मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014


                                    चालीस पार की औरतें 




जन्म लेने से मृत्यु तक  हम सीढी दर  सीढ़ी चढ़ते हुए  हर वर्ष उम्र की एक पायदान ऊपर चढ़ जाते हैं परन्तु कुछ पड़ाव ऐसे होते हैं जिनका हमारे तन -मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसी में एक पड़ाव है उम्र का संध्या काल यानि ४० के वय  के पार का समय।बचपन मीलों दूर पीछे छूट गया ,बुढ़ापा  अभी दूर है। …………  बालों में सफेदी झाँकने लगी है ,विचारों में परिपक्वता आनी शुरू हो  गयी है।जरा -जरा सी बात में उत्तेजना नहीं आती ,मन शांत रहने लगा  है।  यू तो चालीस पार का समय स्त्री पुरुषों दोनों के लिए एक अलग अहसास ले कर आता है ,पर स्त्रियों पर इसका असर कहीं ज्यादा है  ………इसका कारण  स्पष्ट है.……… बच्चे बड़े हो गए हैं ,नैपी बदलने से हल्दी और तेल सने आंचल से  थोड़ी सी आज़ादी मिली है, थोड़ा सा अपने लिए सोचने का समय मिला है।कुछ शारीरिक प्रक्रियाओं से आज़ादी मिली है। जीवन के प्रति नज़रिये में परिवर्तन आया है। ………इतना सब कुछ हो जाये और कवि का ध्यान न जाये ऐसा तो हो ही नहीं सकता। …………चालीस की उम्र मेँ लेखन के क्षेत्र मेँ आज कयी सशक्त हस्ताक्षर हमारे बीच मौजूद हैँ । इनके पास अनुभव का भण्डार . समय की नब्ज टटोलती ये महिलाऐँ सधे कदमेँ से अपनी उडान को तत्पर हैँ । चालीससाला औरतोँ का ये विस्तार अदभुत है ।
प्रस्तुत है एक साथ इन कवियत्रियों की कविताऐँ ,आशा है आप इनके विचारों से सहमत होंगे   ………… वंदना बाजपेयी (सह सम्पादिका -गाथान्तर )

Anju Sharma


अंजू शर्मा 


चालीस साला औरतें

इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी 
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद


अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम


कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर


वे बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से 
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से 
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से   
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि


वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे  
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,


ये जो फैली हुई कमर का घेरा है  न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में

ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं 
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं 
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,   

ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं 
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है 

अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती हैं शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,

पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,

जी हाँ,  वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं.................



सुशीला शिवराण


चालीस साला औरतें
मुर्गे की बाँग से पहले
जग जाती हैं चालीस साला औरतें
घड़ी के अलार्म से पहले
घनघना उठता है उनके मन का अलार्म
पाँवों में लग जाते हैं पहिए
बल्ब, ट्यूब-लाईट की रोशनी को
मात देती हैं तीन-चार बर्नरों की लौ
मशीन हो जाते हैं हाथ
उम्र को धता बताते हुए।
कलफ़ लगी सलीके से पहनी साड़ी
सधे क़दमों से बढ़ती हैं गाड़ी की ओर
रसॊईवाले हाथों की
चपलता, सतर्कता
संभाल लेती है स्टीयरिंग
कलियों-सी मुस्कान बिखेरती
फूलों-सी महक लिए
दफ़्तर में दाखिल होती हैं
चालीस साला औरतें।
थकी-हारी पहुँचती हैं घर
एक चुस्की चाय
चहकते बच्चों की मुस्कान
भर देती है ऊर्जा से
बच्चों की पढ़ाई
दफ़्तर की गुफ्तगू
घर की बातें
समस्याएँ, चुनौतियाँ
चाँदी बन झाँकने लगती हैं
सुरूचि से बंधी केशराशि से
बच्चों की उपलब्धियों से
हो जाती हैं गरिमामयी
बच्चों की ट्रॉफियों की चमक से
दिपदिपाती हैं चालीस साला औरतें।
तृप्त मन लिए
रसोई में हो जाती हैं अन्नपूर्णा
कामवाली बाई अचरज से देखती है इन्हें
दीदी कभी थकती नहीं !
रात के खाने पर
पुडिंग में घोल देती हैं
ढेर-सी नेह की मिठास
बच्चों की तारीफ़ से
पिया की नेहभरी चितवन से
हो जाती हैं बाग़-बाग़
चालीस साला औरतें।
बिस्तर पर निढाल
थका तन, ताज़ा मन लिए
अगले दिन का ख़ाका बना
बेहद सुकून की
सबसे मीठी नींद सोती हैं
चालीस साला औरतें।
- सुशीला शिवराण


वीणा वत्सल सिंह
वीणा वत्सल सिंह 
चालीस पार की औरतें 
***********************
कुछ कच्चे कुछ पके सपनों की 
दहलीज पर खडी होती हैं 
चालीस पार की औरतें 
जीवन के सच को पह्चानती 
कर्तव्यों की वेदी पर 
स्वयं को चढ़ाए होती हैं 
चालीस पार की औरतें 
इन्हें अब 
दूध का उफन कर गिरना 
उद्वेलित नहीं करता 
हाथ से छूटकर 
शीशे का टूटना 
इनके ह्रदय की आहट नहीं होता 
ये हर छोटी - बड़ी घटनाओं का 
सच पहचान लेती हैं 
चीडियों की चहचहाहट पर 
पहले की तरह उमग कर नहीं हँसतीं
बस ,मुस्कुराकर 
बच्चों को उनके चहकने की महत्ता 
बताने लगती हैं 
चालीस पार की औरतें 
एकदम अलग होती हैं 
एक अल्हड किशोरी 
और अपने से कम उम्र की औरतों से 
चालीस पार कीऔरतें 
पुरुष में प्रेम नहीं 
प्रेम में पुरुष को 
तलाशती हैं 
जीवन के कड़वेपन को 
आँसुओं के साथ घोल 
चुपचुपाप पीने में 
माहीर होती हैं 
ये चालीस पार की औरतें 

DrSony Pandey

सोनी पाण्डेय 
उम्र के चालीसवे पायदान पर . . . . .
भाग -1
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर
खडी मैँ देख रहीँ हूँ पलट कर
जीवन अध्याय ।
जीवन कभी अल्मस्त , अल्हड सी गाँव की गुईयाँ संग खेले गये
गुड्डे और गुडिया की कहानी तो
कभी माँ के गीतोँ मेँ पिरोये
राजा और रानी के जीवन संघर्ष की कहानी लगता है ।
धीरे - धीरे छूटते गये
रेत की तरह फिसलते गये
मुट्ठी मेँ कैद बचपन के स्वप्न
किशोर मन की आकाँक्षा
वो पहले प्रेम - पत्र की गुदगुदाहट
और युवा मन की बेचैन अभिलाषाओँ का अर्न्तद्वन्द
कैद ही रहा चौखट के भीतर
तुलसी के चौरे पर बँधे कलावे की तरह जीवन आँगन और गलियारे के मध्य भटकते हुए
बीत गया संस्कारोँ के बिहड मेँ
जीवन के बीस वर्ष ।
उम्र के चालीसवेँ पायदन पर बैठी निहारती हूँ
जीवन के मध्य का इतिहास
तो पाती हूँ सर्वत्र अपने मैँ का बिखरा हुआ भग्नावशेष
और कण्ठ तक रुका पडा विष
जो अभी तक रुका है ठीक ह्रदय के ऊपर
बैठी हूँ बनकर नीलकण्ठ ।
बीस के बाद मैँ पृथ्वी के रंगमँच पर ,
निभाती रही माँ , बहन , बेटी .बहू .पत्नी का किरदार
पाती रही स्वर्णपदक
मार कर खुद के अस्तित्व को ।
बचपन छूट गया . पीछे . बहुत पीछे
चलता रहा समय चक्र ।


भाग - 2
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर बैठी 
मैँ देख रही हूँ . बीते हुए पतझड और बसन्त
वर्षा और धूप
पाती हूँ
मेरी उँगली थाम चलने वाले पौधे , भाग रहे हैँ सरपट
निबटा चुकी हूँ जीवन के साठ प्रतिशत काम
फिरभी कुछ रिक्त है ।
अब थक चुकी हूँ बुहारते हुए आँगन
चढते हुए मन्दिर की सीढियाँ
आस्था - अनास्था का द्वन्द
जारी है
अब नहीँ लगती मुझे देवी की मूर्ति ,सच्ची
वह पुरुष सत्ता की साजिश के तहत
कैद , मन्दिरोँ मेँ
उपयोग की हुई वस्तु लगती है ।
और मैँ निकल पडी हूँ अब
तलाशने , अपना अस्तित्व
हाँ
उम्र के चालीसवेँ पायादन पर
मैँ खुद को पहचाने लगी हूँ
इस लिये माँग लायी हूँ
कुम्हार से चाक
कुछ शब्दोँ की गिली माटी का लोना
और गढ रही हूँ
हाशिये पर बिखरे हर्फ़ से
जीवन का मजबूत गढ
जहाँ चल रही है कोशिश
रचने की . एक नयी कहानी ,
क्योँ कि मैँ जान चुकी हूँ कि
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर , एक बार फिरसे
जन्म लेती है औरत ,और लिखती है
जीवन की कहानी
यहाँ कोयी राजा है न रानी ।

भाग 3 .
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर
बैठी , देख रही हूँ
कि , अब मैँ जीवन समर मेँ
ठहरी हुयी , स्थिर मैदानी नदी हूँ ।
अब नहीँ आते स्वप्न रंग- बिरंगे
नाचते , गाते , रुठते , मनाते
बचपन के ।
युवा मन की तरंग , जो बहा ले जाना चाहती थी
तमाम बेमानी वर्जनाओँ को ।
अब मैँ शिकायत नहीँ करती पिता से
कि क्योँ ब्याह कर भेज दिया
पराये देश ।
अब मैँ निकल पडी हूँ निश्चिँत
खुद की तलाश मेँ
निभाते हुए डयोढी की शर्त ।
शारीरिक . मानसिक . सामजिक , अनुबन्धोँ को धीरे - धीरे रख रही हूँ
तुलसी के चौरे पर बने ताखे मेँ
और खोज रही हूँ अपने हिस्से का आकाश
लिख रही हूँ " बदनाम औरतोँ " का सच
दर्ज कर रही हूँ " तीसरी बेटी का हलफनामा "
अब देवालयोँ मेँ नहीँ लगाती आस्था के फेरे
ये समय बीतता है अनुभव के पुस्तकालय मेँ
पढती हूँ . रचती हूँ . देखती हूँ .
सुनती हूँ, जीवन समर मेँ
गुनती हूँ , चुनती हूँ समुद्र से कुछ मनके
और सजा देती हूँ टूटती हुई वर्जनाओँ के द्वार पर टाँक कर तोरण मेँ ।
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर ।

भाग . 4
उम्र के इस पायदान पर
मुक्त हो शारीरिक अनचाही
क्रियाओँ से औरत निश्चिँत एक नया अध्याय लिख रही है
अब गीता , मानस , मन्दिर की परिक्रमा छोड , रच रही है
शब्दोँ की तुलिका से यौवन के गीत ।
हाँ मैँ देख रही हूँ कि ये औरतेँ अपनी दमित इच्छाओँ को फिरसे जगा ,रंग भर रही है सपनोँ के खाली कैनवास पर ।
ये जानती और पहचानती हैँ धरती की गहराई और आकाश के विस्तार को . इस लिये सधे कदमोँ से भरतीँ हैँ उडान ।
ये तितली के मन की बात सुन सकती हैँ और भँवरोँ के मधुर गान के धुन पर नाच सकतीँ हैँ
दिखा सकती हैँ अपने सधे कदमोँ का हुनर . जहान को ।
ये औरतेँ जो केवल जीती रहीँ
वर्जनाओँ के दायरे मेँ जीवन
अब निकल रही हैँ ठीक पृथ्वी की नाभी से लेकर अमृत कलश
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर ।
सोनी पाण्डेय

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सभी ने अद्भुद लिखा । चालीस की अवस्था तो एक ऐसी अवस्था जहाँ प्रकृति स्वयं उम्र के इस पड़ाव को सूचित करने लगती है ।

    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई ।
    इन रचनाओं के चयन के लिए आदरणीया बाजपेई जी का हार्दिक आभार।

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  2. हमारे इस प्रयास की सराहना के लिए आपका आभार नवीन मणि त्रिपाठी जी

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  3. सबकी सोच क्रमशः अर्थवान है
    एक नहीं, कई बार पढ़ा है

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