शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

                                                            “नियति “




जंगल के आग की तरह बात फैली। हवा की दिशा जिधर होती बात की लपट उधर ही तेज हो जाती। दो चार लोग जहाँ भी खड़े होते बात की आग में घी डालने लगते। कुछ लोग धनेसर काका के गुहाल के आगे खड़े खड़े इसी बात को मथ रहे थे। वीरो दा पसीना पोछते हुए बोले, कलजुग है, कलजुग-----नहीं तो राधेश्याम पंडित जी के घर ऐसा अनर्थ -----वो टीका, चंदन, जनेउ, पूजा-पाठ वाले आदमी -----धर्मात्मा आदमी। पूरा गाँव कितना आदर देता है उन्हें। चेहरे पर तटस्थता का भाव लाते हुए बोले, पर ऊपर वाले के आगे किसकी चली है  !

झुनझुन दा बीच में ही बोल पड़े, बेचारे की उमर ही क्या थी, बड़ी मुश्किल से तो कालाजार से जान बची थी, ऐसा क्या हो गया कि ------

राघो बड़ी देर से कुछ कहना चाह रहा था, अब उससे रहा नहीं गया, बोल ही पड़ा, तुम क्या समझोगे दादा भितरीया बात, सब उसकी घरवाली का ही किया धरा है, क्योंकि पंडित-पंडिताइन तो थे ही नहीं, आजकल की जनानी थोड़ा भी ऊँच-नीच सह नहीं सकती, ऊपर से इन औरतों का तिरिया चरित्रर समझना भी मुश्किल है।

पर जिसे लेकर ये सब बातें हो रही थीं, उंगलियां उठ रही थी, वो इन सब के बीच रहकर भी अपनी वेदनाओं और मौन की दुनिया में थी।  

२४-२५ साल की विमला, सूनी मांग, सूनी कलाई, खुले बाल और उजले कपड़ों में मूर्ति की तरह अचेत बैठी, शून्य में देख रही थी। किसी की कोई भी बात उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं ला पाते।

पंडिताइन भी श्री-हीन और शोकाकुल थी। थके कदमों से बरामदे से होकर आती हुई आँगन में एक किनारे बैठ गई। दो-चार औरतें भी वहीं बगल में बैठी थी।

उन औरतों को देखकर पंडिताइन रुआंसी होकर कहने लगी, क्या कहूँ बहन, किस जनम का पाप नसा गया ----- एक ही बेटा ----- मेरे कुल का दीया ----- सब अंधेरा करके चला गया ----- अब किसके सहारे  दिन कटेंगे।

आँचल से आँखें पोछती हुई, ऊपर वाले से यही करम में लिखवा कर लायी थी। बगल में बैठी सभी औरतों की आँखों में आँसू गए। सोनवरसा वाली पंडिताइन को चुप कराते हुए बोली, दीदी धीरज रखो-----, ऊपर वाले से कौन लड़ सकता है !
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गोपाल को इस दुनिया से विदा हुए कई दिन बीत चुके थे। अड़ोस-पड़ोस का माहौल सामान्य होने लगा था। पर जिसके जीवन में ये भूचाल आया था वो भला कभी सामान्य होने वाली थी।

अगर वो रात काली होती तो उसके जीवन में यूँ अँधेरा नहीं छाता। शाम के धुंधलके में घर के पिछवाड़े में बैठी विमला यही सब सोच रही थी। अगर उसने ये सब बातें गोपाल को बताई होती तो शायद आज अपने सुहाग को अपनी आँखों के सामने पाती। उसकी ही गलती थी, सहन कर लेना चाहिए था उसे। जी ही तो रही थी, कई महीनों से इन सब के साथ, कुछ ज्यादा हो गया तो क्या हो गया, कितनी औरतें जीती हैं ऐसे मर-मर के।

ऐसी ही तो वो रात थी जब ठंडी हवा के नाग ने उसे डँस लिया, जब काली रात सब काला कर गई। जब वो गोपाल को नींद की दवाई देकर सुला आई थी।  डॅाक्टर ने कहा तो था खतरे से बाहर है पर पूरे आराम की जरूरत है। ऐसी कोई बात हो जिससे इसके मन को थोड़ी सी भी ठेस लगे। पति को सुला कर धीरे से कमरे से बाहर आकर आँगन में खटिया पर लेटी ही थी। पता नहीं कब आँख लग गई, जाने रात का वह कौन सा पहर था जो उसके जीवन में ग्रहण लगा गया।

अपनी लुट चुकी इज्जत की लाश लिए वो बदहवास सी सरपट दौड़ती हुई गोपाल को जाकर कसकर पकड़ लिया। ऐसे जैसे की पानी के तेज बहाव में बहते बहते उसे कोई किनारा, कोई सहारा हाथ लग गया हो। दहाड़े मार मार कर रोने लगी। हाथ से आँगन की ओर इशारा करते हुए थरथराते हुए बोली, वो गया -----, चला गया। अचानक से उसके इस व्यवहार से गोपाल हड़बड़ा गया। पलंग से उठ बैठा। विमला को पकड़ते हुए बोला, क्या हो गया ------कौन चला गया। वो तो बस रोते ही चली जा रही थी। ये रोना, बस उसका रोना भर नहीं था। ये  उसके अंत:करण का चीत्कार था जो आँसू और अस्पष्ट शब्दों से निकल रहा था। हाँ ---हाँ, वो ---वो गया, चला गया !
कौन ?
तुम्हारा बाप
कहाँ गए, क्या हुआ उन्हें  ?
गोपाल को अपने पिता के किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी। विमला को झकझोरते हुए ----कहाँ गए, साफ साफ बताओ तो।

गोपाल उठकर अपने पिता को देखने कमरे से बाहर जाने लगा कि विमला ने उसके हाथ को और कसकर पकड़ते हुए बोली, मुझे लूट कर गए ! इतना सुनते ही गोपाल पर जैसे वज्रपात हो गया, उसकी बुद्धि को जैसे लकवा मार गया। वो उसे निष्प्राण विमला को देखता रहा। विमला रोती और बोलती जा रही थी।
मैं कहती थी , वो अच्छा आदमी नहीं है -----, कई महीनों से मेरे पीछे पड़ा था। हिचकियाँ लेते हुए, तुम्हें भी तो कितनी बार बताया, पर तुम्हें लगता था, मैं गलत समझ रही हूँ। तुमने भी तो देखा था, वो कैसी नजरों से मुझे ------ पर तुम चुप रह जाते थे और हर बार मुझे ही समझा कर चुप करा दिया।

गोपाल को झकझोरते हुए बोली, दुनिया का डर था तुम्हें, अब बताओ दुनिया को क्या मुँह दिखाऊंगी------- तुम्हारी चुप्पी ने तो------ वो जमीन पर बैठ कर रोने लगी। तुम्हारी बीमारी ने मुझे तिल-तिल कर मारा और तुम्हारे बाप ने तो मुझे मार ही डाला। वो रोती रही बोलती रही, बोलती रही। गोपाल चुपचाप पत्थर की तरह शून्य में निहारता रहा।

रात जो अपनी गोद में सबको आराम देती है, वही रात किसी का जीवन भी छीन लेती है। ये रात कितना कुछ कर गई। राधेश्याम बाबू मुँह अंधेरे ही अपना  मुँह छिपाये, बिना बताये ही घर से चले गए। पंडिताइन भी दस दिन पहले ही शादी में नैहर चली गई थी।

दिन चढ़ते चढ़ते विमला रोते रोते थक चुकी थी। मन में प्रश्नों की आंधियां चल रही थी। अगर सास होती तो शायद ये नहीं होता। फिर उसके चेहरे पर कठोरता का भाव आया। होता, क्यों नहीं होता, इतने दिनों से उनके सामने ही तो ये सब होता रहा था, वो क्या नहीं समझती थी  ? सब समझती थी, औरत की तीसरी आँख भी तो होती है जो मर्द को ऐसा कुछ करने से पहले ही भाँप लेती है।

अंदाजा था, तभी तो जब कभी मैं कपड़े धोती, खाना बनाती तो बिना किसी काम के वो बार-बार खड़ाऊँ खट खट करते आते जाते रहते। वो गुस्से से तमतमा जाती, फिर मुझे देखती और उन्हें भी। पर गुस्से को अपनी आँखों में ही रोक लेती।

औरत थी तो फिर मेरी दशा क्यों नहीं समझ पाई ? क्या औरत ही औरतों की दुश्मन होती है  ? या फिर किसी भी हाल  में अपने पति पर उंगली उठने देना नहीं चाहती, ऐसी हालत में औरतों का चुप रह जाना, पति को खोने का डर, समाज का डर, अपने संस्कार का डर, क्या यही सब रोकता है उसे।

ये सभी प्रश्न विमला के हृदय में तीर की तरह चुभ रहे थे।
क्रोध एक सीमा के बाद अपना सर पटक पटक कर, थक कर थोड़ी देर के लिए शांत हो जाता है। ऐसे में कुछ पल के लिये ही सही बुद्धि सोचने का काम करती है। थकी हारी लुट चुकी विमला बड़ी देर से यही सब सोच रही थी, कभी उसे अपने पति पर क्रोध आता तो कभी दया भी आती। एक दिन जो कभी पंख पसार कर उड़ जाता है, वो कभी युगों में भी बदल जाता है। आज का दिन बीत नहीं रहा था। पर बीता ऐसा कि जाते जाते गोपाल को अपने साथ लेता गया। उसने आत्महत्या कर ली।

अब विमला के पास रोने के लिए और खोने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। उसके लिए जीवन और मृत्यु में कोई अंतर नहीं रहा। इज्जत और सुहाग, दोनों से शरीर और जीवन रिक्त हो गया। टूटी चूड़ियां और धुल चुके सिंदूर भी उसकी आँखों में आँसू नहीं ला सके। सब आँखों के सामने घटता गया, घटता गया, वह देखती रही, देखती रही।
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श्राद्धकर्म समाप्त हुए कुछ दिन हो चुके थे। अब पंडित जी, पंडिताइन और विमला को छोड़ कर घर में कोई नहीं बचा था। टोला पड़ोस वाले, खासकर महिलाओं का आना जाना लगा रहता, कुछ तो सहानुभूतिवश आते और कुछ तो बातों की टोह लेने आते। गोपाल की आत्महत्या सबके लिए कौतूहल का विषय थी पर बात अभी भी चौखट के अंदर ही थी।

पंडिताइन मुट्ठी में ये बात कसकर दबाये थी कि विमला माँ बनने वाली है, पर वो ये अच्छी तरह से जानती थी कि ये बात अधिक दिनों तक छुपने वाली नहीं। वो कई बार विमला से इस बारे मे बात करना चाहती थी पर वो तो पत्थर बन चुकी थी और पत्थर भला कब सुनते हैं। पंडिताइन भी पत्थर पर लगातार सर पटके जा रही थी। उसे कई बार समझाया, डाँटा, फटकारा।

आज फिर पंडिताइन विमला के कमरे में धीरे से आकर किवाड़ को अंदर से बंद कर दिया और बिछावन पर बैठ गई। चेहरे पर दिखावटी ममता का भाव लाते हुए विमला का पीठ सहलाते हुए बोली, हमारे भाग्य में ये दुख लिखा था। वो तो चला गया, आँखें पोछती हुई फिर थोड़ा रुक कर बोली, घर की इज्जत के बारे में भी कुछ सोचो। बात यहीं खत्म करो, इसके अलावा तो कुछ बचा नहीं है हमारे पास ------, दुनिया थू थू करेगी, गोपाल का तो नहीं हो सकता, बेचारा महीनों से कालाजार से अधमरा था। सब तुम्हें क्या क्या नहीं कहेंगे  हमसे तो देखा नहीं जाएगा। समझाते समझाते वो विमला से और सट कर बैठ गई और उसका बाल सहलाने लगी।

कई दिनों से ये सब सुनते सुनते आज विमला के कलेजे में दबी आग भभक उठी। तेजी से उठकर बैठते हुए बोली, क्यों बात यहीं खत्म हो जाएगी ! सास को एक टक जला देनेवाली नजरों से देखते हुए बोली, पहले तो आपने ही कहा था, बच्चा रहने दो, जो होगा आप संभाल लेंगी। यही सोचा होगा कि अगर बेटा हुआ तो कम से कम वंश तो चल ही जाएगा। गुस्से में उठकर खड़ी होते हुए बोली, तो अब क्या हो गया, जबरदस्ती पता करवाया तो पता चला कि वंश नहीं चला पाऊंगी मैं ----- तो इसे कोख में ही खत्म कर दो। लगातार जोर जोर से बोलते हुए विमला हाँफने लगी, अब समझी आप के चुप रहने का मतलब, इतना कुछ हो गया और आप का मुँह नहीं खुला -----सोचा होगा कैसे भी हो घर को तो बेटा मिल जाएगा। थोड़ा रुक कर अपने चेहरे पर निर्णयात्मक भाव  लाते हुए बोली, तो सुन लीजिये -----मैं इसे जन्म दूँगी।

इतना सुनते ही पंडिताइन के सब्र का बाँध टूट गया। गुस्से में विमला का बाल खींचते हुए बोली, चुप कर रांड-----कुलछनी------बड़ी देर से सुन रही हूँ करमजली, तुम ने ही दिखाया होगा अपना तिरिया चरित्तर, मरद का क्या दोष, जब तुम अपने को ही नहीं संभाल पाई। विमला को धकियाते हुए बोली, मुझे जवाब देती है, बेटी जनेगी तुम। हमारी छाती पर दाल दरेगी, आगे पीछे कौन है तेरा। सुन ले, ये मेरा घर है और मेरे रहते ये सब नहीं होने वाला ----- समझी !

विमला को धमकाते हुए पंडिताइन बोली, अगर भूल से भी उनका नाम तेरी जीभ पर आया तो जिंदा नहीं छोड़ूँगी। पूरी दुनिया में थू थू करायेगी, बड़ी आई ----- कौन भरोसा करेगा तुम पर, अपनी और दुर्गति मत करा। इतना कहकर वो बाहर जाने लगी, फिर पलट कर चेहरे को और कठोर करते हुए कहा, कल डॅाक्टर के यहाँ जाने के लिए तैयार रहना। ये बोलकर पंडिताइन जोर से दरवाजा पटकते हुए तेजी से बाहर चली गई। विमला अपनी कोख को हाथों से पकड़ कर अपने भाग्य पर बहुत देर तक रोती रही।

बात धीरे धीरे हवा के सहारे घर से बाहर जाने लगी। सभी को पता था कि आज शाम विमला को शहर जाना है, पर क्यों, इसका अंदाजा किसी को नहीं था। इसलिए जितने लोग उतनी बातें होती रहीं।

विमला आज सुबह से अधिक बेचैन थी। बार बार उसके चेहरे पर कई भाव आते जाते। बेचैन कदमों से ओसारे में वो आई ही थी कि कुछ औरतों की फुसफुसाती हुई आवाज उसके कानों तक पहुँच गई। इतना सुनते ही लगा जैसे उसके चेहरे पर अचानक सोया ज्वालामुखी जाग गया हो। अंदर ही अंदर जमा होते रहे क्रोध, अपमान, डर सब लावे के रूप में फूट पड़े। चारों ओर दहकती लावा बहने लगी, शब्दों की अग्नि बरसने लगी। हाँ ------पाप है मेरे पेट में। कोख को पकड़ते हुए, जाने कितने लोगों के नाम मेरे साथ जोड़े गए और अभी कितनों के साथ और जोड़े जाएंगे -----हाँ, मैं कुलटा हूँ, जो करना है कर लो।

अचानक घर की बहू के इस व्यवहार से सब लोग अचंभे में पड़ गए। तमाशा देखने और भी लोग वहाँ पहुँचने लगे। उधर पंडित जी घर के अंदर हो रहे शोर को सुन कर हड़बड़ाते हुए खड़ाऊँ खटखटाते हुए अंदर गए। बहू का ये रौद्र रूप देखकर वो स्तब्ध हो गए। खुले बाल,अस्त व्यस्त कपड़े, फूलती साँसें और तरेरती आँखें, जैसे आग बरसा रही थी। जब तक क्रोध सोया रहता है, शांत मन, शरीर की पहरेदारी करता है पर जब क्रोध विकराल होकर फूट पड़ता है तो ज्वालामुखी ही इसका पर्याय बन सकता है। दहकता ज्वालामुखी, जिससे आग और लावा निकलता है। फिर, शरीर क्या और उसकी मर्यादा क्या ------ !

पंडित जी कुछ ही पलों में सब समझ गए। उनके चेहरे का रंग काला पड़ गया। वो सभी औरतें जो विमला को दर्शक बनी घेरे थी अचानक समझाने की भूमिका में उतर आईं। धरमपुर वाली चाची अपने माथे पर आँचल खींचते हुए बोली, अब तो इसे जरा भी लाज नहीं, जो मुँह में आया, बके जा रही है-----ससुर सामने खड़े हैं, सिर पर आँचल पर्दा इसकी तो मत ही मारी गई है, कोई बोल रही थी तो कोई विमला को पकड़ कर शांत करने में लगी थी और बाकी जो बचे थे एक दूसरे के कानों में खुसुर फुसुर करने में लगे थे तो कोई आँखों ही आँखों में बाातों को इधर उधर कर रही थी।

राधेश्याम बाबू ये सब देख कर घबड़ाते हुए गमछा संभाल बाहर जा ही रहे थे कि आंधी की तरह विमला उन पर टूट पड़ी। उनके हाथों को खींचते हुए क्रोध से काँपती विमला बोली, क्या तुम भी यही कहते हो !

अचानक विमला के इस अप्रत्याशित हमले से पंडित जी हड़बड़ा गए। अपने आप को विमला से छुड़ाते हुए बोले, ये क्या कर रही हो बेटी ------, तुम तो -----  ?
क्यों अब याद आया  ?
मैं बेटी हूँ  !
पंडित जी उधर देखने लगे।
उस रात को कैसे भूल गए  ?
हर रिश्ते की दुहाई देती रही, पर एक ना सुनी तुम ने  !
अपने पेट पर हाथ रखते हुए विमला बोली, ये पाप है या फिर मैं पापिन हूँ ----- या तुम  !
इस बात को सुनते ही सभी स्तब्ध रह गए। कुछ क्षण के लिए माहौल समझ नासमझ के दायरे से बाहर हो गया। सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगे। पंडित जी को काटो तो खून नहीं।

इतने में पंडिताइन जो किसी काम से कुछ देर के लिए घर से बाहर गई थी, गई। घर में व्याप्त विकट स्थिति देख आनन फानन में आकर विमला को पंडित जी से अलग करने के लिये खींचने लगी और परिस्थिति को नियंत्रित करने के लिये बोली, मैं पहले ही कहती थी -----इस पाप को घर से बाहर करो-----सबका नाश कर देगी करमजली-----मेरे बेटे को तो खा ही गई -----अब किसको खायेगी। विमला को धक्के मारते हुए पंडिताइन अपना आपा खोते हुए बोली, जब मेरा बेटा ही नहीं रहा तो तुम मेरी कौन है, निकल यहाँ से ------निकलती या फिर ----- घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल रहा था कि सभी बस चकित होकर देख रहे थे। जो जिसे देखता वही प्रश्नों की ढेरी पर बैठा नजर आता।

पंडिताइन विमला को चौखट से बाहर घसीट रही थी और विमला एक हाथ से किसी तरह किवाड़ को पकड़े अपने को रोकती हुई बोली,
नहीं जाऊंगी यहाँ से ----
नहीं जाऊंगी, जब इतना पाप किया है तो एक पाप और -----
मुझे यहीं मार डालो, इसी घर में-----मार दो-----मार दो, बोलकर जोर जोर से दहाड़ें मार मार कर रोने लगी जैसे बादल फटने पर पानी का रुकना मुश्किल हो जाता है उसी तरह उसके आँसू रुक नहीं रहे थे।

इस आँसू और लांछन में पंडित जी के इतने दिनों का मानसम्मान तिनके की तरह डूबने लगा। पर उनकी कुशाग्र बुद्धि ने बात हाथ से बाहर निकलते देख झट इस घटना पर बुद्धि का पर्दा डाल दिया।

धोती संभालते हुए पंडित जी नाटकीय अंदाज में पंडिताइन के पास जाकर विमला को छुड़ाते हुए बोले, ये क्या कर रही हो गोपाल की माँ, छि: ----- तुम्हारा ऐसा व्यवहार शोभा देता है, इसकी दशा नहीं देख रही। पंडिताइन अकबका कर पंडित जी का मुँह ताकने लगी। पंडित जी विशेष ममता दिखाते हुए बोले, जिसके ऊपर दुखों का पहाड़ टूटा हो उसकी बुद्धि क्या काम करेगी ----- बेचारी ! पागल हो गई है ! तभी तो जो मुँह में आया बके जा रही है।

विमला हतप्रभ होकर पंडित जी का मुँह देखने लगी। उसे कुछ समझ नहीं रहा था। अब ये कौन सा नया खेल हो रहा था उसके साथ।

पंडित जी ऊपर की ओर देखते हुए बोले, भगवान ने जो कुछ भी किया उसकी मर्जी, क्या हम भी इसकी दशा नहीं समझें। थोड़ा रुक कर, जिसका भी पाप हो हमारे सिर रहेगा ----- पागल हो गई है बेचारी, ऊपर वाले का दंड है, हमें तो किसी तरह भोगना ही है, बेटे के बाद ये दिन भी देखना बचा था।

विमला विरोध करती रही, गरजती रही, चीखती रही, सब के सामने नंगे सच को खड़ा तो कर दिया उसने पर हाय रे मिथ्या समाज, सभी उसे पागल समझ रहे थे और जो सच समझ गए वो भी अपना मुँह बंद किए हुए थे 


सिनीवाली



                                       
                           (चित्र गूगल से साभार )

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