शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

कहानी

गाथांतर पर आज सुधा गोयल जी की कहानी




                                                     नैनं दहति पावकः

         अभी कुछ देर पहले ही मेरी मृत्यु हुई है।मैं अपना शरीर छोड़कर धूम्ररेखा की तरह ऊपर उठ रहा हूं।हवा के झोंकों से कभी इधर कभी उधर झूम जाता हूं। मुझे भय भी लगता है,पर तभी ध्यान आता है कि भय कैसा?अब तो मैं मुक्त हूं। आजाद हूं।नैनं छिदंन्ति शास्त्राणी,नैनं दहति पावकः।मैं खुश हूं। अपनी इस आजादी का जश्न मनाना चाहता हूं,पर कैसे?अपनी खुशी मैं किसी के साथ व्यक्त नहीं कर सकता।किसी के साथ मिलकर नहीं मना सकता,केवल महसूस कर सकता हूं।यह महसूस करना भी कितना सुकून भरा है।शरीरधारी व्यक्ति इस सुकून को समझ नहीं सकता।
         चिंता मुक्त होना भी एक सुकून है।अब न मुझे समाज की चिंता है ,न परिवार की न अब मुझे कोई बीमारी है ,न डाक्टर के पास जाना है,न दवाइयां खानी है न इंजेक्शन लगवाने हैं।जब देह ही नहीं है तब उससे सम्बन्धित दुःख कैसा।
        अब न घर की जरूरतों के लिए थैला लटकाए बाहर जाना है और न पेंशन लेने आफिस।अब तो कोई काम ही नहीं है।सारे काम शरीर के थे।सारे सुख दुःख भी शरीर के थे।शरीर भी पुराने कपड़े जैसा जर्जर हो गया था।उसे ठीक रखने के लिए समय समय पर पैच लगाने पड़ते थे। कितनी बार चीरफाड़ करानी पड़ी।देह दुखती तो मुंह से आह निकल ही जाती।
         खैर, मैंने सोचा कि आज जश्न मनाऊंगा तो मनाऊंगा ही। लेकिन अकेले अकेले बात कुछ जमती नहीं,पर जमानी तो पड़ेगी ही। मैंने निश्चय किया है कि मैं अपनी देह के ऊपर आंगन में स्थित हो सारे क्रियाकलाप देखूं। मुझे कौन कितना चाहता था तथा कौन कितनी घृणा करता था,सब पता चल जाएगा।सबके मुखौटे उतर जाएंगे।पर यह क्या?पत्नी के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है, क्रिया कर्म कैसे करेगी।मैंने भी कितनी बड़ी ग़लती की।कुछ पैसे उसके खाते में डाल देता या घर ही लाकर रख देता।दस लाख पी.पी.एफ.में ही हैं। मैंने तो किसी को अपना उत्तराधिकारी भी नहीं बनाया है।उन पैसों के विषय में कोई जानता भी नहीं है।वह तो बैंक में ही रह जाएंगे।क्या मैं पुनः शरीर में प्रवेश कर कुछ पैसे पत्नी को दे सकता हूं।चलो कोशिश करता हूं।
         पर यह क्या? प्रवेश कहां से करूं? प्रवेश के सभी रास्ते अवरुद्ध हो चुके हैं।सभी जगह रुई ठूंस दी गई है। मुंह में तुलसी दल भरे है। गुप्तांगों में आटे के पिंड हैं।वायु आने जाने का कोई भी मार्ग खुला नहीं है।खैर,चलो अब तो तमाशा और भी रोचक होगा।देखता हूं सारी व्यवस्था कैसे होती है।अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।पत्नी माथे की बिंदी और मांग का सिंदूर पहले ही पोंछ चुकी है।विलाप करते हुए उसने कांच की चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं।सिर ढ़के मुख नीचा किए निरीह सी बैठी है।कैसी कुम्हला गई है।उसके चेहरे का सारा तेज झुलस गया है। कितनी दयनीय लग रही है। बीच-बीच में हिचकी लेती है।सारी देह हिल जाती है। रोते-रोते कह रही है -
      "मैंने लाख कोशिश की,अपनी सामर्थ्य भर इलाज कराया, लेकिन बचा न सकी।मेरे भाग्य में वैधव्य ही लिखा था।"
         मुझे पत्नी पर तरस आता है पहले ही कौन सधवा थी। माथे पर बिंदी लगाने या मांग में चुटकी भर सिंदूर लगाने से कोई सधवा नहीं हो जाता पर समाज का मानना यही है। मैं इसमें क्या कर सकता हूं ?जब भी कोई रिश्तेदार औरत आती है पत्नी से गले मिलकर रोती है। यह रोना थोड़ी-थोड़ी देर रुक -रुक कर चल रहा है मेरी मृत देह जमीन पर एक चादर बिछाकर उस पर लिटाई गई है। एक चादर ऊपर से ढकी है।





         पत्नी गले का मंगलसूत्र और हाथों की सोने की चूड़ियां उतार कर दामाद को दे रही है -"लल्ला , अपने ससुर की अंतिम यात्रा की तैयारी करो।"
        "मम्मीजी ये सब अभी अपने पास रखो।मैं व्यवस्था कर रहा हूं।"वह लेने से इंकार करता है।
      "अभी रखो। वैसे भी ये सब मेरे किस काम के हैं। दामाद का पैसा ससुर के अंतिम संस्कार में लगे ये अनुचित है।"
         " मैं बाद में ले लूंगा।अब इसी काम के लिए बाजार जाना उचित नहीं लगता।मैं साले साहब से बात करता हूं।"
          पत्नी चुप कर जाती है।उसे दामाद की बात जमी है।मैं भी देख रहा हूं कि कौन क्या-क्या करता है। लड़का पांच सौ की गड्डी निकाल कर दामाद को थमाता है। मुझे ताज्जुब हुआ। जीते जी जिसने कभी मुड़ कर मेरी तरफ नहीं देखा वह नोटों की गड्डी निकाल रहा है।मैं सब समझता हूं। मेरे जाने के बाद मेरा सारा पैसा निकाल लेगा।मेरे आफिस वालों से इसीलिए सम्पर्क बनाए रखता है।मैं इसकी नस-नस से वाकिफ हूं। मां की ओर हमदर्दी के चार जुमले उछाल कर मकान भी हथिया लेगा।
       तभी मेरी सोच दूसरी ओर मुड़ती है।अब सोचता हूं कि मैने ही इसके लिए क्या किया।इसे पैदा करने के बाद इससे कभी सीधे मुंह बात ही नहीं की।कभी प्यार से सिर पर हाथ नहीं रखा।कभी सुख दुःख नहीं बांटा।यदि उसने भी दूरियां बना लीं तो इसमें इसका क्या कसूर?वह अपने पुत्र होने का फर्ज तो निभा रहा है।मैं अपने पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया।
        पास पड़ोसी और रिश्तेदारों का आना जारी है। स्थानीय लोग सूचना मिलते ही आ पहुंचे। हां बाहर से आने वालों में वक्त लगेगा।लोग आपस में खुसर-पुसर कर रहे हैं। मैं उनके ऊपर वायुमंडल में स्थित हूं ।यह विनोद ऐसे भाग दौड़ कर रहा है जैसे इसी का बाप मरा हो। मेरा लाखों रुपया तो इसी के पास है जिसकी कानों कान किसी को भनक भी नहीं है। साला सब डकार जाएगा ।मेरे रुपए से ही उसने अपना मकान खड़ा कर लिया है।
         यह मेरे पड़ोसी हैं जिनसे रोज आते जाते दुआ सलाम होती रहती थी ।कभी सुख-दुख में हाल-चाल पूछ लेते थे। वर्ना अपने काम से काम। हां सुबह-सुबह पार्क में टहलते समय खूब ठहाके लगते थे। राजनीति धर्म या देश के वर्तमान हालात पर खूब चर्चा होती ।खूब जिंदा दिल थे मसूर साहब ।उनकी कमी खलती रहेगी।
         यह दूसरी तरफ चार-पांच व्यक्ति एक ग्रुप में खड़े हैं। यह मेरे ऑफिस के सहयोगी हैं। यह गुप्ता का बच्चा ऐसे कामों में सबसे आगे रहता है ।आज भी सारे कार्यक्रम का सूत्रधार वही है। कैसी अकड़ से कह रहा है कि मैं अपने दस साथियों को तो श्मशान तक पहुंच चुका हूं मेरे कंधे कितने मजबूत है।
       "ठीक कहते हो गुप्ता। क्या पता कल तुम्हें श्मशान पहुंचाने को कोई कंधा ही ना मिले "-राजेश ने चुटकी ली।
        आगे बढ़ता हूं यह मेरे भाई बांधव हैं मुझे मन ही मन गालियां दे रहे हैं और मेरी बखिया उधेड़ने में लगे हैं जिसमें मेरा पुत्र और दामाद भी शामिल है। पुत्र कह रहा है हद दर्जे के कंजूस थे। मां को कभी दो पैसे नहीं दिए। मां हमेशा खाली हाथ पैसे पैसे को तरसती रही ।अभी भी खाली हाथ बैठी है ।पता नहीं वक्त कैसे गुजरेगा।
        "जब तक जीवित रहा कभी पल भर चैन नहीं लेने दिया। सुख नाम की चीज उसके जीवन में कभी नहीं आई। केवल दुखी उढ़ाता- बिछाता रहा। बेचारी ने कभी न ढंग से खाया न पहना। केवल रात दिन प्रतीक्षा करती रही। आधी आधी रात को जुआ खेल कर खा पी कर घर लड़खड़ाता लौटता। लौट कर उसे गालियां बकता ।वह बेचारी बकरी सी मिनमिनाती  रहती। हमने तो इसीलिए इससे अपने ताल्लुकात कम कर दिए।" यह मेरा बड़ा भाई है।
        "मैं भी अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगा रोज की चिक चिक से तो जान छूटी"- यह मेरा सपूत था।
      " शादी के प्रारंभिक दिनों में हम झूठ बोलते ।किसी काम का बहाना बनाते। ढूंढ कर लाने का ढोंग करते। आखिर झूठ को एक दिन बेपर्दा होना ही था ।एक दिन भौजी ने कहा-" भैया अपने भाई की कमियां कब तक छुपाओगे? अब बहाने बनाने बंद भी करो। मैं सब जान गई हूं।"  इसने तो हमारी गर्दन कभी ऊपर उठने नहीं दी। शर्म से झुकी ही रही। भौजी के प्रति हम भी कम अपराधी नहीं है। ऐसे व्यक्ति को शादी नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन मां भविष्य देख रही थी कि शायद संभल जाए लेकिन जीवन पूरा हुआ पर वह नहीं संभला"। यह मेरा अनुज था।
        "अब मम्मी का शेष जीवन चैन से कटेगा"-ये मेरे बेटी और दामाद हैं।यानि मैं सबकी आंखों में खटकता रहा।बस मेरे सामने ही किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी।आज मैं नहीं हूं तो सब बातें बना रहे हैं।जब इस औरत को रोटी खिलाएंगे तब जानूंगा।इन सबके बूते पर ही अकड़ दिखाती थी।
         वायुमंडल में स्थित होते हुए भी मैं क्रोधावेश में कांपने लगता हूं और रुई के गोले की तरह इधर उधर घूमने लगता हूं।यह मुझे क्या हो रहा है।मैं तो सुख दुःख से ऊपर हूं।शान्त हूं।फिर ऐसे विकार क्यों आ रहे हैं।
       मैं वहां से हटकर उधर चल देता हूं जहां मेरी प्रियतमा नतमुख किए बैठी है।सबकी निगाह में वह मेरी धर्म बहन है। इससे राखी बंधवाता हूं।यह सिर्फ समाज की आंखों में धूल झोंकने के लिए था।वह भी बैठी सोच रही है -"चलो अच्छा हुआ जो माथुर का बच्चा मर गया।पीछा तो छूटा। कंजूस तो इतना कि कुछ मत पूछो।बस फोकट में देह चाहिए।देने के नाम पर सब कुछ पत्नी के नाम पर छोड़ गया होगा।यह नहीं हुआ कि दस पांच लाख मेरे नाम कर देता। ऐसे आदमी का क्या दुःख मनाऊं।पता नहीं क्यों इसकी मीठी मीठी बातों में आ गई।"
       दृश्य बदलता है।मेरी बहन आ गई है।कपड़ा हटाकर मेरा चेहरा देखती है। फिर अपनी भाभी के गले मिलकर रोती है।पत्नी खूब बिलख बिलख कर रो रही है।मेरी समझ में नहीं आ रहा। मैंने प्रताड़ना के अलावा कोई ऐसा सुख इसे नहीं दिया था जिसे याद करके रोती। बहिनों को भी कोई खास मान सम्मान नहीं दिया।बस खून का रिश्ता मात्र निभाता रहा।हां वे जरूर उसके हिमायती और मेरे विरोधी रहीं। इसीलिए मैं उन्हें पसंद नहीं करता था।शायद रोना भी एक परम्परा है जिसे निभाना जरुरी है।
        पत्नी जिसे मैंने पत्नी कम फालतू का सामान अधिक समझा।कभी उसके मान सम्मान की चिंता नहीं हुई।किसी के सामने भी डांट या पीट देता जिसमें मैं अपनी मर्दानगी समझता।उसका मुझसे अधिक पढ़ा लिखा होना ही सबसे बड़ा दोष था।वह जितनी पढ़ी है उतनी ही धीर गम्भीर है ।मैं उतना ही कृतघ्न,उच्शृंखल और कमीना।वह रात रात भर जागकर मेरी सेवा करती।फल ,दवाई, डाक्टर सब उपलब्ध कराती। अपने आप नहलाती, कपड़े धोती, अपने हाथ से खाना खिलाती। फिर भी मैं उसे शब्द शरों से घायल किए बिना न रहता।



     वह छाया सी मेरे साथ लगी रहती।जब केंसर के कारण मेरे गले में खाना जाना बंद हो गया तब वह फलों का जूस निकालती,शेक बनाती, सब्जियां उबाल कर पीसती।उसी में रोटी पनीर सब मिला देती।मैं कमजोर न पड़ जाऊं इसीलिए पूरी खुराक देती।दूध दही की कोई कमी न करती।सारा दिन फोन पर डाक्टरों से बात करती। मुझे दिखाने ले जाती।एक कंधे पर बैग ,हाथ में फाइल और दूसरे हाथ से मुझे पकड़े रहती।बेटा फोन पर मां को घुड़कता-"ये क्या मां?आप अकेली पापा को लिए घूमती है।वह उत्तर देती-"तो क्या हुआ।जब तक सांस तब तक आस।मेरे मन में यह तो अफसोस नहीं रहेगा कि मैंने ढंग से इलाज नहीं कराया।मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही हूं,बाकी ऊपर वाला जाने।"
        बेटी पूछती-"मम्मी,आप पापा को कैसे सह पाती हैं?
       ......."यानि मैं सांप हूं।विष उगलता रहता हूं। क्यों रहती है सांप के साथ?कभी मेरा विष तुझे चढ़ा नहीं?"
        मैं उसकी चोटी पकड़ कर खींच देता और कमर में एक लात जमा देता।बेटी मां की दुर्दशा देखकर रोने लगती।
      "तू क्यों रोती है लाड़ो जब मैं ही नहीं रो रही।ऊपर वाला सब देखता है।"
        ठीक कहती थी वह कि ऊपर वाला सब देख रहा है। उसने ऐसा देखा कि मैं बोलने के काबिल ही न रहा।कुछ सटकने लायक नहीं रहा।पल पल अपनी मृत्यु का इंतजार करने लगा। लेकिन उसने मेरे इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। सारे रिश्तेदार और पड़ोसी जानते हैं।उसका मान सबकी निगाहों में बढ़ गया है।उस जैसी पतिव्रता स्त्री हो ही नहीं सकती। फिर मेरे जाने पर बिलख बिलख कर रो रही है।बेटे ने भी कंधे से लगाकर चुप नहीं कराया है और न यह कहा कि तुम चिंता मत करो।मैं हूं न। पुत्र ने कुछ आदतें मेरी भी पायी हैं।कहता भी कैसे?मरी बिल्ली कोन गले में बांधे?
        फिर भी मैं यह जानने को आतुर हूं कि उसके रोने का क्या कारण है।उसकी गरीबी..... नहीं स्वाभिमानी व्यक्ति कभी गरीब नहीं होता। उसने मुझसे कभी एक पैसा नहीं मांगा।वह स्वाभिमानी है।भूखी रह लेगी ,मेहनत कर लेगी , लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएगी।वह कहती हैं -जिसने पेट दिया है वह रोटी भी देगा।वह अपने बच्चों को भूखा नहीं सुलाता।मैं जानता हूं कि मैंने उसके लिए कुछ नहीं छोड़ा।यह उसके रोने की वजह नहीं हो सकती।मैं उसे भिखारिन के रुप में देखना चाहता था।यह इच्छा तब भी पूरी नहीं हुई।अब भी नहीं होगी लेकिन रोने का कारण....?
       मैं उसके मन में गहरे तक उतर जाता हूं।वह चाहती थी कि पहले मैं मरती और मैं पत्नी के बिना अभावों में तड़पता पल पल जीता। इसीलिए उसने इतनी सेवा कर बचाना चाहा।यह उसकी हार का रोना था। इसीलिए वह मेरे जाने से दुखी थी।
        मुझे मरे चार घंटे ही गए हैं।लगभग सभी नाते -रिश्तेदार आ गए हैं।अब मुझे नहलाया जा रहा है। पंडित आ चुका है।नाई पुत्र का सिर मूंड रहा है।सफेद वस्त्रों में वह मेरे पास खड़ा है। तिलक लगाकर मुझे फूलों से ढंक दिया गया है। सफ़ेद कफ़न से मुझे ओढ़ा दिया है।मेरा चेहरा अभी खुला है। रिश्तेदार चादर ओढ़ाकर प्रणाम कर रहे है। पौत्र व बहुएं पैर छू रही है।पत्नी ने अपने सभी सुहाग चिह्न उतारकर मेरी छाती पर रख दिए हैं। जैसे कह रही हो कि आज से मेरा तुम्हारा नाता खत्म।जिन सुहाग चिन्हों के नाम पर तुम मुझे बांधे रहे,मैं आज तुम्हें उनसे मुक्त कर स्वयं भी मुक्त हो रही हूं।प्रभु अगले जन्म में तुम्हें सद्बुद्धि दे और मेरा तुम्हारा यही सातवां जन्म  हो।
       एक बार फिर रोने के स्वर तेज होते हैं।काठी बांधी जा चुकी है। घंटे घड़ियाल बज रहे हैं।कुछ हाथ काठी उठाकर कंधे पर रख लेते हैं। पुत्र सबसे आगे हैं।सब राम नाम सत्य है कहकर आगे बढ़ रहे हैं।
  मैं उनके साथ -साथ हवा के झोंकों पर सवार श्मशान की ओर जा रहा हूं। चिता तैयार है।भंगी मेरे ऊपर पड़ी चादरें उतार लेता है। मुझे चिता पर लिटा दिया जाता है। श्मशान का पंडित कुछ मंत्र पढ़ता है और जल छिड़कता है।मेरे ऊपर लकड़ियां रख दी जाती हैं। पंडित एक लकड़ी का सिरा घी में डुबोकर जलाता है। मुझे भय सताने लगता है।मैं अब नष्ट हो जाऊंगा लेकिन तभी आत्मा आभास कराती है -तुम जीवन मरण से दूर हो।नैनं दहती पावकः।और चिता धू -धूकर जलने लगती है।
     एक धूम्र रेखा तेजी से उठकर ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है।

लेखिका
सुधा गोयल
२९०-ए, कृष्णानगर, डा दत्ता लेन, बुलंद शहर -२०३००१

   
       


    ‌   

    

गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

बलमा जी का स्टूडियो

                                                   बलमा जी का स्टूडियो



जिन्दगी जब रात के अन्धेरे बियावान में  स्मृतियों के तलछट में कुछ कुरेदती है ,अक्सर सुख -दुख ,राग -द्वेष की घटनाऐं घण्टा घर की घण्टी की तरह टन -टन-टन बज उठती हैं । ननिहाल का प्राकृतिक परिवेश बड़ा मनोरम था ,कल-कल बहती टौंस नदी में लड़कियों के झुण्ड के साथ नहाना ,कभी मठिया बाबा के दर्शन के लिए ऊँचे सिमेंन्टेड़ पानी की नालियों पर चढ़ कर जाना तो कभी नाना से ढ़ेर सारी पौराणिक कहानियाँ सुनना याद है ,पर आत्मा के किसी भी कोने में उस ज़मीन के प्रति लगाव महसूस नहीं करती ,कारण मामा के गाँव चार बेटियों वाली माँ की घोर उपेक्षा रही । समय के साथ हम परिपक्व हुए और नाते के सारे डोर ननिहाल से टूटते गये ,आखिर सहने की भी एक सीमा होती है ।माँ नाना के मरने तक में नहीं गयी । पर मेरा गाँव सराय मुबारक कुछ ऐसे बसा स्मृतियों में कि आत्मा आज भी वहाँ नित टहल आती है ।मेरे पुरखे सिकन्दर पुर बलिया से यहाँ धरमपुरा के उपधियों द्वारा धियनिया बसाए गये पर समय ने ऐसी करवट ली की बावन गाँव पचोतर में हरिप्रसाद तिवारी ,विन्धेश्वरी तिवारी की तूती बोलने लगी ।इसी प्रभाव में अम्मा के बाबा जो मेरे गाँव के प्राईमरी स्कूल के हेडमास्टर थे प्रभावित हो पहले हमारे कुल में अपनी बेटी ब्याही पीछे बड़ी चालाकी से आजी से बाबूजी की नज़र उतार छ:माह की अम्मा के ब्याह का कौल (वचन) ले गये ।बात आई -गयी और समय चिड़िया के पंख पर बैठा फर्र फर्र उड़ता रहा।

 दरोगाइन गंगोत्री देवी को जान कर काटो तो खून नहीं ,बभनपुरा के लठैत बाभनों में बेटी जाए ,सुन कर सलाके में , आँगन में विलाप करने लगीं ,सास का पैर धर रोतीं -

"काट कर टौंस में फेंक देना जो बेटी को वर न मिले , पर बभनपुरा न ब्याहना अम्मा जी "। 

अम्मा जब बाबूजी से लड़तींं,  रो -रो बतातींं ,कनवा  ले आकर बोर गया। कनवा यानी अम्मा के बड़े चाचा,अम्मा जीती तो सपनों में यहाँ ब्याह न होता ,कहती मेरी बेटी लन्दन जाएगी पढ़ने ,पर ये सारे ख्वाब ,ख्वाब ही रहे ।चार साल की अम्मा को छोड़ नानी स्वर्गसिधार गयीं, दरोगा जी तीनों बेटों को लेकर नौकरी पर बिहार चले गये ।अम्मा रह गयींं चचेरे भाई -बहनों संग गाँव में ।यहाँ अभाव था, संघर्ष था , उपेक्षा थी ।इधर सात साल के बाबूजी भी मातृ स्नेह से वंचित हुए ।कर्कशा भावज की मानसिक यातनाओं के बीच बारह साल के बाबूजी का ब्याह अम्मा से हो गया और सोलहवें में गवना हुआ । दुबले -पतले बाबूजी , भरी- पूरी अम्मा , पूरे कुल की बुढ़ियों में हाय -हाय मच गयी । बाबूजी की चन्द्रकाली फुआ ने ड़ोली से  बहू उतारते ही भाई को उलाहना दिया-

 "गाय संगे बछरु बियह गइलें "। 


अम्मा के गाँव शिक्षा थी ,हमारे घर सात हर की खेती , अम्मा ने पति को मन्त्र दिया -

"पढ़ोगे नहीं तो मेरे भाईयों संग बैठोगे कैसे ", जो तरे -ऊपर पतलो रख फूंक भी दी जाऊं घर में ,पढ़ना न छोड़ना तिवारी जी ।" 

और इस तरह बाबूजी हमारे कुल के पहले पोस्ट ग्रजुएट हुए । आगे परम्परा बन गयी , जिस जमींदार परिवार के लड़के गाँव के प्राथमिक पाठशाला से आगे नहीं पढ़ते थे वहाँ बाबूजी ने इतिहास रचा और रचते चले गये। 
                        परगना पचोतर ,जिला गाजीपुर का छोटा सा गाँव सराय मुबारक देश के तमाम छोटे गाँवों जैसा ही है । लहलहाती खेती , हरे -भरे बाग - बगिचे ,ताल- तलैया ,सगड़ा ,कोली , कोली में साइकिल के पुराने टायर को सिटकुन से मार -मार भगाते नंग- धड़ंग बच्चे ।इनार की जगत पर गोट्टी खेलती खबर- खबर झोंटा खजुआती लड़कियाँ । कुछ कांख में भाई -भतिजे को जांती खड़े हो तमाशा देखतीं तो कुछ डाली में अनजा ले बनिए की दुकान से तेल ,मसाले की खरीद को जातीं । औरतें सुबह शाम नियम से खेतों की ओर निकलती निबटने और ड़हर में रुक कर टोह टक्कड़ इनकी -उनकी लेते चलतीं ।मर्द किसानी से निजात पा रात को चौबे जी के बरामदे में बैठ गायकी करते , कभी फगुवा ,कभी चैता ,कभी भजन -किर्तन ।नवयुवकों का भी अपना मंगल दल था जो समय- समय पर नौटंकी खेलता ।जब बरखा नहीं होती शिव जी की पिंड़ी इनार में रस्सी से लटका रात भर किर्तन होता इस आस में कि अकबका के डूबे रहने पर शिव जी जागेंगे और इन्द्र को ले खेदिया बरखा कराएंगे । इस इलाके में शिव जी का बड़ा महात्यम है , महाहर शिव इलाके के क्षेत्र देवता । सुना है पूरे उत्तर भारत में एक मात्र पंचमुखी शिव लिंग यहीं है ।यही वह जगह है जहाँ दशरथ ने श्रवण को मारा था । अब आप समझ सकते हैं कितना महत्व है यहाँ अड़भंगी भोले का ।मेरे गाँव से कोई एक किलो मीटर की दूरी पर महारे की छोटी सी चट्टी थी उन दिनों ।कुल मिलाकर चार पाँच दुकानें रही होंगीं ।एक किराने की ,एक बिसाते की ,कोने में चाय -पकौड़ी की ,हाँ एक झोला छाप डॉक्टर की भी जो अपनी मोपेड से गाँव -गाँव घूमते ,इलाज करते थे ।उन्ही के बगल में थी कथा नायक बलमा जी का स्टूडियो ।पहली बार जब देखा था बलमा को उम्र कोई चौदह की रही होगी ।शरीर में तमाम तरह के उफान का दौर ।खुद को उम्र से ज्यादा सयाना समझने की जिद में ऐंठी मैं अम्मा का हाथ थामें दुकान के बाहर रखी चौकी पर बैठ गयी ।मरदह से जीप में बोरियों की तरह ठूस कर लाई गयी मैं बैठ कर अभी खुल कर ठीक से साँस भी नहीं ले पाई थी कि अन्दर से दाँत निपोरते ,हाथ में लोटा- गिलास लिए बलमा निकला ।उसे देख मुझे हँसी आ गयी , दूबला -पतला लच- लच बलमा लाल रंग की टी शर्ट और सटकहवा नीला जिंस पहने माथे तक लटकतीं जुल्फें, खैनी सूर्ती के कोप से झौंसी करियाई दंत पंक्तिया।गले में धारीदार ललका गमछा लपेटे आकर सामने खड़ा हो गया ।अम्मा का सोहर कर पैर छू ,गिलास रख , लोटा लिए सामने नल से पानी लेने चला गया । पानी गिलास में ढ़ार कर अम्मा को भेली पानी दिया और मेरी तरफ लोटा बढ़ा कहा -

"बहिनी तुम लोटवे से पी लो।"

भयंकर उमस में ठण्डा पानी पी कर जान में जान आई ।हाल चाल पूछने के बाद बलमा ने पूछा - "गावें कइसे जाऐंगी मलकिन ?"

अम्मा ने कहा- " पैदले ।"

गाँव अभी भी एक किलो मीटर था ,मेरी जान सूख गयी । 
बलमा ने मेरी तरफ देखा और अम्मा से कहा -"चलिए हम छोड़ देंगे।ओनिए जाना है।"


अम्मा तैयार हो गयींं ।हम उसकी फटफटिया राजदूत से जो पूरे रास्ते फटे बाँस के कर्कश भोंपू की तरह बजता रहा ,गाँव के बाहर अपने बाग तक पहुँचे ही थे कि अम्मा ने रोक दिया - 

"राहे द बाबू , अब हम चले जाएगें ।"

अम्मा ने दाँत दिखा उसे आभार व्यक्त किया ।बलमा कभी मुझको देखता ,कभी अम्मा को ,शायद कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं पाया ।हम घर आ गये ।अम्मा ने ताला खोला ।हाथ मुँह धो कर मैंने चाय बनाया ।हमें देखते ही बगल के चाचा के यहाँ से दूध आ गया ।बड़की अम्मा आकर बैठ गयीं ,ललइ चाचा की माई भी आकर पीढ़ा  ले बैठ गयीं, अम्मा की बैठकी लग गयी । सबने चाय पी ,धीरे -धीरे लड़कियों को खबर लगी । रुना ,गीता,सीता ,सुधा आदि आ धमकीं ।शाम के खाने की चिन्ता नहीं थी । हम हमेशा की तरह मऊ से चलते वक्त पूड़ी- सब्जी लेकर चले थे । लड़कियों ने इशारा किया तो मैं अम्मा से पूछ धीरे से बाहर निकली ,काले -काले मेघ सरपट हमारे गाँव की ओर भागे चले आ रहे थे ।देखते -देखते अन्धेरा छा गया ।बस बुन्नी छूटने ही वाली थी ।मुझे देख बगल की बड़की माई ने कहा -

"बाह बेटी !अईलू त अईलू ,बरखा लेहले अईलू । जीय मोर रानी ।"

आशीष दे वह अपने जानवर खोल पलानी में बांधने लगींं । हम कुँवर बाबा के चौतरे पर बैठ गये,आज बगल में गोड़िन ने भरसांय नहीं झोंकी थी ।बरसात में लवना का अभाव रहता था ।घर की रोटी बनाए की सबका दाना भूजें।मैं सोचती रही,गीता ने टोका तो मेरी तन्द्रा टूटी - "तुमको बलमा छोड़ गया ?"

- "हाँ " कह मैं उसका मुँह ताकने लगी

- "तुमसे किसने कहा दीदी ?" मैंने पूछा,
- "पिंटुवा बता रहा था ।"

उसने मुँह लटका कर कहा ,मुझे ध्यान आया ,पिंटू कैंची साईकिल चलाते हुए गुजरा था।लड़कियाँ आज अप्रत्याशित ढ़ंग से चुप थीं ,मैं सोच में थी ,माज़रा क्या है ?
सुधा- "बेचारा गाँव तर आया था तो चाची को पानी -दाना तो पूछ लेना चाहिए था । "

वह खासी नाराज लग रही थी।
रुना और नाराज - "इ चाची के पास न तनिको व्यवहार नहीं है ।क्या सोचेगा बेचारा ।"

उसका मुँह और लटक गया।
सीता ने तो हद ही कर दी --"तुम तो बहुते सट के बैठी थी ।"

आँख नचा कर कहा।सब मुझे चील की तरह घूरे जा रही थीं ,जैसे मिनट में घोंट जाऐं।मेरा माथा घूम गया,हो गया धमाका,मैं तन के खड़ी हो गयी, कमर पर हाथ रख युद्ध की मुद्रा में , भौंह गुस्से में तान कर कहा -मतलब क्या है तुम्हारा सुधा दी ? मेरा पारा सातवें आसमान पर - "तुम लोग बहुत गन्दी हो।"

कह मैं पैर पटकते घर लौट आई ।मन अपमान से जला जा रहा था ।पहली बार चरित्र पर उंगली उठी थी ।मेरी रुलाई फूट पड़ी। हद है ,शकल से उस लुच्चे लफंगे के साथ ,छी : ,मेरा मन गुस्से से कसैला हुआ जा रहा था । गुस्सा  निकलना ही था ,अम्मा बाहर बरामदे में बैठी बेना हांक रही थी ,साथ -साथ बादल को घिरते देख मुक्त कंठ से कजरी गा रही थी 

"कैसे खेलन जाईं सावन में कजरिया ssss

बदरिया घिर आई ननदी ssss"


मैं धम से आ चौकी पर बैठ गयी - "क्या जरुरत थी आपको बलमा के साथ आने की ? "

मैं गुस्से में चिल्ला रही थी ।अम्मा ने बेना हांकना और गाना दोनों साथ में बन्द कर दिया । चेहरा खींच गया ,मेरी तरफ चिन्ता से देख पूछा - "हुआ क्या ? "

मैंने सब कह सुनाया ,अम्मा ने केवल इतना कहा - मौगड़ा है ,गलती हुई ,नहीं आना चाहिए था । "

हम खा -पी कर सो गये ।अगली सुबह उजाला छिटकते गीता मेरे सिराहने आकर खड़ी हुई ,आहट पा मैं जग गयी । अंगूठे से जमीन की मिट्टी कुरेदते हुए कहा - "चलो बाहर घूम आते हैं ।"

मेरी तरफ देख कर -"अजोर हो रहा है । "

मैं चप्पल पैर में ड़ाल चल पड़ी ,अम्मा लौट आई थी ,आकर नहा रही थी आँगन में ।हम रास्ते भर चुप रहे,आज वो मुझसे हाथ भर की दूरी पर बैठी थी ,बार -बार मेरी तरफ देखती और कुछ कहते -कहते रुक जाती ।हम लौट कर पानी छू ,हाथ धो ,दातून ले बाहर नीम के पेड़ के चौतरे पर बैठ दातून करने लगे ।सामने वाले ढ़ेला भइया गाय लगा रहे थे ,दूध छर्र sss-छर्र ssकी आवाज के साथ बाल्टी में  गिर रहा था । सीता झांडू ले घर बुहार रही थी ,बीच- बीच में कनखिया से हमें देख लेती । टोले के छोटे लड़के -लड़कियों का खेल पराते से शुरु हो गया  था  ,रात भर बरखा हुई थी ,आस-- पास गड्ढ़ों में पानी भर गया था ,बच्चे नंग धड़ंग छप्पक छप पानी में खेल रहे थे। हम दातून कर बहरी अँगना मुँह धो घर में लौटे ।अम्मा चाय बना खाना चढ़ा चुकी थींं ।लोटा से दो गिलासों में चाय ढ़ार हम छत पर चले गये ।मौसम अब भी सुहावना था ,बादल आसमान में जमें हुए थे ।मेरा प्रिय मौसम ,मैं दुवार की ओर मुँह करके बैठी चाय पीने लगी । गीता सुड़- सुड़ करती चाय पी रही थी ,मुझे उसके आवाज करके चाय पीने पर बहुत गुस्सा आता ,घूरते देख वह आवाज धीमें कर पीती रही ।गीता मुझे देख कर मुस्कीयाती और लजा जाती ।उसकी इस हरकत पर मेरी हँसी छूट गयी ,मैं अभी हँस ही रही थी कि उसने कमर के पास से सलवार में से मुड़े -तुड़े कागज निकाल मेरी हथेलियों पर रख दिया -"बेबी तुमको विद्या माई की किरिया ,केहू से कहना मत।"
मैंने भौंहों के इशारे से पूछा - "है क्या यह?
वह लजा कर लाल हो गयी ,धीरे से कहा -चिट्ठी"

मैं ने तपाक से पूछा- " किसकी ?"


मेरी हथेलियों पर उसने चिट्ठियों की गठरी रख दी और शर्मा कर कहा पढ़ लो। मारे कौतुहल के मेरे पेट में गुड़- गुड़ मच गयी ,दिमाग में सिंटी बजने लगी ,कहीं दूर हवा में ज्यों लहराया हो प्रेम में माता दुपट्टा और मैं दुवार पर नीम पर पड़े दो पलिया झूला पर बैठी हवा से बातें कर रही होऊं । मेरे हाथों में पहली बार किसी का प्रेम पत्र था ,झट खोल मैं पढ़ने बैठ गयी और ये क्या ,सब के सब खून से लिखे ?


"लिखता हूँ खत खून से स्याही न समझना
मरता हूँ तेरी याद में जिन्दा न समझना"

अगले खत में एक और शायरी....

"काली काली साड़ी पे कढ़ाई नहीं फबती
गोरी तेरी याद में जवानी नहीं कटती"

खत की भाषा पूरी सी ग्रेड सिनेमा की ,मेरा मन खराब हो गया । चौदहवीं के उम्र में प्रेम पत्र का सुकोमल आकर्षण तार- तार हो गया । लिखने वाला खासा चालाक था ,अपना नाम नहीं लिखा था ।मैं अन्दर ही अन्दर भून कर राख हुए जा रही थी ,पर कुछ राज उगलवाने थे अभी इस लिए चुप रही । मैंने धैर्य पूर्वक पूछा - "किसने लिखी ?"


उसने घुटनों में सिर छिपा लिया ,मैंने कुहनी से ठेल कर दुबारा पूछा - "बताओ भी किसने लिखा?"

 और यह क्या ,थोड़ी देर में ही उसका लाज छू मंतर ,ही ही ही हँसते हुए मेरे गले में हाथ डाल कर कान में कहा -"बलमा !"

सुनते मुझे लगा कि  मैं बेहोश हो जाऊंगी ,मारे सदमें के,यह दूध सी उजली, चिकनी लड़की और वह लोफर मजनु बलमा ,मैं मुँह बिचकाए उसका मुँह ताकती रही कि नीचे से अम्मा की आवाज आई-

 "अरे तनी खेत में से नेनुवा लेते आती बेबी ! बाबूजी आने वाले हैं ।"

मैं बेमन से डाली ले गीता दी संग दुवार के खेत में पहुँची ,गीता खुल चुकी थी ,चहक -चहक बता रही थी कि पिछले मेले में बलमा ने गुलाब की महक वाला सेण्ट दिया था ,एक कलम स्कूल के डहर में मिला तो ,एक दिल छपा रुमाल कुसुम की शादी में जब फोटे खींचने आया था ,तब दिया ।वह रेलती रही और मैं खोज -खोज भर ड़ाली नेनुआ तोड़ती रही ,हल्की फुहार पड़ने लगी तो हम सिर ओढ़नी से ढ़क घर की तरफ भागे ।वह अपने घर में घुस गयी मैं भागी अपने घर में । दस बजे बाबूजी भी आ गये । अम्मा बता रही थी - "रात भर गोड़ तोर कर बरखा हुई है तिवारी जी ,आना सुफल हुआ ।कुल खेत रोपा जाएगा ।"

देखते- देखते रोपनी करने वाली मजूरनों से दुवार भर गया ।जवान लड़कियाँ और औरतें ,अम्मा ने रोपनी का अंगुवा निकाल कर सबको बताशे बाटेंं ,सब की सब पानी में भींगी  ,शरीर पर कपड़े चिपके ,माथे पर से सिन्दूर की रेख बह कर पूरे चेहरे को रंगे हुए, जोगिया रंग में रंगाया चेहरा ,हँसती ,गाती ,माती पवन सी ये श्रमशील औरतें मेरे दुवार को रजगज किये उमंग से भरी मौसमी गीत कोरस में गा रही थीं ।अम्मा की विशेष मांग और चाय के आश्वासन पर झुल्लनबो ने कहरवा गाया - 


  "   के मोर जइयें ssरे उरबी पुरबीया रे sssजान
       आये के मोर जनिये कलकतवा रे sssजान
       देवर मोर जइयें उरबी पुरबीया रे ssजान
       सइया मोर जइयें कलकतवा रे sssजान
       केsइ रे लेअइsहें लाल चोटी बनवा रे ssजान
        केइ रे लेअइsहें फुलगेनवा रेss जान
        देवर मोर लेअइsहें लाल चोटी बनवा रेss जान
         सइया मोर लेअइssहें फुलगेनवा रे ssजान
         केइ के लगइsहें लाल चोटी बनवा रेss जान
         केइ रे लगइsहें फुलगेनवा रेss जान
          देवर लगइsहें लाल चोटी बनवा रेेेsss जान
           हम पिया खेलिब फुलगेनवा रेेेsss जान "

इन गीतों को सुन मन उल्लास से भर गया ,सबने चाय पी भरुके में ,मैंने डायरी में दर्ज कर लिया उन गीतों को ,नहीं जानती थी उन दिनों मैं अपने अंचल की सबसे अनमोल थाती सहेज रही हूँ । औरतों का आधा समूह बाबूजी के साथ कुटी वाले खेत की ओर चला गया ,आधा अम्मा के साथ दुवार पर ।घर खाली ,सुधा और रुमा भींजते मेरे घर में घुसीं ,मैं खुश हो गयी ,अकेले बोर हो रही थी । दसवीं पास कर लिया था ।ग्यारहवीं की किताबें लेकर आयी थी पर मन था कि गीता और बलमा जी के लव स्टोरी में अटका था ।रुमा ,सीता ,गीता ,सुधा सब पिरथी पुर साइकिल से पढ़ने जाती थीं ,जून का महींना होने से स्कूल सबके बन्द चल रहे थे । वह आयीं तो राहत मिली ,चलो कुछ गीत इनसे पूछ लिख लेतीं हूँ सोच डायरी और पेन ले बैठ गयी ।काले रंग की सुनहरे किनारी वाली मोटी डायरी देख दोनों मुँह बाए ,आँख फाड़े मुझे आश्चर्य से देखने लगी -

"इ तो बहुत महंगा होगा बेबी ! "

रुमा ने कहा तो मैं हँस पड़ी -

"अरे नहीं दीदी!  किताबों के प्रकाशक  हर साल बाबूजी को स्कूल में बहुत सारी डायरी दे जाते हैं । उन्हीं में से कभी कभार हमें भी मिल जाती है। " 

मैंने दोनों से वादा किया ,अगली बार आप दोनो के लिए डायरी ले कर आऊंगी । लड़कियाँ खुश हो गयीं ,मैंने गाना पूछा तो दोनों अपनी गाने की कॉपी देने की बात कह टाल गयीं ।मैं समझ गयी आने का उद्देश्य कुछ और है। 
                        अभी वह खुलतीं कि रुमा का भतीजा आकर बुला ले गया कि माई बुला रही है।रह गयी सुधा,सुधा का सांवला चेहरा लम्बी मुस्कान से खिल उठा था - 

"क्या बात है दिदिया "?

मैंने पूछा तो गीता की मुद्रा में वह भी लजा गयी ।सर घुटनों में ,मेरा माथा ठनका ,आगे उसकी कमर से भी सलवार में गाठें चिट्ठियों की पोटली ,वही खून से रक्तरंजित प्रेम पत्र । मरने जीने रात भर करवटें बदलने की बेचैनी । मैंने मुँह बिचका लिया ,वह रो रही थी ।

"हम उससे बहुत पियार करतें हैं बेबी ।जब कल तुम उसके साथ आई ,मेरा कलेजा जल गया ।" 

झर -झर आँसू ।इन लड़कियों के लिए गले में कैमरा टांगे ,जुल्फें लहराते, पान चबाते चलने वाला बलमा हीरो था ,मेरी नज़र में शहर का सड़क छाप मज़नू ।मेरी हँसी ऐसी छूटी की लोट पोट ।मन में आया कह दूं ,उस बन्दर के साथ आप सोच भी कैसे सकतीं हैं ,पर बुद्धि ने काम किया ,सम्हल गयी - 

"अरे नहीं दीदी ,वह तो मुझे बहिनी कह रहा था । "

वह गहरी साँस छोड़ राहत भरी मुस्कान संग टपाक से बोली -

"सही में?"

मैंने उसी अदा से उत्तर दिया -"सही में।"

                                                                   (2)


दोपहर होने को आया था ,बादल थे कि गाँव में आकर जम गये थे ,चारों तरफ बिछलहर ,कीरा -बिच्छी भी प्रकट होने लगे ।अम्मा छाता ताने भनभनाती आ रही थी -

"कबसे कह रही हूँ पैखाना बनवा दीजिए, सुनते ही नहीं ।लड़कियाँ इस मौसम में ना जाने कहाँ जाऐंगी । "

ठण्डी हवा का झोंका खिड़की से आ रहा था ,मैं खटिया खींच कर खिड़की के पास आकर बैठ गयी । बाहर छोटे -छोटे गड्ढों में भरे पानी में गौरैयों का झुण्ड डूबक -डूबक कर नहा रहा था ।सामने वाले ढ़ेला भइया का पाँच साल का बेटा चुन्नू नंग धड़ंग पानी में कूद -कूद खेल रहा था ,कमर में काले धागे की करधन में लाल -काली मोतियों के साथ छोटा सा पीतल का घुंघरु रुनझून बजता और उसकी झुन्नी दाऐं बाऐं साथ में नाचती ।इधर चिड़ियों की चहक उधर चुन्नू का पानी कूद नाच चल ही रहा था कि भीतर से चिल्लाती आजी बाहर निकलीं और चटाक -चटाक चार थपरा मार बाँह घसीटते  बहू को गरियाते उसे अन्दर लेकर चली गयीं । पानी तेज हो गया और बौछार अन्दर आने लगा तो अम्मा बाबूजी का गुस्सा मुझ पर उतारने लगीं  ,खटिया समेत मुझे खींच भड़ाक -भड़ाक खिड़की लगा दिया । मैं चुप लगाए बैठी रही ,इसी में कुशल था । अम्मा बरामदे में बोरशी में अहरा सुलगा खाने की तैयारी में लग गयी ।बाहर मुसलाधार बारिश हो रही थी ,रह -रह कर बिजली कड़कती और भड़ाम से कहीं जा कर गिरती ,अन्धेरा छा गया ।मैंने लालटेन जलाकर बाहर बरामदे के ताखे पर रख दिया ।आँगन के ताखे पर ढिबरी जला आई । अम्मा बाहर कोली (पतली गली)की तरफ बार- बार झांक आती ,बाबूजी की चिन्ता साफ झलक रही थी । मैनें आंटा गूंथ कर रख दिया ।अम्मा आग पर आलू ,टमाटर भूनने लगी । चूल्हा खुले आँगन में होने से आज भौरी ,चोखा अहरे पर लग रहा था । चिन्ता मुझे भी हो रही थी ,घड़ी में देखा ,अभी शाम के चार ही बजे थे और सबके खपरैल ,आँगन से धूंआ उठने लगा था ।बरसात में जीव जन्तु के डर से लोग सकेरे बना खा कर पटा जाते थे ।अब मैं भी रह- रह कर कोली की ओर झांक आती ,अचानक बाबूजी आते दिखे तो माँ ,बेटी ने चैन की साँस ली ।बाबूजी भींग कर लथपथ ,कपड़ा उतार , हाथ मुँह धो आकर बरामदे में खटिया पर रेडियो ले बैठ गये ,अम्मा ने चाय बना कर दिया ,मैं कमरे में लौट आई ,रेडियो पर बी .बी .सी .से समाचार लगा बाबूजी न्यूज सुनने लगे ।रेडियो घरघराता तो चारों तरफ घूमा कर सिगनल मिलाने का प्रयास करते और अन्त में हार कर बन्द कर रख दिया । दोनों बोरशी में मिलकर भौरी सेंकने लगे । कमरे में लैम्प जला मैं किताब ले पढ़ने बैठ गयी । रुमा अपने गीत की कॉपी लिए आयी ।हम गीत लिखने लगे ,अचानक कॉपी से सरक कर मुड़ा हुआ  कागज मेरे सामने गिरा ।रुमा मेरी तरफ पीठ किये चम्पक पढ़ने में मगन थी । मैं कागज खोल कर पढ़ने लगी ,हद है महराज ,सामने छलिया बलमा का आज तीसरा रक्त रंजित प्रेम -पत्र । अम्मा ने आवाज दी तो मैं झट कागज को कॉपी में छिपा चारपाई से उठ खड़ी हो गयी ,एक दम सावधान की मुद्रा में। अम्मा हाथ में टार्च लिए खड़ी थी -

"उसने पूछा -बाहर जाओगी  ? "

मैंने ना में गर्दन नचाया ।वह चली गयी तो मैंने राहत की साँस ली । कागज निकाल रुमा को दिखा कर पूछा -"ये क्या है?"

और बदले में वही पुराना गीता और रुना का उत्तर ।सुनकर मेरा दिमाग चकराने लगा । मन में उथल- पुथल मच गयी ,बड़ा धूर्त है बलमा ,एक साथ मेरे टोले की तीन लड़कियों को प्रेम जाल में फांसे है । रुमा उसके उपहारों के किस्से सुनाती रही ,वही पेन ,सेण्ट ,रुमाल इधर भी उधर भी ।रुमा चली गयी ,सुबह से तीन प्रेम -पत्र और एक प्रेमी की कहानी सुन दिमाग का दही हुआ जा रहा  था ।कभी मन होता सबके घर जाकर कह दूं और बलमा की जम कर धुनाई करवादूँ, फिर खयाल आता कि लड़कियों की तोड़ाई पहले होगी ,बदनामी अलग से , मैं सोचती रही ।अम्मा ने सोचा मैं पढ़ रही हूँ ,खाना लाकर खटिया पर रख दिया ।रुमा सुनियोजित ढंग से आयी थी ,मुझे विचार मग्न देख न जाने कब उठ कर चली गयी मुझे ध्यान ही नहीं रहा । मेरी आँखें वैचारिक तनाव से भारी हो चुकी थीं ,भूख ना जाने कहाँ बिला गयी ,मुझे भूख नहीं अम्मा ! कह मैं आँख बन्द कर सोने की कोशिश करती रही । अम्मा के निहोरा पर बड़ी मुश्किल से एक भौरी खा पायी उस रात ।

                     बरसात की रात ,बाहर नीम पर झिंगुरों की झनझनाहट और जीव जन्तु की तरह -तरह की आवाजें माहौल को डरवना बनाए हुई थीं ।रात आठ बजे बिजली आई तो राहत मिली ,घड़ी में आठ बज रहे थे ।एक ही कमरे में पंखा होने से हम तीनों की खटिया साथ लगी ,किनारे -किनारे अम्मा -बाबूजी ,बीच में मैं । दिन भर के थके दोनों बिस्तर पर जाते सो गये । मेरी बेचैनी का आलम यह था कि मिले बलमा तो मुँह कूच दूँ ।बच गयी थी सीता ,नहीं sssनहीं ,वह तो गाय है । सामने दीवार पर टंगे कैलेण्डर में कृष्ण, राधा संग रास रचा रहे थे ,बीच में राधा -कृष्ण किनारे -किनारे गोपी- कृष्ण। सवाल जो उछल -कूद दिमाग में कर रहा था ,वह था कि बलमा की राधा कौन ? अभी कितनी उसके मोह -पाश में हैं ,आदि -आदि। सोचते -विचारते कब नींद लगी पता ही नहीं चला ,सुबह नींद तब खुली जब अम्मा-बाबूजी के चिल्लम -चिल्ली की आवाज कान में पड़ी। अम्मा  फटे भोंपू की तरह चिल्ला रही थी -

 " कहते -कहते मुँह छिला गया ,पर इनके कान में रुई पड़ी है ।"

उधर से तेरी माँ-बहन ,लकड़ाजी ,अठराजी का पलटवार था। मैं बिस्तर पर आधी सोई -जागी कुहराम सुन मारे डर के उठ बैठी,दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र गयी तो आश्चर्य हुआ ,आठ बज रहे थे और कोठरी में उजाले का नामो निशान नहीं । मैं आँख मलते खिड़की के पास पहुँची ,और ये क्या ! इतनी मूसलाधार बारिश कि दुवार गड़ही में तबदील ,सामने वाली आजी गाल पर हाथ धरे चिन्तामग्न ,पशु घुटने तक पानी में खड़े रम्भा रहे थे ,दिन है कि रात कहना मुश्किल ,आकाश से प्रलय बरस रहा था ..।भीतरी बरामदे में आई, सामने आँगन का हाले आलम यह था कि चूल्हा डूब कर पानी में अपना अस्तित्व खो चुका था। ये तो गनीमत था कि आँगन कमर तक नीचे था वरना अब तक वैतरणी घर में हेल -ठेल चुकी होती ।तुलसी मईया अपने ऊचे आशन पर बारिश के  गिरते धार से दब कर, ओलरकर पसर गयीं थीं । हाँ लौकी -कोहड़े की बेल जरुर मगन थी ,आँगन से छत तक फैली बेलों को मैं देखने लगी, अचानकअम्मा चिल्लाई -

"अरे तिवारी जी कीरा हो ssss"

 और मैं लपक के बरामदे की चौकी पर। बाबूजी चौकी पर से कूद कर लप से कोने खड़ियाये गोजी पर झपटे ..कीरा नाली के रास्ते तैरता आँगन में घूसा चला आ रहा था कि दरवाजे से हाथ में दूध का लोटा लिए चले आ रहे ललइ चाचा हो हो हो हँसते बरामदे में दाखिल हुए ,लोटा झट चौकी पर धर पट बाबू जी से गोंजी छीन साँप को जिधर से आया था उधर ठेल दिया ।अम्मा की तरफ देख कर हँसते हुए -"तू हूँ न भौजी ! 

"ड़ोढ़हा देख के एतना चेकर रही हैंं ,करइत देख के त बेहोशे हो जाएगीं महराज! "


लोटा का दूध ले चुल्हानी पीढ़ा खींच कर बैठ गये ।अम्मा ने मौसम देख बरामदे में उठवना चूल्हा डाल लिया था ,गोइंठी की आंच पा अब तक कोरा चूल्हा आधा सूख भी चुका था ,ललई चाचा अम्मा की इस कला की तारीफ करते -करते चुल्हानी पहुँच गये-

"ए भौजी तनी चा पियावा जल्दी ,साला बुन्नी अस पड़ल की जाड़ा लागे लागल । "

वह अम्मा से कहते कम मुस्कियाते ज्यादा । बाबूजी गुस्से से कुढ़ रहे थे ,मऊ होता और कोई अम्मा से ऐसे बतियाता ,अब तक तो लात मार भगा गया होतो, पर यह गाँव था ,अपने लोग ,घर का मुख्य द्वार सुबह खुलता तो रात को ही बन्द होता ,आदमी तो आदमी मन चाहे तो कुत्ते भी किसी को न पाऐं तो आँगन में टहल आऐं । ऐसा गाँव ,अब बाबू जी की घोर मजबूरी का आलम यह था कि चौकी पर हाथ में इण्डिया टूडे लिए बैठे चाचा को दस मिनट से घूर रहे थे ।मैं ताखे से ब्रश, मंजन ले दाँत बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ कर साफ करने लगी ।अन्तत: बाबूजी का धैर्य टूट गया -"अरे क्या मउगाइ करते हो यार ,चौकी की ओर इशारा करके -

"यहाँ बैठो ,चाय आ जाएगी ।"






चाचा गमछा झटकते चौकी पर आकर बैठ गये ,मैं माँ के पास पहुँची ,तब तक वह चार गिलासों में चाय छान चुकी थी ,चाचा ,बाबूजी को चाय दे मैं बाहरी बरामदे में आकर लकड़ी की हत्थेवाली कुर्सी पर पैर रख चाय पीने लगी । पानी से नहाए हुए नीम पर चीड़ियों के कई घोंसले थे, सबसे नीचे गौरैयों का घोंसला ,तीन छोटे -छोटे बच्चे चोंच खोले चांव, चांव, चांव कर रहे थे ,गौरैया पंख का पानी बार- बार झटकती बच्चों की रखवाली करती घोंसले के चारों ओर फुदक रही थी ,नीड़ की चिंता ,बच्चों की फीक्र उस नन्ही चिड़िया के हाव -भाव से साफ झलक रहा था ।मैं टकटकी लगाए मगन देख रही थी कि भहरा कर किसी के पीछे से  मकान के गिरने की आवाज आई, चीख -पुकार,रोना -चिल्लाना और कोहराम ।लोग घरों से निकल कर छपकते हुए भागे जिधर से आवाज आई थी उधर,अन्दर से बाबूजी और चाचा भी निकल कर भागे ।बच्चे जाने के लिए मचलने लगे ,औरतें बाँह मरोड़ कर खींच- खींच भीतर करतीं ।अम्मा भी बाहर निकल आई ,मैंने पूछा-

" क्या हुआ?"

 "कौनों तेलियों का घर गिरा है, लगता है ।"  

अम्मा के चेहरे पर घबराहट थी । सीता ,सुधा ,रुमा, सलवार उठाए मेरे घर की ओर भागी चली आ रही थीं ,आते भींजते छत पर ,मैं भी पीछे हो ली । हम छत पर पूरब के कोने में खड़े थे ,सामने ह्रदयविदारक दृश्य। कच्चा मकान ध्वस्त हो चुका था ,पूरा गाँव देखते -देखते उमड़ पड़ा था ,चन्नर साहू के दुवार पर ,अन्दर फसे लोगों को लड़के हड़बड़ -तड़बड़ डांड, मुंडेर की लकड़ी ,खपड़ा हटा कर निकाल रहे थे ।घर की बूढ़ी औरत आगे की कोठरी में सोई रही होगी उस वक्त ,माथा फूट चुका था। खून से लथपथ ,पहली लाश बाहर निकली ।मैं देख नहीं पाई ,घबड़ाकर नीचे उतर आई ।लड़कियाँ ड़टीं रहीं। विनाशलीला के बाद बरखा के तेवर नरम पड़ने लगे ,दोपहर होते -होते बारिश बन्द हो गयी ।घर आँगन में ठहरा पानी उतरने लगा । सगड़ा तलाब लबालब भर गये। खेतों में रोपी फसल गर्दन तक जलमग्न ।मेंढ़क टर्र - टर्र का राग अलाप रहे थे । चारों तरफ बिछलहर ,चमरौटी ,भरौटी ,अहीरौटी  से भी कच्चे मकान गिरने की खबर आ रही थी । चन्नर साहू की माँ और बेटी के दो अबोध बच्चे मलवे में दब कर मर गये ,बाकियों को मंगल दल के लड़कों ने जान पर खेल कर बचा लिया ।आनन- फानन में चंदा लगा कर ट्रैक्टर पर लाद घायलों को मरदह ले जाया गया ,वहाँ से जिला अस्पताल गाजीपुर ।बाबूजी थैली का रुपया झार आए थे ,आते ही मऊ जाने को तैयार ।अम्मा ने पूछा -

"बाकी का खेत कैसे रोपाएगा ? "

पैसा खतम हो गया ,नज़रें चुरा कर कहते बाबूजी अन्दर चले गये । बाबूजी दो दिन बाद रुपया लेकर आने को कह चले गये ।गाँव में मातमी सन्नाटा । पीछे से डेक- डेक रोने की आवाजें रह- रह कर किसी रिश्तेदार के आने पर आतींं ।मन विचलित हो जाता ।दिन में किसी ने खाना नहीं खाया ।बाबूजी भी चले गये थे।अम्मा ने लालटेन जलाते हुए कहा -

"मेरा मन नहीं है खाने का ,थोड़ा बहुत मन करे तो खालो बेबी!"

मैं अम्मा का मुँह देखती रही। मृत्यु का पहला दृश्य था मेरे सामने ,विभत्स ,खून ,चीख चीत्कार के साथ अपनों को खोने की पीड़ा ।दुखों ,अभाव के बीच खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद देखा था ,घर क्या गिरा चन्दर साहू के जीवन से पर्दा उठ गया ।सेर पाव अनाज के बदले नून ,तेल, हरदी बेच कर पुरखों की मर्यादा पर पैबन्द साटे रखने की कोशिश आज बरखा ने धो पोंछ कर बहा दिया । जो भीतर का निकल कर सामने आया ,बस एक नंगा ,भूखा सच ,कुछ भी शेष नहीं ।गाँव न होता ,अपने लोग न होते तो आज शायद पूरा कुनबा उजड़ चुका होता । साहू जी बेहोश थे ,औरत का कमर टूटा था ,दोनों बेटे बगल के चाचा के दालान में सोने से बच गये थे ।दोनो चौदह और सोलह साल के ,बहन भी घायल थी ।गल्ला झाड़ झूड़ कर बमुश्किल एक हजार निकला ,कुछ माँ के गहने ,कुछ गाँव और अपने लोग ।जीवन की जंग जारी थी । पूरे दिन गाँव में चर्चा चलती रही।अन्धेरा घिर आया ।ललई चाचा की माई पैना लिए टूघुर-टूघुर चली आ रही थीं, हाँफते हुए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़तीं अम्मा को आवाज दी - 

"आ बबुआ बो ,कहाँss हो ?"

 आवाज सुन अम्मा बाहर निकल आई ,कुर्सी खींच कर बिठा दिया ,खुद भी बैठ गयीं ।देख कर गोद में पोते को जांते ढ़ेला भइया की माई भी आ गयीं, तनी देर में बड़की माई भी ।औरतें आज शोकाकुल साहू परिवार की विपदा पर चर्चा करने लगीं। आजी सिर पर हाथ धरे बैठीं कह रही थीं -

"अतवार मंगर की पूरदिनिया बरखा जीव खा के ही पटाती है बबुआ बो ! अतवार ,मंगर बड़ा खर दिन होता है ,अभी पाँच जीव लेगी।"

ढ़ेला भइया की माई कपार पर हाथ धरे कह रही थीं ,लड़कियाँ भी धीरे -धीरे जुट गयीं ,हम अन्दर की कोठरी में आकर चौकी पर बैठ गये, गीता दीदी चिन्तीत थी -"कल पूनम की बारात आएगी उपधियाने में ,का जानी कल का होगा ?"

 पूनम उसकी सहेली थी । 

"भदराही होंगीं तो बरसेगा ही ।"

रुना तुनक कर बोली ।

 सीता दीदी -"हे शुभ -शुभ बोलो भाई ,गाँव की इज्जत है ।"

कहते हुए जोर से डपटी । सब सटक गयीं ,सुधा ने धीरे से कहा - "बरखा बुन्नी में दिने नहीं धरना चाहिए बियाह का ।"

सीता दीदी फिर डपटी - "अब जब दिन पंडित बताऐगा तभी न रखेंगे।"

सब चुप हो गयीं । उस रात सब खा पी कर मेरे घर ही सोईं ,एक भयानक रात का अन्धेरा उतरा तो सुबह का स्वागत नीम की शाखाओं पर फूदकती गौरैया ने सपरिवार चहचहा कर किया।



             

                                                               (3)


भोर होते लड़कियाँ अपने घर लौट गयीं,छः बजे थे और सूरज दनदनाते हुए चमकिला हुआ जा रहा था ।मैं ब्रश कर लैट्रीन सीता दीदी के घर जाने के लिए अम्मा से पूछ निकल गयी । सीता दीदी का परिवार हमारे कुनबे का सुविधा सम्पन्न परिवार था ।चाचा प्राईमरी में हेडमास्टर और चाची गाँव की प्रधान ,मैं पहुँची तो आशय ताड़ चाची अन्दर लेकर आयीं ।छोटी चुन्नी से पानी छत पर पहुँचवा दिया, इस घर में हमारा बहुत मान था ।चुन्नी ने हाथ धुलवाया और खींच कर सीता दी के कमरे में ले गयी ,सामने रसोईं में भाभियाँ खाना बना रही थीं। सीता दीदी बिस्तर पर औंधे लेटी कुछ देख रही थी ,आहट पा झट तकिए के नीचे रख दिया ।मैं आकर उनके पास बैठ गयी ।शैतान छोटी चुन्नी उनके उठ कर बैठते ही तकिए के नीचे का रहस्य उद्घाटित कर मेरी हथेलियों पर रख कर हँसने लगी - "इ देखो जीजा की फोटो।"

 सीता लजा गयी ,चोरी पकड़ी गयी थी ।चुन्नी सामने की खुली आलमारी से लोहे का छोटा सा बक्सा उतार लाई ,खोल कर लिफाफे से सीता की तस्वीरें दिखाने लगी ,लड़केवालों को दिखाने के लिए सीता की ढ़ेर सारी तस्वीरें ,कोई साड़ी में ,कोई सलवार कुर्ते में ,एक में चेहरा गुलाब के फूल के बीच ,कोई दिल से झांकता ,मैं एक -एक कर तस्वीरें देख रही थी ,चुन्नी मेरी गोद में झूंकी मचल -मचल कर दिखा रही थी । दीदी ने पूछा -"कैसी लगी ?"

मैंने मुस्कुराकर कहा -"बहुत अच्छी हैं ,जीजा झट पसन्द कर लेंगें। "

उसके गोरे गाल लाल हो गये -" वो तो है बेबी! बलमा की खींची फोटो तो कमाल की होती हैं ,लंगड़ी, लूली से भी लोग धोखा खा जाऐं । ऐसा फोटो बैठाता है कि पूछो मत ,खड़ी रहो स्टूडियो में बाग में पहुँचा देगा ।"

सीता दी खुली हुई जाड़े की धूप की तरह दमक रही थी ,आँखें उसके नाम से मयूर बन नाच रहे थे । मेरा खून उबल रहा था पर खुद पर नियन्त्रण किए हुए थी , बलमा नाम का जीव अब बर्दाश्त से बाहर जा रहा था-" दीदी इसमें क्या कमाल है ,ये सब तो कम्प्यूटर से होता है।"

मेरी बात सुनते वह चीढ़ गयी ,अन्दर से चुन्नी को भाभी ने आवाज दी - "छोटकी बन्नी ,चाय ले जाइए । "

वह चली गयी । सीता ने पिनक कर कहा -"उसके अइसन फोटो बनारस में नहीं उतरती ,बड़की भाभी कह रही थीं । "

बड़ी भाभी बनारस की थीं - "फोटो अच्छी खींचता है कि वह अच्छा है ?"

मैंने आँख नचा कर कुहनियाया । वह शर्म से लाल, मैं आँख मटका रही थी - "भक्क ! तू भी "

कह वह थोड़ी देर ठहरी और फट उठ आलमारी के कोने से किताबों के बीच से एक कागज निकाल लाई -"ये देख उसने मुझे खून से खत लिखा था ।"

मैंने खोल के देखा ,वही पुराना राग ,लिखता हूँ खत खून से । मैं हँस पड़ीं ,बहुत शातिर है ये बलमा ,मुर्गी के खून से चिट्ठी लिख कर लड़कियों को मूर्ख बनाता है ।वह नाराज हो गयी -"अच्छा तुम्हारी नाक सूंघनी मशीन है जो जान गयी खून किसका है ?

मैं हँसे जा रही थी ,तभी चुन्नी बाहर सबको चाय दे हमें लेकर अन्दर आई ।मैं चाय पी ही रही थी कि गीता बुलाने आ गयी -" चलो! चाची बुला रही हैं । "

मैं बेमन से उठ कर चल दी ,इधर घण्टें भर में ललई चाचा ,अम्मा के वीर हनुमान मजदूरा -मिस्त्री पकड़ लाए ।ईंटा पहले सेे हाते में एक टाली पड़ा हुआ था ,गिट्टी -बालू ट्यूबल का लिंटर लगने के लिए आया था जो काम भर वहाँ से मिल गया । मोटर साइकिल पर लाद कर महारे से दो बोरी सिमेण्ट आ गया । ज़मीन नम थी ,आधे घण्टे में हाते में पखाने की नींव खुद गयी । अम्मा महान  बाबूजी की जेब से पाँच -पाँच सौ की चार नोट भांज चुकी थी ,कुछ चौरौंधा पहले का ,जिद की पक्की माता जी ने देखते -देखते एक दिन में ही पखाने की दीवार उठवा दी ।शाम तक मरदह से नीले रंग का कंम्बोड़ भी  आ गया, अगले दिन शाम तक लिंटर की तैयारी ,तीसरे दिन लिंटर लग कर तैयार । बड़की माई देख कर जल भून गयीं, बाबूजी को खबर गयी ,मलकिनिया कुल काम अपने मन का करती है । चौथे दिन बाबूजी प्रकट हुए ,देखते ही ललई चाचा गोड़ छू सरक लिए ,जानते थे अगला दृश्य क्या होगा। मैं पानी दे किताब ले बैठ गयी,मारे डर के मेरी हालत खराब ,ना जाने अगला दृश्य क्या हो ?हो सकता है बाबूजी मार फरुआ देवलिए ढ़ाह दें,वाकयुद्ध की सम्भावना प्रबल थी ,मल्लयुद्ध भी हो सकता था ।अम्मा पखाने की छत पर पानी ड़लवा रही थी तरी के लिए। बाबूजी हाते में पहुँचे ,घूम कर निरीक्षण किया - "तनिको धीरज नहीं है तुममें ,थोड़ा इन्तजार कर लेती इ साला ललईया घटिया क्वालिटी का कंम्बोड़ ले आकर बिठवा दिया । देखना साले भर में टूट -फूट जाएगा ।"

बाबूजी का भनभनाना जारी था ,पर आवाज की नरमी बता रही थी काम अच्छा है ।उनका पुरुष  इगो कैसे अम्मा के इस मर्दाने काम को सहजता से स्वीकारता सो थोड़ी बहुत ड़ांट- डपट लाज़मी था। अम्मा ने धीरे से कहा -"आप का नौ मन गेंहूँ होगा न राधा उठ कर नाचेगी ,लड़कियाँ इनके उनके घर छिछियाती फिरें ,ठीक है ।"

बाबूजी निरुत्तर, गाँव हमारे लिए किसानी के दिनों के लिए सराय मात्र रह गया था ,सुविधाओं का संसार शहर में बसा बाबू जी गाँव को लेकर उदासीन थे,अम्मा सजग ।यहाँ जो भी था अम्मा के प्रयास का प्रतिफल था ,एक अध्याय और जुड़ा ।
एक दिन सबेरे किरन फूटते सीता दीदी की अम्मा घर में आकर खड़ी हुईं -"ए बहिन जी ! आठ बजे ले झट तैयार हो जाइब  ।"

अम्मा झाड़ू लगाना छोड़ आकर उनके सामने खड़ी हुईं -"कहाँ जाए के है जी भिनहिए ।"

कह ध्यान से उनके चिन्तित चेहरे को देखने लगीं।
-"सीतवा के देखे ओकर सास लेहड़ लेके आवतहीय  जी ,महारे । आपक देवर  आपके आ भाई जी के साथे चले के कहलं हैं । जनते हयीं  जनता के ,केहू जाने न।"

 कह बाबूजी को दरवाजे की ओट से कहने चलीं गयी । अम्मा झट -पट खाना बना तैयार होने लगी ,लाल कोटा की साड़ी जिसका किनारा काले और सुनहरे रंग का था अम्मा पहन ,बीच माथे पर लाल रंग का इंगूर का टीका लगा जब कमरे से बाहर निकली पहले से सिल्क का कुर्ता ,खादी की चौड़े पाटे वाली धोती ,सदरी 'बंगाली गमछा ले बैठे बाबूजी ने ऊपर से नीचे तक देख कर मुस्कुराकर कहा -"चलिए मेम साहब ! "
अम्मा लजा गयी ।बस इतना भर देखा था उनके बीच का नेह ,कभी माँ -बाप को एक बिस्तर पर बैठे नहीं देखा । अम्मा का व्यक्तित्व बेहद भव्य ,बाबूजी जब खुश होते ,मेम साहब कह कर  बुलाते ।
जीप में बैठ सभी बड़ी गोपनियता से निकले ,उनके जाते गीता दीदी टोह लेने मेरे घर आई,पीछे रुमा और सुधा भी ,मुझे सख्त मनाही थी ,बड़ी सफाई से मैं टाल गयी। 



                         उधर महारे पहुँच कर सबसे पहले ये तय हुआ कि लड़की किस मन्दिर में दिखाई जाएगी ,बाबूजी ने राय दी,-"अहिरों के राधा -कृष्ण मन्दिर का बरामदा काफी बड़ा है ,लड़की तैयार करने के लिए पुजारी की कोठरी भी मिल जाएगी ,वहाँ ठीक रहेगा ।"

सभी मान गये ,भाभियाँ सीता को ले कोठरी में चली गयीं ,ऊपर बरामदे में दरी बीछ गयी ।दरी के ऊपर नयी चादरें डालीं गयीं । चाय -ठण्डा ,मिठाई -समोसा की व्यवस्था कर ली गयी ।अम्मा और सीता दी की माँ चुपचाप एक कोने में बैठींं, सहमी लड़केवालों की बाट जोह रही थीं । दस बजे एक जीप और अम्बेस्डर कार आकर मन्दिर के सामने रुकी ,मर्द लपकर गाड़ी के पास पहुँच हाथ जोड़ कर खड़े हो गये,जीप में से दस मर्द ,छ: छोटे बड़े लड़के उतरे ,कार में से सबसे पहले लगभग पचपन साल की लम्बी चौड़ी महिला निकलींं ,औरत का रौबदार चेहरा देख कर मर्द सहम गये । आगे की सीट पर औरत की गोद में लगभग तेरह चौदह साल की लड़की बैठी हुई थी ,वह भी निकली ,हाथ -पैर झटक कर सीधा करने लगी ।यह लड़के की छोटी बहन थी।औरत ने पीछे बैठी औरतों को बाहर निकलने का इशारा किया ।तीन की सीट पर पाँच कोंच कर बिठाई गयी थीं ।बेचारी घूँघट सम्हालते बाहर निकल औरत के पीछे खड़ी हों गयीं । सीता के बड़े भाई ने झूक कर औरत के पैर छुए और बड़ी नम्रता से झूक कर कहा -"चलिए आप लोग ऊपर ।"

औरत अपने समूह के साथ पीछे हो ली ।मर्द उनके पीछे ,देख कर स्थिति स्पष्ट थी कि घर में मातृ सत्ता का प्रभाव था । चाची और अम्मा ने एक तरफ औरतों को हाथ जोड़ बिठाया ,दूसरी तरफ गोलाई में मर्द बैठ गये ,भाई भाग -भाग कर चाय -पानी करा रहे थे ,पहले मिठाई, पानी फिर ठण्डा, समोसा चला ।लड़के के पिता ने डकार लेकर आदेश दिया - "हे तिवारी जी ! जिस कारज के लिए आए हैं पहले शुरु किया जाए । "

सबकी साँसे जहाँ की तहाँ अटक गयीं ,बड़के भईया नीचे गये ।थोड़ी देर में दोनों भाभीयों संग पीले रंग की साड़ी में सिर झुकाए सीता पहुँची ,अब तक मौन बैठी बाकि औरतों में हरकत हुई ।एक ने घूँघट उठा कर कहा -"इहाँ बैठाइए ।"

सामने सास थीं ,कहने वाली घर की बड़ी बहू थीं ,इस कदर घूर रही थीं जैसे कौवा शिकार को घूरता है।  दुबली -पतली सीता बीच में सास के सामने बिठा दी गयी ,थोड़ी देर लड़की को घूरने के बाद नाक फुलाते हुए लड़के की माँ ने कहा -"रोगियाह है का जी ,बड़ी पातर है। "

सबकी साँस गले में अटक गयी ।अम्मा ने सुना की झट उत्तर -"हम भी ऐसे ही थे बहिन जी जब ब्याह हुआ । "

लड़के की छोटी बहन को देख कर एक तार और जोड़ा -"आपकी बबुनी भी तो ऐसी ही हैं।"

 सास की भौंहें तन गयीं -"तनी बताओ तो साग में रस्सा कैसे लगेगा ? "

पूछ सीता का मुँह एक टक देखने लगी ,अम्मा ने हँस कर कहा -"बता दो बच्ची!"

सीता ज़मीन में नज़रें गड़ाए धीरे से बोली -"साग में रस्सा नहीं लगता । "

बाबूजी का पारा चढ़ गया -"आप के यहाँ ए मिसिर जी ,करैलियो का रस्सेदार बनता होगा ?"

सभी सुनते समवेत हँस पड़े। सास पिनक गयी ,कोने में पति को ले जा कर कुछ समझाया -बुझाया ,वह आते ही मर्दों से बोले -"चलिए हम लोग तनी नीचे चल कर जरुरी बात कर लेतें हैं ।"

.बाबूजी की तरफ देख कर- "इहाँ मेहरारुओं में हम क्या बैठें। "

मर्द उठ कर चले गये ,लड़के की माँ सीता के पास आकर निंगाझोरी करने लगी ,सिर का पल्ला हटा कर पीठ से लेकर गर्दन तक देखा ,साड़ी उठा कर पैर,घूमा -फिरा कर चेहरा और हाथ,मुँह में उंगली डाल कर दाँत गिने ।अम्मा और चाची अन्दर ही अन्दर फूंफकार रही थीं -"अभी कुछ बाकी है की हो गया?"

आवाज सख्त थी अम्मा की।उधर से जवाब भी तनाके से आया-"सुनिए मस्टराइन ! हाथ नचाते हुए ,एग्गो थरिया लेने जाते हैं तो चार बार बजा के लेते हैं हम ,आवाजे बता देती है कि कितना ठोस है। "

अम्मा को घूरते हुए ,सीता की तरफ आँख दिखा कर -"इ तो हमारे लाख टके के बेटे का मामला है।बोरा से रुपया उझिलें हैं पढ़ाने में । "

अम्मा रुँआसी हो गयी 'लड़की पक्ष की औरतों का कलेजा बैठ गया। उधर की औरतें आपस में खुसुर -फुसुर कर रही थीं .अब तक मौन तमाशा देख रही लड़के की छोटी बहन ने सीता से कहा -ए भाभी !एक ठो गाना सुनाइए ।"

चाची की बांछे खिल गयीं ,हँसते हुए कहा-" बबुनी को भाभी पसन्द आ गयी लगता है। "

लड़की बिल्कुल माँ पर गयी थी ,तुनक कर कहा -"पसन्द नहीं होती तो अम्मा एतना देर देखबे नहीं करती ।"

सभी हँस पड़े ,सीता ने लम्बी साँस ली ।भाभियों की बाछें खिल गयीं ,चाची चहकने लगीं  । अम्मा ने मन ही मन शिव जी को माथा नवाया ।  लड़की ने फीर कहा -"गितिया गाइए भाभी ।"

सबने हाँ में हाँ मिलाया । अम्मा ने आरम्भ किया -


"शिव शंकर चले कैलाश 
बुंदिया पड़ने लगी ssss


सीता के साथ भाभियाँ भी गाने लगीं ,ये हर्ष नाद मर्दों के कान में पड़ा ।चाचा -बाबूजी मगन हो गये । इधर भी लेन- देन तय हो चुका था ।पंडित से लगन दिखाना शेष रह गया , सभी ऊपर आ गये ,लड़के के पिता ने औरत से कहा -"अपना मायाजाल बटोरिए ,देखिए बरखा बुन्नी का दिन है ।"

सीता की सास ने लड़कों को कह गाड़ी में से फल, मिठाई, कपड़ा निकालने का आदेश दिया। सीता के सर पर लाल बनारसी साड़ी धर सास ने खोइंछा भरा ,अँगुठी पहनाया ।एक हजार एक सगुन का दे सबको सगुन देने को कहा।हजार पाँच सौ की नोट से आँचल भर गया । 

"अरे भाई ! इहां फोटो नहीं खींचाता है का जी बजार में ? "

एक सज्जन ने ललकार दी ।

"खींचाता है ,खींचाता है जी"

 सीताके पिता चिंहुक कर कहेंं और बड़े बेटे को भगा कर बलमा को बुलाया । दस मिनट में बलमा गले में कैमरा लटकाए हाजिर ।फोटो खींचाने लगा ,फिरसे साड़ी ओढ़ाई गयी ,अँगुठी पकड़ कर दिखाई गयी ,सबने अपना -अपना रुपया उठा कर फिरसे रखा।सीता उठक- बैठक करते सबके पैर छूती ।बलमा स्माइल प्लीज कहता और खचाक की आवाज से फोटो कैमरे में कैद हो जाता ।बलमा सीता को कनखियों से देख थैंक्यू जरुर कहता ,उसके खत की दिवानी लड़कियों में एक सीता भी आज पराई हो रही थी ।यही बलमा की नियति बन चुकी थी । अपने जिन हाथों से वह लहू से प्रेम भरी पातियां लिखता ,उसी हाथ से उनके सगुन के रस्म अदायगी के फोटो खींच एक सौ एक का नेग और मिठाईयाँ ले बुझे मन से सर झुकाए चला जाता।
                             सीता का ब्याह तय हो गया ,दिन जाड़ों में पड़ा ।हम शहर लौट आए ।स्कूल शुरु हुआ और गाँव की दुनिया के कपाट स्मृति पटल पर बन्द हो गये हाल फिलहाल ।यहाँ भी वो दौर लड़कियों के गुलाबी प्रेम -पत्रों के इन्द्रधनुषी वितान तान नित नये करवटें लेता । मैं अति साधारण सांवली लड़की ,प्रेम -पत्रों से वंचित ,अक्सर मनगढ़ंत कहानियाँ बना कर लड़कियों को सुना ,उनके दिलचस्प किस्से सुनती और सोचती कि ये पहले वाले प्यार का एहसास कैसा होता होगा ? चल रही थी मैं दुनिया के मायावी रंगों की रंगोली बनाते बिगाड़ते और दिन समय के घोड़े पर बैठा सरपट तड़बक- तड़बक दौड़े जा रहा था । हथेलियों पर ओस की बूंदे सुबह दूब से झाड़ मैं ओंठों पर रख लेती ,आत्मा ऐसी तृप्त होती जैसे पी लिया हो अमृत ,अन्दर तक भींग जाती ।सामने खिड़की से कोइ झांकता सा महसूस होता और मैं धीरे से अन्दर भाग जाती ।एक लुका -छिपी का खेल जारी था ,न वो परदा उठाता न मैं आगे बढ़ती ।वो भ्रम था कि सपना मैं सोचती रही और बिहाने मन की ड़ाली पर एक लाल कली प्रेम की लटक जाती ,पुष्पित ,पल्वित होने के मौसम की आस में मैं अक्सर भोरे हाते में जाती पर ना जाने कौन सा भय था कि खिड़की पर आहट पाते सीधे घर में ।खेला था,चलता रहा। इधर नवम्बर में सीता दीदी का ब्याह हो गया, मैं सजी -धजी दुलहे की बड़ी साली की भूमिका में,बलमा भर माड़ों कैमरा ले मंडराता जैसे पूरे जगत को कैमरे में घेर लेगा।उसका नागिन नाच तो कमाल का था ।थोड़ी बहुत दारु का आलम यह था कि दाँत में रुमाल जांते साथ नाचने वाले के ऊपर पसर जाता ,बेहद अश्लील नाच ,जिसे औरतें आँचल से मुँह छिपाए उचक -उचक देख रही थीं ।बलमा छाया हुआ था विवाह समारोह में ,अम्मा के आदेश पर मेरी भी कुछ फोटो उसने बिना मुझे स्माइल प्लीज कहे खींचा।हास- परिहास,गीत, ढ़ोलक की थाप ,मन्त्रों का घोष और सात फेरों के साथ रोती -धोती सीता चली गयी साजन के देश ।एक- एक कर टोले की सारी लड़कियाँ ब्याह कर चली गयीं ,छोटी सयानी हो गयीं । मैं बची रही ,ललई चाचा की माई अम्मा से इस साल मुँह खोल कर कह ही दीं - "केकर बेटी एमें. बीए ,करताड़ी स ए बबुआ बो ,लइकी उरठ होत जात हिया ,निक लागे चाहे बाउर ,बियाहे क एग्गो उमर होले। "
अम्मा चुप ही रही ,जानती थी मेरा रुदन ब्याह के फतवे को सुनते अस होगा कि कोठी अटारी बह -दह जाए। एम.ए .अन्तिम वर्ष और पिता की देहरी से जड़ समेत मुझे उखाड़ने की तैयारी युद्धस्तर पर जारी हो गयी ।खिड़की वाला मामला भी जमा नहीं ,कालेज में न किसी ने हसरत भरी निगाह से मुझे देखा और न मुझे कोई जमा ,मेरी दुनिया अलग,सोच और विचार अलग ।इस तरह उम्र के बाईस साल बिना प्रेम -पत्र लिखे निकल गये। आज जब छोटे -छोटे बच्चों को पढ़ाते क्लास में बगल वाली लड़की की कॉपी के पीछे ऑय लव यू लिखा देखती हूँ मन के कपाट हिलने -डुलने लगते हैं और मैं लौटतीं हूँ बाईस साल पहले की दुनिया में ।वह मेरी दुनिया जिसे कलेजे से साटे स्त्रियों की सैकड़ों पीढ़ियाँ मर जाती हैं नैहर की अन्तिम चुनरी -पियरी की आस में ,आज भी अम्मा गा रही है आम के नीचे बैठ कर - 

"हे गंगा मइया तोंहें चुनरी चढ़इबेंssss 

संइयाँ से कइद मिलनवा sss...हाय राम "


हाय राम गाते उसका चेहरा गुलाबी हो जाता है ...जैसे गीता ,सीता और उन तमाम लड़कियों का हुआ था ,जिनके पास गुलाबी प्रेम- पत्रों का इतिहास था और मैं हतभागी इससे वंचित रही ।
                            

                                                                          (4)

परीक्षा निकट आते- आते मैं भी विदा कर दी गयी ,छूट गया गली,मुहल्ला ,सखी,सहेली छूट गयीं ,जिस घर में जन्म लिया वह पराया हो गया।नितान्त अपरिचितों के बीच पहले परिचय बढ़ाने जैसा कुछ भी नहीं था ,सभी अधिकारी और मैं जी जी जी रटती तोता । एक सुनहरा पिंजड़ा ,जहाँ सबसे पहले शरीर कैद हुआ फिर सपने। मायके जब भी जाती मऊ से ही लौट आती ।गाँव जाने का कोई नाम ही नहीं लेता ,देखते-देखते   शादी के बारह साल गुजर गये। अबकी गर्मियों में भाई तैयार हुआ गाँव ले चलने को तो मन की मुराद पूरी हुई ।हम सुबह तड़के उठ कर तैयार होकर घर से निकले ,कार में आगे अम्मा और ड्राईब करता भाई ।पीछे मैं अपने बच्चों और भावज के साथ।चालीस मिनट में हम महारे चट्टी पर पहुँच चुके थे ,सबसे पहले भाई का आदेश था शिव जी के दर्शन फिर कुछ यहीं नाश्ता तब गाँव चलना है । हम मन्दिर के रास्ते पर अभी चार कदम ही बढ़े थे कि पीछे से जोरदार आवाज आई -

 "पंडी जी पाव लागीं ।"

आवाज कुछ जानी -पहचानी थी ।मैं झट पीछे मुड़ी ,सामने से चेकदार नीली लूँगी ,गले में मैली गमछी ,शरीर पर पीले से सफेद हो चुकी टी-शर्ट पहने बलमा भागा चला आ रहा था ।आते ही अम्मा का पैर छू बोला -

"चाची पाव लागीं,घीउवा खरा देले हयीं लेले जाइब।"

अम्मा मलकिन से चाची हो चुकी थी।  मैं ध्यान से उसे देख रही थी ,भाई से कहा -"दर्शन करके आइए ,गरम- गरम पकौड़ी निकल रही है डॉक्टर साहब ।"

मैं हतप्रभ खड़ी कभी उसे देखती ,कभी चट्टी से बाजार में बदल चुके महारे को।सड़क के दोनों तरफ लाईन से दुकाने .स्कूल ,अस्पताल ,कतार में खड़े यात्रियों की बाट जोहते ऑटो ।ब्यूटी पार्लर ,सैलून से लेकर आधुनिक साजो सामान की अनगिन दुकानें ।नहीं दिखी तो केवल बलमा की दुकान ।भाई ने डांट लगाई -"अब खड़े ही रहिएगा कि दर्शन भी करिएगा।"

 मेरी पाषाण प्रतिमाओं के प्रति आस्था इधर कम होती जा रही थी,बेमन से मैं पीछे होली।मन्दिर के गर्भ गृह में शिव सपरिवार विराजे थे।यहाँ शिवलिंग की उपासना नहीं होती,शिव के बगल में शिवा ।हिन्दू देवी देवताओं में शिव मेरे प्रिय रहे।सृष्टि के पहले साम्यवादी महापुरुष । भाई शिव स्तुति में लीन,आधे घण्टे उसका मन्त्रोचार चलता रहा ।अन्त में हर हर महादेव के घोष के साथ पूजा सम्पन्न हुई।
                         हम चौराहे पर पहुँचे,भाई ने माँ से कहा -"यहीं चाय नाश्ता कर लेते हैं ,गाँव पर सबेरे -सबेरे कौन चूल्हा फूंकेगा?"

 अम्मा इशारा समझ गयी ,सब कोने की चाय की दुकान पर पहुँचे ,मैं दुकान का बोर्ड देख कर चिंहुक गयी । "बलमा जी मिठाईवाले "। बलमा टेबल अपनी गमछी से साफ कर सबको बिना कहे चाय पकौड़ी दे गया ,गरम प्याज ,मिर्च की पकौड़ी बाजार की बहुत दिनों बाद खायी थी ,एक अजीब स्वाद होता हैं इन पकौड़ियों का ,घर में लाख जतन कर लो ऐसी नहीं बनती। सामने चूल्हे पर कढ़ाई में एक औरत लगातार पकौड़ियाँ तले जा रही थी।शीशे की छोटी सी आलमारी में लड्डू और चिंनियहवा बर्फी सजी थी ।मर्तबान में बताशे और लाल,नीली,पीली टाफियाँ।हम चलने लगे तो बलमा ने मेरे बच्चों के हाथ पर टाफियाँ रख खिलखिलाकर कहा-"स्माईल प्लीज ! "

बच्चे साथ- साथ हँस पड़े। माँ ने दूध का डिब्बा घी के लिए पकौड़ी तल रही औरत  को पकड़ा कर हिदायत दी -"साफ से रखना दुल्हिन।"

उसने मुस्कुराकर स्वागत किया । हम गाड़ी में बैठ गाँव के रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे ,मन में आज फिर उथल -पुथल मची थी, मैंने माँ से पूछा -"बलमा तो फोटो खींचता था ?

भाई हँस पड़ा -"बेचारे का किसी ने कैमरा चुरा लिया ,दूसरा खरीद नहीं पाया। "

वह कहते हुए  हँसे जा रहा था,सुना है ,साला एक नम्बर का लोफर था । अहिरों ने किसी लड़की की फोटो इसके साथ देख कर बहुत कूटा था । "

आँख के इशारे से -"ये जो औरत थी दुकान पर ,उसे भी कहीं से भगा कर लाया है। "

अम्मा ने मौन तोड़ा ,घर -घर कैमरा हो गया है,कौन यहाँ तक आने की जहमत उठाए ।"

भाभी की प्रतिक्रिया भी आ गयी -"अब तो मोबाईल में भी कैमरा होता है।"

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह था कि अब किसी को यहाँ तक केवल फोटो खींचाने के लिए आने की फुर्सत नहीं थी।गाँव की कच्ची सड़क उबड़ -खाबड़ तारकोल की सड़क में बदल गयी थी।गाँव के बाहर तीन चार दुकाने लाईन से दिखाई दे रहीं थींं।बाग की तरफ कन्या उच्च विद्यालय का बोर्ड दिखाई दे रहा था।कच्चे मकान लुप्तप्राय हो चुके थे, टोले के लगभग सारे घर पक्के बन चुके थे।उफ्फ! दरवाजे पर आते मेरी जान सूख गयी ,विशाल नीम जिसकी शाखाओं पर झूला ड़ाल गाँव भर की लड़कियाँ झूलती थीं , लापता ,चारों तरफ ईंट की दीवारें ,सामने ढ़ेला भइया के घर की कुछ लड़कियाँ खटिया पर बैठी लैपटाप चला रही थीं ,देखते अन्दर चली गयीं।मैं उन्हें अन्दर जाते देखती रही ,कभी हमें देखते उधर से लड़कियाँ भागते हुए आती थीं ।दिन भर खुले रहने वाले दरवाजे भिड़के हुए ,जानवर के नाम पर घरों में बमुश्किल एकाध गाय टीनशेड़ में दिखाई दे रही थीं।अम्मा फाटक खोल अन्दर बहू को लेकर जा चुकी थींं ,मैं स्तब्ध अतित और वर्तमान की संधिरेखा पर खड़ी कसबे में बदल चुके अपने गाँव सराय मुबारक को देख रही थी।नेपथ्य में अम्मा गीत बज रहा था .......
निमिया क पेड़ जनि काटा ए बाबा
निमिया चिरइया लेली बास .......



एक अस्तित्वहीन गाँव की दहलीज पर खड़ी मैं तलाशने लगी अपना गाँव सराय मुबारक जो अब कभी नहीं मिलेगा उन लड़कियों के स्वच्छन्द प्रेम पत्रों सा। 
शाम को हम लौटते वक्त एक बार फिर रुके बलमा जी स्वीट हाऊस पर । क्वार का महीना,शाम सिहरने लगी थी ,लोग अपने अपने घरों को लौट चुके थे। इक्के-दुक्के लोग दुकानों पर दिख रहे थे।अन्धेरे की हल्की चादर पसरने लगी थी।अम्मा बलमा बो से घी ,बताशे की खरीद-परोख्त कर रही थी,भाई सब्जी वालों से ताजी सब्जियाँ खरीदने निकल गया।मैं बलमा की दुकान के आगे टीनशेड़ में रखे ब्रेंच पर बैठी चुपचाप शिवाले के सूने रास्ते को देखती अतित की परछाईंयों में उलझी ,मेले-ठेले,सखियों के कलरव तलाशती विचारों में खोई ,रह -रह कर नम आँखों से बर्तन धोते बलमा को देख लेती,वह भी मुझे देख रहा था और तेजी से हाथ चला रहा था,शायद जल्दी काम निबटाना चाहता था। बर्तन धो कर चौकी पर रख वो फुर्ती से मेरे सामने चाय की केतली थामें आकर बैठ गया।दो भरुकों में चाय ढ़ार पीने का आग्रह कर एक टक मुझे निहारता रहा।मैंने मुस्कुराकर कहा-"गाँव शहर हो गया।"
वह नम आँखों और भारी गले से मेरी बात दुहरा गर्दन झुका चाय पीने लगा। 


"आपने स्टूडियो बन्द क्यों कर दिया?"मैंने पूछा।


बलमा दर्द से भर उठा, गमछे से आँख की नमी पोंछते हुए बिफर पड़ा -"अब जरुरत किसे है बहिनी परजा -पसारी की। हम तो गाँव -गिरांव के रियाया की परजा थे।नेग -जोग पर खुश हो जाने वाले।अब तो लोगों को सब कुछ मोल लेने की तलब है।इ ससुरी मोबाईल तो अउर जुलमी है।" मन्दिर की ओर इशारा करके- "अब लड़की देखाई पर मोबाईल से लोग फोटू खींच बीडियो भी बना लेते हैं।कौन मंहगा फोटो खींचवाएगा अब?"


मैंने उसका मन रखने के लिए कहा- "लेकिन उसकी फोटो वैसी नहीं आती जैसी कैमरे की।"


वह खुश हो गया-"हाँ ,इ तो है,फैटोग्राफी तो कला है,एक दम कोहार के चाक जैसी।बड़े सधे हाथ से फोटो का ऐंगल ठीक बैठता है। इ ज़माना क्या जाने की कैमरा का फोटो जो चित्र निकालता है उ इ मोबाईल और हउ डीजिटल कैमरा का निकालेगा। "

सामने के आधुनिक फोटो स्टूडियों को दिखाते हुए बलमा कह रहा था।मैं हूं -हाँ कह कर हामी भरती उसके दर्द के उमड़ते सैलाब को देख रही थी।
लम्बी साँस छोड़ते बलमा ने मेरे चेहरे की ओर देख कर कहा-"इस इलाके की हजारों लड़कियों के ब्याह कराए हैं हमने बहिनी।आपकी भी खींची थी।"

अम्मा की तरफ देख कर-"चाची ने बहुत शानदार पैंट,बुसर्ट दिया था आपके ब्याह में।"

मैं मुस्कुरा कर रह गयी। भाई हाट बजार कर आकर हमारे पास बैठ गया-"बलमा भाई! चाय पिलाइए तो निकला जाए।"

वह केतली उठा कर भट्ठी की तरफ चल दिया।भाई ने भौंहें नचा कर व्यंग्य से पूछा-"क्या बतिया रहा था इतनी देर से ?"

मैं उसके पुरुषत्व से भरे चेहरे को देख कर क्रोध दबाते हुए इतना ही कह सकी-"अपना दर्द।"

वह उठ गया ,चाय पी गाड़ी में सामान रख मुझे आवाज दी-"चलिएsssss ,कहाँ अटकी हैं? यहीं रहने का इरादा है क्या?"

वह हँस रहा था।सभी गाड़ी में बैठ चल पड़े,गाँव पीछे छूटने लगा।आज अपने समय का हर दिल अज़ीज बलमा जिसके मजनू मियाँ वाली फितरत से मुझे नाराजगी थी वह एक दम से मेरी सहानुभूति का पात्र बन चुका था।.नहीं पता कब लौटूंगी फिर उस देस जहाँ बलमा के रक्तरंजित असंख्य प्रेम -पत्र बिखरे पड़ें हैं मेरे गाँव की लड़कियों के मासूम प्रेम में पगे।मैं डूबती गयी ,जैसे डूबती है शाम भोर के आगोश में ,गाँव छूटता गया ,पीछे, बहुत पीछे।

                  और हाँ ,अन्त में एक बात बताना जरुरी है ,आप बलमा जी के सत्य को तलाशने मेरे गाँव का टिकट मत कटा लीजिएगा। बलमा का नाम बलमा कैसे पड़ा यह भी एक रहस्य है जिसे केवल उस दौर की औरतें जानती हैं । यहाँ इस रहस्य से पर्दा नहीं उठेगा ,इस मामले में ये औरतें युद्धिष्ठिर के शाप से मुक्त हैं।आप जितना चाहें ज्ञान बघारें ,उपदेश दे लें ,वह एक ही राग अलापेंगी।उधव मन न भये दस बीस।यदि बाबूजी से पूछेंगें, वह अपनी गहरी धसी आँखों को सिकोड़ कर गंजे सिर पर हाथ फेरते अम्मा की तरफ प्रश्न उछालेंगे -"इ बलमा कौन है जी?"

फिर मुस्कुराकर गहरा तंज कसेंगे-"मोटरसइकिलिया पर तो आप ही बैठी थीं ।"

अम्मा भी कम नहीं ,उसी अदा से मानस में गर्दन झुकाए उत्तर देंगीं-"इ बेबिया भी आज कल कुछ भी लिखती है।"

थोड़ा क्रोध भी आएगा ,धम्म से मानस की पोथी बन्द कर कहेंगी-"जब लंका काण्ड आता है बवाल होता है। "

जी हाँ ,बवाल की पूरी सम्भावना है ,इस लिए तलाशना हो बलमा को तो रोकिए हमारे गाँवों को कंकरिट के जंगलों में बदलने से ।देखिएगा बलमा मिल जाएगा किसी गाँव की चट्टी पर गर्दन में कैमरा लटकाए ,खचाक से आपकी फोटो खींचते हुए कहेगा-"स्माइल प्लीज !"और फिर उसी नफासत से गर्दन झूका कर कहेगा ,थैंक्यू!

सोनी पाण्डेय 
कृष्णा नगर
मऊ रोड
सिधारी,आज़मगढ़
उत्तर प्रदेश





कहानी

प्रतिभा सिंह उत्तर प्रदेश के जनपद आजमगढ़ के छोटे से गांव में रहते हुए पिछले एक दशक से निरन्तर लिख रही हैं। प्राथमिक की शिक्षिका प्रतिभा की कहानी वह साँझ थी की ठहरी रही तीन परिवेश की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,सोच  और निर्मिति को दर्शाती मार्मिक कहानी है।आज लेखन का आयाम कितना विकसित हुआ इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है।

सोनी पाण्डेय 

                                           



                                                  वह साँझ थी कि ठहरी रही 
   
     आसमान में घुमड़ते काले-भूरे बादलों का झुण्ड मनमोहक लग रहा था।आषाढ़-सावन तो सूखे बीते,ख़ैर उतरते भादों में ही सही बेदर्दी बादल बरसे तो।ठंडी हवा के झोके बता रहे थे कि कहीं आस- पास खूब बारिश हुई है।महीनों की प्रतीक्षा के बाद आज बरसात की ठंडी बूंदों को छूकर गुजरने वाली हवा का स्पर्श सुखद था।इतने सुहावने मौसम में मैं अपनी तन्हाई के साथ सड़क की धूलभरी भीड़ में खड़ी थी पर खुद में ही मगन।बारिश से पहले की तेज आंधी अपने साथ धूल- गर्द तो उड़ा ही रही थी पर मेरा मन भी तेज हवा के झोके पर सवार हो हिचकोले खा रहा था।श्यामल सांझ की उजास मेरे मन में समाकर मुझे तरंगित कर रही थी।मेरी मनपसंद लाल रंग की स्कर्ट और सफेद टॉप जिसे मैंने आज पहली बार पहना था अब धूल धूसरित हो गई थी।फिर भी मैं बेफिक्र मन के उजास में विचरती -विचारती चहलकदमी कर रही थी।हाँ,कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि मेरे खुले बाल तेज हवा से बेतरतीब हो गए हैं।उफ ...मैंने पर्स से स्टॉल निकालकर चेहरा ढंक लिया।अब मेरी नज़र सफेद जूतों पर गई।वे धूल-मिट्टी में नहाकर अपना मूल रंग खो चुके थे।पर जो भी हो आज मौसम इतना सुहावना हुआ था कि मन आनंद सागर में हिलोरें ले रहा था।
     मैंने तिराहे पर आकर एक ई रिक्शे वाले को रुकने का इशारा किया।वह मेरे ठीक सामने आकर रुका-
भैया देवकाली चलोगे?
हाँ चलिबैं मैडम जी।पर आप अकेले सवारी हौ तो पचास रुपिया देबै का परी।
अरे!लूट रहे हो।हरदम चौक से देवकाली का बीस रुपये तो देती हूँ।
"मैडम जी ! राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाये त आपसे पचास रुपिया ना लेइत।पर आपका अकेलै ही ले जाये का परी।"
"क्यों ?तुम बैठा लेना किसी और को भी।"
और इतना कहते हुए मैं बैठ गयी।
"मैडम जी अगर राही मा कोउ अउर सवारी मिल जाय तौ आप बीस ही देना।ओइसे संझा का बेला है अउर मौसम भी खराब होय रहा।अब आप ही सोचौ अइसन मा घर कउन छोड़ै।"
मैं रिक्शे वाले से कहना चाहती हूँ कि कोई घर छोड़ेगा नहीं पर जिसने छोड़ दिया है वह घर जाएगा तो है न।पर मन नहीं है उससे और बोलने का।इस सुहावने मौसम में मूड खराब नहीं करना चाहती थी।मूड खराब से ध्यान आया,इसने कहा कि मौसम खराब हो रहा है।एक बात मेरी समझ में नहीं आती जब मौसम असल में सुहावना होता है तो लोग यह क्यों कहते हैं कि खराब हो रहा है।चाहे सूखा पड़े,धरतीं बंजर हो जाये,नदी नाले सूखने लगे या प्यास से पशु-पक्षी मरने लगे, चाहे लंबे अकाल के बाद ही बारिश क्यों न हो, लोग यही कहेंगे मौसम खराब है।अजीब है मानव मन भी..हर घड़ी उसपर नकारात्मकता ही हावी रहती है।ख़ैर मैंने उसे चलने के लिए कहा।उसने ऑटो स्टार्ट किया और साथ में तेज अवाज में गाने भी।कोई फिल्मी गाना बज रहा था पर गाने पर मेरा ध्यान नहीं था।
          मैं ऑटो की खिड़की पर बैठी बाहर देख रही रही थी।सामान्य दिनों में फैजाबाद की मार्किट में शाम को ही रंगीनियत रहती है। जैसा की हर शहर में होता है।पर उसदिन मौसम का मिजाज कुछ और ही था।रोड पर ठेले खोमचे लेकर खड़े रहने वाले जल्दी- जल्दी घर की ओर भाग रहे थे।छोटी दुकानों के शटर बंद हो रहे थे।जबकि बड़ी दुकानों में अभी वैसी ही रौनक थी।आजकल मैं जब भी घर से निकलती हूँ न जाने क्यों मेरा मन अजीब सी उदासी से भर जाता है।जब दो साल पहले मैं फैजाबाद आयी थी तो यह बिल्कुल ऐसा नहीं था।सड़कों के दोनों किनारों पर खूब छायादार ऊँचे -ऊँचे वृक्ष हुआ करते थे।पर अब जबसे राम मंदिर मामले का निस्तारण हुआ है पूरे अयोध्या जनपद में निर्माण कार्य तेज हो गया है।सड़के सिक्स और फोर लेन की जा रही हैं।फाइव और सेवन स्टार हॉटेल बनाये जा रहे हैं।सरकार के इस फैसले से यहाँ के अधिकतर लोग खुश हैं।किन्तु जिनकी बहुमूल्य जमीनों का अधिग्रहण औने- पौने दाम में किया जा रहा है वह दुःखी हैं और वर्तमान सरकार को कोस रहे हैं।पर बहुसंख्यक अयोध्यावासी सरकार की इस ऐतिहासिक जीत को धर्म की जीत बता रहे हैं और प्रसन्न हैं।वे अब पारस्परिक अभिवादन में नमस्ते न कहकर जय श्री राम कहने लगे है,उनके शहर का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर चर्चा का केंद्र होने से वे उत्साहित हैं।वैसे मैं चाहती हूँ कि जब भी लोग राम का नाम लें सीता का नाम भी जरूर लें।उनके नाम का भी जयकारा लगाएं।मेरे विचार से उनका त्याग राम से अधिक ही था।पर मेरे चाहने से क्या होता है।अयोध्या तो राम की ही है।
         खैर ऑटो चल रही थी और मैं मनमोहक शाम की रंगीनियत में डूबती -उतराती विचारों में मग्न।ठंडी हवा से तन में सिहरन होने लगी थी।जैसे -जैसे शाम गहरा रही थी मन और चंचल हुआ जा रहा था।अबतक तो हल्की बारिश शुरू हो गयी थी ।मैं हाथ को ऑटो से थोड़ा बाहर निकालकर पानी की बूंदे उछालने लगी थी। कुछ देर में बारिश और तेज हो गई।मैं खिड़की से ही बाहर देख रही थी,जिसे जहाँ जगह मिल रही थी वह उधर ही भाग रहा।लोगों को भागते -दौड़ते देखकर मैं सोच रही थी कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है जो इतनी अफरा-तफरी मची है।इंसान ही तो हैं सभी कागज तो नहीं कि गल जाएंगे।भला इतनी प्रतीक्षा के बाद बारिश हुई है तो लोग आनंद क्यों नहीं मना रहे।लोग भाग रहे थे जबकि मैं ठहरना चाहती थी।वैसे सच कहूँ तो मैं सड़क पर खड़े होकर भींगना चाहती थी,इन नन्ही -नन्ही बारिश की बूंदों से खेलना चाहती थी।पर ऐसा तो बस फिल्मों में ही होता है।अभी मैं फैजाबाद की सड़क पर उतरकर ऐसा करूँ तो लोग साइको ही समझ लेंगे।तभी मुझे बचपन की स्मृतियाँ घेरने लगीं।जब कभी स्कूल से छुट्टी हुई और रास्ते में बारिश होने लगे तो क्या ही आनंद आ जाता।फिर कहाँ खयाल की किताब-कॉपी भी भींग रही है।कभी-कभी तो इस कदर भीगकर घर आती की माँ से खूब मार पड़ जाती।यह सब याद करते मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई।पर अभी मेरी बगल से एक प्रेमी जोड़ा बाइक पर सवार हो भीगते हुए गुजर रहा था।वह खूब खुश लग रहे थे।लड़की अपने दोनों हाथ खोलकर बारिश की बूंदों को हथेली पर रोक रही थी, इतरा रही थी।लड़का फिदा हो रहा था उसके इस मासूम बचपने पर।मैं तो आज तक इस रहस्य को नहीं समझ पायी की प्रेम करने वाले बच्चे क्यों बन जाते हैं।काश की दुनिया का हर व्यक्ति बस प्रेम ही कर सकता।काश ऐसा होता की घृणा हमारे भावकोश में ही न होती।
                  मेंरी नजर सड़क के किनारे लगे गुलाब के पेड़ों पर जाती है।फूलों से लदी गुलाब की डाली मनमोहक लग रही थी।ठीक इसी समय मुझे एक घटना याद आ रही थी।वह दिसम्बर की कोहरे भरी शाम थी।मैं गोमती नगर के एक साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित थी।कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं जब मंच से उतरकर दस कदम आगे गेट की तरफ बढ़ी तो एक लड़का गुलाब का फूल लिए मेरे सामने खड़ा हो गया।मैं कुछ समझ पाती की उसने कहा सॉरी मैम।पर आप ड्रीम गर्ल हो।मैं यकीन से कह सकता हूँ की दुनिया का मेरे जैसा हर लड़का आप जैसी लड़की के ही ख्वाब देखता होगा।उसके इतना कहते- कहते मैंने उसे नज़र भर ध्यान से देखा था।वह छः फुट का गोरा और हैंसम नौजवान था।मैंने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से फूल ले लिया था और आगे बढ़कर पास में ही खड़े पति की शर्ट में लगा दिया।वह लड़का प्रश्निल दृष्टि से मेरी ओर देखने लगा था।तब मैंने बताया.. ही इज माय हसबेंड।मुझे आश्चर्य हुआ था उसका कॉन्फिडेंस देखकर।उसने असहज होने या झेंपने के बजाय खुद ही आगे बढ़कर मेरे हसबेंड से हाथ मिलाते हुए कहा-यू आर वेरी लकी सर।रियली योर वाइफ इज सो ब्रिलियंट और ब्यूटीफुल।बदले में वह बस मुस्कुरा रहे थे।उसने सी यू कहते -कहते मेरी ओर देखा और गेट से बाहर निकल गया।मैंने महीने भर बाद न्यूजपेपर में उस लड़के की फोटो देखी थी।उसने आई .ए .एस. में ग्यारहवीं रैंक हासिल की थी।उसदिन मैं फिर उस दिन की घटना को याद करके खूब हंसी थी।पर सचमुच यह पढ़कर मुझे बेहद खुशी हुई थी।
          अचानक ही मेरे ध्यान को भंग करती हुई एक तेज आवाज कानों में गयी।वह मेरी ही बगल में बैठी क़रीब तीस-पैंतीस साल की औरत थी,साथ में दो बेटियाँ भी।बड़ी की उम्र शायद सात-आठ साल की रही हो और छोटी की चार से पांच।वह कब मेरी ऑटो में बैठी मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं।मैं तो अबतक अपनी ही विचार यात्रा में थी।पर वह औरत कुछ ज्यादा ही कर्कशा लग रही थी।मैं मामला समझने के लिए उसे ध्यान से सुनने लगी।वह अपनी बेटियों का किराया नहीं देना चाहती थी जबकि ड्राइवर सबका बीस-बीस रुपए मांग रहा था।उसे भी देवकाली ही जाना था।बस मैं चाहती थी कि किसी भी तरह वह चुप रहे ।मैंने ड्राइवर को डांट लगाई और उसे याद दिलाया की उसने पचास रुपये में देवकाली छोड़ देने की बात कहीं थी।और अब मैं उसे उतना ही दूँगी।वह चाहे कितने भी पैसेंजर बैठा ले उनसे उसे एक रुपये न लेने दूँगी।अब वह शांत होकर ऑटो चलाने लगा।ऑटो वाले को बोलते -बोलते मैंने एक नज़र उस औरत की ओर देख लिया ,वह मुझे कृतज्ञता के भाव से देख रही थी।शायद मुझसे कुछ और भी कहना चाहती थी।किन्तु संकोच या भय से चुप थी।
                    मैं काफी देर से ध्यान दे रही थी कि उस औरत की छोटी बेटी समोसे खाने की जिद कर रही है।और वह उसे जब तब एक दो चपत लगा कर चुप करा दे रही थी। बड़ी तो यूँ भी शांत बैठी थी।तीनों के कपड़े बहुत ही साधारण या कहूँ की इतने घिस चुके थे कि रंग का पता ही नहीं चला रहा था।
      मैं कुछ देर बाद देवकाली बाई पास पर उतर गयी।किन्तु अब बारिश और तेज हो गई थी।शाम की खूबसूरती में लिपटे फैजाबाद का दिलकश बाजार घोर सन्नाटे में तब्दील हो चुका था।मुझे अंदाजा था कि शाम ढल गई होगी शायद,बादल से समय का कुछ पता नहीं चल रहा था।मैंने कलाई घड़ी पर नज़र डाली ,शाम के छः बज रहे थे।यहाँ से उतरकर करीब पाँच सौ मीटर की दूरी पर मेरे घर पहुँचते -पहुँचते तो मैं पूरी तरह भीग जाती।इसलिए मैंने कुछ देर पनाह लेने की गरज से आस-पास नज़र दौड़ाई।पास ही एक रेस्टोरेंट दिखा ,भूख तो खूब लगी थी ।चलकर चाय पी जाए यही सोचकर उधर लगभग दौड़ते हुए पहुँची।
          इस मूसलाधार बरसात में गरमा गरम चाय के साथ समोसे। वाह ! मजा ही आ जाये।मैं अपना ऑर्डर देकर नज़र भर टेस्टोरेंट का जायजा लेने लगी।मेरे सामने वाली टेबल से एक सीट आगे वही युवा जोड़ा बैठा था जिन्हें मैंने अभी कुछ देर पहले बारिश में सड़क पर सरपट बाइक दौड़ाते हुए देखा था।।मैंने जैसे ही उनकी ओर देखा ठीक उसी समय लड़की ने भी मेरी ओर देख लिया।उसने मुझसे नज़र फेरते हुए लड़के के कान में कुछ कहा तो लड़के ने भी मेरी ओर देखा।शायद मेरा यूँ देखना उन्हें बुरा लग रहा था।पर उन्हें मैं नहीं बता सकती कि यह इत्तेफ़ाक से हुआ है।उन्हें मुझसे असहज होने या डरने की कोई जरूरत नहीं।पर मुझे यकीन हो गया कि वो प्रेमी जोड़े ही थे।।वैसे सच कहूँ तो प्रेम ही वह अहसास है जो बताता है कि आप जिन्दा हैं।
         कुछ देर बाद मेरा ऑर्डर आ गया।इस भीगी शाम में चाय और समोसे की तलब ऐसी थी कि अब बस कब मुँह में जाये।किन्तु मैंने जैसे ही समोसे का पहला निवाला मुँह में डालने के लिए हाथ बढ़ाया ,मुझे उन माँ -बेटी का ध्यान हो आया।वह छोटी बच्ची समोसे की जिद किये जा रही थी और जब-तब माँ पीट दे रही थी।मैं लगभग दौड़ते हुए रेस्टोरेंट से बाहर निकली।अनायास ही मेरी नज़र उन माँ- बेटी को ढूंढने लगी।वह कहीं नहीं दिख रही थीं ।मैं निराश हो गयी।अभी कुछ देर पहले भूख से जान निकल रही थी परन्तु अब अचानक ही मुझे खुद पर झल्लाहट होने लगी थी।मैं भला उस छोटी बच्ची का एक समोसे के लिए रोता हुआ मासूम चेहरा और उसकी माँ की बेबसी कैसे भूल गयी ।
     मैं पाँच मिनट बाहर ही निस्पृह खड़े रहने के बाद जैसे ही रेस्टोरेंट के गेट की ओर मुड़ी कि मेरी नज़र ब्रिज के नीचे पड़ी।वहाँ बहुत सारे फल के ठेलों के बीच वह माँ- बेटी भी खड़ी थीं। छोटी लड़की मेरी ओर ही देख रही थी।मैं बता नहीं सकती कि उन्हें देखकर मुझे कितनी खुशी हुई।मैं उन्हें थोड़ा सा कुछ खिलाकर शायद आत्मग्लानि से मुक्त होना चाहती थी।मैंने उस लड़की को अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।किन्तु उसने अपनी माँ का मटमैला पल्लू और जोर से पकड़ लिया। मैंने पुनः उसे अपनी ओर आने के लिए इशारा किया।लड़की अपनी माँ से शायद बता रही थी।अब उसकी मां और बड़ी बहन भी मेरी ओर देख रही थीं। मैंने उन दोनों को भी हाथ से इशारा कर अपनी ओर बुलाया।बारिश अब कुछ कम हो गई थी।वह औरत शायद समझ गई और अपनी बेटियों का हाथ पकड़कर मेरी ओर आने लगी।उनके आते ही मैंने उन्हें रेस्टोरेंट के अंदर चलने को कहा।यह सुनकर दोनों लड़कियाँ खुश हो गयीं,लेकिन वह औरत सकुचा रही थी।मैंने लगभग डांटते हुए उस औरत को अंदर चलने के लिए कहा।वह तीनो घबराकर धीरे -धीरे कदमों से अंदर गयीं।
        मैंने अपने टेबल पर बैठते हुए उन माँ -बेटियों को पास की खाली कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया।छोटी बच्ची के सूखे होंठ बता रहे थे कि वह काफी देर से भूखी और प्यासी है।मैंने अपना प्लेट उसकी तरफ बढ़ाते हुए उसे खाने के लिए कहा और खुद चाय पीने लगी।वेटर को बुलाकर कुछ स्नैक्स और तीन कप चाय का ऑर्डर दे दिया।
"मुझे लग रहा है आप काफी परेशान हैं।" मैंने उस औरत की तरफ देखते हुए कहा
"जी मैडम जी हूँ तो"
"आप चाहें तो मुझे अपनी समस्या बता सकती हैं मैं शायद कुछ मदद कर सकूँ।"
"तकदीर की मारी हूँ मैम जी।आपको क्या परेशान करूँ।"
"ठीक है अगर आप मुझसे कुछ नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं।पर यह रखिये मेरा मोबाइल नम्बर।आपको कोई समस्या हो तो मुझसे कह सकती हैं।" मैंने अपना मोबाइल नम्बर एक कागज के टुकड़े पर लिखकर उसे देते हुए कहा।
उसने वह टुकड़ा लेकर अपने साड़ी के पल्लू में ऐसे बांधा जैसे कोई खजाना मिल गया हो। 
इस बीच मैं ध्यान दे रही थी कि रेस्टोरेंट में बैठे लगभग हर व्यक्ति की निगाह मेरे ही टेबल पर थी।यहाँ तक की वह प्रेमी जोड़ा भी मुझे ही घूर रहा था।जाहिर है वहाँ कोई प्रेम या सम्मान से नहीं अपितु घृणा बोध और आश्चर्य से ही मुझे देख रहा था।उन सबकी नज़र में या तो मैं मन्द बुद्धि थी अथवा कोई रसूखजादी ,जिसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके आस -पास क्या हो रहा।मैंने देखा वह वेटर जो मेरा ऑर्डर लेकर गया है रेस्टोरेंट के मालिक से कुछ कह रहा है और अब उसका मालिक मेरे पास आकर खड़ा हो गया -
"एक्सक्यूज मी मैम!"
"जी कहें।"
"आप ऐसा नहीं कर सकती।"
"क्या  नहीं कर सकती?"
"यही की इस रेस्टोरेंट में बेगर्स का आना मना है।आप प्लीज इन्हें बाहर कीजिये।"
"पर आपको बता दूँ कि ये बेगर्स नहीं हैं, और जब मैं आपको इनके खाने का पे कर रही हूँ तो आपको कोई हक नहीं कि इन्हें अपमानित कर बाहर करें।"
"Sorry ma'am it's restaurant rules.अगर हम ऐसे ही बेगर्स को आने की परमिशन देते रहेंगे तो हमारे सारे कस्टमर्स भाग जाएंगे।फिर बिजनेस तो गया।"
मैं चुपचाप अपमान के घूंट पिये उन्हें देख रही थी।वह महिला अबतक अपनी दोनों बच्चियों को लेकर बाहर निकल गयी थी। मैं उनका बिल पे करके जल्दी से बाहर निकली,किन्तु तबतक वह औरत अपनी बेटियों के साथ स्याह साँझ में गुम हो चुकी थी।
             लगभग महीने भर बाद सुबह के करीब दस बजे उस औरत का फोन आया,जिससे मैं उसदिन ऑटो में मिली थी और फिर रेस्टोरेंट ले गयी।मैंने फोन रिसीव किया तो उधर से बस सिसकियां आ रही थी।वह औरत रोये ही जा रही थी।मुझे अनुमान तो था कि वह कभी न कभी मुझसे सम्पर्क जरूर करेगी।परन्तु इस तरह रोते हुए तो मैंने सोचा भी नहीं था।मैंने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और रोने का कारण पूछा।किन्तु उसने मिलकर ही कुछ बताने की जिद पकड़ ली थी।फिर क्या था ?मुझे उसका पता लेना पड़ा।मैंने तय किया कि कल स्कूल से छूटते ही सीधे उसके घर जाना है।
                   उसके घर का रास्ता पेपरमिल के पीछे एक सुनसान गली से होकर जाता था।रास्ता सीलन भरा और इतना गंदा था कि एक बार तो  मन में आया की वापस लौट जाऊँ।किन्तु उस औरत की रुआंसी आवाज मेरे कान में अभी भी गूंज रही थी। और अब मैं उसी आवाज का पीछा करते हुए एक अपरिचित और सीलनभरे रास्ते पर चल रही थी।मुख्य सड़क से लगभग दो किमी अंदर चलने के बाद एक धूल-मिट्टी और कीचड़युक्त बस्ती दिखी।करीब दस-बारह घर थे वहाँ।घर क्या ईंट और सीमेंट के सहारे खड़े किए गए एक या दो कमरे।उनमें से कुछ के सामने घास-फूस की झोपड़ी रखी थी।अब इनमें से उस औरत का घर कौन सा है मेरे लिए पहचानना मुश्किल था।फिर याद आया कि उसने कहा था आगे के तीन घर छोड़कर चौथा घर उसका है।मैं अविलम्ब उस घर के दरवाजे पर पहुँची और दरवाजा खटखटाया।
             दरवाजा जितने झटके से खुला मुझे उम्मीद नहीं थी इसकी।जैसे वह औरत मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी।यूँ तो वह घर दो छोटे कमरों का ही था ,किन्तु था साफ़ सुथरा।उस औरत की दोनों बेटियां खेल रही थीं,मैंने जब छोटी वाली की ओर देखा तो वह मुझे देखकर माँ के आँचल में छिपने लगी ,कुछ देर बाद माँ के आग्रह पर उसकी गोद में आकर चुपचाप बैठ गयी।जबकि बड़ी वाली बाहर चली गयी।बाद में पता चला उसकी बड़ी लड़की पढ़ने में काफ़ी होशियार है और माँ के काम में हाथ भी बंटाती है।घर में फर्नीचर के नाम पर बस दो पुरानी कुर्सियां ही दिख रही थीं।उस औरत ने एक कुर्सी आगे बढ़ाते हुए मुझे बैठने का आग्रह किया।मैंने संकोच से बैठते हुए कहा-
"तो तुम यहाँ रहती हो ?"
"जी मैडम!ओइसे ई घर हमार बाबूजी का रहा पर अब त उ यह दुनिया मा रहे ना सो हमार ही हुआ।"उसने पास वाली दूसरी कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
"अच्छा !मतलब यहाँ तुम्हारा मायका है।"मैंने कुछ देर रुककर धीरे से कहा।
"जी"
"और माँ ?"
"उ त छुटपने मा चल बसी !"उस औरत ने उदास लहजे में मायूसी से कहा।
"ओह!कोइ बात नहीं।जीवन में उतार -चढ़ाव आते रहते हैं।खैर अब तुम बताओ मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ?"
"मैडम जी ,हम बस एतने चाहत हैं कि हमार दूनो बिटियन का आप कउनो अच्छा सा अंगरेजी इस्कूल मा एडमिसन दिलाय दो।"
"अग्रेजी स्कूल ?"मैंने चौककर पूछा।
"काहें मैडम जी?का हमार बिटियन का अंग्रेजी इस्कूल मा एडमिसन नाय हो सकित ?"
"अरे नहीं वो बात नहीं।मैं तो यह सोच रही हूँ कि तुम इंग्लिश मीडियम स्कूल की महँगी फीस भर कैसे पाओगी ?"
"मैडम जी आप पइसा का चिन्ता तनिक नाय करो।ओकर इंतजाम त हम करी देबै।आप त बस हमार बिटियन का नाम लिखाई दो।आपकै ई अहसान हम जिनगीभर नाय भुलैबैं। 
"ठीक है।"अगर तुम फीस दे सकती हो तो मैं इनका एडमिशन जरूर करा दूँगी।"
सच कहूँ तो उस बेहद साधारण से घर को देखकर मुझे अब भी चिंता हो रही थी, कि यह औरत भला कैसे महंगे स्कूल की फीस भर पाएगी।यद्यपि की वह औरत मेरी मनसा ताड़ गई थी, और मुझे बार- बार इस बात के लिए आश्वस्त कर रही थी कि वह समय से स्कूल की फीस भरती रहेगी।
      उस औरत को जब उसदिन मैंने पहली बार ऑटो में देखा था तभी मुझे लगा कि मेरे साथ एक कहानी चल रही है।अब बस मुझे उसे पकड़ना शेष था।इस मामले में मैं अक्सर ही कुछ स्वार्थी हो जाती हूँ।मैं इससे इंकार नहीं कर सकती कि मेरे स्वार्थ ने ही उसदिन माँ-बेटी को रेस्टोरेंट में बुलाया था।और आज उस औरत के एक फोन कॉल पर मैं उसके घर तक आ गयी थी।किन्तु मुझे लग रहा था वह औरत शायद मुझे कोई बड़ा ऑफिसर या सोशल वर्कर समझ रही थी।और यही सोचकर उसने मुझसे छोटा सा सहयोग मांगा था।मुझे ध्यान आया कि अभी तक उसका नाम नहीं पूछा मैंने-
"ओह!देखो मैंने तो अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं पूछा।"
"सनीचरी।"
"सनीचरी.. यह कैसा नाम...?"अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया।
"जी।हम सनिच्चर के दिने भय रही न।सनीचरी जन्मते ही बाप का खाय गयी।"
उसने एक उदास हंसी के साथ कहा।
"ओह!"मुझे उसकी उदास हंसी इस समाज के मुँह पर जोरदार तमाचा लगी।ठीक उसी समय मुझे रुदाली फ़िल्म की डिंपल कपाड़िया का रोल भी याद हो आया।जिसमें उसका नाम भी शनिचरी होता है।एक सीन में ठीक ऐसे ही उदास हंसी के साथ वह  अपना परिचय देती है।
"वैसे सबकुछ नियति के अनुरूप होता है।स्वयं को दोष देना उचित नहीं।अच्छा हो कि अब तुम अपनी बच्चियों की बेहतर परवरिश पर ध्यान दो।"मैंने बात दूसरी दिशा में मोड़ना चाहा।
"जी मैडम जी।पर अब हम केका समझाय सकित हैं कि सब नीयती है।अब तौ बस हम एतने जानत है कि जउन कुछ हमरे साथे हुआ उ हमरे बच्चिन कै साथे ना होए देबै कबहूँ।"
मुझे उस औरत में और इंटरेस्ट आता जा रहा था।
"क्या हुआ तुम्हारे साथ ? बताना चाहोगी ?यदि ठीक लगे तो ?"
"अरे मैडम जी हम गरीबन कै पास अइसन कुछ नाय होत जवन छिपाय के ऊपर ले जायका परै।हमार अम्मा को बाबूजी बंगाल से भगाकर लाय रहै।लभ मेरीज हुआ था न दूनो का।हम उनके ब्याह के सात साल बाद भई रही।अम्मा बतावा रहे कि खूब खुश थे तोहार बाबूजी।संझा जब पेपर मिल से लौटकर आये तो हाथ मा देशी दारू का पाउच रहा ओह दिन।बच्ची के भय की खुशी मा मुर्गा अउर दारू कै पारटी भई।हम दस दिन की थी तब।हमार बाबू ओह रात सोए तो सोए ही रह गए।कबहूँ उठे ही नाहीं।अम्मा कई दिन तक दहाड़ मारकर बिलखती रही।पास-पड़ोस के भइया-बहिनी लोगन कि सहारे उनका किरिया- करम हुआ।अम्मा हमार नाम सनीचरी रख दिहिंस तबसे उ हमहि का कोसत रही जिनगीभर।सनीचरी बाप का खा गयी।" 
वह आँचल से ढलते आँसुओं को पोछने लगी।अनजाने में मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था।यह मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।
"अरे शनिचरी।जो बीत गई उसपर क्या रोना।जो हो रहा उसकी सोचो।अब बच्चों और खुद पर ध्यान दो बस।"इतना कहते-कहते मैं उठने लगी।
"अरे आप जाय रही का मैडम जी ?"
"हाँ,अब तुम अपना काम करो।बहुत बात हो गई।"
"पर हमरी बात तो अभी शुरू भी नाय भई।अउर आप जाए रहीन।"
"शनिचरी !मैं नहीं चाहती कि तुम मेरी वजह से बीती बातों को याद कर दुखी होओ।इसलिए ।चलो अब फिर किसी दिन।"
"नहीं -नहीं ।आज तो आपका हमें सुनै का परी।हमार मन होत है कि हम आपसे उ सब बतायें जवन हमरे मन मा कांटा अस चुभित है दस साल से।"
इतना कहते-कहते उसने मेरा हाथ पकड़कर बैठा दिया।खैर मैं तो चाहती ही थी कि कहानी आगे बढ़े।
  "शनिचरी अब जब तुमने मुझे बैठा ही लिया है तो एक बात पूछूँ..?"
"पूछौ मैडम जी।एहमें इतना सकुचाये वाली बात का है?"
"उसदिन जब मैंने तुम्हें पहलीबार देखा था तो तुम बहुत परेशान हाल थी।तुम्हारी बच्चियां भी घबराई और भूखी लग रही थीं ...!"
"अब का कहें मैडम जी।सब किस्मत का खेला है।ई मरद जात औरतन का बस खेलै का समान समझत है।हमार अम्मा भलही सनीचरी का जिनगीभर कोसती मर गयी पर कबहूँ  भूखे पेट फटे हाल ना रहे दिहिस।पर उ मउगा हमार जिनगी नरक से भी बदतर बनाय दिया।"
मैं समझने की कोशिश करते हुए भी कुछ समझ नहीं पा रही थी।आखिर वह कहना क्या चाहती थी।उसने मेरी ओर ध्यान से देखा।फिर मेरी आँखों में आँखे डालकर कहा-
"मैडम जी ई जवन इश्क आ पिरेम का बोखार चढ़त है न जवानी मा।त अच्छन-अच्छन को धूल फांके का परित है। हम त ठहरी तिरिया जात ओहपर से गरीब दुखियारी।कोउका बिगाड़ ही का सकित है।"
अबतक मैं इतना निष्कर्ष निकाल पा रही थी कि उसने प्रेम किया था और उसके प्रेमी ने धोखा दिया।
"अम्मा देवकाली मंदिर के साम्हने ही फूल बेचती थी तो हमहूँ ओकरे साथे ही तड़के चली जाती।ओहरे सोहना भी सब्जी-भाजी का ठेला लेकर घूमता रहता था।बस देखते-देखते होई गया पिरेम।था तो अपने बिरादर से बाहर का ही।पर अब अम्मा बिचारी भी का कर सके।हाथ में एको कौड़ी तो थी नाहीं।ओही देवकाली मंदिरे मा भगवान भोलेनाथ का साखी मान बियाह कर लिया हम दूनो ने।बियाह के महीना- दूई महीना तो सब ठीके रहा ।पर ओकरे बाद उ आपन गिरगिट अस रंग दिखावै लगा।"
इतना कहते-कहते वह गम्भीर मुद्रा में चुप हो गयी।
"क्यों ?क्या किया उसने?"
उसे कुछ देर चुप देखकर मैंने कहा।
"हमार घर में रहबे कौन करा, हम माँ- बिटिया के अलावा।बियाह के बाद तो उहो एही मड़ई मा रहे लगा।हमहूँ नवा-नवा पिरेम पाय खुशी से निहाल होय गयी थी।घर मा बाबूजी की मरे के बाद से कउनो मरद नाहीं बचा था।हमका पोषने में अम्मा ने केतना दुःख सहा है उ तो बस हमही जानत हैं।पहिले तो हमका भी ठीके लगा जब उ हमार घर मा रहत रहा तौ।अगर हम ओकरे साथ चली जाती तो भला अम्मा का खियाल कौन रखता।पर ई का बात भई कि महीना दूई महीना ना सालभर बीत गया।पर हमार मरद कबो हमका आपन गाँव नाय ले गया।"
"क्यों ?क्या वह तबसे कभी अपने गाँव-घर नहीं गया ?" मैंने पूछा।
"काहें नाहीं दीदी।उ तो महीना दूई महीना मा हो ही आता था।अउर जब भी जाता था हप्ता भर रहकर ही आता था।बियाह से पहिले तो अपने माई-बाप, घर-दुआर इहां ले कि खेत- खलिहान तक की भी खूबै बात किया करता था।बाकी बियाह होत उ एकदम से बदल गवा।हम जब भी ओकरै घर कै बात छेड़ती उ हमहीं पर चिल्लाये लागत रहा।एक बार तो हमही तूल गयी ओकरै घर जाये खातिर।काहें से की अब हमका कुछ-कुछ शक होवे लगा रहा ओहपर।कउनो बात तो जरूर थी जउन उ हमसे छुपाय रहा था।ओहदिन उ हमका खूब मारा।उ हमका चरित्तरहीन अउर अवारा भी बनाय रहा।"
"क्यों तुम भला चरित्रहीन क्यों हुई?"
"दीदी हम उसे पिरेम किये थे न।तभी उ कहता था कि तू आवारा थी तभी न मुझपर डोरा डाली।"
"अरे !इस हिसाब से तो उसने भी तुमपर डोरे डाला।तो वह भी चरित्रहीन हुआ न?"



"हुआ तो दीदी।पर ई मरदों का समाज है।उ त गंगा अस पवित्तर होत हैं।गंदगी तो हम मेहरारुन मा होत है ,जो बिना जाने-समझे केहू पर भरोसा कर लेइत हैं।अब हम अजोध्या की माटी मा जनम कर सीता मइया का दुःख भुलाय सकित है का।आप ही बताओ।"
"हम्म।"मैंने धीरे से गरदन हिलाते हुए कहा और आगे शनिचरी के बोलने की प्रतीक्षा करने लगी।
"ओहदिन उ हमका मारा त दूई थपरा ही था।लेकिन मन पर लगा घाव भी कबहूँ सूख सकित है का।ओइसे ओह दिन के बाद ओकर हाथ खुल गवा।हम जब भी ओका घर चले की बात कीन्ह उ हमका पीटा। अईसे ही खिंचते -खाचते सात बारिस बीत गवा।ए बीच हमार दूनो बच्ची होय गयी थी।अम्मा बेचारी हमार फूटी किस्मत पर रोवत ही मर-हर गयी।हमार मरद त अब सब्जी -भाजी खरीदना भी छोड़े दिया रहा।अउर ना ही तौ हमका कहीं केहू का घर मा काम करे का भी नाय जाए दिहिस रहा कि कुछ ना तौ हम झाड़ू-बर्तन धोय के आपन बच्चन के जियाय लिहिंस।।उ तो अम्मा अस रही कि बाबू-भइया लोगिन कै घर काम -धाम करिकै हम सबै का पेट पाली रही थी।"
"क्यों?वह तुमको किसी के घर क्यों न जाने देता था.?"
"अब का कहिन दीदी।जउन अदमी दूसरे की बहिन-बेटी पर गन्दी निगाह डाले रहत है उहे अपनी मेहरारू आ लईकी पर शासन चलावत है।ओका सोच बहुत घटिया रहा दीदी।उ हरदम इहे सोचत रहा कि हमार चक्कर केहू अउर से तो ना चलि रहा।चौबीस घन्टा हमार निगरानी।हमार बूढ़ महतारी हमार आ हमरी बच्चिन का तो पेट भरते रहे ओहू का खियावत रहे बइठा के।ओकर कमाई त हम कबहूँ जनबे ना किहिन।
    लेकिन जब कोरोना की चपेट मा हमार महतारी भी आय गयी, तो दीदी सच कहत हैं हम हमार जिंदगी अन्हार मा बुझाए लगी।उ धोखेबाज अपनी महतारी की तबियत बिगड़ै का बहाना बनाकर हमका आ हमरी दूनो बिटियन का छोड़ के घर भाग गवा।हमार अम्मा को तो अइसन कोरोना हुआ कि ओके लेके ही माना।हम उ दुःख का पहाड़ जइसन दिन-रात अकेले ही काटे रहे।पर पेट का करी ओके तो भरे का परी।आपन तो आपन दूई बच्चिन का मुँह भी देखै का था।उनका छोड़ी के कहीं काम भी तो नैय कर सकित रहिन।कुल मिलायके हमार पास एक्के गो रस्ता बचा रहा।अब अपने उ मरद को बुलाये या ओकरे घरे जाए।जाये के बाद से त उ कब्बो हमका फोन भी नाय किया रहा। और हमका उ हमार बच्चिन कै कसम दिलाय रहा कि उ जब घरे रहै तो हम ओका फोन ना करै कबहूँ।उ बियाह के बाद से ही हमसे कहत रहा कि ओकर माई-बाबू तोसे बियाह पर एतराज करत हैं।उहा जाए से दुनिया भर का बवाल होई ओस ले बढ़ियां एही जा रहे का रही।अब भला हम का जाने की ओकरे मन मा का चलत रहा।लेकिन तब्बो हम ओह दिन ओके फोन किये रहे,पर हमार दिल धक से किया जब जाने की उ तो हमका बिलाक कर दिया था।दीदी सच कहें रहिन।ओह दिन हम रातभर रोअतै रह गयी।लेकिन मन ही मन फइसला भी कर लिन थी कि चाहे जवन होय जाय कल ही हम दूनो बच्चिन का लेके ओकरे गाँव पहुँचूँगी।ओइसे उ त कबहूँ हमका आपन पता नाय दिया पर ओकर गाँव का नाम हमका मालूम था।
          बस भिनसारे उठी के रुख-सूख बनाय दूनो बच्चिन का खिलाय -पिलाय तइयार किन्ही।आ दुपहरिया होत- होत पहुँच गयी ओकरा गाँव।"
"शनिचरी!तुम तो इसके पहले कभी उसके घर गयी नहीं थी।फिर तो बड़ी परेशानी हुई होगी तुम्हें उसका गाँव-घर ढूंढने में ?"
"अरे दीदी!ना पूछो केतना फजीहत हुई ओह दिन।हम कसम खाय रही दीदी कबहूँ फैजाबाद लांघ के बाराबंकी,लखनऊ तक नाय गयी रही एसे पहिले।पर ओह मरकिरवना के नाई हम बहुत दुःख भोगी।एक तो पहिली बार आपन टूटी छान से बाहर निकली रही ओपर से न पता ,न ठिकाना।आगे का होगा मन मा धुकधुकी लाग रहा।उ कब्बो- कब्बो बात की बात मा आपन गाँव का नाम लेत रहा।रसूलपुर नाम रहा ओकरे गाँव का,ई अतरौलिया के लागे रहा,आजमगढ़ मा।हम दुपहरिया होत पहुँच तो गयी दीदी भइया-बाबू से पूछत-पाछत।पर मन बहुत घबराय रहा था।न जाने का होवे कवन बीपत-आफत परे।बड़ा हिम्मत करिकै एक ठो लरिका से सोहन गोड़ का घर पूछै।पर उ हमका एक ठो बाबू साहिब के दुआरे ले जाइके खड़ा करी दिहिंस।अब त हमार जान हलक मा फसी गयी दूई बिटियन का लेइ के।लेकिन दीदी उ बाबू साहिब बहुत ठीक अदमी थे।हमसे पूछै कउन सोहन गोड़।गोड़ाना में तो नाय हौ कोउ ए नाम कै।लेकिन तूम चिंता नाय करो अगर कवनो फोटो रखै हो तो दिखाई देव।तब खोज खबर लेवन का लगाई सबै का।दीदी अनजान देश अनजान मनइन का बिचै मा हमार त जान अटकी ही थी ओपर से उ सोहना गोड़ का कोउ जानै वाला उहा मिल नाय रहा था।पर बाबू साहिब भलमानस थे, उन्होंने अच्छा याद दिलाया।हम आपन फोनवा मा कुछ फोटो रखै रहा ओकर।जब उन लोगन का फोटो दिखाये रहे त पता चला उ सोहन गोड़ नहीं सोहन पासी था।अब दीदी साची कहीं रही हमरा देहीं मा काटो त खून ना।हमार अम्मा उच जात से रही पर हमार बाबू नाउ थे।बाल काटते थे कलकत्ता मा।अम्मा बताये रही कि उहां अम्मा की घर के नीचे की बिल्डिंग मा बाबू के एक ठो सैलून था।पर ई का...हम नाउ की बिटिया थी आ उ सोहना त पासी था।त एतना दिन से उ हमसे झूठ कहा रहे।ओइसे उ हमका पहिले बताय भी दिया रहा होता तब भी हमका ज्यादा फरक नाहीं परता।लेकिन ई त बात धोखा की होय गई न।एक बार त मन मा आव रहा कि उल्टे पाँव लौट जायं।लेकिन आपन बच्चिन का मुँह देख के लाग रहा कि एक बार चलके देख ही लेबे का चाही।तब का कहें दीदी,बाबू साहेब ओही लरिका कै सँगै हमका लगाय दिहिंस।आ उ ले जा के सीधे ओकरा दुआरे खड़ा करी दिहिंस।अब आगे न जाने का होवे वाला था। हम ओ बच्चा के आगे ना चाहत रहे कि कुछ झमेला होय।एहि खातिर ओके घर भेज दिहिंस।


       जेठ की आग जलावै वाली दुपहरी मा हमार लागे दूई ठो बच्ची। चार साल कै सलोनी अंगूरी थामे साथ चलि रही थी अउर सरोजा अचरा मा थी।ओपर से कुछ आपन आ बच्चिन का कपड़ा-लत्ता भी रहा।शरीर त बस थकी रही लेकिन मन टूट गवा रहा।उ धोखेबाज पर हमार एतबार त पहिले ही खतम होय गवा रहा, अउर अब रहा सहा भी चला गवा।हम दूर से ही देखी रही थी... ओकर घर का टाटी-छानी थी उ।उहो छोट सा।उ दुआरे बइठ के तास खेल रहा था,बीच- बीच मा ठहाका लगा -लगा बतिया भी ले रहा था।हमार देह सुलग गई थी ओका देख के।हमका दूई बच्चन का साथ मरे ख़ातिर छोड़ के उ इहा मौज उड़ाय रहा था।हमार धीरज कै बांध तौ टूट गवा। लेकिन हमहू ठान ही ली थी कि अब जवन होय देख लेबैं।बस हम सीधे जाइके ओकरे पजरे खड़ा होई गयी रही।
        दीदी साची कहिन उ सीन हमरी आँख मा आज भी जब घूम जात है न त हमार मन बहुत खराब होय जात है।सोहना त हमका देख के एकदम अवाक होई गवा।मानो ओका आँखिन पर बिसबासै नाय होय रहा था।उ हमका देखतै चबूतरा से उतर के खड़ा होय गवा।हम कुछ कहें उ ओकर पहिले ही बोला-
"अरे !सनीचरी तू इहां कइसे।तोका हमार घर का पता कौन बताय दिहिंस,जा चली जा तू इहाँ से बच्चिन का लै के,हम कल आ जाब।"
"नाहीं हम ना जाबे!तू धोखेबाज हौ।अब एक पइसा का हम तोपर बिसबास ना करी सकित।"एतना कहते-कहते हम फूट-फूट रोवै लागी दीदी।मन मा सालन से भरा कोढ़ बह जावै चाहत रहा।ओकर सब संगी-साथी अवाक खड़े रहै।लेकिन हल्ला- हंगामा सुन के ओकर माई-बाबू भी न जानै केहर से आय गये रहिंस।जब सोहना की महतारी हमसे पूछी की तुम कउन हो बिटिया।हम उनका गोड़ धरि फूट-फूट रोये लागी।आ सगरो बात बताई दिहिन।सोहना का खूब भूरा-भला कहा ओकरै महतारी-बाप ने।लेकिन हमार कपार पर असल बजर त तब गिरा जब ई जाने कि ओकर त पहिले से ही बियाह हो गवा हौ।मन मा बार-बार आवा रहा कि हम एहि गोड़े वापिस लउट जायें।पर दूई ठो बच्चिन का सोचकर हिम्मत ना होय रही थी ।अब जवन किस्मत मा लिखा रहे ओसे कइसे बचे कोउ।ओकर पहिली मेहरारू से तीन ठो सयान बिटिया भी रहीं।पहिले त उ हमका घर मा घुसे पर जान से मार देवे की धमकी दी।लेकिन पंचन की राय से हम ओकरे घरे मा रहे का जगह पाय गई।
    दीदी!आपतो एतना पढ़ी-लिखी हौ।जनबै करत हौ कि जब किस्मत फूटै है त दिमागो फिर जात हौ।पहिले त दूई-चार दिन सब ठीके बीता।हमहू बेफिकिर होय गयी कि चलो जात-बिरादर भले ही आपन ना मिली ,भले ही गरीबी हौ,पर परिवार तो ठीके है, निबाह त होइए जावेगा।सास-ससुर का बियवहार त ठीके था पर चार-पाँच दिन बीतै के बाद भी सोहना हमसे बात ना किया।ऊपर से ओकरी पहिली मेहरारू का हमार आ हमार बच्चिन लागे रुख बियवहार हमका खलि रहा था।पहिले तो लगा सोहना परेशान है एह लिए हमसे बात ना करी रहा।लेकिन जब ओकर मेहरारू आ बिटिया हमरी सलोनी का मारी त हमार धीरज टूट गवा।"
"क्यों मारा उन्होंने सलोनी को,वह तो बहुत छोटी थी तब ?"
"हाँ, वह बिना पूछै रोटी खा ली थी।एहि लिए मारी उ माई-बिटिया।हमार सलोनी इतना डेराय गयी कि सांझ होत -होत उ बोखार से बुत होय गयी।ई सोच-सोच हमार करेजा फाट रहा था की बिटिया हाथ से निकल न जाये।सास-ससुर तो हमार सौत की दिमाग से चल रहे थे।उनका कहे का भी कुछ असर ना रहा।सोहना दूई दिन से घर नाय आवा रहा।पास-पड़ोस मा हम केहू का जनतै ना रही।फिर याद आवा उ बाबू साहेब भलमानस है।उनका लगे जाऊं त शायद दया मया कर दवाई दिलाई दें।अउर सच्ची मा उ आपन नोकर का भेज के दवाई मंगवाकर हमका दे दिए।बिटिया को दवाई खिलाये।बोखार तो उतर गवा पर रातभर उ कराहती रही दरद से।ओ नन्ही जान का हाथ हमरी सौत की बड़की बिटिया मरोड़ दी थी।
      भिनुसहरा जब सोहना आवा रहा तब ओकर गुस्सा सतवां असमान पै रहा।आते ही न आव देखा न ताव बस लात-घूंसा-थपरा डंडा जवन मिला ओहिसे हमका पीटे लगा।हमार बड़की बच्चियां हमका छुड़ावै आयी त ओके भी मारा।"
"पर सोहन तुम सबको मार क्यों रहा था.?"
"ओकर बेइज्जती होय गई थी न।हम बाबू साहेब से सहयोग मांग ली थी।उ गंदी नाली का कीड़ा त खुद ही था।अउर हमका कहा रहा कि ई रण्डी है हम त पहिले से ही जानै रहा।पर ई हमरे गाँव मा आकर रंडियापा करैगी ई ना बिस्वास होई रहा था।लेकिन उ कलुआ कहा हमसे की तोर मेहरारू त हरदम बाबू साहेब से मिलै जात है।दीदी हम त सोच भी ना सकित रहे कि सोहना काब्बों हमार बारे में एतना गंदा भी सोच सकित है।हम लाख सफाई दिए पर कउनो असर ना हुआ ओहपर।फिर त उ घर मा हमसे मार-पीट रोजे की बात होय गई।उ जब भी शराब पीके आवत रहा हमका पीटत रहा।हमार दूनो बच्चिन का बस बाप का नाम देवै खातिर ओका आ ओकरी घर वालन के अत्याचार सही रही थी।लेकिन मुस्किल से सालभर बीता रहा दीदी हमार धीरज तब टूट गवा
 जब हमार बच्चिन कै खाये- खाये का मोहताज करी दी ओकर पहिली मेहरारू।हम सालभर ओकरी घर-बाहर दूनो जगह जानवर अस खटै अउर बदला मा हमार बच्चिन का पेट भी ना भरे त का मतलब रहा उहां रहे का।
            दुनिया के कवनो महतारी रहे, सब अत्याचार सह सकित है पर बच्चन कै भूख आ पियास ना बरदास कर सकित।हम गलती किये रहा त ठीक भी हमका ही करै का था।परेसानी के हल खोजे ख़ातिर जइसे एकदिन भिनुसहरे फैजाबाद से रसूलपुर आयी थी ओइसहीं उहा से भी सबेरहिं दूनो बच्चिन का ली,आ हम महतारी बेटिन का दू चार गो जउन फटहा-पुरान कपड़ा रहा बांध के वापिस आय गयी।"
"अरे!किसी ने तुम्हें रोका नहीं.?और वह सोहन..उसने भी कुछ नहीं कहा?"
"अरे दीदी।उहां त इहे चाहत रहा सब लोग।सोहना भी त इहे चाहत रहा।"
"क्यों ?दूसरी ही सही।तुम उसकी पत्नी थी और दो बेटियों की माँ भी।"
"दीदी !हमरी बच्चिन का त उ कब्बो आपन माना ही नहीं।"
"फिर उसने तुमसे शादी ही क्यों कि..?"
"पइसा आ हमार घर ख़ातिर।ओके लगा रहा कि हमार महतारी घर मा रुपिया पइसा गाड़ी रही।बियाह होत ही उ सब ओकरै हो जावैगा
।पर बियाह त होय गवा लेकिन ओकरै हाथ कवनो खजाना नाय लगा।पहिले जवन सोहना हमपर जान लुटावत रहा उ बियाह होते ही बदल गया।छोट-छोट बात पर रोज तक-झक करता।उपर से जवन कुछ कमाता सब अपने घर भेज देता। जबतक अम्मा जियत रही उ ठाट से बेलाज-शरम के सूत- सूत खात रहा ओकर कमाई।लेकिन हमार अम्मा जब खटिया पकड़ी त उ धोखेबाज हमका दूई बच्चिन के साथ छोड़ी के भाग गवा।हमका त दीदी बहुत बाद मा समझ मा आवा कि उ बियाह के बाद एकदम से बदल काहें गवा।दरअसल उ त हमसे पइसा आ घर खातिर बियाह करा रहा।पर मिला कुछ नाहीं।इहाँ तक कि ई घर भी अम्मा हमार आ बच्चिन की नाम की थी।ओकरै ई बात भी बहुत अच्छे से मालूम रहा कि हम कबहूँ ओके ई घर ना दे सकित है।"
         पूरी बात ख़त्म करते-करते वह कई बार रोई।मैंने भी उसे जीभर रो लेने दिया।कभी-कभी रोना भी मन को सुकून देता है।मन की गांठे खुल जाती हैं रोने से।मनुष्य रोये न तो उसकी पीड़ा कुंठा में बदल जाएगी और कुंठित व्यक्ति खुद के लिए तो घातक है ही पर समाज के लिए भी हानिकारक है।शनिचरी ने अपनी पीड़ा को बहुत दिनों से सहेजकर रखा था शायद।अब वह उचित स्थान और कंधा पाकर बह रही थी।उसकी निश्छलता देखकर मन और दुःखी हो गया था।भला मासूम सी शनिचरी को छलने में सोहना का मन क्यों न पसीजा। 
"अच्छा एक बात बताओ शनिचरी..अब तो इस घटना को काफी दिन बीत गया।क्या तुमने फिर शादी-ब्याह की न सोची?"
"अरे दीदी अब का कहिन आपसे।ओह दिन सोहना की इहाँ से त ताव मा चलि आय रही।पर साच कहूँ तो इहाँ आये के बाद कुछ समझ मा नाय आवा रहा कि अब करें का।लेकिन पेट की ख़ातिर कुछ त सोचे का ही रहा।भईया -बहिनी लोग की सहयोग से हम दूई-चार ठो घर मा झाड़ू-बरतन धोवे- पोछे का काम त पाय गयी पर हमार बच्चिन का बचपन त छिन ही गया।पहिले तो दूनो को साथ लेके काम पर जायेका परा हमका।ओहपर से बहुत घर की मलकिन लोगन का हमार बच्चा लेके काम करना पसंद नाय रहा।केहू तरह से दूई साल बीता।हमार बड़की बच्ची सात साल की भई तब ओकरै भरोसे घर आ छोटकी बहिनी का छोडकै काम करै लागी हम।बहुत लड़ाई लड़ा हम महतारी-बिटिया ने।पर अकेली औरत ओपै मजबूर हो तो ई मरद लोग फायदा उठावै के मौका हाथ से ना जाये देत है।सहानुभूति दिखावे के बहाने बहुते लोग हमार साथ गलत करने का सोचे रहे।पहिले त हमहूँ का लागत रहा कि सब केतना बढ़िया लोग है।हम माँ-बिटिया क जिनगी भईया-बहिनी लोग की इहा हाथ-गोड़ चलाय अराम से कट जाय।पर जब हमार इज्जत आ सम्मान पर आंच आवा चाहत रहा त हमका लगा कि सचमुच ई दुनिया मा जियेका है तो कवनो मरद का हाथ सिर पै होवे का चाही।फिर का हुआ ..हम बियाह कर लिन्ह।सुरेंदर नाम रहा ओकर।एहि पेपर मिल मा ही काम करत रहा।पर दीदी आपसे हम कहत हैं आज की उ बियाह हमार जिनगी के सबसे बड़ भूल रहा"
"काहें ..?"मैंने पूछा।
"दीदी हम ई त पहिलहीं से जानत रहिन की उ शराबी हौ पर उ चरित्तर से भी नीच हौ ई हम ओकरै से बियाह की बाद जानी।दरअसल सच बात त ई रही कि ओह दहीदरा कै खराब नियत रही हमार बड़की पर।"
"क्या ?"मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।
"किरिया खाय रही हम आपन दूनो बिटियन कै दीदी।उ त हम हर घरी आपन आंख-कान खोल के रखत रहिन।हम ध्यान दिए कि उ हमार बड़की पर नज़र गड़ाये रहा।उ कब नहाती है खाती है आ सोती है उ सब धियान रखत रहा।हद त तब हुई जब एक रात उ हमार बड़की का हाथ पकड़ कै जबरदस्ती करे लगा।"
"अरे !यह कैसा आदमी ?वह भले ही सौतेला था,पर था तो पिता ही न।"
"अरे दीदी मत कहो कुछ।सुनो हमार बात।जब हम ओकरा रोके लागी तो उ हमसे कहा कि उसने मुझ दुआह आ चरित्तरहीन से बियाह ही एह लिए किया कि ई लड़की ओके मिल जाये।दीदी!हमका त ई सुनते काठ मार दिया।आ बस ओ दिन हम आखिरी बार फ़इसला ली कि अब कवनो मरद की जरूरत नाय हौ हमका।भगा दी हम ओ पापी का।आ तबसे हम आ हमार दूनो बच्ची ही रहत है इहाँ।और अब तो हमार बड़की गियारह बरिस की होय जावेगी अबकी फागुन मा।"
"हम्म।"मैं बस इतना ही कह पायी।वह साधारण दिखने वाली स्त्री इतनी असाधारण होगी मैंने तो सोचा भी नहीं था।कभी-कभी हम लोगों के पहनावे और रहन-सहन से उनके बारे में कितनी गलतफहमी बना लेते हैं।जिस शनिचरी को मैंने उसदिन ऑटो में देखकर नाक-भौंह चढ़ाया था आज मुझे उसके आगे अपना किरदार बौना लग रहा था।मेरा मनोविज्ञान धराशायी हो गया था। मैं क्यों न पढ़ पाई उसदिन उसे।
         खैर ,अब शाम काफ़ी हो चुकी थी और मुझे जल्दी ही घर पहुँचकर शनिचरी की जिंदादिल कहानी को सहेजना था।सो उसे फिर मिलने और उसकी बेटियों का अच्छे स्कूल में एडमिशन कराने का वादा करके लौट आई।
    






संक्षिप्त परिचय 
______________

नाम- डॉ. प्रतिभा सिंह
जन्मस्थान-ग्राम+पोस्ट-मनिहारी,जनपद-गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा-एम.ए. (इतिहास,शिक्षाशास्त्र),बी.एड.,पी-एच.डी.(इतिहास)
विधा-कविता,कहानी,उपन्यास,साक्षात्कार
प्रकाशित पुस्तकें-
        मन धुआँ-धुआँ सा है (कविता संग्रह)
    अस्सी घाट ओर प्रेम समीक्षा (उपन्यास)
      शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ
      पंचकन्या (पांच लम्बी कविताओं का          संग्रह)
     वह साँझ थी कि ठहरी रही (कहानी            संग्रह)
     वर्जित मार्गों की पथिक स्त्रियाँ(कविता       संग्रह)
स्थाई पता-ग्राम+पोस्ट -किशुनपुर,जनपद-आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)
सम्पर्क सूत्र-8795218771
मेल आईडी --prtibhagargisingh@gmail.com