूछै।पर उ हमका एक ठो बाबू साहिब के दुआरे ले जाइके खड़ा करी दिहिंस।अब त हमार जान हलक मा फसी गयी दूई बिटियन का लेइ के।लेकिन दीदी उ बाबू साहिब बहुत ठीक अदमी थे।हमसे पूछै कउन सोहन गोड़।गोड़ाना में तो नाय हौ कोउ ए नाम कै।लेकिन तूम चिंता नाय करो अगर कवनो फोटो रखै हो तो दिखाई देव।तब खोज खबर लेवन का लगाई सबै का।दीदी अनजान देश अनजान मनइन का बिचै मा हमार त जान अटकी ही थी ओपर से उ सोहना गोड़ का कोउ जानै वाला उहा मिल नाय रहा था।पर बाबू साहिब भलमानस थे, उन्होंने अच्छा याद दिलाया।हम आपन फोनवा मा कुछ फोटो रखै रहा ओकर।जब उन लोगन का फोटो दिखाये रहे त पता चला उ सोहन गोड़ नहीं सोहन पासी था।अब दीदी साची कहीं रही हमरा देहीं मा काटो त खून ना।हमार अम्मा उच जात से रही पर हमार बाबू नाउ थे।बाल काटते थे कलकत्ता मा।अम्मा बताये रही कि उहां अम्मा की घर के नीचे की बिल्डिंग मा बाबू के एक ठो सैलून था।पर ई का...हम नाउ की बिटिया थी आ उ सोहना त पासी था।त एतना दिन से उ हमसे झूठ कहा रहे।ओइसे उ हमका पहिले बताय भी दिया रहा होता तब भी हमका ज्यादा फरक नाहीं परता।लेकिन ई त बात धोखा की होय गई न।एक बार त मन मा आव रहा कि उल्टे पाँव लौट जायं।लेकिन आपन बच्चिन का मुँह देख के लाग रहा कि एक बार चलके देख ही लेबे का चाही।तब का कहें दीदी,बाबू साहेब ओही लरिका कै सँगै हमका लगाय दिहिंस।आ उ ले जा के सीधे ओकरा दुआरे खड़ा करी दिहिंस।अब आगे न जाने का होवे वाला था। हम ओ बच्चा के आगे ना चाहत रहे कि कुछ झमेला होय।एहि खातिर ओके घर भेज दिहिंस।
जेठ की आग जलावै वाली दुपहरी मा हमार लागे दूई ठो बच्ची। चार साल कै सलोनी अंगूरी थामे साथ चलि रही थी अउर सरोजा अचरा मा थी।ओपर से कुछ आपन आ बच्चिन का कपड़ा-लत्ता भी रहा।शरीर त बस थकी रही लेकिन मन टूट गवा रहा।उ धोखेबाज पर हमार एतबार त पहिले ही खतम होय गवा रहा, अउर अब रहा सहा भी चला गवा।हम दूर से ही देखी रही थी... ओकर घर का टाटी-छानी थी उ।उहो छोट सा।उ दुआरे बइठ के तास खेल रहा था,बीच- बीच मा ठहाका लगा -लगा बतिया भी ले रहा था।हमार देह सुलग गई थी ओका देख के।हमका दूई बच्चन का साथ मरे ख़ातिर छोड़ के उ इहा मौज उड़ाय रहा था।हमार धीरज कै बांध तौ टूट गवा। लेकिन हमहू ठान ही ली थी कि अब जवन होय देख लेबैं।बस हम सीधे जाइके ओकरे पजरे खड़ा होई गयी रही।
दीदी साची कहिन उ सीन हमरी आँख मा आज भी जब घूम जात है न त हमार मन बहुत खराब होय जात है।सोहना त हमका देख के एकदम अवाक होई गवा।मानो ओका आँखिन पर बिसबासै नाय होय रहा था।उ हमका देखतै चबूतरा से उतर के खड़ा होय गवा।हम कुछ कहें उ ओकर पहिले ही बोला-
"अरे !सनीचरी तू इहां कइसे।तोका हमार घर का पता कौन बताय दिहिंस,जा चली जा तू इहाँ से बच्चिन का लै के,हम कल आ जाब।"
"नाहीं हम ना जाबे!तू धोखेबाज हौ।अब एक पइसा का हम तोपर बिसबास ना करी सकित।"एतना कहते-कहते हम फूट-फूट रोवै लागी दीदी।मन मा सालन से भरा कोढ़ बह जावै चाहत रहा।ओकर सब संगी-साथी अवाक खड़े रहै।लेकिन हल्ला- हंगामा सुन के ओकर माई-बाबू भी न जानै केहर से आय गये रहिंस।जब सोहना की महतारी हमसे पूछी की तुम कउन हो बिटिया।हम उनका गोड़ धरि फूट-फूट रोये लागी।आ सगरो बात बताई दिहिन।सोहना का खूब भूरा-भला कहा ओकरै महतारी-बाप ने।लेकिन हमार कपार पर असल बजर त तब गिरा जब ई जाने कि ओकर त पहिले से ही बियाह हो गवा हौ।मन मा बार-बार आवा रहा कि हम एहि गोड़े वापिस लउट जायें।पर दूई ठो बच्चिन का सोचकर हिम्मत ना होय रही थी ।अब जवन किस्मत मा लिखा रहे ओसे कइसे बचे कोउ।ओकर पहिली मेहरारू से तीन ठो सयान बिटिया भी रहीं।पहिले त उ हमका घर मा घुसे पर जान से मार देवे की धमकी दी।लेकिन पंचन की राय से हम ओकरे घरे मा रहे का जगह पाय गई।
दीदी!आपतो एतना पढ़ी-लिखी हौ।जनबै करत हौ कि जब किस्मत फूटै है त दिमागो फिर जात हौ।पहिले त दूई-चार दिन सब ठीके बीता।हमहू बेफिकिर होय गयी कि चलो जात-बिरादर भले ही आपन ना मिली ,भले ही गरीबी हौ,पर परिवार तो ठीके है, निबाह त होइए जावेगा।सास-ससुर का बियवहार त ठीके था पर चार-पाँच दिन बीतै के बाद भी सोहना हमसे बात ना किया।ऊपर से ओकरी पहिली मेहरारू का हमार आ हमार बच्चिन लागे रुख बियवहार हमका खलि रहा था।पहिले तो लगा सोहना परेशान है एह लिए हमसे बात ना करी रहा।लेकिन जब ओकर मेहरारू आ बिटिया हमरी सलोनी का मारी त हमार धीरज टूट गवा।"
"क्यों मारा उन्होंने सलोनी को,वह तो बहुत छोटी थी तब ?"
"हाँ, वह बिना पूछै रोटी खा ली थी।एहि लिए मारी उ माई-बिटिया।हमार सलोनी इतना डेराय गयी कि सांझ होत -होत उ बोखार से बुत होय गयी।ई सोच-सोच हमार करेजा फाट रहा था की बिटिया हाथ से निकल न जाये।सास-ससुर तो हमार सौत की दिमाग से चल रहे थे।उनका कहे का भी कुछ असर ना रहा।सोहना दूई दिन से घर नाय आवा रहा।पास-पड़ोस मा हम केहू का जनतै ना रही।फिर याद आवा उ बाबू साहेब भलमानस है।उनका लगे जाऊं त शायद दया मया कर दवाई दिलाई दें।अउर सच्ची मा उ आपन नोकर का भेज के दवाई मंगवाकर हमका दे दिए।बिटिया को दवाई खिलाये।बोखार तो उतर गवा पर रातभर उ कराहती रही दरद से।ओ नन्ही जान का हाथ हमरी सौत की बड़की बिटिया मरोड़ दी थी।
भिनुसहरा जब सोहना आवा रहा तब ओकर गुस्सा सतवां असमान पै रहा।आते ही न आव देखा न ताव बस लात-घूंसा-थपरा डंडा जवन मिला ओहिसे हमका पीटे लगा।हमार बड़की बच्चियां हमका छुड़ावै आयी त ओके भी मारा।"
"पर सोहन तुम सबको मार क्यों रहा था.?"
"ओकर बेइज्जती होय गई थी न।हम बाबू साहेब से सहयोग मांग ली थी।उ गंदी नाली का कीड़ा त खुद ही था।अउर हमका कहा रहा कि ई रण्डी है हम त पहिले से ही जानै रहा।पर ई हमरे गाँव मा आकर रंडियापा करैगी ई ना बिस्वास होई रहा था।लेकिन उ कलुआ कहा हमसे की तोर मेहरारू त हरदम बाबू साहेब से मिलै जात है।दीदी हम त सोच भी ना सकित रहे कि सोहना काब्बों हमार बारे में एतना गंदा भी सोच सकित है।हम लाख सफाई दिए पर कउनो असर ना हुआ ओहपर।फिर त उ घर मा हमसे मार-पीट रोजे की बात होय गई।उ जब भी शराब पीके आवत रहा हमका पीटत रहा।हमार दूनो बच्चिन का बस बाप का नाम देवै खातिर ओका आ ओकरी घर वालन के अत्याचार सही रही थी।लेकिन मुस्किल से सालभर बीता रहा दीदी हमार धीरज तब टूट गवा
जब हमार बच्चिन कै खाये- खाये का मोहताज करी दी ओकर पहिली मेहरारू।हम सालभर ओकरी घर-बाहर दूनो जगह जानवर अस खटै अउर बदला मा हमार बच्चिन का पेट भी ना भरे त का मतलब रहा उहां रहे का।
दुनिया के कवनो महतारी रहे, सब अत्याचार सह सकित है पर बच्चन कै भूख आ पियास ना बरदास कर सकित।हम गलती किये रहा त ठीक भी हमका ही करै का था।परेसानी के हल खोजे ख़ातिर जइसे एकदिन भिनुसहरे फैजाबाद से रसूलपुर आयी थी ओइसहीं उहा से भी सबेरहिं दूनो बच्चिन का ली,आ हम महतारी बेटिन का दू चार गो जउन फटहा-पुरान कपड़ा रहा बांध के वापिस आय गयी।"
"अरे!किसी ने तुम्हें रोका नहीं.?और वह सोहन..उसने भी कुछ नहीं कहा?"
"अरे दीदी।उहां त इहे चाहत रहा सब लोग।सोहना भी त इहे चाहत रहा।"
"क्यों ?दूसरी ही सही।तुम उसकी पत्नी थी और दो बेटियों की माँ भी।"
"दीदी !हमरी बच्चिन का त उ कब्बो आपन माना ही नहीं।"
"फिर उसने तुमसे शादी ही क्यों कि..?"
"पइसा आ हमार घर ख़ातिर।ओके लगा रहा कि हमार महतारी घर मा रुपिया पइसा गाड़ी रही।बियाह होत ही उ सब ओकरै हो जावैगा
।पर बियाह त होय गवा लेकिन ओकरै हाथ कवनो खजाना नाय लगा।पहिले जवन सोहना हमपर जान लुटावत रहा उ बियाह होते ही बदल गया।छोट-छोट बात पर रोज तक-झक करता।उपर से जवन कुछ कमाता सब अपने घर भेज देता। जबतक अम्मा जियत रही उ ठाट से बेलाज-शरम के सूत- सूत खात रहा ओकर कमाई।लेकिन हमार अम्मा जब खटिया पकड़ी त उ धोखेबाज हमका दूई बच्चिन के साथ छोड़ी के भाग गवा।हमका त दीदी बहुत बाद मा समझ मा आवा कि उ बियाह के बाद एकदम से बदल काहें गवा।दरअसल उ त हमसे पइसा आ घर खातिर बियाह करा रहा।पर मिला कुछ नाहीं।इहाँ तक कि ई घर भी अम्मा हमार आ बच्चिन की नाम की थी।ओकरै ई बात भी बहुत अच्छे से मालूम रहा कि हम कबहूँ ओके ई घर ना दे सकित है।"
पूरी बात ख़त्म करते-करते वह कई बार रोई।मैंने भी उसे जीभर रो लेने दिया।कभी-कभी रोना भी मन को सुकून देता है।मन की गांठे खुल जाती हैं रोने से।मनुष्य रोये न तो उसकी पीड़ा कुंठा में बदल जाएगी और कुंठित व्यक्ति खुद के लिए तो घातक है ही पर समाज के लिए भी हानिकारक है।शनिचरी ने अपनी पीड़ा को बहुत दिनों से सहेजकर रखा था शायद।अब वह उचित स्थान और कंधा पाकर बह रही थी।उसकी निश्छलता देखकर मन और दुःखी हो गया था।भला मासूम सी शनिचरी को छलने में सोहना का मन क्यों न पसीजा।
"अच्छा एक बात बताओ शनिचरी..अब तो इस घटना को काफी दिन बीत गया।क्या तुमने फिर शादी-ब्याह की न सोची?"
"अरे दीदी अब का कहिन आपसे।ओह दिन सोहना की इहाँ से त ताव मा चलि आय रही।पर साच कहूँ तो इहाँ आये के बाद कुछ समझ मा नाय आवा रहा कि अब करें का।लेकिन पेट की ख़ातिर कुछ त सोचे का ही रहा।भईया -बहिनी लोग की सहयोग से हम दूई-चार ठो घर मा झाड़ू-बरतन धोवे- पोछे का काम त पाय गयी पर हमार बच्चिन का बचपन त छिन ही गया।पहिले तो दूनो को साथ लेके काम पर जायेका परा हमका।ओहपर से बहुत घर की मलकिन लोगन का हमार बच्चा लेके काम करना पसंद नाय रहा।केहू तरह से दूई साल बीता।हमार बड़की बच्ची सात साल की भई तब ओकरै भरोसे घर आ छोटकी बहिनी का छोडकै काम करै लागी हम।बहुत लड़ाई लड़ा हम महतारी-बिटिया ने।पर अकेली औरत ओपै मजबूर हो तो ई मरद लोग फायदा उठावै के मौका हाथ से ना जाये देत है।सहानुभूति दिखावे के बहाने बहुते लोग हमार साथ गलत करने का सोचे रहे।पहिले त हमहूँ का लागत रहा कि सब केतना बढ़िया लोग है।हम माँ-बिटिया क जिनगी भईया-बहिनी लोग की इहा हाथ-गोड़ चलाय अराम से कट जाय।पर जब हमार इज्जत आ सम्मान पर आंच आवा चाहत रहा त हमका लगा कि सचमुच ई दुनिया मा जियेका है तो कवनो मरद का हाथ सिर पै होवे का चाही।फिर का हुआ ..हम बियाह कर लिन्ह।सुरेंदर नाम रहा ओकर।एहि पेपर मिल मा ही काम करत रहा।पर दीदी आपसे हम कहत हैं आज की उ बियाह हमार जिनगी के सबसे बड़ भूल रहा"
"काहें ..?"मैंने पूछा।
"दीदी हम ई त पहिलहीं से जानत रहिन की उ शराबी हौ पर उ चरित्तर से भी नीच हौ ई हम ओकरै से बियाह की बाद जानी।दरअसल सच बात त ई रही कि ओह दहीदरा कै खराब नियत रही हमार बड़की पर।"
"क्या ?"मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।
"किरिया खाय रही हम आपन दूनो बिटियन कै दीदी।उ त हम हर घरी आपन आंख-कान खोल के रखत रहिन।हम ध्यान दिए कि उ हमार बड़की पर नज़र गड़ाये रहा।उ कब नहाती है खाती है आ सोती है उ सब धियान रखत रहा।हद त तब हुई जब एक रात उ हमार बड़की का हाथ पकड़ कै जबरदस्ती करे लगा।"
"अरे !यह कैसा आदमी ?वह भले ही सौतेला था,पर था तो पिता ही न।"
"अरे दीदी मत कहो कुछ।सुनो हमार बात।जब हम ओकरा रोके लागी तो उ हमसे कहा कि उसने मुझ दुआह आ चरित्तरहीन से बियाह ही एह लिए किया कि ई लड़की ओके मिल जाये।दीदी!हमका त ई सुनते काठ मार दिया।आ बस ओ दिन हम आखिरी बार फ़इसला ली कि अब कवनो मरद की जरूरत नाय हौ हमका।भगा दी हम ओ पापी का।आ तबसे हम आ हमार दूनो बच्ची ही रहत है इहाँ।और अब तो हमार बड़की गियारह बरिस की होय जावेगी अबकी फागुन मा।"
"हम्म।"मैं बस इतना ही कह पायी।वह साधारण दिखने वाली स्त्री इतनी असाधारण होगी मैंने तो सोचा भी नहीं था।कभी-कभी हम लोगों के पहनावे और रहन-सहन से उनके बारे में कितनी गलतफहमी बना लेते हैं।जिस शनिचरी को मैंने उसदिन ऑटो में देखकर नाक-भौंह चढ़ाया था आज मुझे उसके आगे अपना किरदार बौना लग रहा था।मेरा मनोविज्ञान धराशायी हो गया था। मैं क्यों न पढ़ पाई उसदिन उसे।
खैर ,अब शाम काफ़ी हो चुकी थी और मुझे जल्दी ही घर पहुँचकर शनिचरी की जिंदादिल कहानी को सहेजना था।सो उसे फिर मिलने और उसकी बेटियों का अच्छे स्कूल में एडमिशन कराने का वादा करके लौट आई।
संक्षिप्त परिचय
______________
नाम- डॉ. प्रतिभा सिंह
जन्मस्थान-ग्राम+पोस्ट-मनिहारी,जनपद-गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा-एम.ए. (इतिहास,शिक्षाशास्त्र),बी.एड.,पी-एच.डी.(इतिहास)
विधा-कविता,कहानी,उपन्यास,साक्षात्कार
प्रकाशित पुस्तकें-
मन धुआँ-धुआँ सा है (कविता संग्रह)
अस्सी घाट ओर प्रेम समीक्षा (उपन्यास)
शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ
पंचकन्या (पांच लम्बी कविताओं का संग्रह)
वह साँझ थी कि ठहरी रही (कहानी संग्रह)
वर्जित मार्गों की पथिक स्त्रियाँ(कविता संग्रह)
स्थाई पता-ग्राम+पोस्ट -किशुनपुर,जनपद-आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)
सम्पर्क सूत्र-8795218771
मेल आईडी --prtibhagargisingh@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें