गाथांतर पर आज सुधा गोयल जी की कहानी
नैनं दहति पावकः
अभी कुछ देर पहले ही मेरी मृत्यु हुई है।मैं अपना शरीर छोड़कर धूम्ररेखा की तरह ऊपर उठ रहा हूं।हवा के झोंकों से कभी इधर कभी उधर झूम जाता हूं। मुझे भय भी लगता है,पर तभी ध्यान आता है कि भय कैसा?अब तो मैं मुक्त हूं। आजाद हूं।नैनं छिदंन्ति शास्त्राणी,नैनं दहति पावकः।मैं खुश हूं। अपनी इस आजादी का जश्न मनाना चाहता हूं,पर कैसे?अपनी खुशी मैं किसी के साथ व्यक्त नहीं कर सकता।किसी के साथ मिलकर नहीं मना सकता,केवल महसूस कर सकता हूं।यह महसूस करना भी कितना सुकून भरा है।शरीरधारी व्यक्ति इस सुकून को समझ नहीं सकता।
चिंता मुक्त होना भी एक सुकून है।अब न मुझे समाज की चिंता है ,न परिवार की न अब मुझे कोई बीमारी है ,न डाक्टर के पास जाना है,न दवाइयां खानी है न इंजेक्शन लगवाने हैं।जब देह ही नहीं है तब उससे सम्बन्धित दुःख कैसा।
अब न घर की जरूरतों के लिए थैला लटकाए बाहर जाना है और न पेंशन लेने आफिस।अब तो कोई काम ही नहीं है।सारे काम शरीर के थे।सारे सुख दुःख भी शरीर के थे।शरीर भी पुराने कपड़े जैसा जर्जर हो गया था।उसे ठीक रखने के लिए समय समय पर पैच लगाने पड़ते थे। कितनी बार चीरफाड़ करानी पड़ी।देह दुखती तो मुंह से आह निकल ही जाती।
खैर, मैंने सोचा कि आज जश्न मनाऊंगा तो मनाऊंगा ही। लेकिन अकेले अकेले बात कुछ जमती नहीं,पर जमानी तो पड़ेगी ही। मैंने निश्चय किया है कि मैं अपनी देह के ऊपर आंगन में स्थित हो सारे क्रियाकलाप देखूं। मुझे कौन कितना चाहता था तथा कौन कितनी घृणा करता था,सब पता चल जाएगा।सबके मुखौटे उतर जाएंगे।पर यह क्या?पत्नी के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है, क्रिया कर्म कैसे करेगी।मैंने भी कितनी बड़ी ग़लती की।कुछ पैसे उसके खाते में डाल देता या घर ही लाकर रख देता।दस लाख पी.पी.एफ.में ही हैं। मैंने तो किसी को अपना उत्तराधिकारी भी नहीं बनाया है।उन पैसों के विषय में कोई जानता भी नहीं है।वह तो बैंक में ही रह जाएंगे।क्या मैं पुनः शरीर में प्रवेश कर कुछ पैसे पत्नी को दे सकता हूं।चलो कोशिश करता हूं।
पर यह क्या? प्रवेश कहां से करूं? प्रवेश के सभी रास्ते अवरुद्ध हो चुके हैं।सभी जगह रुई ठूंस दी गई है। मुंह में तुलसी दल भरे है। गुप्तांगों में आटे के पिंड हैं।वायु आने जाने का कोई भी मार्ग खुला नहीं है।खैर,चलो अब तो तमाशा और भी रोचक होगा।देखता हूं सारी व्यवस्था कैसे होती है।अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।पत्नी माथे की बिंदी और मांग का सिंदूर पहले ही पोंछ चुकी है।विलाप करते हुए उसने कांच की चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं।सिर ढ़के मुख नीचा किए निरीह सी बैठी है।कैसी कुम्हला गई है।उसके चेहरे का सारा तेज झुलस गया है। कितनी दयनीय लग रही है। बीच-बीच में हिचकी लेती है।सारी देह हिल जाती है। रोते-रोते कह रही है -
"मैंने लाख कोशिश की,अपनी सामर्थ्य भर इलाज कराया, लेकिन बचा न सकी।मेरे भाग्य में वैधव्य ही लिखा था।"
मुझे पत्नी पर तरस आता है पहले ही कौन सधवा थी। माथे पर बिंदी लगाने या मांग में चुटकी भर सिंदूर लगाने से कोई सधवा नहीं हो जाता पर समाज का मानना यही है। मैं इसमें क्या कर सकता हूं ?जब भी कोई रिश्तेदार औरत आती है पत्नी से गले मिलकर रोती है। यह रोना थोड़ी-थोड़ी देर रुक -रुक कर चल रहा है मेरी मृत देह जमीन पर एक चादर बिछाकर उस पर लिटाई गई है। एक चादर ऊपर से ढकी है।
अभी कुछ देर पहले ही मेरी मृत्यु हुई है।मैं अपना शरीर छोड़कर धूम्ररेखा की तरह ऊपर उठ रहा हूं।हवा के झोंकों से कभी इधर कभी उधर झूम जाता हूं। मुझे भय भी लगता है,पर तभी ध्यान आता है कि भय कैसा?अब तो मैं मुक्त हूं। आजाद हूं।नैनं छिदंन्ति शास्त्राणी,नैनं दहति पावकः।मैं खुश हूं। अपनी इस आजादी का जश्न मनाना चाहता हूं,पर कैसे?अपनी खुशी मैं किसी के साथ व्यक्त नहीं कर सकता।किसी के साथ मिलकर नहीं मना सकता,केवल महसूस कर सकता हूं।यह महसूस करना भी कितना सुकून भरा है।शरीरधारी व्यक्ति इस सुकून को समझ नहीं सकता।
चिंता मुक्त होना भी एक सुकून है।अब न मुझे समाज की चिंता है ,न परिवार की न अब मुझे कोई बीमारी है ,न डाक्टर के पास जाना है,न दवाइयां खानी है न इंजेक्शन लगवाने हैं।जब देह ही नहीं है तब उससे सम्बन्धित दुःख कैसा।
अब न घर की जरूरतों के लिए थैला लटकाए बाहर जाना है और न पेंशन लेने आफिस।अब तो कोई काम ही नहीं है।सारे काम शरीर के थे।सारे सुख दुःख भी शरीर के थे।शरीर भी पुराने कपड़े जैसा जर्जर हो गया था।उसे ठीक रखने के लिए समय समय पर पैच लगाने पड़ते थे। कितनी बार चीरफाड़ करानी पड़ी।देह दुखती तो मुंह से आह निकल ही जाती।
खैर, मैंने सोचा कि आज जश्न मनाऊंगा तो मनाऊंगा ही। लेकिन अकेले अकेले बात कुछ जमती नहीं,पर जमानी तो पड़ेगी ही। मैंने निश्चय किया है कि मैं अपनी देह के ऊपर आंगन में स्थित हो सारे क्रियाकलाप देखूं। मुझे कौन कितना चाहता था तथा कौन कितनी घृणा करता था,सब पता चल जाएगा।सबके मुखौटे उतर जाएंगे।पर यह क्या?पत्नी के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है, क्रिया कर्म कैसे करेगी।मैंने भी कितनी बड़ी ग़लती की।कुछ पैसे उसके खाते में डाल देता या घर ही लाकर रख देता।दस लाख पी.पी.एफ.में ही हैं। मैंने तो किसी को अपना उत्तराधिकारी भी नहीं बनाया है।उन पैसों के विषय में कोई जानता भी नहीं है।वह तो बैंक में ही रह जाएंगे।क्या मैं पुनः शरीर में प्रवेश कर कुछ पैसे पत्नी को दे सकता हूं।चलो कोशिश करता हूं।
पर यह क्या? प्रवेश कहां से करूं? प्रवेश के सभी रास्ते अवरुद्ध हो चुके हैं।सभी जगह रुई ठूंस दी गई है। मुंह में तुलसी दल भरे है। गुप्तांगों में आटे के पिंड हैं।वायु आने जाने का कोई भी मार्ग खुला नहीं है।खैर,चलो अब तो तमाशा और भी रोचक होगा।देखता हूं सारी व्यवस्था कैसे होती है।अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।पत्नी माथे की बिंदी और मांग का सिंदूर पहले ही पोंछ चुकी है।विलाप करते हुए उसने कांच की चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं।सिर ढ़के मुख नीचा किए निरीह सी बैठी है।कैसी कुम्हला गई है।उसके चेहरे का सारा तेज झुलस गया है। कितनी दयनीय लग रही है। बीच-बीच में हिचकी लेती है।सारी देह हिल जाती है। रोते-रोते कह रही है -
"मैंने लाख कोशिश की,अपनी सामर्थ्य भर इलाज कराया, लेकिन बचा न सकी।मेरे भाग्य में वैधव्य ही लिखा था।"
मुझे पत्नी पर तरस आता है पहले ही कौन सधवा थी। माथे पर बिंदी लगाने या मांग में चुटकी भर सिंदूर लगाने से कोई सधवा नहीं हो जाता पर समाज का मानना यही है। मैं इसमें क्या कर सकता हूं ?जब भी कोई रिश्तेदार औरत आती है पत्नी से गले मिलकर रोती है। यह रोना थोड़ी-थोड़ी देर रुक -रुक कर चल रहा है मेरी मृत देह जमीन पर एक चादर बिछाकर उस पर लिटाई गई है। एक चादर ऊपर से ढकी है।
पत्नी गले का मंगलसूत्र और हाथों की सोने की चूड़ियां उतार कर दामाद को दे रही है -"लल्ला , अपने ससुर की अंतिम यात्रा की तैयारी करो।"
"मम्मीजी ये सब अभी अपने पास रखो।मैं व्यवस्था कर रहा हूं।"वह लेने से इंकार करता है।
"अभी रखो। वैसे भी ये सब मेरे किस काम के हैं। दामाद का पैसा ससुर के अंतिम संस्कार में लगे ये अनुचित है।"
" मैं बाद में ले लूंगा।अब इसी काम के लिए बाजार जाना उचित नहीं लगता।मैं साले साहब से बात करता हूं।"
पत्नी चुप कर जाती है।उसे दामाद की बात जमी है।मैं भी देख रहा हूं कि कौन क्या-क्या करता है। लड़का पांच सौ की गड्डी निकाल कर दामाद को थमाता है। मुझे ताज्जुब हुआ। जीते जी जिसने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा वह नोटों की गड्डी निकाल रहा है।मैं सब समझता हूं। मेरे जाने के बाद मेरा सारा पैसा निकाल लेगा।मेरे आफिस वालों से इसीलिए सम्पर्क बनाए रखता है।मैं इसकी नस-नस से वाकिफ हूं। मां की ओर हमदर्दी के चार जुमले उछाल कर मकान भी हथिया लेगा।
तभी मेरी सोच दूसरी ओर मुड़ती है।अब सोचता हूं कि मैने ही इसके लिए क्या किया।इसे पैदा करने के बाद इससे कभी सीधे मुंह बात ही नहीं की।कभी प्यार से सिर पर हाथ नहीं रखा।कभी सुख दुःख नहीं बांटा।यदि उसने भी दूरियां बना लीं तो इसमें इसका क्या कसूर?वह अपने पुत्र होने का फर्ज तो निभा रहा है।मैं अपने पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया।
पास पड़ोसी और रिश्तेदारों का आना जारी है। स्थानीय लोग सूचना मिलते ही आ पहुंचे। हां बाहर से आने वालों में वक्त लगेगा।लोग आपस में खुसर-पुसर कर रहे हैं। मैं उनके ऊपर वायुमंडल में स्थित हूं ।यह विनोद ऐसे भाग दौड़ कर रहा है जैसे इसी का बाप मरा हो। मेरा लाखों रुपया तो इसी के पास है जिसकी कानों कान किसी को भनक भी नहीं है। साला सब डकार जाएगा ।मेरे रुपए से ही उसने अपना मकान खड़ा कर लिया है।
यह मेरे पड़ोसी हैं जिनसे रोज आते जाते दुआ सलाम होती रहती थी ।कभी सुख-दुख में हाल-चाल पूछ लेते थे। वर्ना अपने काम से काम। हां सुबह-सुबह पार्क में टहलते समय खूब ठहाके लगते थे। राजनीति धर्म या देश के वर्तमान हालात पर खूब चर्चा होती ।खूब जिंदा दिल थे मसूर साहब ।उनकी कमी खलती रहेगी।
यह दूसरी तरफ चार-पांच व्यक्ति एक ग्रुप में खड़े हैं। यह मेरे ऑफिस के सहयोगी हैं। यह गुप्ता का बच्चा ऐसे कामों में सबसे आगे रहता है ।आज भी सारे कार्यक्रम का सूत्रधार वही है। कैसी अकड़ से कह रहा है कि मैं अपने दस साथियों को तो श्मशान तक पहुंच चुका हूं मेरे कंधे कितने मजबूत है।
"ठीक कहते हो गुप्ता। क्या पता कल तुम्हें श्मशान पहुंचाने को कोई कंधा ही ना मिले "-राजेश ने चुटकी ली।
आगे बढ़ता हूं यह मेरे भाई बांधव हैं मुझे मन ही मन गालियां दे रहे हैं और मेरी बखिया उधेड़ने में लगे हैं जिसमें मेरा पुत्र और दामाद भी शामिल है। पुत्र कह रहा है हद दर्जे के कंजूस थे। मां को कभी दो पैसे नहीं दिए। मां हमेशा खाली हाथ पैसे पैसे को तरसती रही ।अभी भी खाली हाथ बैठी है ।पता नहीं वक्त कैसे गुजरेगा।
"जब तक जीवित रहा कभी पल भर चैन नहीं लेने दिया। सुख नाम की चीज उसके जीवन में कभी नहीं आई। केवल दुखी उढ़ाता- बिछाता रहा। बेचारी ने कभी न ढंग से खाया न पहना। केवल रात दिन प्रतीक्षा करती रही। आधी आधी रात को जुआ खेल कर खा पी कर घर लड़खड़ाता लौटता। लौट कर उसे गालियां बकता ।वह बेचारी बकरी सी मिनमिनाती रहती। हमने तो इसीलिए इससे अपने ताल्लुकात कम कर दिए।" यह मेरा बड़ा भाई है।
"मैं भी अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगा रोज की चिक चिक से तो जान छूटी"- यह मेरा सपूत था।
" शादी के प्रारंभिक दिनों में हम झूठ बोलते ।किसी काम का बहाना बनाते। ढूंढ कर लाने का ढोंग करते। आखिर झूठ को एक दिन बेपर्दा होना ही था ।एक दिन भौजी ने कहा-" भैया अपने भाई की कमियां कब तक छुपाओगे? अब बहाने बनाने बंद भी करो। मैं सब जान गई हूं।" इसने तो हमारी गर्दन कभी ऊपर उठने नहीं दी। शर्म से झुकी ही रही। भौजी के प्रति हम भी कम अपराधी नहीं है। ऐसे व्यक्ति को शादी नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन मां भविष्य देख रही थी कि शायद संभल जाए लेकिन जीवन पूरा हुआ पर वह नहीं संभला"। यह मेरा अनुज था।
"अब मम्मी का शेष जीवन चैन से कटेगा"-ये मेरे बेटी और दामाद हैं।यानि मैं सबकी आंखों में खटकता रहा।बस मेरे सामने ही किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी।आज मैं नहीं हूं तो सब बातें बना रहे हैं।जब इस औरत को रोटी खिलाएंगे तब जानूंगा।इन सबके बूते पर ही अकड़ दिखाती थी।
वायुमंडल में स्थित होते हुए भी मैं क्रोधावेश में कांपने लगता हूं और रुई के गोले की तरह इधर उधर घूमने लगता हूं।यह मुझे क्या हो रहा है।मैं तो सुख दुःख से ऊपर हूं।शान्त हूं।फिर ऐसे विकार क्यों आ रहे हैं।
मैं वहां से हटकर उधर चल देता हूं जहां मेरी प्रियतमा नतमुख किए बैठी है।सबकी निगाह में वह मेरी धर्म बहन है। इससे राखी बंधवाता हूं।यह सिर्फ समाज की आंखों में धूल झोंकने के लिए था।वह भी बैठी सोच रही है -"चलो अच्छा हुआ जो माथुर का बच्चा मर गया।पीछा तो छूटा। कंजूस तो इतना कि कुछ मत पूछो।बस फोकट में देह चाहिए।देने के नाम पर सब कुछ पत्नी के नाम पर छोड़ गया होगा।यह नहीं हुआ कि दस पांच लाख मेरे नाम कर देता। ऐसे आदमी का क्या दुःख मनाऊं।पता नहीं क्यों इसकी मीठी मीठी बातों में आ गई।"
दृश्य बदलता है।मेरी बहन आ गई है।कपड़ा हटाकर मेरा चेहरा देखती है। फिर अपनी भाभी के गले मिलकर रोती है।पत्नी खूब बिलख बिलख कर रो रही है।मेरी समझ में नहीं आ रहा। मैंने प्रताड़ना के अलावा कोई ऐसा सुख इसे नहीं दिया था जिसे याद करके रोती। बहिनों को भी कोई खास मान सम्मान नहीं दिया।बस खून का रिश्ता मात्र निभाता रहा।हां वे जरूर उसके हिमायती और मेरे विरोधी रहीं। इसीलिए मैं उन्हें पसंद नहीं करता था।शायद रोना भी एक परम्परा है जिसे निभाना जरुरी है।
पत्नी जिसे मैंने पत्नी कम फालतू का सामान अधिक समझा।कभी उसके मान सम्मान की चिंता नहीं हुई।किसी के सामने भी डांट या पीट देता जिसमें मैं अपनी मर्दानगी समझता।उसका मुझसे अधिक पढ़ा लिखा होना ही सबसे बड़ा दोष था।वह जितनी पढ़ी है उतनी ही धीर गम्भीर है ।मैं उतना ही कृतघ्न,उच्शृंखल और कमीना।वह रात रात भर जागकर मेरी सेवा करती।फल ,दवाई, डाक्टर सब उपलब्ध कराती। अपने आप नहलाती, कपड़े धोती, अपने हाथ से खाना खिलाती। फिर भी मैं उसे शब्द शरों से घायल किए बिना न रहता।
वह छाया सी मेरे साथ लगी रहती।जब केंसर के कारण मेरे गले में खाना जाना बंद हो गया तब वह फलों का जूस निकालती,शेक बनाती, सब्जियां उबाल कर पीसती।उसी में रोटी पनीर सब मिला देती।मैं कमजोर न पड़ जाऊं इसीलिए पूरी खुराक देती।दूध दही की कोई कमी न करती।सारा दिन फोन पर डाक्टरों से बात करती। मुझे दिखाने ले जाती।एक कंधे पर बैग ,हाथ में फाइल और दूसरे हाथ से मुझे पकड़े रहती।बेटा फोन पर मां को घुड़कता-"ये क्या मां?आप अकेली पापा को लिए घूमती है।वह उत्तर देती-"तो क्या हुआ।जब तक सांस तब तक आस।मेरे मन में यह तो अफसोस नहीं रहेगा कि मैंने ढंग से इलाज नहीं कराया।मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही हूं,बाकी ऊपर वाला जाने।"
बेटी पूछती-"मम्मी,आप पापा को कैसे सह पाती हैं?
......."यानि मैं सांप हूं।विष उगलता रहता हूं। क्यों रहती है सांप के साथ?कभी मेरा विष तुझे चढ़ा नहीं?"
मैं उसकी चोटी पकड़ कर खींच देता और कमर में एक लात जमा देता।बेटी मां की दुर्दशा देखकर रोने लगती।
"तू क्यों रोती है लाड़ो जब मैं ही नहीं रो रही।ऊपर वाला सब देखता है।"
ठीक कहती थी वह कि ऊपर वाला सब देख रहा है। उसने ऐसा देखा कि मैं बोलने के काबिल ही न रहा।कुछ सटकने लायक नहीं रहा।पल पल अपनी मृत्यु का इंतजार करने लगा। लेकिन उसने मेरे इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। सारे रिश्तेदार और पड़ोसी जानते हैं।उसका मान सबकी निगाहों में बढ़ गया है।उस जैसी पतिव्रता स्त्री हो ही नहीं सकती। फिर मेरे जाने पर बिलख बिलख कर रो रही है।बेटे ने भी कंधे से लगाकर चुप नहीं कराया है और न यह कहा कि तुम चिंता मत करो।मैं हूं न। पुत्र ने कुछ आदतें मेरी भी पायी हैं।कहता भी कैसे?मरी बिल्ली कोन गले में बांधे?
फिर भी मैं यह जानने को आतुर हूं कि उसके रोने का क्या कारण है।उसकी गरीबी..... नहीं स्वाभिमानी व्यक्ति कभी गरीब नहीं होता। उसने मुझसे कभी एक पैसा नहीं मांगा।वह स्वाभिमानी है।भूखी रह लेगी ,मेहनत कर लेगी , लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएगी।वह कहती हैं -जिसने पेट दिया है वह रोटी भी देगा।वह अपने बच्चों को भूखा नहीं सुलाता।मैं जानता हूं कि मैंने उसके लिए कुछ नहीं छोड़ा।यह उसके रोने की वजह नहीं हो सकती।मैं उसे भिखारिन के रुप में देखना चाहता था।यह इच्छा तब भी पूरी नहीं हुई।अब भी नहीं होगी लेकिन रोने का कारण....?
मैं उसके मन में गहरे तक उतर जाता हूं।वह चाहती थी कि पहले मैं मरती और मैं पत्नी के बिना अभावों में तड़पता पल पल जीता। इसीलिए उसने इतनी सेवा कर बचाना चाहा।यह उसकी हार का रोना था। इसीलिए वह मेरे जाने से दुखी थी।
मुझे मरे चार घंटे ही गए हैं।लगभग सभी नाते -रिश्तेदार आ गए हैं।अब मुझे नहलाया जा रहा है। पंडित आ चुका है।नाई पुत्र का सिर मूंड रहा है।सफेद वस्त्रों में वह मेरे पास खड़ा है। तिलक लगाकर मुझे फूलों से ढंक दिया गया है। सफ़ेद कफ़न से मुझे ओढ़ा दिया है।मेरा चेहरा अभी खुला है। रिश्तेदार चादर ओढ़ाकर प्रणाम कर रहे है। पौत्र व बहुएं पैर छू रही है।पत्नी ने अपने सभी सुहाग चिह्न उतारकर मेरी छाती पर रख दिए हैं। जैसे कह रही हो कि आज से मेरा तुम्हारा नाता खत्म।जिन सुहाग चिन्हों के नाम पर तुम मुझे बांधे रहे,मैं आज तुम्हें उनसे मुक्त कर स्वयं भी मुक्त हो रही हूं।प्रभु अगले जन्म में तुम्हें सद्बुद्धि दे और मेरा तुम्हारा यही सातवां जन्म हो।
एक बार फिर रोने के स्वर तेज होते हैं।काठी बांधी जा चुकी है। घंटे घड़ियाल बज रहे हैं।कुछ हाथ काठी उठाकर कंधे पर रख लेते हैं। पुत्र सबसे आगे हैं।सब राम नाम सत्य है कहकर आगे बढ़ रहे हैं।
मैं उनके साथ -साथ हवा के झोंकों पर सवार श्मशान की ओर जा रहा हूं। चिता तैयार है।भंगी मेरे ऊपर पड़ी चादरें उतार लेता है। मुझे चिता पर लिटा दिया जाता है। श्मशान का पंडित कुछ मंत्र पढ़ता है और जल छिड़कता है।मेरे ऊपर लकड़ियां रख दी जाती हैं। पंडित एक लकड़ी का सिरा घी में डुबोकर जलाता है। मुझे भय सताने लगता है।मैं अब नष्ट हो जाऊंगा लेकिन तभी आत्मा आभास कराती है -तुम जीवन मरण से दूर हो।नैनं दहती पावकः।और चिता धू -धूकर जलने लगती है।
एक धूम्र रेखा तेजी से उठकर ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है।
लेखिका
सुधा गोयल
२९०-ए, कृष्णानगर, डा दत्ता लेन, बुलंद शहर -२०३००१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें