शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

बुद्धि शुद्धि महायज्ञ


बुद्धि शुद्धि महायज्ञ

तनी एक प्लेट फटाक से दीजिए .......जगत मिसिर कह लाईन में लग गये.....
बड़े से स्टील के प्लेट में भर कर मंसूरी चावल और गमगम -गमकते गरम मसाले की गाढ़े रस्से की तरकारी देख आँखें भर आईं ......मारे भूख के अतड़ियाँ लहक रही थीं ।पेट में चूहों की धमा -चौकड़ी मची थी। पिछले चौबीस घण्टे से अन्न के दाने से भेंट नहीं हुआ था।
                         हुआ यह कि जगत मिसिर बी.एड. कालेज के सहपाठियों संग आगरा शैक्षिक भ्रमण को चले थे। पहले आज़मगढ़ से साठ की संख्या में लड़के -लड़कियाँ तय समय पर बनारस पहुँचे.....शिक्षकों ने मरुधर एक्सप्रेस की एक बोगी पहले से रिर्जव करा रखी थी। कैण्ट स्टेशन पर शिक्षक -शिक्षिकाओं का दल पहले से ही उपस्थित था। .... ,साथ में दो चपरासी ।आते पता चला ट्रेन एक घण्टे लेट है  .....फिर देखते -देखते एक्कम का चाँद पूर्णिमा को प्राप्त हुआ और पूरे आठ घण्टे बाद ट्रेन चली ।चलते वक्त माँ ने आठ -दस पूड़ियाँ और आलू -गोभी की सब्जी अखबार में लपेट कर दिया था जो स्टेशन पर ही सफाचट हो गया ....लगभग सभी छात्रों का यही हाल । गाड़ी हिचकोले खाते चली ....जगत मिसिर पहली बार किसी ऐतिहासिक जगह के भ्रमण को जा रहे थे ....मन रोमांचित था ....प्रेम की निशानी ताजमहल आँखों के सामने नाचने लगी ....खिड़की से ठण्डी हवा का झोंका गालों को सहलाने लगा तो मन नदी में भावों के लहर मचल उठे ।याद आई अनीता.....सोचने लगे ,नौकरी लगते अनीता से पहले शादी करेंगे और  साल भीतरे  आगरा घूमाऐंगे । बोगी में कुछ लड़के -लड़कियों की सेटिंग पहले से थी....उनका समूह एक -दूसरे के आमने- समाने के बर्थ साथियों से अनुनय -विनय कर फिट कर चुका धा। शिक्षिका मनोरमा राय अपने साथ दोनों बच्चों को लेकर आई थीं ....उन्हीं में व्यस्त -मस्त।हंसराज सिंह भी अपनी नवेली दुल्हन के साथ सबसे किनारे के बर्थ पर अपनी दुनिया में मगन,हाँ हेड माथुर साहब जरुर हरकत में थे।चलीस लड़के/बीस लड़कियों के दल को सम्हालना आसान नहीं था । अक्टूबर की सिहरन भरी शाम में पसीने से तर -बतर घूम-घूम कर कभी छात्रों की संख्या गिनते ,कभी तरह -तरह की हिदायते देते....लड़के ट्रेन की बाट जोहते थक कर चूर थे....विनय यादव बर्थ पर चद्दर बिछा ,कम्बल ओढ़ सोने चले...ट्रेन भी रफ्तार पकड़ने लगी....माथुर साहब थे कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वह  मुँह ढ़ापें हेड पर पिल पड़ा...अरे तनी चुप रहते महराज!....का तबसे पटपटा रहे हैं,साला इहां कपार टभक रहा है और आपका भोंपू बन्दे नहीं हो रहा। हा हा हा हा की चारों तरफ गूंज....माथुर सटक गये,जानते थे विनय नम्बरी लंठ है....ऊपर से बाप ब्लाक प्रमुख। भाई दिन दहाड़े तीन जने को ठोंक ,खुलेआम ठेकेदारी करता था,सो चुप रहना भला समझ अपनी बर्थ पर आकर लेट गये। बोगी में सन्नाटा हो गया ।बत्तियाँ बुझ गयीं...रेल छुक...छुक....धांय करती चली जा रही थी।जगत मिसिर भी हिचकोले खाते सपनों के झूले पर झूलते मगन थे । 
                     कभी -कभी परेशानियाँ जो एक बार पीछे पड़ती हैं .....पीछा छोड़ती ही नहीं।ट्रेन हर दूसरे पड़ाव पर रुठ कर बैठ जाती उस पर दूसरी मार ट्रेन में पेन्टीकार नहीं....रात बीत गयी.....सूरज चढ़ा तो लड़के निबटने के लिए लाईन में लगे।गवइं लड़के पहले ही निबट चुके थे.....ट्रेन भागी जा रही थी ,ब्रश कर मोनिका ने माथुर से शिकायत की....क्या सर,कैसी ट्रेन है?मुझे बेड़ टी की आदत है....अब तो सर दुखने लगेगा ।मोनिका , विनय की खास दोस्त थी ....शहर के नामी व्यापारी की बेटी ।मुँह फुला कर अपनी बर्थ पर बैठ गयी। विनय से देखा न गया ....आकर बगल में बैठ गया,मुस्कुरा कर कहा ....घबड़ाईये नहीं....आपको चाय पिलाते हैं,नज़रे मिलीं और दोनों के चेहरे लाल हो गये....अगल बगल की लड़किया ध्यान से देख रही थीं....लड़के भी ताक -झांक जा रहे थे ...पिछले पाँच मिनट से दोनों आँखों में आँखे डाले एक दूसरे में खोए थे कि जगत मिसिर ने टोका ...विनय भाईssss
वह झेंप गया ,उठ कर साथ हो लिया।दोनों खास मित्र थे,आकर दरवाजे पर खड़े हो गये.... ट्रेन गाँवों के बीच से गुजर रही थी....धान की तैयार फसल लहलहा रही थी.....कुछ खेतों में काट कर क्रम से बिछी थी।जगत ने कहा....मरदे ऐन्नी त धान खूबे हुआ है । किसान का बेटा किसानी की बातें समझता था ,विनय का परिवार कई पीढ़ियों से राजनीति में था सो हूं कह कर रह गया ।उसका ध्यान चाय में अटका था। अन्दर लड़कियाँ नमकीन -बिस्कुट आपस में बांट कर खा रही थीं,ज्यादतर लड़के देहात के थे....अपनी- अपनी बर्थ पर बैठ लाई -चने का मिक्स दाना गुड़ ले फांक रहे थे ।शेखर लाल एक पन्नी में दाना भेली लिए दोनों के पास आए....लिजिए भाई...टाईम पास,जगत और विनय मुस्कुराकर दाना भेली खाने लगे।शेखर ,विनय ,जगत अभिन्न मित्र थे,आपस में बतियाते ...दाना फांक ही रहे थे कि खचाक की तेज आवाज के साथ झटके से ट्रेन रुकी ......विनय यादव फाटक से फेंकाते -फेंकाते बचे,....लपक कर जगत ने पकड़ लिया। 
शेखर लाल.....का हुआ मरदे,इ ससुरा टापू में ले आ के काहें रोक दिया?
जगत मिसिर फाटक से मुँह निकाल कर....बुझाता है कौनों कटाया है?
विनय यादय गमछे से सिर पर पगरी बाँधते... हत ते रे की,साला हो गया जय सिया राम ।अब तो जब तक पुलिस आके बाड़ी नहीं ले जाएगी इ ससुरी हिलेगी नहीं।
तीनों ने सिर पीट लिया ।देखते -देखते सभी बोगियों में हलचल बढ़ी ....लोग निकल कर इंजन के पास जुटने लगे...रेलवे पुलिस के चार सिपाही खैनी फांकते भींड़ को ढ़केलते घटना स्थल का मुआयना करने लगे...पीछे -पीछे गॉड साहब हांफते -दांफते पहुँचे। एक जवान औरत सीने पर बच्चा बांधे कट गयी थी। ....ट्रेन की रुकने की आवाज सुन आस -पास के खेतों में कटाई कर रहे ग्रामीण भी आ पहुँचे। औरत की सिनाख्त हो गयी.....थोड़ी देर में पगडंडियों पर दौड़ते ...चिखते...चिल्लाते लोगों का रेला आता दिखा तो जगत ने सिर के बाल खुजलाते हुए कहा.. बवाल नाधेंगे सारे ,देखिएगा। राजनीति का रुख हवा की चाल देख भांप लेते थे। 
जगत-बवाल का करेंगे भाई...अपने कटी है सारी,बस -गाड़ी थोरे न है कि मुआवज -सुवावजा मिलेगा मनइ को ।
विनय ... हँसते हुए,....कोशिश करने में का जाता है ।कौन जाने मिलिए जाए।इ गाँव के लोग चक्काजाम करने में माहीर होते हैं बाबू---जब केहू न सुने तो  सड़क पर मेहरारुन के बैठा के जाम ठेल दो ...देखो हाकिम सुनेगा काहें नहीं।
शेखर और जगत मुस्कुराए ,कालेज में भी आए दिन अवैध वसूली के नाम पर विनय की नारे बाजी चलती रहती थी और प्रिंसपल जगदंबा पाल कुर्सी पर पैर चढ़ा अॉफीस चपरासियों से पिटने के भय से बन्द करवा लेते थे । मजाल की मनमानी मैनेजमेण्ट की चले ....परिणामस्वरुप लड़के /लड़कियों में विनय की अच्छी धौंस थी।
                        तीनों अपनी बोगी में लौट आए.....लड़के बाहर निकल कर तफ़रीह में व्यस्त थे ।माथुर साहब गेट पर खड़े हो लोगों से पूछ-ताछ कर रहे थे ....बेचारे लड़कियों को छोड़ कर हटने का खतरा नहीं ले सकते थे। मनोरमा राय बच्चों को जबरन बैठाए अपनी सीट पर अंगद का पैर बने ज़मीं थीं...।हंसराज सिंह झांक -झूंक कर बीबी के पास आकर बैठे बतियाने में  मशगूल ...बातें थीं कि हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ती ही जा रही थीं । लड़कियाँ देख -देख मुस्कुराती तो मनोरमा राय ...बेशर्मी की हद कह अन्दर ही अन्दर कुढ़तीं। पति के लिए वह केवल एक जरुरत भर थीं...जैसे रोटी और कपड़ा । गाँव वाले ट्रैक पर धरना दे मुआवजे की मांग ले बैठ गये...थोड़ी दूर पर हसुआ गिरा देख ,घटना को ड्राईबर की लापरवाही बताने लगे...एक स्वर में सबने नारा दिया...हारन नहीं बजा था । गाँव वालों के भय से ड्राईबर और गॉड दुबक कर बैठ गये। पूरे चार घण्टे बाद पुलिस आई ....नोक -झोंक गाँव वालों से होने लगा ....दरोगा ने फोन करके और पुलिस बुलाई...जब पुलिस गाँव वालों पर भारी पड़ी ,तब मामला सलटा,इस पूरी प्रक्रिया में दो घण्टे और गये।शाम हो आई....पुलिस ने लाश सील कर उठवाई और गन मैनों से ट्रैक साफ करवाया तो इंजन से हार्न के घनघनाने की आवाज गूंजी ....सभी यात्री अपनी अपनी बोगी में फटाफट चढ़े।  ट्रेन चली तो सबने राहत की साँस ली। हंसराज सिंह पहली बार छात्रों के बीच आकर सफर में बैठे.....अइसा टापू में अटके की साला चाय -पानी को भी मुहाल हो गये ,कहते हुए झल्लाहट बंया किया ।का माथुर साहब !आपको भी इहे ट्रेन मिली थी। ...जैसे छछून्नर छूई हो रह -रह कर बिपता रही है।आठ घण्टे उधर ,सात घण्टे इधर ,हो गया टूर इहें ससुर ।दो घण्टा पहिले चौंहपे होते ,अभी आधे रास्ते पर अटके हैं।
माथुर साहब कोई अंग्रेजी का उपन्यास खोले, लेट कर पढ़ रहे थे ....धीर -गम्भीर आदमी।धीरे से बिना उनकी तरफ देखे....उत्तर दिया ,हर बार तो इसी से आते थे,संयोग है । 
हंसराज सिंह पनपनाते हुए दुबारा अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गये,सोचे थे मुफ्त में बीबी पर रौब गाठेंगे कि विभाग में उनकी खूब चलती है और इधर माथुर चिढ़े बैठे थे।एक बार नाम तक नहीं लिया था ।हंसराज एढ़ाक पर नियुक्त थे ...कालेज उन्हीं के गाँव में था।....अच्छी दबंगइ थी पर माथुर नियन्त्रण से बाहर रहते ,कारण छात्रों में अपनी रेगुलर्टी ....पंचुअल्टी और अच्छे शिक्षण कार्य के लिए खासा लोकप्रिय थे ।
रात हुई तो भूख ने जोर पकड़ा ....साथ में लाई गयी थोड़ी बहुत नमकीन ...बिस्कुट ...दाना -भूजा की सफाई सुबह ही हो चुकी थी । सभी बेचैन ....ट्रेन भागी जा रही थी । अजीब हाल था .... रुकती भी तो ऐसी जगहों पर जहाँ खोमचे वाले अपना ठेला बाँध बूंध कर सो रहे होते ..... विनय ने एक स्टेशन पर मिन्नत करके चाय बनवाई और सबसे पहले मोनिका और शिक्षकों को पिलवाया ..जगत ने चुस्की ले कर शेखर से कहा ....ऊंट की मुँह में जीरा ...इससे तो करेजवे फूंका जाएगा ,का जानी कैसे पीते हैं इ शहरी लोग भिनहिए हो मुन्शी जी ।शेखर लाल ने भी उसी लय में जवाब दिया.. पंडी जी! जिसका जौन कल्चर है करेगा ही ...और धीरे धीरे चुस्की लेने लगे। हंसराज भड़कते हुए स्टेशन मास्टर के केबीन में धड़धडाते हुए पहुँचे....काहें साहब !...इस मुरदहिया स्टेशन पर आके इ बैलगाड़ी काहें बैठ गयी। एक हाथ कमर पर दूसरा मेज पर रखे हंसराज सिंह क्रोध में हांफ रहे थे ....पीछे -पीछे कुछ लड़के भी आ पहुँचे ।स्टेशन मास्टर जम्हाई लेते हुए......लाइनिये क्लीयर नहीं है साहब ,क्या करें ।तीन एक्सप्रेस पास कराऐंगे फिर जाएगी । पीछे से दनदनाते हुए एक छात्र कालर चढ़ाए आगे आया .....हद है महराज ,ये पहले से ही इतनी लेट है ,ऊपर से और....अभी वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि स्टेशन मास्टर ने हँसते हुए टोका ....अब लेट वालों के लिए टाईमवालों को तो नहीं रोक सकते ,जो पीछे है पिछड़ता ही जाएगा भाई साहब । यही नियम है और उठ कर दूसरे कमरे में चला गया । जगत ने खीझ कर कहा ...."एक त धिया अपने गोर ,ओपर अइली कमरी ओढ़ "। इ त मुअन हो गया यादव जी । 
तीनों स्टेशन पर बनी बेंच पर बैठ गये ....रात के तीन बज रहे थे ,चारों तरफ सन्नाटा ....स्टेशन किसी ऊसर , सिवान में था । दूर -दूर तक कहीं कोई अबादी नहीं । दो -चार पीली रोशनी के छोटे बल्ब जरुर जल रहे थे ,पर अन्धेरे को जरा भी आँख दिखाने में सफल नहीं थे। कुछ कुत्ते रह -रह कर निरवता में खलल डालते और स्टेशन को पूरी तरह भूतहिया बनाने का प्रयास करते....।
                        घण्टे भर बाद तीन ट्रेनों को आगे निकाल गाड़ी चली ......घूमने का सारा रोमांच खत्म हो रहा था ....जैसे -जैसे समय बढ़ता जा रहा था ।तीन दिन के टूर में एक दिन लगभग निकल चुका था....तीसरे दिन वापसी का टीकट,लड़के जम कर ट्रेन की माँ/बहन एक कर रहे थे,....लड़कियाँ इन बातों से असहज थीं।मोनिका ...विनय से दो बार गाली बकने पर लड़ चुकी थी।    .....खैर ,जो हुआ सो हुआ .....आगरा आ ही गया।सभी ट्रेन से उतरते बोगी को एक लात जरुर मारते...माथुर से रहा न गया....दो तुम लोग परिचय बढ़ियाँ से अपने पूरबियापन का....रह गये वहीं के वहीं। माथुर ने थूकते हुए कहा।लड़के स्टेशन के बाहर निकले.....धर्मशाला पहले से बुक था।माथुर हर दूसरे साल छात्रों को लेकर आते थे.....परिणाम स्वरुप अब सारी व्यवस्था फोन से ही कर लेते थे।.....धर्मशाला पास में ही था....पहुँचते मैनेजर ने हँस कर स्वागत किया......वेलकम सर!....आप लोग काफी लेट हो चुके हैं। झट -पट रेड़ी हो जाइये।ठीक दस बजे बस आ जाएगी। घड़ी की तरफ देख कर....आठ बज रहे हैं। माथुर ने छात्रों को जल्दी नहा -धो कर तैयार होने का आदेश दिया। लड़कियाँ मनोरमा राय के साथ हो लीं....न चाहते हुए भी हंसराज सिंह को पत्नी को भी साथ में भेजना पड़ा।माथुर लड़कों को लेकर एक बड़े हाल में पहुँचे.....गलियारे में लाईन से लैट्रीन /बाथरुम बने थे।लड़के कपड़ा खोल ,गमछा लपेट कतार में लग गये। ......इधर लड़कियाँ भी टावेल /साबुन/शैम्पू लिये हो हल्ला करती नहाने लगीं।डेढ़ घण्टे में लड़के तैयार होकर लाबी में आ गये.....कैण्टीन से चाय ,नाश्ता ले कर करने लगे।जगत मिसिर ने थैली में हाथ डाला.....पाँच सौ की नोट......नोट छू कर छोड़ दिया,गांठ के पूरे पक्के जगत यजमानिका बाभन ठहरे।रुपया दाँत से पकड़ते थे। अन्दर अभाव था पर बाहर पूरी सजगता से परदेदारी थी।चार भाईयों और दो बहनों में सबसे छोटे जगत को पिता दो बिस्से खेत बेच कर प्राईवेट कालेज से बी.एड.करा रहे थे।बड़े भाई संस्कृत थोड़ा बहुत जानते थे.....काशी चले गये।जम गये....अच्छी पुरोहिती चलती थी।दोनों उनके बाद के ससुराल   की मदद से बी.एड.कर शहर में प्राईमरी स्कूलों में मास्टर हो बस गये। .....बीबियों की धौंस से दोनों दबे गाँव को भूल चुके थे।पिता ने एन केन प्रकारेण बेटियों को ब्याह मुक्ति पा ली थी।बच गये थे जगत.....सत्तर की उमर में पिता पंडिताई से मिली दान दक्षिणा से उन्हें पढ़ा रहे थे.......गाँव में बीस बिस्से की जोत और अठन्नी चवन्नी की यजमानिका में किसी तरह गुजारा चल रहा था। जगत नोट तुड़ाना नहीं चाहते थे.....जानते थे टूटा की खर्च हुआ।उधर विनय यादव लड़कियों के आते प्रेमिका में मशगूल हो गये।शेखर भी एक कायस्थ लड़की से मेल जोल बढ़ा रहे थे।मन मसोस कर रह गये....विनय कभी जेब में हाथ नहीं ड़ालने देते थे। शेखर भी लेहाज करते थे....पर आज दोनों अपनी -अपनी गणित में व्यस्त थे। बेचारे मन मार कर बाहर निकल आए।बस आकर खड़ी थी....दस की जगह साढ़े दस हो गया तो ड्राईबर हार्न बजा बुलाने लगा । माथुर ने शोर मचाना शुरु किया .....सभी बस की ओर भागे।पहले बस फतेहपुर सिकरी चली .....किले के भग्नावशेष से लेकर पंचमहल ,बुलंद दरवाजा देखते घूमते सभी दरगाह पर पहुँच मन्नत का धागा बांध रहे थे। जगत की अतड़ियों में अन्न की मांग का आलम यह था कि आँखों के सामने रह- रह कर तितलियाँ नाचने लगतीं । समय कम था और अभी माथुर कम से कम छात्रों को ताजमहल और आगरे का किला जरुर दिखा देना चाहते थे। सबको आवाज लगा बस की तरफ चले.....बस अगले गन्तव्य की ओर चल पड़ी.. अचानक किसी लड़के को उल्टी होने लगी तो माथुर ने बस रुकवाया,कुछ लड़के उतर कर सड़क के किनारे ही पैंट खोल खड़े हो गये,जगत भी.....लड़के को पतली दस्त भी महसूस हुई तो सड़क किनारे पानी का बोतल ले झांडियों के पीछे चला गया। हंसराज का भन्ननाना चालू था। जगत की नज़र अचानक सड़क किनारे एक मड़ई में चल रहे ढ़ाबे पर गयी। जगत की क्षुदाग्नि का जोर इस कदर उफान पर था जैसे जेठ की दुपहरी में लू का तूफान। उड़ियाये-पड़ियाये मड़ई  में पहुँचे और प्लेट में भात तरकारी चांप रहे लोगों को देख झट एक प्लेट मांग टूट पड़े । ऐसा न था कि मांस गन्ध पहचानते न थे ,पर भूख न जाने जूठा भात  की गणित से अनुप्रेरित हो मन ही मन तय कर चुके थे कि पकड़े जाने पर भात तरकारी का भ्रम बता पल्ला झाड़ लेंगे।रस्से से भात सरपोट -सरपोट खा रहे थे जगत....शेखर और विनय की भी नज़र पड़ी,चल पड़े मित्र का साथ देने। जब पेट में जरुरत भर भात पहुँचा जगत का चित्त शान्त हुआ...प्लेट में चार बड़े आलू के फांक जान एक को मीस कर खाने के लिए दबाए ही थे कि शेखर लाल आ धमके।जगत मारे भय के हिल गये..।झेंप मिटाते हुए धीरे से बोले..हत तेरी की ....इ मीट है का मरदे,होटल वाला मुस्कुराया।जगत को काटो तो खून नहीं,सरेआम मास खाते पकड़े गये थे।ये तो गनीमत था कि सहयात्री बस में बतकुच्चन में व्यस्त थे वरना आज पंड़ी जी की इज्जत का जनाजा निकल जाता । मित्रों को निकट देख प्लेट फेंकने ही वाले थे की शेखर लाल ने लपक लिया,बचपन की यारी थी ,एक दूसरे के जूठे बेर खूब खाए थे, साथ ही पोखरे से मारी  भुनी सिधरी का स्वाद लूक -छिप कर शेखर के साथ जगत ने बचपन में खूब लिया था। आज मामला पंडी जी का सार्वजनिक था इस लिये लेहाजे बनावटी परहेज दिखा रहे थे।भूख शेखर को भी लगी थी ...बस ड्राईबर हार्न बजाने लगा तो बड़े -बड़े कौर मुँह में डालने लगे।जगत पैसा देने हाथ धो कर पहुँचे ।पाँच सौ की कड़क नोट अन्तत: टूट ही गयी।चार सौ पचास रुपये लौटे।जगत चौंके...मीट इतना सस्ता।आस- पास खा रहे लोगों पर नज़र दौडाई...ज्यादतर मजदूर तबके के लोग खा रहे थे।शरीर में बिजली सी कौंध गयी....धीरे से दुकान वाले से पूछा ...काहें का मीट था?    इहां तो बड़का ही मिलता है साहब...होटल वाले ने मुस्कुराकर कहा।मामला कुछ -कुछ समझ रहा था। बड़का मन्ने?जगत समझते हुए अरथियाये....सुअर बाबू! ,उत्तर मिला।शेखर हाथ साबुन से मांज आवाज दे रहे थे। जगत के सामने धरती आसमान नाचने लगा।अन्दर से रुलाई आँखों में उमड़ी- घुमड़ी चली आ रही थी।झट दोस्तों संग बस में सवार हुए....मन में भूचाल मचा था,धर्म नसा चुका था ...पेट में सुअर का मांस जीभ चिढ़ा रहा था।ऊपर से भेद खुलने का भय ,साथ में शेखर को भी नासने का अपराधबोध सालने लगा। ताज के दिदार की चाहत हवा हो गयी .....आँखें बन्द करते शौच खाती सुअर आ धमकी। ऐसी हूल आई की सर खिड़की से निकाल हकर- हकर मन भर उल्टी करने के बाद ही राहत मिली।मन ऐसे बेचैन था जैसे किसी प्रिय जन की आकस्मिक मृत्यु हुई हो। चेहरा रह- रह कर पसीने से भींग जाता तो गमछे से झट पोंछ भाव छिपाने की नाकाम कोशिश करते। उनकी हालत देख विनय और शेखर कई बार तबियत का हाल पूछ चुके थे। खैर दिन भर के तूफानी दौरे के बाद वापसी के लिए सभी ट्रेन में बैठे....पूरे सफर जगत मौन धरे रहे।जैसे आंधी- तूफान के बाद मौसम सुहावना हो जाता है तपती गरमी में....ट्रेन समय से बनारस की ओर भागी जा रही थी। सभी खुश थे ....कोई पेठे का गुणगान कर रहा था तो कोई ताज का गान। बस मातमी सन्नाटा था तो जगत की दुनिया में। बनारस पहुँच लड़के विदा ले अपने- अपने घर की ओर चले।लड़कियाँ माथुर साहब के साथ कैण्ट बस अड्डे की तरफ चहकती ,मचलती लड़कों को हाथ हिला विदा कर बढ़ गयीं।माथुर उन्हें आज़मगढ़ बस अड्डे से पहले छोड़नेवाले नहीं थे। 
                        शेखर और जगत एक गाँव के होने से साथ चले।शेखर ने जगत के कन्धे पर हाथ रख पूछा....काहें एतना उदासे हैं बाबा,?...देख रहा हूँ, मरदे आगरे से चुप हैं। जगत  भरभरा कर रो पड़े। शेखर से लिपट गये....यार!...धरम नसा गया। 
शेखर...हेंssssssssss,आश्चर्य से आँखें फटी रह गयीं,जानते थे जगत नियम ,धरम और बात के पक्के हैं। भींड़ भाड़ वाले कैण्ट स्टेशन पर दोनों एक किनारे खड़े थे..।का हुआ पंडी जी!....मारे जिज्ञासा के उनकी खोपड़ी उड़ी जा रही थी...लप्प से गमछी की पगड़ी बांध कमर पर हाथ धर ऐसे तन गये जैसे किसी से मार करनी हो। ....जगत ने खुद को नियन्त्रित किया...हमको माफ करना मित्र...ये पाप अनजाने में हुआ...वो जो मास तुमने खाया था,बड़का का था...कहते कहते गला रुंध गया।शेखर तनिक विचलित हुआ...क्या कहते हैं महराज!...फिर सम्हल कर ,जगत को दोनों हाथों से बाहों में भर कर मुस्कुराते हुए...अच्छा ,चलिए...था तो था।इ बात हम दोनों तक है ...रहेगी।चल कर गंगा नहाते हैं और विश्वनाथ बाबा को एक लोटा जल चढ़ा कर शुद्धि कर लेते हैं। जगत अभी भी नज़रें चुरा रहे थे। दोनों अॉटो पकड़ गोदौलिया पहुँचे ...वहाँ से सीधे गंगा घाट....शेखर ने कहा...चलिए नाए से ओह पार चलते हैं...सालों ने इधर बहुत कचरा फैला रखा है।जगत चुपचाप चल पड़े। उस पार शान्ति थी....गंगा अपने मन्थर वेग में बह रही थी....दोनों उस पार से सामने के घाट को देख रहे थे....अचानक घाट से हट कर एक बड़े नाले से गिरते गन्दे पानी को देख कर शेखर ने कहा....देखिए न बाबा,एतना मइला गिरने के बाद भी गंगा पवित्र है...हम तो अनजाने में खाये....जगत उसके चेहरे को ध्यान से निहार रहे थे। शेखर कपड़ा खोल मुस्कुराते हुए नदी में उतरने लगे....जगत ने हिम्मत करके धीरे से कहा....मास सुअर का थाsss, शेखर पानी में फिसलते -फिसलते बचा ।का कहते हैं यार!....हत मरदे....पानी से निकल बालू पर पसर गये। कपार पर हाथ रख थोड़ी देर मौन रहे...जगत बार -बार अपने आँसू पोंछता सुबक रहा था। कुछ देर बाद शेखर सामान्य हुआ ....चलिए जौन हुआ उसमें सारी गलती भूख की थी,उ कहा गया है न...भूख न जाने जूठा भात। धीर गम्भीर बहती गंगा को देख कर , माँ नहाते शुद्धि करेगी ,और गंगा में  उतर गये,दोनों मल -मल के नहाने के बाद इस पार आए।प्लास्टिक का लोटा खरीद गंगा जल भरा और मन्दिर में जा बाबा को नहला ,कान पकड़ माफी मांगी।
घर पहुँचते -पहुँचते दोनों को रात हो गयी....शेखर ललान की ओर विदा होकर निकल गये।बाभनों का टोला गाँव के मध्य में था....अन्धेरी रात में झिंगुरों की झनझनहाट निरवता में भय पैदा कर रही थीं....इक्के दुक्के घरों में बाहरी ताखे पर ढ़िबरी जल रही थी।सभी घर में दुबक गये थे, जगत के बूढ़े पिता को छोड़ कर।जगत दुवार पर  पहुँचे....पिता मड़ई में बैठ  कउड़ा ताप रहे थे। देखते खुश हो गये...आ गये बाबू....मन कैसा कैसा ना जाने हो रहा था...बड़ी रात कर दी। ढ़िबरी की रोशनी में बूढ़े पिता की नम आवाज सुन जगत सिहर गये।सुना था उन्हें होनी अनहोनी ज्ञात हो जाती है....सोचने लगे ...हो न हो बाबूजी को उसी का भान हुआ हो। जल्दी जल्दी घर में घुस गये....माँ चारपाई पर लेटे -लेटे बोली...खाना चौकी पर तोप कर रखा है....खा लेना।वह हूंssss कह अन्दर आँगन में आ हाथ मुँह धो कर किसी तरह एक रोटी खा बिस्तर में आ कर लेट गये। बगल में माँ की खटिया थी।तीन दिन की थकान का आलम था कि अपने बिस्तर में घुसते नाक बजने लगी। भोर में नींद अपने चरम पर थी कि लगा सिराहने सुअरों का झुण्ड मंडरा रहा है...जगत उछल कर उठ बैठे....माथे से पसीने की धार बह निकली ,इतने भयभीत हुए ।वह लगभग हांफ रहे थे। माँ उठ कर खटिया पर बैठी राम राम रट रही थी....का हुआ बाबू ? कौनों खराब सपना देखे का ? ...जगत हामी में गर्दन हिला उठ कर बाहर निकल गये। सुबह के पाँच बज रहे थे .....औरतें खेतों की ओर झुण्ड में बतियाती आ -जा रही थीं। जगत के बाबा प्राईमरी के हेडमास्टर थे.....खासे प्रगतिशील।गाँव में पक्केमकान में पहला पायखाना इन्हीं के घर बना। औरतों लड़कियों को खेतों में जाने की सख्त मनाहट थी। माँ बाल्टी का पानी ले हाते के पखाने में जा रही थीं...पिता खरहरा से दुआर झार रहे थे....भुअरी गाय तीन दिन बाद जगत की आहट पा खूंटे के चारों ओर चक्कर लगा रम्भाने लगी....जगत की दुलारी गाय।जगत पास आ भुअरी की गर्दन सहलाने लगे....पगहा खोल चरन पर लाकर बारी- बारी से गाय बाछी को बान्ह ,लेहना चला निबटे ही थे कि पेट में मरोड़ मची।पखाने में माँ के बाद पिता घुस चुके थे।प्रेसर बढ़ता जा रहा था।लोटा उठा सामने के ऊख के खेत की ओर निकल गये....अभी निबट कर उठे ही थे की सामने फूंफूआती एक सुअर शौच की गन्ध पा आ धमकी ....जगत का मारे भय के परान सूख गया।लोटा उठा कर भागे। नौ बजे खा पी कर साईकिल उठा विद्यालय निकले.....आज परीक्षा का प्रवेश पत्र बंटना था,गाँव के बाहर खडंजे पर शेखर पहले से जोह रहे थे।दोनों मित्र बोलते बतियाते चले जा रहे थे कि अचानक सुअरों का झुण्ड रास्ता काट कर निकल गया।जगत की बेचैनी बढ़ती जग रही थी ....सुअरें नींद से लेकर हर जगह आ कर धमका जा रही थीं....वह भुलाना चाहते थे,सुअरें थीं कि आश्चर्यजनक ढ़ंग से सामने आ जा रही थीं।शाम तक पाँच बार सुअर के सामने पड़ने पर जगत हिल गये.....निश्चित कोई दैवी कोप है जान सोचने लगे कि क्या करें?किससे कहें? एक बार खयाल आया काशी चलें बड़े भाई कर्मकांडी हैं ....कोई हल निकालेंगे।फिर खयाल आया भावज नम्बरी चुगलखोर है....चारों तरफ पुगिया देगी .....बियाह होना मुश्किल हो जाएगा।
सोचते -सोचते बेचारे की हालत खराब ....शाम घिरते माँ आँगन में रसोंई बनाने लगीं,..बूढ़ों को जाड़ा कुछ ज्यादा ही लगता है,....पिता दुवार पर पुवाल जला कउड़ा बार बैठ गये।दूध दूह कर जगत बाल्टी चुल्हानी रख पिता के पास आकर बैठ गये....मन व्यथित होने से चेहरा उतर गया था ।बुढ़ापे की औलाद से मोह कुछ ज्यादा ही होता है .....जगत को चुप बैठे देख पिता ने पूछा......सब भला है न बबुआ? जगत मौन.....कुछ कहेंगे तबे न हल निकलेगा...पिता की आवाज में चिन्ता थी,सोच रहे थे शायद कालेज वालों ने फिर पैसे की मांग की है। जगत पास सरक आए.....सबसे छोटे थे....पिता का साथ और दुलार खूब मिला था.....सिर पर पिता का हाथ पड़ते रो पड़े.....बाबूजी बड़ी भारी गलती हो गयी.....और सारा हाल कह सुनाया। पिता ने धीरज रखने को कहा .....चिन्ता में पड़ गये,कहें तो किससे कहें.....क्या उपाय निकालें की लड़के का हाड़ शुद्ध हो।मन ने कहा ....हाड़ जनेऊ अशुद्ध हुआ है ,शुद्धि करनी होगी।सुबह सबसे पहलेे गंगा जल में बोर कर नया जनेव पहनाया और चुपचाप पड़ोसी गाँव के लल्लू पंडी जी से मिलने निकल गये।लल्लू पंड़ी जी बहुत पहुँची चीज थे ....सभी विद्याओं के ज्ञाता।ओझा सोखा सब मन्त्र ले दीक्षित होते थे।जगत के पिता डोलू भर दूध लिए  दरवाजे पर पहुँचे......बाहर उनकी युवा बेटी गोबर से दुवार लीप रही थी। देखते अन्दर भागी .....अन्दर से लल्लू पंड़ित उसी गति से बाहर आए। ये माजरा जगत के पिता को समझ नहीं आया...आते लपक कर दुवार पर खटिया बिछा कर हाथ पकड़ कर बिठाया .....अउर कैसे महारज इधर को? पूछते उनकी गोल गहरी धसी आँखें खुशी से उछल कूद रही थीं....। जगत के पिता ने पहले तो इधर- उधर की बात कर भूमिका बांधी ,फिर दाऐं बाऐं देख कर पूरी बात कह डाली। सुनते लल्लू पंडित मुँह बाए जगत के पिता का मुँह ताकने लगे....राम राम राम चारपाई से उठ खड़े हुए" इ तो भयंकर अनर्थ हो गया ।" हाड़ बुद्धि सब गयी।जगत के पिता हाड़ मांस के ढ़ाचे में खड़ा मात्र जीवित प्राणी थे।भहरा कर खटिया पर बेहोश हो गये....लल्लू पंड़ित ने घर में से पानी मंगा चेहरे पर छिड़का ....होश आया,आँख खोलते लल्लू का पैर धर रोने लगे ....बचाईए,आप ही का आसरा है। लल्लू मन ही मन मगन थे पर चेहरे पर आक्रोश का भाव पूरी तरह बनाए थे। जगत पर पहले से निगाह थी और बनिया सौदा लिए खुद ही दुवार पर चढ़ा था।चाय -पानी करा घर के पिछवारे साधना स्थल पर ले गये। छोटा सा पोखरा .....पोखरे के किनारे शिवाला, दो मड़ई सामने की तरफ ,...जिसमें चौकी पर कुछ पोथी पतरा रखा था।धूप चढ़ आया था.....कुछ आदमी औरत झाड़ फूंक कराने के लिए आकर बाट जोह रहे थे। देखते हाथ जोड़ कर खड़े हो गये....लल्लू पंड़ित आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा ..शिव शिव शिव रटते आसन पर जम गये।भक्तों को झट निबटा पोथी पतरा उलाटने पलाटने लगे ....कुछ देर बाद गहरी साँस छोड़ते हुए मुस्कुराकर कहा..."बुद्धि सुद्धि महायज्ञ" करना होगा। जगत के पिता ने बुझे मन से कहा.....करिए....का का चाहिए? लल्लू गजब जाल फैलाउ बाभन थे ....मछली कांटे में फंस चुकी थी ....पहले तो भाई जी लड़के का हाड़ जनेव वाले शुद्ध ब्राह्मण की लड़की से ब्याह करा गंगा नहलाइए फिर संकल्प होगा.... उ त आपो जानते हैं कि बिना पत्नी के जग्य नहीं होता। ....कुछ सोच कर एक रुद्राक्ष की माला गले से निकाल हाथ पर रखते हुए कहा....पहना दीजिएगा बाबू को...मलेच्छ नहीं छुएगा। जगत के पिता माला थैली में डाल घर पहुँचे। पत्नी आँगन में बैठ चश्में में आँख गड़ाए कुछ सिल रही थीं.....पास जाकर बैठ गये ....जो सुना सब कह सुनाया,....जगत भी पिता को देख आकर पास खड़े हो गये ....।तनी संकोचते हुए कहा...छोटकी भाभी के घर वाले बढ़ियाँ बाभन हैं,कितनी बार आ चुके ,हाँ कर दीजिए।अनीता भाभी के चाचा की लड़की थी ।जगत पिछले चार साल से प्रेम में पड़े थे।आज मौका देख मन की बात कह दी। माँ छोटी बहू को तनिक पसन्द नहीं करती थीं।कारण आते पति के साथ शहर निकल गयी...जबकि बेटा गाँव में ही पोस्टिंग चाहता था। चुप्पी तोड़ी ....उसके बाप की फुआ मनिहारे संग भागी थी....सुच्चा नहीं है।जगत को सुनते साँप सूंघ गया। पिता भी नापसन्द ही करते थे....ना में गर्दन हिलाया।थैली से माला निकाल पहनने को दे खेतों की ओर निकल गये।
                         अनीता से शादी की अस्वीकृति की पीड़ा थी कि जगत के सपनों से सुअर का भय लुप्त हो गया।पिता सोचते लल्लू के माले का प्रभाव है।छ: महीने बीत गये...परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर गये....दो महीने बाद सरकार ने बी.एड. पास अभ्यर्थियों के लिए प्राईमरी स्कूलों में बंपर भर्ती निकाली। जगत चार माह बाद प्रशिक्षु शिक्षक बन ट्रेनिंग लेने लगे।तिलकहरुओं की भींड़ लगने लगी....पर मामला हाड़ जनेउ के सुच्चे बाभन पर आ कर अटक जाता ।जांच पड़ताल के बाद कोई न कोई पै खानदान का उजागर हो ही जाता।इधर लल्लू पंडित मचर माटा से बेचैन रात दिन जगत का बियाह काटने में जुटे रहते।अपने भक्तों को चारों गाँवों ,सोलह पट्टी में फैला रखा था ।पल -पल की खबर रखते कि कौन -कौन आज जगत के दरवाजे पहुँचा। लल्लू जानते थे कि ऐसे सीधे हाथ उनकी बेटी जगत के साथ ब्याहने से रही। बाप बिना मोटी रकम गांठे ब्याह के लिए हामी नहीं भरेंगे और वह ठहरे कथावाचक साधारण बाभन, इस लिए सारे हथकंण्डे आजमा रहे थे....पर दाव थे कि खाली जा रहे थे। एक शाम मन मजबूत कर माधोपुर बाभन टोला लाव लश्कर संग पहुँच गये .।...जगत के बड़े भाई सपरिवार आए हुए थे। घर में बच्चों के चहल -पहल से रौनक थी,जगत को पहली तनख्वाह मिली थी।सबको देशी घी के मोती चूर के लड्डू खिलाए जा रहे थे। दरवाजे पर पहुँचते धधाकर जगत के बड़े भाई के गले लगे....कुशल क्षेम के बाद कुर्सी पर बैठ गये....मिठाई पानी होने लगा। जगत के पिता को छोड़ सभी लल्लू को देख सामान्य थे...दर दयाद ,टोला मुहल्ला जुटा था।बेचारे पिता भयभित थे लल्लू से कि कहीं राज उगल न दे।लल्लू ने मौका देख कर नज़र चुराते जगत के पिता से पूछा....कहीं  बाबू का बियाह तंय हुआ की नहीं ....साल भर बाद हम भी कुछ नहीं कर पाऐंगे भाई जी। कह मुस्कुराने लगें। इतना सुनते जगत के बड़े भाई पिनक गये....का कहें चाचा,....एक से एक पार्टी आ रही है ,मस्टराईन लड़कियाँ मिल रही हैं और बाउजी हैं कि हाड़ जनेव लिए बैठे हैं....क्रोध में आवाज और ऊंची हो गयी...पिता की तरफ देखते हुए.....कौनों पाप किए हैं बबुआ कि कउवा का मास भक्षे हैं?.......इतना सुनते जगत और पिता की साँस गले में अटक गयी....लल्लू की बाछें खिल गयीं बाप बेटे के चेहरे का भय देख कर। भय है तो भक्ति....यज्ञ के न होने का कोप बाप बेटे को सामने दिखने लगा। लल्लू का इशारा पा साथ आए महेश यादव ने कहा ....हें हें हें....महराज!का हाड़ जनेव में उलझे हैं,इलाके में लल्लू महाराज से सुच्चा बाभन कौन है। आ लड़की भी इसी भरती में मास्टरी पाई है। जोड़ जुगत इससे निम्मन क्या होगा।जगत के बड़े भाई की तरफ देख कर....ठीक कहते हैं न महराज?....दरवाजे पर सन्नाटा छा गया....जगत को न रोना बन रहा था न हँसना...अनीता से ब्याह के उम्मीद की अन्तिम इति श्री सामने थी।पिता भी पस्त थे लल्लू के दाव के सामने....जानते थे ना करने पर पूरे इलाके में इज्जत लूट लेगा ....न माया मिलेगी न राम ,जिस प्राईमरी के मास्टर का खुला ब्याह भाव इन दिनों पाँच लाख नगद और चार चक्का गाड़ी चल रहा था ,कौड़ी के मोल निकल रहा था ।अब कोई चारा नहीं था....मन मार कर हामी भरी...लल्लू की ओझैती उन्हें तनिक नहीं सुहाती थी....और आज उसी ओझा सोखा की लड़की घर लानी पड़ रही थी। शाम तक दिन बारी तय हो गया ...माँ को छोड़ सभी का मुँह गिरा था....माँ खुश थी कि लड़की गाँव में ही मस्टराईन थी,हमेशा साथ रहेगी। दस दिन के अन्दर बरछा ,तिलक ,ब्याह सब निबट गया।
               जगत उस दिन को मन भर कोसते जिस दिन टूर गये..रोए धोए और अन्त में सब किस्मत की मार मान सन्तोष कर लिया। माह भर बाद ससुर के साथ बनारस सपत्नीक जा गंगा नहा आए....लल्लू पंड़ित ने अपनी आराधनास्थली पर गुप्त यज्ञ किया। प्रसाद दामाद को अन्तिम दिन खिला मगन घर लौट रहे थे.....अचानक मोटरसाईकिल के आगे हांफती सुअर आ कर खड़ी हो गयी ....लल्लू ने सुअर को देख कर मुस्कुराते हाथ जोड़ते हुए कहा ....देवी आभार जो उपकार किया ,बिना दहेज के बेटी योग्य वर संग गयी....इस जीव जगत का हर प्राणी महान ।और बिना सुअर के रास्ता काटने का मन्त्र पढ़े गाते गुनगुनाते आगे बढ़ गये........।

सोनी पाण्ड़ेय
शिक्षा-एम.ए....हिन्दी,बी.एड.,पी एच डी
पता- कृष्णा नगर ,मऊ रोड ,सिधारी
         आज़मगढ़,उत्तर प्रदेश
प्रकाशित पुस्तक...मन की खुलती गिरहें...काव्य संग्रह।
इसके अतिरिक्त पाखी ,कथादेश...कथाक्रम...इन्द्रप्रस्थ,भारती....शैक्षिकदखल..स़ुखनवर..सृजनलोक...संप्रेषण..कृतिओर..कृत्या..दैनिक हिन्दुस्तान ...नई दुनिया...दैनिक भास्कर ..छत्तीसगढ़ मेल आदि पत्र पत्रिकाओं तथा स्त्री काल...अनुनाद,सबरंग,लाईव इण्डिया...पहली बार,सिताब दियारा...इण्टरनेशनल ब्लाग...पर निरन्तर कविता कहानी लेख प्रकाशित।

सम्मान...2015 का युवा कविता का शीला सिद्धांतकर सम्मान पहली किताब को।

सोमवार, 17 जुलाई 2017

सोनी पाण्डेय की कहानी

                                                                      -सोनी पाण्डेय  

             टूटती वर्जनाऐं                        
                     
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राजधानी एक्सप्रेस सरपट भागी जा रही थी।ज्योत्सना अतित को कुरेदती ना जाने कितने पड़ावों पर ठहर कर सोचती कि एक कुल कथा जिसके फलने -फूलने से लेकर एक -एक घटना क्रम की वह गवाह रही कि कैसे छोटी -छोटी आस्थाऐं विशाल मिथक में बदलती हैं और हम भय में जकड़े तमाम ज्ञान विज्ञान के बाद भी थोड़ा बहुत सरलीकरण कर उसे पोषित करते हैं। उसे महिला महाविद्यालय में स्त्रियों की आन्तरिक सामाजिक संरचना पर तीन दिन व्याख्यान देना था। वह अनायास खुद के भोगे हुए सच को सोच मुस्कुरा उठी....लौटने लगी अतित की पगडण्डियो़ं पर जहाँ से उजालों के मुख्य सड़क को तलाशा था......

बाबा ब्रह्मदेव तिवारी के दुवार पर भिनहिये से कल्लुवा की माई  डुगडुगी डिबीर-डिबीर बजा रही थी। डीब-डीब-डीब के बेढब आवाज से तंग आकर ज्योत्सना ने ननद से पूछा- ‘‘बीबीजी ये आपके यहाँ कौन सा रिवाज है कि ब्याह के तीसरे दिन भी डीब-डीब लगा हुआ है।’’ मंजू नयी नवेली दुल्हन का मुँह आवाक हो ताकने लगी, चेहरे का रंग एकदम उतर गया, जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो। मंजू ने पूरी सजगता के साथ उत्तर दिया- ‘‘जब तक कक्कन नहीं छूटता।’’ ज्योत्सना ने दूसरा सवाल दागा- ‘‘और कक्कन कब छूटता है? हमारे यहाँ तो विदायी वाले दिन ही छुड़ा देते हैं? मंजू को गुस्सा आ गया। भाभी! ये आपका घर नहीं है, यहाँ के रस्मो-रिवाज अलग हैं, समझी। अम्मा को भेजती हूँ, जो-जो जानना है पूछ लिजियेगा।’’तमक कर जाने लगी, ज्योत्सना को ध्यान आया कि वह अभी नव वधू है, ननद को नाराज करना ठीक नहीं। तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ती हुयी छोटी ननद का हाथ थाम लिया- अरे! रे ऽऽऽ मेरी प्यारी बीबीजी नाराज हो गयीं । गालों को हथेलियों से थपथपाते हुए कहा- चलिए अभी तो आपको प्यारी-प्यारी चूड़ियाँ और नगों वाली बाली देनी है, जिसे आपने मेरे मेकअप बाक्स में पसन्द किया था। मंजू पिघल गयी। ननद-भौजाई चूड़ीकेश और मेकअप बाक्स में उलझी छेड़-छाड़ में मगन थीं कि नाउन बुकवा लिए कमरे में दाखिल हुई- ‘‘चलो हो दुलहिन तनी मीज दें ,कहते चटाई बिछाकर बैठ गई। ज्योत्सना को सरसों के उबटन से उबकाई आती थी। मई का महीना और तीन दिन पहले उसके घर की नाउन के हाथों का पीसा हुआ बुकवा फुलहा कटोरे में लेकर नाउन बैठी मुस्कुरा रही थी। मंजू भाभी के मनोभाव ताड़ गयी- ‘‘मुस्कुराते हुए भाभी से कहा- बुकवा तो यहीं लगेगा भाभी, रिवाज है, पाँच दिन तक  नइहर का फिर सवा महीना ससुरे का बुकवा लगता है हमारे यहाँ बहुओं को, कोहनी से ढकेलते हुए भाभी से कहा- सोचती क्या है कूद जाईए मैदान में।’’ ज्योत्सना ने खीझते हुए कहा- मुझे सरसों  के तेल से एलर्जी है। उसी क्षण चाची सास अपने साल भर के बेटे को गोंद में लिए आ धमकी- ‘‘क्या हुआ ओ नाउन, कनियवा बुकवा लगवाने में निहोरा करवा रही है क्या?’’ नाउन मुँह चमकाकर रह गयी। ज्योत्सना मुँह गिराकर चटाई पर बैठ गयी, नयी नवेली दुल्हन का यह व्यवहार शाम तक पूरे गाँव-जवार में फैल जायेगा जानती थी। माँ की बात याद आयी- ‘‘परजा-पसारी चार घर की घुमनी जीव होती हैं रंजू ,ससुराल में इनसे सम्भल कर व्यवहार करना, वरना अफवाह उड़ाते देर नहीं लगेगी।’’

  ज्योत्सना ने पाँव की पाँच उंगलियां रूमाल से पैर ढककर आगे बढ़ाया, चाची सास ने तपाक से लिहेड़ी लिया- ‘‘हे इनसे का लजाना, साले भर में नंगटे मिसाओगी। मंजु हा-हा-हा हँसने लगी। नाउन ने पैर खींचा- ‘‘दा दुलहिन निम्मन से मीज देइं।’’ ज्योत्सना रूमाल दाबे सिर झुकाये बैठी रही। सास दूसरे बेला का मांग बहोरने आयी- ‘‘ऐ नाउन! चला जा- आपन माया जाल हटावा, मांग बहोरे के है। नाउन हाथ में का बुकुवा छुड़ाकर उठ खड़ी हुई। पंडी बाबा को कितने बजे बुलाना  है? बता देयीं त कल कहते आउंगी। आज चार दिन हो गया, पुजइया काल्हे होना है न ? ज्योत्सना की सास सिर का पल्ला ठीक करते हुए बोली- कुल पोवत करत चार त बजीए जाई- पाँच बजे के कहि दिहा। और ज्योत्सना के आँचल में पाँच बड़े-बड़े लड्डू डाल कर सिन्होरा से सिन्दूर निकाल कर पूरा मांग पीला सिन्दूर भर गयी। गर्मी में इतना सिन्दूर देख ज्योत्सना रूआंसी हो जाती किन्तु ससुराल में नवेली दुल्हन का विरोध सम्भव नहीं था, इसलिए अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहती।
               अगली सुबह नीम अंधेरे सास आकर जगा गयी, पूरे परिवार की औरतों की चहल-पहल सुनकर ज्योत्सना चौकन्नी हुई। याद आया आज ब्याह के पाँचवे दिन की पुजइया है जो सुबह पाँच बजे से शाम पाँच बजे तक चलेगी, सास शाम को ही समझा गयी थी। झट-पट नहा-धोकर तैयार हो गयी।मन रोमांचित था। आज कक्कन भी छूट जायेगा। चार दिन बाद हृदयेश को देखेगी, जिसने विदाई वाले दिन पूरे रास्ते यही समझाया कि जो भी माँ कहे करते जाना। महीने भर की बात है बाद में तो साल में एक बार छुट्टियों में गाँव आना होगा। कितना सहज और साल पुरुष है हृदयेश, उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर कितनी बार चूमा था उसने सफर में, सोच कर सिहर उठी।
ज्योत्सना एक बात सोच कर दंग थी कि घर-भर के मर्द पूरे दिन आँगन-दुवार एक किए रहते, लेकिन हृदयेश की एक झलक भर उसे पिछले चार दिन में नहीं दिखी थी। गजब का शासन चलता था उसके सास का घर में, मजाल की कोई घर में उनका विरोध कर दे।सास कमरे में दाखिल हुई, पीछे-पीछे छोटी सास हाथ में आटे का फुलहा थाल लिए। सास ने आदेश दिया- ‘‘पाँच बार जय चमइया जी- जय चमइया जी बोल कर छू दो दुलहिन। ज्योत्सना को सुनने में भ्रम सा लगा- जी कौन मईया? ‘‘चमईया’’ सास ने तेज आवाज में कहा। ज्योत्सना आवाज कड़की समझ गयी। चुपचाप उच्चारण कर आँटा छू लिया। सास चली गयी। थोड़ी देर में बूढ़ी आजी सास बड़ी फुआ सास के साथ हाथ में फूल-बताशा, धार लिए आयी और वही आदेश दिया जो सास कह गयी थी। बारी-बारी घर भर की औरतें ऐसे ही कुछ-न-कुछ लेकर आतीं और जय चमइया, कहवा जाती। ज्योत्सना सोच में पड़ गयी। चमइया कौन है भला? मंजू मिलती तो उगलवा लेती या फिर हृदयेश से पूछती। अजीब, पेशोपेश में वह कमरे में साड़ी के आँचल का कोर तोड़ते- मरोड़ते घूम रही थी की नाउन पधारी।

‘‘आइये नाउन, बैठिये।’’ नाउन खुश हो गयीं शहरी पढ़ी-लिखी बहू से आदर पाकर। चटाई बिछाकर बैठ गयी। आज पाँचवे दिन के कटोरे वाले बासी उबटन से मुक्ति का दिन था। नाउन ने नेम पूरा किया और हँस कर कहा- कमासुध कनिया से का मिली? ज्योत्सना ताक में थी। पाँच सौ की कड़कती नोट पर्स से निकालकर नाऊन की हथेलियों में दबाकर रखते हुए कहा- अम्मा जी से मत बताइयेगा, नाराज होंगी। तीर निशाने पर लगा था, नाउन फैल गयी। अरे बहिनी, इ तोहार सास त सछाते चण्डी हई, इनसे के कही? ज्योत्सना ने पूछा- चाची इ चमाइया कौन देवी हैं? नाउन व्यंग्य से मुस्कुरा उठी। ऐ दुलहिन इ राज तोहरे हमरे पुरखन की पेट क राज है। जेके मरत घरी सास पतोह से बतावेले, अईसे ना। ज्योत्सना की जिज्ञासा प्रबल हुई। काहे? .....बहुत तो नहीं जानती ऐ दुलहिन, बाकी ऐतना है कि कौनो चमाइन को तोहरे पुरखा फसायेे रहे, पुजइया लेती, नाहीं त वंशे नहीं चले,कह कर उठी और दाऐं -बाऐं चोर नज़र से देख कर चल दी। ज्योत्सना सुनकर दंग रह गयी। हद है इतने शिक्षित परिवार में ऐसा ढ़ोंग।
         दोपहर में पकवान बनने के बाद ज्योत्सना को बड़ी ननद रसोई में ले गयी। सास निर्देश देती रही, ज्योत्सना ने कोरे चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाकर पाँच पूड़ी बनाया, थोड़ा सा हलवा नेम के लिए, पहली रसोई का भोग भी ‘‘चमइया’’ को पहले चढ़ता था। दो बजे हृदयेश और ज्योत्सना का नाउन ने गठजोड़ किया, पति-पत्नी ने चार-दिन बाद एक दूसरे को कनखियों से निहार, छोटी चाची सास ने देख लिया- देखिये-देखिये बड़का बबुवा, आज इनके भोग का भी दिन है। ‘‘लड़कियाँ ठहाका मारकर हँस पड़ी, सास ने आँख तरेरा तो चाची सास चुप हो बैठ गयीं। औरतें लड़कियाँ गाती-बजाती भोग के सोलह थाल लेकर पैदल चल रही थीं। आगे-आगे नाउन सिर पर दौरी में पूजन का सामान अछत, फूल, सेन्दूर आदि लिए और सास भर लोटा धार लिए चल रही थीं। लड़कियाँ गा रही थीं- गोरा बदन नीली साड़ी ओ साड़ी वाली....।

ज्योत्सना नंगे पाँव कच्चे रास्ते पर चल रही थीं। ज़मीन तवे की तरह जल रही था। कोस भर चलने के बाद पति से पूछा, अभी कितना चलना है? बस, सामने वाली बारी में। ज्योत्सना ने पारदर्शी चादर में से देखा, सामने घना आमों का बाग पोखरा और एक छोटा सा कमरे नुमा मन्दिर दिखाई दे रहा था।
औरतों का समूह पोखरे के पास बने चबूतरे पर सामान रखकर बैठ गया। सभी थक चुकी थीं। सास ने हृदयेश से पूछा- कै बजा? साढ़े तीन,.... अरे राम रे। ऐ छोटकी दुलहिन के बता रे पूजा का विधि ,हम पोखरे से पानी लेकर आते हैं। चार बजे पंडी जी कक्कन छोड़ाने और सतनरायन बाबा का कथा बाचने का आ जायेंगे। पाँच बजे तक सब निबट जाना चाहिए।
                     ज्योत्सना के ससुर चार भाईयों में सबसे बड़े थे, छोटा भाई हृदयेश से महज पाँच साल बड़ा था। परिवार में उनके त्याग के कारण सभी अदब-लेहाज करते थें। पत्नी परिवार को बाँधने की कला में माहिर थी सो चार भाईयों का संयुक्त परिवार चार गाँवों में मिसाल था। परिवार में बारह पुरुष, बलिष्ठ, गाड़ी-घोड़ा, छकड़ा से दुवार रज-गज। पुरखे जमींदार, सैकड़ों बीघे की खेती, प्रगतिशील किसान होने के कारण अन्न धन से घर भरा था। इस पीढ़ी में सबसे बड़े बेटे हृदयेश ने विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी पाकर कुल परम्परा में चार चाँद लगा दिया था। लड़के बाहर बड़े शहरों में पढ़ने निकल चुके थे। लड़कियाँ घर की जीप से पास के शहर पढ़ने जाती थीं। हृदयेश के पिता पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे इसलिए उच्च शिक्षित बेटे के लिए बहू भी उसी के टक्कर की खोज निकाला था, एक पैसा दहेज नहीं लिया, पक्के बनिया थे, लड़की कॉलेज में लेक्चरर थी,अच्छा कमाती थी। दहेज न लेकर मुफ्त में वाह-वाही लूटकर प्रगतिशीलता पर मुहर पक्की कर गए।
मन में ‘‘चमइया’’ की पूजा को लेकर सशंकित थे, पत्नी को सख्त हिदायत दिया था जब तक बहू पुरानी नहीं हो जाती भेद नहीं खुलना चाहिए। चमइया की पुजइया में विशेष सतर्कता घर भर की औरतें बरत रही थीं। छोटी सास ज्योत्सना को मन्दिर के पिछवाड़े लेकर गयीं, हृदयेश ने गठजोड़ का गमछा उसके कन्धे पर रख दिया। चाची सास ने एक टीले पर बैठाकर धीरे से हाथ जोड़ कर ज्योत्सना से विनय के स्वर में कहा- ‘‘दुलहिन ये बड़ी कठिन पुजइया है, न करने पर चमइया डागर बजाते हुए गर्भ के समय आयेंगी और सोए में कोख काछ कर चली जायेंगी। ज्यादा कुपित हुई तो माँग भी धो सकती हैं। ये जो घर में तीन निपुती राड़ देख रही हो न बहू !...रोते हुए,..चमइया की पुजइया ठीक से न करने का परिणाम है। ज्योत्सना ने चाची सास का हाथ थाम लिए- ‘‘चाची जी आप ऐसे क्यों कह रही हैं? जो कुल परम्परा है उसे मानना मेरा धर्म है। आप पूजा की विधि बताइये। ऐसी कौन कठिन पूजा है जो मैं नहीं कर सकती। हँसते हुए गर्व से कहा- ‘‘बताइये-बताइये... मैं गोल्ड मेडलिस्ट हूँ। चाची सास ने लम्बी साँस छोड़कर मुस्कुराते हुए हाथ थामकर खड़ा किया। मन्दिर के पीछे का चोर दरवाजा खोलकर ज्योत्सना को आदेश दिया, दुलहिन ‘‘चमईया’’ की पूजा निर्वस्त्र होकर पति-पत्नी प्रथम मिलन के पहले करते हैं, बारी-बारी सोलहों भोग थाल का परसाद चढ़ाकर पिंडी को पीले सेन्दूर से पाँच बार टीककर लोटे में पोखरे का पानी होगा,उसमें धार घोलकर पिंड़ी पर गिरा देना ,अगरबत्ती बार कर दिया जलाकर अढ़हूल का पाँच फूल चढ़ाकर कहना- ‘‘हे चमइया’’ हमने अपना सबकुछ उतारकर आपको दे दिया आप भोग लगाए तो हम पहने। और थोड़ी देर आँख मूंदकर हाथ जोड़कर खड़ी रहना फिर एक-एक थाल में तुम दोनों के लिए कोरे कपड़े रखे हैं, उठाकर पहन लेना और दरवाजा खोलकर बाहर आ जाना। ज्योत्सना को काठ मार गया। वह चीख पड़ी ‘‘आप पागल तो नहीं हो गयी हैं? नंगे ऽ ऽ ऽ, नंगे इनके सामने मैं सीधे जाकर खड़ी हो जाऊँ। हद है मूर्खता की, मुझसे ये नहीं होगा। छोटी सास भागते हुए ज्योत्सना के सास के पास पहुँची। जीजी नहीं मान रही। सास चिंतित हो उठी, डर पहले से था। बहू के पास आयी, ज्योत्सना सुबक-सुबक कर रो रही थी। सास ने पेट पकड़ लिए, बेटी नहीं किया तो इ चमइया कुल नाश देगी। हमार बहिनी इ विनती है तोहसे, आँचल फैलाकर रोते हुए बहू से अनुनय करने लगीं । ज्योत्सना पिघल गयी- नहीं अम्मा जी ये क्या कर रही हैं। हम आपके बच्चे हैं, आप पाँव छूकर पाप मत चढ़ाइये। सास का यत्न मारक था। रोते-धोते ज्योत्सना तैयार हो गयी। एक-एक कर सारे कपड़े उतार कमरे में दाखिल हुई, कमरा चूने की नई-नई पुताई से चमक रहा था। बीच में बड़ी सी मिट्टी की पिंडी बनी थी। कच्चे फर्श को गोबर से लीप-पोत कर चिकना किया गया था। चारों तरफ सोलह थाल करीने से रखे हुए था। जब तिवारियों के घर में बेटे का ब्याह होता था कमरा ऐसे ही चमकता था। बाकी दिनों में गाँव के मनचले आशिकों के आशिकी का अड्डा रहता। अब तो बाकायदा आस-पास के गाँव के मजनू -लैला, इतवार को चढ़ावा चढ़ाने लगे थे।
सास ने खट से दरवाजे की कुण्डी चढ़ाई। ज्योत्सना सहम गई, धम्म से घुटनों में मुँह छिपाकर बैठ गयी। चाची सास ने जूड़ा खोल दिया था, कोई बन्धन लेकर जाना वर्जित था। आगे के दरवाजे से हृदयेश अन्दर दाखिल हुआ। ज्योत्सना घुटनों में मुँह छिपाये दीवार के सहारे बैठी थी। लम्बे घने बाल शरीर पर आवरण का काम कर रहे थे। हृदयेश ने हाथ पकड़कर उठाने का प्रयास किया, जल्दी करो ज्योत्सना लेट हो रहा है। जितनी जल्दी करोगी इस यातना से उतनी जल्दी मुक्ति मिलेगी। ज्योत्सना पैरों से लिपट गयी। ये किस पाप की सजा है हृदयेश? वह रोये जा रही थी। इतने प्यारे रिश्ते की शुरूआत इस मानसिक यातना से क्यों ? हृदयेश बैठ गया, उसकी आँखों से भी आँसू बह निकले थे। कोई फायदा इस तर्क-वितर्क का नहीं। मैं तुम्हे रात में सब बताता हूँ। प्लीज अभी इसे खत्म करो। मैं आँखें बन्द करता हूँ। हृदयेश आँखें  बन्द कर वहीं दीवार की तरफ खड़ा हो गया, ज्योत्सना ने हिम्मत करके सभी निर्देश चाची सास के पूरा किया। अन्त में पेटीकोट गले तक बाँध कर पति से कहा अब आप माथा टेके मैं आँख बन्द करती हूँ। हृदयेश में गमछा उतार कर माथा टेका और फिर दोनों ने नए कपड़े पहनकर दरवाजा खोला। इस पूरी घटना से ज्योत्सना इतनी विचलित हो चुकी थी चलना दूभर था। छोटी चाची सास ने हाथ में कसकर पकड़ लिया। कच्चे रास्ते की जलती तपिश ने अब उसके अन्तस तक को झुलसाना शुरू कर दिया था। परम्पराओं के नाम पर दिये जाने वाले मानसिक यातना का यह सबसे बड़ा उदाहरण था ज्योत्सना के सामने, जिसने नव जीवन में प्रवेश से पूर्व ही एक अजीब घुटन भर दी थी। घर पहुँचते पहुँचते साढ़े चार बज चुके थे। दुवार पर मर्दों की चौपाल लगी थी। लकड़ी की हत्थ वाली कुर्सी पर पैर रखकर पंडी जी बैठे भागवत कथा का सार सुना रहे थे। बीच-बीच में घड़ी देख लेते और बेवा औरतों की ओर देखकर बड़बड़ाते- ‘‘इ मेहरारून का झमेला, कुच्छौ नहीं समझता, विलम्ब हो गया तो मुँह पिटाएंगी अपना।’’ नाउन दौरी कपार पर लिए हाली-हाली भागी आ रही थी। पीछे-पीछे बड़की तिवराईन (ज्योत्सना की सास) हाफी-दाफी आती दिखीं तो पंडी जी कुर्सी पर से कूद कर खड़े हो गये- ‘‘का रे ऽ ऽ ऽ नउनियाँ तोहूं के सिखवे पड़ी, ....टेम निकरे जात है और तोर चकल्लस अबही ले चलत बा।

नाउन- अरे बाबा ऽऽऽ अरे बाबा ऽऽऽ बोलती हुई बरामदे की सीढ़ियां चढ़ती आंगन की ओर भागी। पंडित जी पीछे पीछे ....आंगन में चौक चन्दन पहले से पूरकर, कलशा और गणेश स्थापित देख पंडित जी मुस्कुराते, खैनी पीटते हुए- बोले ,वाह शेर मैदान मार लिए। चलो अब जल्दी निपट जायेगा। पंडि जी अपने आसन पर जम गये। उनके मुँह से केवल ऊँऽऽऽ का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता। बाकी मंत्र गले में घनघना कर रह जाता। तिवराइन को आवाज लगाया- वर-कन्या को बुलाइये। तभी आंगन में हृदयेश और पीछे लड़खड़ाते हुए ज्योत्सना चाची सास के साथ दाखिल हुयी औरतों ने ज्योत्सना को पकड़ कर चौक पर बिठाया। पंडी जी ने दोनों के कक्कन खोलकर सास को दिया और बँसवार में फेंकवाने का सख्त निर्देश दिया और कथा बाचने लगे। हर अध्याय के आरम्भ में केवल कलावती कन्या सुनाई देता बाकी अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ की ध्वनि के साथ लुप्त हो जाता। नाउन को उनके संस्कृत ज्ञान पर पूरा संदेह था ,छेड़ते हुए बोली- ए बाबा! तनी अरथ सहित बांचा कुछ बुझाते नइखे। पंडी जी पिनक गये, बगल में पड़ी अपनी लाठी जमीन पर पीटते हुए चिल्लाये- ससुरी बिघन डालती है, जानती है, कुबेला हो रहा है, साली नीच जात, नीच बुद्धि। नाउन भी कम नहीं थी तमतमा उठी- ए बाबा जात पर त जइबे न करी नाही त अब्बे कुलआई माई उबेर देइला। मामला बिगड़ते देख हृदयेश ने हस्तक्षेप किया। पंडी जी खतम करिये पाँच मिनट बचा है। पंडी जी का अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ तेज हुआ। गौरी की सिन्दूर पूजा के बाद कथा सम्पन्न हुई। बड़की तिवराइन ने चैन की सास लेकर पूरब में सुरुज नरायन को आरती दिखा पूजा सम्पन्न होने की घोषणा की।
             रात ग्यारह बजे हृदयेश कमरे में आया। ज्योत्सना के मन में प्रथम मिलन का रोमांच समाप्त हो चुका था। ननदों और चाची सास ने कमरे को सुगन्धित इत्र से इतना गमका दिया था कि उसे उबन हो रही थी। भारी बनारसी साड़ी और गहने उसे चुभ रहे थे। एक तरफ छोटे से मेज पर दो गिलास दूध, सूखे मेवे और मिठाईयां करीने से सजाकर रखे थे। हृदयेश ने दरवाजे की कुंडी बन्द कर दी। ज्योत्सना खिड़की के पास आकाश में उगे पूर्णिमा के चाँद को एकटक निहारते हुए सोच रही थी, पूर्णता भी कितना बड़ा भ्रम है। चाँद का एक दाग के साथ उगना और घटते बढ़ते लुप्त हो जाना। सही है ‘‘सब दिन रहत न एक समाना’’ का उदाहरण इस चाँद से बड़ा और क्या होगा। वह नाहक मुस्कुरा उठी हृदयेश ने उसे मुस्कुराता देख बाहों में भीच लिया। ज्योत्सना की तन्द्रा टूटी। एकदम से उसका मन कसैला हो गया। खुद को उसके मजबूत गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश की। हृदयेश ने उसके गालों पर चुम्बन देते हुए कहा- ‘‘अब इतनी क्या शर्म? सब तो ओपेन हो चुका है।’’ ज्योत्सना चीख पड़ी- बस करिये हृदयेश मुझे आपके साथ नार्मल होने में थोड़ा समय लगेगा। हृदयेश नर्वस हो गया। ‘‘अब क्या हुआ?’’ सब नार्मल तो है न? ज्योत्सना छिटकर दूर खड़ी हो गयी- ‘‘नहीं! सब एबनार्मल है, मुझे घुटन हो रही है, शायद मैं बेहोश हो जाऊंगी। हृदयेश ने दरवाजा खोल दिया, हाथ पकड़कर कहा- ‘‘चलो ऊपर छत पर, शायद खुले में कुछ राहत मिले, गरमी बहुत है, हाँ ये सब उतार कर कुछ हल्का पहन लो। इससे भी घुटन हो रही होगी।’’ ज्योत्सना ने पति से कहा- ‘‘आप चलिए! मैं आती हूँ।’’
                ब्रह्मदेव तिवारी के बीघे भर फैले हुए पुस्तैनी मकान में चार भाईयों का परिवार रहता था। दो बीच के भाई क्रमशः एयरफोर्स में कार्यरत थे। छोटा यहीं प्राथमिक में मास्टर था। भाईयों की शादी भी बड़के तिवारी जी ने खूब ठोक-बजाकर कर दिया था। वहां भी दहेज के फेरे में न पड़कर घराना देखकर भाईयों को ब्याहा था। तीन भाईयों की शादी आस-पास के दबंग ब्राह्मणों के घर में किया। इसका परिणाम यह निकला कि बड़े से बड़ा अधिकारी, नेता दरवाजे पर सलामी लगाकर ही आगे बढ़ता। दूसरे नम्बर के भाई के ससुर विधायक, पिता के तर्ज पर दोनों साले भी राजनीति में कूदे और पार्टी बदल-बदल कर सत्ता में काबिज रहते। बस एक फोन मिलाया बड़के तिवारी ने कि थाना पुलिस हाजिर। तीसरे के ससुर इण्टर कॉलेज में प्रिंसिपल, नकल का सेंटर बना अकूत धन कमाया। रिटायर होने पर खुद ही स्कूल, कॉलेज खोल लिया। आज के दिन वे इलाके के मदन मोहन मालवीय थे। चौथा पढ़ने में होनहार था, इलाहाबाद तैयारी को भेजा लेकिन वहां जाकर वामपंथ और साहित्य में रम गया। बड़के तिवारी को पांच साल बाद भाई के रंग-ढंग का पता तब चला, जब अखबार के साहित्यक पृष्ठ पर उनकी क्रांतिकारी कविता छपी मिली। पढ़ते हुए कान खड़े हो गये- लिखते हैं-
मुझे तोड़नी है,
बनी बनाई पुरातन की वज्र वह दीवार
जो तुम्हारे और मेरे बीच
खड़ी की गयी थी
उस दिन जब तुम गाँव के दक्खिन में
और मैं पूरब में जन्म ले रहा था
जब तुम्हें मुँह में
सभ्यता की काली स्याही से
अक्षर -अक्षर कालिमा के नियम
दूध में घोलकर
पिलाया जा रहा था
मुझे सभ्यता के विशाल आंगन में
चौक, चन्दन, पूर
सोने के कलश पर
सूरज की अरुणिमा का
चन्दन लगाकर
चाँदी की कटोरी में
चाँदी के सिक्के से
अन्न प्राशन के नाम पर
चटाया जा रहा था
विभेद......
प्रिये!
मुझे गिरानी है
पुरातन की वज्र दीवार,
तुम्हारे लिए,
जोड़कर अधूरे सम्बन्धों की डोर
तुम्हारे दक्खिन से
अपने पूरब तक।


                                                            रेखाचित्र   -   अनु्प्रिया


साँस -परान हलक में अटक गया।सरपट पत्नी से सतुआ-पिसान लिए पहली ट्रेन से इलाहाबाद भागे। हाथ -पैर जोड़कर माँ की अस्वस्थता का हवाला देकर घर लाए। अनुभवी ब्राह्मण मानसिकता ताड़कर बाण छोड़ता है। माँ को समझा-बुझाकर तैयार किया। व्याह का दबाव बनाने लगे। भाई दो बार घर छोड़कर भागे। तब अन्तिम ब्रह्मास्त्र छोड़ा बड़के तिवारी ने। जोरदार हर्ट अटैक का सन्देश भाई के यहाँ भेज अस्पताल में भर्ती हो गये। पिता तुल्य भाई के हर्ट अटैक की खबर सुन छोटके तिवारी गिरते-पड़ते घर भागे। डाक्टर रिश्तेदार थे, एकांत में ले जाकर समझाया ..तनाव इनके लिए जानलेवा हो सकता है। बेचारे छोटके तिवारी फंस गये और रोते-धोते ब्याह के बंधन में बंध गये।पहले क्रांतिकारी प्रेम का भूत पूरी तरह माथे पर चढ़ा हुआ जानकर बड़के तिवारी ने इस बार न घर देखा, न घराना। इलाके की सबसे खूबसूरत ब्राह्मण कन्या घर लायी गयी। अल्हड़ गाँव की लड़की, किसी तरह नकल से बी.ए. पास किया था। पिता को रिश्ता घर बैठे मिला तो इलाके भर मूसरन डोल बजा-बजा कर ऐलान किया, हमारी बेटी तिवारीपुर के तिवारियों में जा रही है। स्त्री के देह का सौन्दर्य पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है, पत्नी का सौन्दर्य सारे क्रांति पर भारी पड़ा और छोटके तिवारी का वामपंथ छू मंतर हो गया।
                          आधी रात को गुलाबी शिफॉन की खूबसूरत नाइटी में ज्योत्सना छत पर पहुँची, हृदयेश ने आकाश के चांद को आंख मारते हुए कहा- ‘‘तुम्हारी ज्योत्सना मेरे पास है।’’ दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। गोरा रंग, गोल चेहरे पर काली बड़ी-बड़ी आँखें। उसे याद आया जब आजी उसे पहली बार देख कर आयी थी, कहते नहीं अघाती थीं- ‘‘बाबू चनरमा अइसन गोल मुँह पर आम के फाक नियर बड़-बड़ आँख अउर तोता के ठोर नियर नाक, टह-टह लाल ओठ और पीठ पर धौल जमाते हुए कहती अउरी गावे ले ए बाबू एकदम कोइलिया नियर।’’ ज्योत्सना ने ननद के आग्रह पर मीरा का भजन सुनाया- ‘‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।’’
हृदयेश ने उसके होठों को चूमने का प्रयास किया तो ज्योत्सना छिटककर भागने लगी। बड़े से सुनसान छत पर मियाँ-बीबी एक दूसरे के साथ भागा-भागी खेलने लगे। थककर हँसते-हँसते लोटपोट हुए जा रहे थे- ‘‘बाप रे धाविका पत्नी पहली रात में इतना दौड़ायेगी पता नहीं था।’’ ज्योत्सना ने कहा- ‘‘हृदयेश! एक बात पूंछू?’’ हाँ क्यों नहीं।....
आप भौतिकी के ही प्राध्यापक हैं न?
आफकोर्स, व्हाई नाट।
तुम्हें आशंका क्यों?
‘‘कमाल करते हैं, इतनी मूर्खतापूर्ण परम्परा का निर्वहन पूरे मनोयोग से करते देख।’’ 
ज्योत्सना ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा- बात ठस्स से दिमाग में धस गयी। बना बनाया रोमैंटिक मूड उखड़ गया।

  ‘‘विवशता है।’’ हृदयेश का चेहरा क्रोध से खींच गया। जिसे छिपाने की उसकी कोशिश नाकाम रही।
दूसरा सवाल उससे भी घातक था।
‘‘सुना है आप डी.यू. में आइसा के पदाधिकारी थे और अभी प्रलेस के पदाधिकारी हैं। मैंने आपके कई वैचारिक लेख हंस जैसी बड़ी पत्रिकाओं में पढ़े हैं। आश्चर्य होता है समाज की रुढ़ परम्पराओं, जातिय व्यस्था का खण्डन करने वाला युवक ऐसी यातनापूर्ण कुल परम्परा का न केवल पालन करता है बल्कि पत्नी को भी मानने के लिए विवश करता है।’’
ज्योत्सना पूरे आवेग में थी। ‘‘जिन बुराईयों का आपको पुरजोर खण्डन करना चाहिए उसके प्रति यह अन्ध आस्था क्यों?’’ 
हृदयेश बगलें झांकने लगा, कोई मजबूत उत्तर न दे सका तो कुतर्क करने लगा।
देखों! ...ज्योत्सना। कुछ बातें मानसिक तौर पर इस कदर हमसे जुड़ी रहती हैं कि हम उसे मानने के लिए विवश हो जाते हैं। इस पूजा से मेरी माँ मनोवैज्ञानिक तौर पर जुड़ी है और एक अजीब संयोग भी है कि जिन लोगों ने इसे मानने से इनकार किया उन सब का सफाया हो गया। अब न मानने का कोई विकल्प नहीं बचता मेरे पास।
ज्योत्सना को हँसी आ गयी- ‘‘यह भौतिकी का प्राध्यापक कह रहा है, आई डोंट बिलिव, ह्वाट अ-नॉनसेंस जोक।’’

हृदयेश चिढ़ गया- ‘‘तुम्हें इतनी उलझन क्यों हो रही है, कर्मकाण्डी आचार्य चन्द्रसेन शास्त्री की बेटी कुल परम्पराओं के निर्वहन पर सवाल खड़े कर रही है।’’ कंधे उचका कर कहा- ‘‘घोर आश्चर्य तो मुझे हो रहा है।’’
हृदयेश हाथ से पकड़ी हुई रेलिंग की ओर पीठकर ज्योत्सना की तरफ खड़ा अंधेरे शून्य में निहार रहा था।
पति की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ज्योत्सना ने पास जाकर कहा- ‘‘वैदिक संस्कृति में पितृसत्ता की साजिशें विषय पर शोध किया है मैंने।’’ हृदयेश झट से बोला- ‘‘पितृसत्ता की साजिशें? तुम्हें शीर्षक किसने दिया?’’
जब तर्क मजबूत होते हैं आपके तो रास्ते रोकने का साहस किसी में नहीं होता। 
ज्योत्सना के होठों पर दृढ़ता की मधुर मुस्कान थी। 
हृदयेश मुस्कुरा उठा- ‘‘तो तुम्हें वैदिक नियम स्त्रियों के पक्ष में घोर षड़यंत्र लगते हैं?’’
‘‘बिल्कुल’’- ज्योत्सना ने दृढ़ता से कहा। 
फिर तो तुम नास्तिक हो। ...हृदयेश में व्यंग्यपूर्ण मुस्कान में लपेटकर तीर छोड़ा। मना क्यों नहीं कर दिया माँ को पूजा से। कहां थी तुम्हारी वैचारिकी डाक्टर ज्योत्सना उस वक्त?
ज्योत्सना आहत हुई, पुरुष स्त्री के आधुनिकता बोध या वैचारिक होने को किस रूप में ग्रहण करता है वह अच्छी तरह से जानती थी। हृदयेश अपनी गलती छिपाने के लिए उसे घेर रहा था। उसे समझते देर न लगी कि अब उसका जूता उसी के सर है।

‘‘डाक्टर साहब !स्त्री का आस्तिक या नास्तिक होना यहाँ प्रासंगिक नहीं है, प्रसंग एक विकृत परम्परा को जबरन ढोने का है।’’ 
ज्योत्सना ने पूरी ताकत झोककर कहा। पति के आँखों में आक्रोश चांदनी रात के धवल प्रकाश में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एक पराजित पुरुष कितना आक्रामक हो सकता है उसके आँखों की लालिमा में साफ-साफ देखा जा सकता था।‘‘
ज्योत्सना तुम्हें नहीं लगता कि तुम हमारे मधुर रिश्ते की नींव कटुता की कटीली पृष्ठभूमि पर रख रही हो। ह्रदयेश की आवाज में कठोरता थी।
ज्योत्सना ने खुद को संयत करते हुए कहा- ‘‘आप नहीं समझेंगे हृदयेश!’’ हमारी संस्कृति में पुरुष का पौरुष कठोरता के प्रदर्शन में निहित है लेकिन स्त्री जिसे प्राकृतिक तौर पर आपने कोमलांगी घोषित कर रखा है । सब कुछ सुकोमल चाहती है वह चाहती है पुरुष उसे फूल की नाजुक पंखुड़ियों से स्पर्श करे और आप जैसे पुरुषों ने स्त्री को सभ्यता के पिंजरे में कैद खूबसूरत परिन्दा ही माना। पुरुष शिकारी की दृष्टि से देखता है नारी देह को और उसके लिए केवल देह है। व्यक्ति मानने का साहस अभी तक हमारे समाज में मर्दो में नहीं है।’’

उसके चेहरे पर घृणा के भाव स्पष्ट उभर आये थे ।
‘‘बाप रे बाप!’’ तो आप स्त्रीवादी हैं? हृदयेश ने भयभीत होने का अभिनय किया।‘‘
नहीं केवल मनुष्य। जिसे प्रकृति ने वाचिक तौर पर प्रतिरोध करने की क्षमता से नवाजा है।’’ ज्योसना ने घृणा से दाँत पीसते हुए कहा।

पूरब में शुक्र ग्रह उग आया था। सप्त ऋषि और शुकउवा काे देखकर हृदयेश ने झल्लाते हुए कहा- ‘‘भोर हो गयी, जीवन की सबसे मधुर रात इतनी कड़वी होगी मुझे पता नहीं था।’’

‘‘पवित्र रिश्ते की पृष्ठभूमि भयंकर मानसिक यातना के साथ आरम्भ हो तो उसका हश्र यही होता है हृदयेश!’’ ज्योत्सना रुआसी हो गयी ‘‘मुझे थोड़ा वक्त दें आपके साथ सहज होने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा।’’ कहते-कहते वह रो पड़ी।हृदयेश से ज्योत्सना का रोना नहीं देखा गया। स्त्री के आंसू में बड़ी ताकत होती है। बड़े से बड़े चट्टान पुरुष को पिघलाने की क्षमता से लैस। हृदयेश ज्योत्सना को सीने से लगाकर पुचकारने लगा।
‘‘अरे यार! मैं तो गुस्से में यह सब कह गया। रही बात वक्त की तो जानेमन, अब पूरा जीवन तुम्हारा है जब तक चाहो इंतजार करा लो।’’ दोनों की आंखें मिली। सजल स्नेहिल कंपकपाते होठों से हृदयेश ने ज्योत्सना के होठों को चूम लिया। ज्योत्सना ने शर्माकर पति के सीने में चेहरा छिपा लिया।
हृदयेश ने कहा- ‘‘क्या हुआ? आखिर मैं तुम्हारा पति हूं वैसे भी हमारे बीच कोई पर्दा नहीं फिर उस क्षण को लेकर इतना विचलन ठीक नहीं ज्योत्सना। ज्योत्सना ने उसी मधुरता से उत्तर दिया- ‘‘जानती हूं लेकिन जो पर्दा अपनी स्वीकृति के साथ पूरी सजगता से उठना चाहिए था वह मेरे जीवन में भयंकर दुर्घटना बनकर आया हृदयेश! मैं घोर मानसिक पीड़ा से गुजर रही हूं। थोड़ा वक्त दें ,..पति पत्नी दोनों का वाक्युद्ध पूरी रात चलता रहा, भोर की लालिमा पूरब में छिटकने लगी। सास- बहू को जगाने कमरे में पहुंची। कमरे में दोनों को न पाकर शंका हुई कि कहीं गर्मी के कारण दोनों छत पर न सो रहे हों। जल्दी जल्दी सीढ़ियां चढ़ती हुई छत पर पहुँची। माँ को देख हृदयेश ने पत्नी को झट से बाहों से अलग किया। ज्योत्सना तुरन्त नीचे भागी। माँ ने बहू को नाइटी में देख बेटे को आँखों ही आँखों में बहुत कुछ सुनाया। हृदयेश ने सर झुकाकर आगे ऐसा न करने का आश्वासन दिया।

                  ब्याह के पन्द्रह दिन बीत गये। बड़ी मान मनउल्ल के बाद मुश्किल से दो बार पति पत्नी एक हुए थे। ज्योत्सना पति की सहजता सरलता और संयम पर मुग्ध हुई जा रही थी। गाड़ी पटरी पर लौट रही थी। दोनों बड़े चाचा ससुर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर लौट चुके थे। घर में तीन बेवा वृद्ध औरतें छोटे चाचा सुसर-सास, सास ससुर के अतिरिक्त छोटी ननद मंजू और साल भर का चचेरा देवर बिट्टू रह गये थे। बड़ी ननद को हफ्ते भर बाद ही ससुराल वाले विदा कराकर ले गये थे। हृदयेश दो बहन एक भाई में सबसे बड़ा था। चाचा का हमजोली होने के कारण उनसे वह मित्रवत व्यवहार रखता था। वह उनसे इतना प्रभावित था कि उनके कहने पर कुएं में कूद सकता था। अल्हड़ गाँव की लड़की चाची भी उसके साथ देवरों सा हास-परिहास करती थीं। बड़की तिवराइन आँखों की आँखों में देवरानी को समय-समय पर सीमाओं का ज्ञान कराती रहती। आवश्यकता पड़ने पर जबान भी चलाती।

भरे पूरे परिवार में कमकरिन बर्तन चौका के लिए, महराज रसोई बनाने के लिए, तथा दरवाजे पर तीन नौकर झाड़ू बटोरू के लिए, गोरु चउवा की देखभाल के लिए और इसके अतिरिक्त चुनमुन यादव बड़के तिवारी के व्यक्तिगत ड्राइवर कम बॉडीगार्ड अधिक थे। पिस्टल टांगकर लकदक सफेद शर्ट, पैंट और स्पोर्ट शूज में पूरे माफिया लगते। आगे-आगे मूछों पर ताव दिये सभा पंचायतों में बड़के तिवारी चलते पीछे-पीछे पिस्टल पर हाथ फेरते चुनमुन यादव। दोनों की जोड़ी इलाके में सरनाम थी। ज्योत्सना ने घर में अच्छी पैठ बना ली। तीनों आजी सासों का पैरा दबा देती बाल झाड़ती, सुबह उठ कर पैर छूती। बड़की तिवराइन संस्कारी बहू पाकर धन्य हुई।

  ज्योत्सना छोटी सास से घुल मिल गयी, दोनों घंटों बातें करती, साथ खाती-पीती, बिल्कुल सहेलियों की तरह। धीरे-धीरे आपसी दुःख-सुख भी बांटने लगीं। ज्योत्सना विज्ञान पढ़ना चाहती थी, पिता ने कुल परम्परा के अनुसार जबरन संस्कृत पढ़ने को विवश किया। जिसका गहरा क्षोभ उसके मन में था। वह अपने विद्रोह से पितृ सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती थी। चाची सास की खूबसूरती ने उन्हें घर में इस कदर कैद कर लिया था कि वह बाहर की दुनिया का विकास स्कूल, अस्पताल, डाकखाने से ज्यादा नहीं जानती थी। दबाकर रखने का परिणाम यह हुआ कि वह बात-बेबात अनायास हँसती और किसी को बिना सोचे समझे कुछ कहतीं।
ज्योत्सना पिता को कोसती, वह समाज को। एक दिन ज्योत्सना ने पूछा- ‘‘चाची जी आप चमइया माई की पूजा करते असहज नहीं हुई थीं?’’

काहे की असहजता बहिनी, देहियें न देखेगी छिनरी, कोठरी में घूसकर उसके कपार पर टांग पसारकर खड़ी हो गयी। साया उठा दिया और गाने लगी ....देखो-देखो चमईया हमार सुतूहीss देखो sssssऔर ठठाकर हँसते हँसते लोट-पोट हो गयी। 
और चाचा जी? ज्योत्सना पूछते वक्त फटी आँखों से चाची सास को एकटक देख रही थी, उ तो कोने में खड़े होकर मूत रहे थे। हमने तो कह दिया। देखो जी हम साया नहीं उतारेंगे, खाली साया में आपकी भाभी ने अन्दर आने दिया आप आंख मूने नहीं तो हम समनवे पहिन लेंगे, फिर यह न कहियेगा की बड़ी निर्लज है।’’ फिर? ज्योत्सना अवाक थी। फिर क्या इन्होंने आंख मूंद लिया, मैंने कपड़ा पहिना सामान चढ़ाया और निकल गयी। इ देखो, साल भितरे की देन है।
पलंग पर गोल मटोल बच्चा निश्चिंत सोया था। ज्योत्सना का दिमाग घूम गया। उफ्फ! ये गाँव की औरत भी इतनी समझदार निकली और मैं संसार की सबसे बड़ी मूर्ख जिसे ये सब नहीं सूझा। उसे अपने ऊपर गहरा क्षोभ हुआ ,जी में आया सिर दीवार पर दे मारे।

           मई में शादी हुई और जुलाई में दो माह गाँव रह कर हृदयेश और ज्योत्सना दिल्ली लौट आये। महानगर की जीवन शैली और व्यस्त दिनचर्या में पिछले दिनों का गम जाता रहा। हृदयेश और ज्योत्सना दोनों अभी बच्चा नहीं चाहते थे। सास हर महीने फोन कर कोई नई बात का सवाल दागती और ज्योत्सना टाल जाती। सास को चिन्ता हुई पढ़ी-लिखी आधुनिक खयालों वाली शहरी लड़की ने लगता है पूजा में कोई कमी कर दी है। पति से चिन्ता जाहिर कर रोने लगी। एक अज्ञात भय ने दंपति को घेर लिया। क्वार का महीना, जाड़े ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। शाम होते ही बुर्जुग ओढ़ना-बिछावन डाल बिस्तर में दुबक कर बैठ जाते। एक शाम बड़के तिवारी शहर से लौटकर संध्या वंदन कर दुवार पर आराम कुर्सी पर आँख बन्द कर कुछ मंथन करने में लीन थे। बड़की तिवराईन ऐसे समय पर अक्सर पूरे घर की रिपोर्ट देती। ज्यादातर छोटे भाई की ,...छोटके तिवारी पूरे विद्रोही, आज कल खुलेआम मांस मछली खाने लगे थे। तिवारी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये, क्या बात है हृदय की अम्मा, तुम्हारा इतना मौन मुझे अखर जाता है। कोई तो चिन्ता का विषय अवश्य है तुम्हारे मन में बड़की तिवराईन ने पति को सजल आँखों से देखा।
‘‘सुनिये जी छः महीने बीत गया और बहू ने अभी तक खुशखबरी नहीं दी, मेरा जी घबराता है। ना जाने क्या होने वाला है। पति के हथेलियों को पकड़कर आँखों में आंखें डालकर कहा- ‘‘हमको दिल्ली जाना है। बड़के तिवारी ने तुरन्त स्वीकृति दी। ठीक है चलो तुम्हे देश की राजधानी दिखाते हैं, तुम भी क्या याद रखोगी।

हफ्तेभर बाद का टिकट मिला, हृदयेश को फोन से खबर कर दिया गया। ज्योत्सना ने जिंस-कुर्ते, टाउजर, टाप सब आलमारी में छिपा दिया। रात में सोते वक्त हृदयेश से कहा- ‘‘अम्मा-पिताजी कब तक रहेंगे? हृदयेश कोई किताब पढ़ रहा था- सुनकर हँस पड़ा। जानेमन घबड़ा गयी? अभी वो आये नहीं और आपने जाने का हाल पूछ लिया।’’ ज्योत्सना झेप गयी। मेरा मतलब ये नहीं था, अब गाँव की तरह यहाँ तो दस नौकर-चाकर है नहीं, और अम्माजी ठहरी पूरी कर्मकांडी, सब कैसे मैनेज होगा? सोच रही हूँ और एक बात ध्यान रखना, चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘अण्डे-आमलेट का फरमान मत देना उनके सामने गलती से भी वरना मेरा छूवा जीते-जी नहीं खायेंगे। ज्योत्सना के चेहरे से चिन्ता साफ झलक रही थी।सास आई, हफ्ते भर रहकर हिदायते देतें, डाक्टर को दिखाते-सुनाते दिल्ली घूमकर चली गयीं। स्टेशन पर रोते हुए बेटे से वचन लिया छुट्टी होते घर चले आना। छुट्टियों में ज्योत्सना मायके जाना चाहती थी लेकिन हृदयेश तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक पति-पत्नी में शीत युद्ध चलता रहा। अन्त में हृदयेश ने समझौता करते हुए कहा- ‘‘अपने पिता से कहो घर आकर ले जायें विदा कराकर।’’ ज्योत्सना मान गयी, कोई चारा नहीं था। दिल्ली से बनारस के लिए ट्रेन रवाना हुई, स्टेशन पर बड़के तिवारी बुलैरो लिए पहले से खड़े थे। बेटे-बहू को देखकर हर्षित हुए, मिलने-मिलाने, हाल-चाल के बाद गाड़ी तिवारीपुर की ओर चल पड़ी। रास्ते भर पिता-पुत्र पूरे गाँव का हाल-चाल, देश-प्रदेश की राजनीति का गाँव पर प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा करते रहें। अबकी गर्मी में किन-किन के घर में लगन है और कितना दान-दहेज मिल रहा है पर बड़के तिवारी विशेष रस लेकर बतियाते। ज्योत्सना सर झुकाये दोनों की बातें सुनती और मन ही मन पति को बनारस की सड़कों से गुजरते हुए कोसती, नैहर के रास्ते से गुजर रही थी, हृदयेश ने खबर तक करने को सख्त मना किया था। ‘‘तुम्हारे माँ-बाप का ड्रामा स्टेशन पर ही चालू हो जायेगा, आकर घर से ले जायें समझी। हमारे घर की बहुयें बिना दिन रखे विदा नहीं होती।
                 गाँव का नैसर्गिक वातावरण ज्योत्सना को बचपन से लुभाता रहा है। दुवार पर पूरा खानदान जमा था, गाड़ी रुकते ही छोटी ननद मंजू भागकर जल्दी से गाड़ी खोलकर भाभी के पाँव छूकर सामान निकालने में भाई की मदद करने लगी। बड़की तिवराईन ने भर लोटा धार से बेटे-बहू को ओईछ कर नजर उतारा। बहू को पकड़कर अन्दर ले गयीं। टोले भर की औरतें और लड़कियों का हुजूम आंगन में उमड़ा देख ज्योत्सना सहम गयी। सफर की थकान से शरीर टूटा जा रहा था। चाची सास गले मिलीं और बारी-बारी सभी बड़ी-बुर्जुग महिलाओं के पैर छुलाया। लड़कियों ने भाभी को छेड़ा, ‘‘अकेले आयी भाभी, हम तो सोच रहे थे भतीजे का नेग लेंगे।’’ बड़की तिवराईन का दिल बैठ गया। चाची सास ज्योत्सना को भीड़ से निकालकर कमरे में ले गयीं।
‘‘जाओ नहा-धोकर आराम करो, शाम को बतियाते हैंऔर आंख दबाकर खिलखिला उठीं। ज्योत्सना को छोटी चाची की खिलखिलाहट बड़ी प्यारी लगती थी। औरतों का खिलखिलाकर हँसना कितना दुभर है, जानती थी। याद आया मायके में माँ कभी खुलकर हँसने नहीं देती थी। बड़े भाई तो कई बार हाथ तक बचपन में चला देते थे। वह हँसना चाहती थी कई बार छोटी चाची की तरह खिलखिलाकर, स्वच्छन्द हँसी।

महीना भर बीत गया, मई-जून में विदाई की कोई तिथि नहीं मिली, सास दुखी मन से हृदयेश से कह गयीं- ‘‘स्टेशन पर माँ-बाप से मिला देते तो बहू को दुख न होता।’’ हृदयेश को भी दुख हुआ, पिता-भाई तो कई-बार दिल्ली आकर मिल गये थे, लेकिन माँ से मिले ज्योत्सना को पूरा एक साल हो गया था। वह घंटों रोती रही। एक दिन ज्योत्सना बड़की आजी का पैर दबा रही थी, आजी खुश हो गयीं, खूब दूध-पूत का आशीष दे अपनी कोठरी में ले गयीं। काठ के पुराने सन्दूक को खोलकर एक छोटा सा नक्कासीदार बक्सा निकाला, बक्सा गहनों से भरा था। दो मोटे-मोटे पछुऐ उसके हाथ में रख पहना दिया, तुम्हारी कलाईयां वैसी ही गोल-मटोल है बहू, जैसे जवानी में मेरी थी। आँखों से झर-झर आंखू बहने लगा। ज्योत्सना उनके कष्ट को समझ सकती थी। भरे यौवन में वैध्वय कितना बड़ा अभिशाप है उसने बनारस के विधवा आश्रमों, घाटों आदि पर भटकती, भीख मांगती विधवाओं के जीवन में बहुत नजदीक से देखा था शोध कार्य के दौरान।

आजी मौन थीं.... उसने हिम्मत करके पूछा..ये ‘चमइया’ और इसकी अन्धभक्ति घर में क्यों होती है?  आजी ने संयत होकर कहा ..बताती हूँ तुम्हें, और काठ के सन्दूक से सास की जनानी वंशावली निकालकर बैठ गयीं- ‘‘हमारे पुरखों में एक थे जटाशंकर बाबा, बड़े विद्वान, बलिष्ठ और सुन्दर। गाँव की जमींदारी राजा साहब से शास्त्रार्थ में जीतने के कारण इनाम में मिला था। घोड़े से गाँव-गाँव घूमते आसासियों का दुख-दर्द पूछते, सूखा पड़ने पर किसानों का लगान राजा को अपने खजाने से देते। न्यायप्रिय और दयालु थे। बाबा के जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भोरे राजा का बुलावा आया, घोड़े से चल दिये, सूनसान रास्ते में एक जगह घोड़ा अड़ गया, बड़ी कोशिश करते रहे, लेकिन घोड़ा टस से मस न होता। बेचारे सिर पर हाथ रख पास के बगीचे में जा बैठे ,दिन चढ़ आया था, भूख-प्यास से बेहाल, बाग में कुँआ तो था, लेकिन लोटा डोर नहीं। बाबा ने सोचा अब जीवन समाप्त। बेचारे ईश्वर को याद कर रोने लगे, तभी एक बूढ़ी औरत अपनी जवान बेटी के साथ लोटा-डोर लिए आई,
बाबा गिरते-पड़ते पहुँचे। बूढ़ी औरत ने कहा- आप बड़ मनई बुझाते हैं, हमारे हाथ का छुआ पियेंगे। बाबा ने हाथ जोड़ विनय किया, जीवन मिले तो सोचेंगे। बुढ़िया ने बेटी को इशारा किया। लड़की भर लोटा पानी लिए आई और मुस्कुराते हुए बाबा को पिलाने लगी। लड़की दिव्य सुन्दरी थी, बाबा मुग्ध हो गये। अक्सर बाग से गुजरने लगे। लड़की और उनका मेल-जोल बढ़ा तो बुढ़िया की झोपड़ी तक पहुँचे। बुढ़िया को कुजात छांट जात वालों ने गाँव निकाला दे रखा था, विधवा औरत जवान बेटी के साथ विराने में झोपड़ी डाल रहती थी। कहते हैं- ‘‘इतनी बड़ी डाईन थी कि उड़ती चिड़िया का पंख बांध देती थी।’’ धीरे-धीरे मड़ई अटारी में बदल गयी। गर्भ रहता तो बुढ़िया मार कर गिरा देती। लड़की महीने शोक मनाती फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती। आखिरी गर्भ माँ से छिपा ले गई। जब-तक पेट उभरा पाँच माह हो चुके थे। माँ ने जहर खा लिया। लड़की बाबा के दरवाजे पर आकर बैठ गयी। बाबा का तीनों त्रिलोक घूम गया। समझा-बुझा कर वापस किया, अगले पूरे दिन साथ रहे, सोचते रहे कैसे मुक्ति मिले? आखिरकार अपने विश्वासपात्र नौकर को आदेश दिया, हाथ-पैर बाँध के पोखरे में बोर दो और ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए चार धाम को निकल गये।

इधर बाबा के चार भाईयों में तीन की पत्नियों को गर्भ था। आधी रात को डग्गर बजाते सपने में आयी और पेट काछ के चली गयी। सबेरे तक घर-आँगन खूने-खून। क्या बतायें बिटिया पुरनिया (आजी सास) कहती थी, लगा खूँट नसा गया। साल भर बाद बाबा लौटे तो दरवाजे पर सियापा छा गया था। देवी प्रकोप से बारी-बारी तीन जवान बेवा औरते घर में दहाड़ रही थी। पत्नी बेटी को छाती से साटे पास आने से डरती। बाबा ने देस-देस के पण्डितों को दिखाया। कोई फायदा नहीं। पण्डा, मौलवी, पीर, मजार सब एक किया लेकिन जस का तस सब बना रहा। इसी बीच किसी ने एक ओझा का पता दिया ओझा बुलाया गया। गजब हो गया बहिनी- ‘‘ओझा बकने लगा, गर्भ के साथ चमइनिया डोला रही है।’’ बाबा ने उपाय पूछा- ‘‘ओझा बोला- वंश-दर-वंश पुजइया लेगी महराज!.,चौरी मांग रही हैं। हिस्सा मांग रही है।’’ कोई चारा नहीं था- बाबा मान गये- उसकी कोठी ओझा को दे बारी वाले पोखरे के पास चौरी बन्हा दिया। पत्नी गर्भ से हुई, नौ माह पर जुड़वा बेटे हुए। ओझा आ धमका, पूजन दें महराज! नहीं तो छोड़ेगी नहीं, जनम-विवाह सब पर। पत्नी हाथ जोड़ विनती करने लगी, देंगे क्या मांगती है? ओझा ने उसकी मांग सबको सुनाई, पैदाइस पर उसका मन्दिर, विवाह पर वर-बहू नंगे जेवनार, गहना, कपड़ा चढ़ा कर पाँचवें दिन साथ रहें, तभी वंश चलेगा।







  मन्दिर के नाम पर बाबा ने एक कोठरी बनवा दी। पत्नी ने चार बेटों को जनमा लेकिन आगे बेटों ने चमइया को पूजा देने से मना कर दिया। देखते ही देखते तीन बेटे मर गये। छोटा बेटा बारह का था जल्दी-जल्दी ब्याह कर पुजइया दिलाया। वंश इसी से आगे बढ़ा। इनके भी चार बेटे हुए, ये हमारे पति थे। बड़के भाई माँ की बात मानकर सब करते गये। हमारे पति पढ़े-लिखे होने के कारण नहीं माने। नतीजा देख रही हो। ‘चमइया’ बड़ी जगता हैं। कह कर फफक-फफक कर रोने लगीं। ज्योत्सना पूरी कहानी ध्यान से सुन रही थी। अजीब संयोग जुड़ा था वंशावली की कहानी से। एक तरफ छोटी चाची सास तो दूसरी तरफ आजी सास का वृतांत। माथा घूम गया, अब समझ आया उसे कि बच्चा पैदा करना बेहद जरुरी है वरना सास पागल हो जायेगी। साल भर बाद ज्योत्सना ने बेटे को जन्म दिया। सास ने अंग्रेजी बाबा बजवा कर ‘चमइया’ को कांची-पाकी मसाला चढ़ाया, बड़के तिवारी ने बारह गावों के ब्राहम्णों को महाभोज दिया।
  कुल परम्परा चलती रही। शादी के पन्द्रह साल बीत गये। ज्योत्सना अब दो सुन्दर बेटों की माँ थी। सास खुशी से मुसरन ढ़ोल बजातीं। चाची सास भी अब तक दो बेटों की माँ बन चुकी थी। जिस कुल में तीन पीढ़ियों से एक खूँट पर वंश बेल आगे बढ़ती थी वहाँ अब चारों भाईयों की वंश वृद्धि हो रही थी। ज्योत्सना हर साल छुट्टियों में घर आती, रास्ते में ‘चमइया का मन्दिर’ देख सभी गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ते। देखते ही देखते इन पन्द्रह सालों में ‘चमइया’ की महिमा पूरे इलाके में फैल गयी, तिवारीपुर के तिवारियों की कुल देवी ‘चमइया’ की कृपा से दरवाजे पर हंस लोटता है। सावन में आस-पास की औरतें कढ़ाई चढ़ाने लगीं। प्रेमी मन्नत का धागा बाँधने लगे। कोठरी भव्य मन्दिर में बदल गया। चुनमुन यादव के संरक्षण में हाट-बाजार सजने लगा। ‘चमइया’ के गीतों के कैसेट से बाजार पट गया। चमइया देवी शक्ति पीठ के नाम से जाना जाने लगा। औरतें उनके नाम पर अतवार का उपवास रख मन्नत रखने लगीं।लोक में आस्था ज्यों -ज्यों फैल रही थी तिवारी कुल में आगे पूजा का सरलीकरण बढ़ता जा रहा था।ज्योत्सना इस यात्रा को निरन्तर डायरी में दर्ज कर रही थी।

  ज्योत्सना के बाद सबसे पहले बड़े चाचा ससुर के बेटे का ब्याह हुआ। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर, बहू को कुल परम्परा के अनुसार चमइया की पूजन विधि बताने की बारी आई। मन्दिर के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर नवेली दुल्हन को ले जाकर ज्योत्सना ने वही निर्देश दिया जो छोटी चाची ने किया। लड़की आवाक मुँह ताकने लगी। पुजइया हो गयी। साल भर बाद बहू ने बेटे को जन्म दिया।धीरे -धीरे पूजन विधि का पढ़ी- लिखी घर की औरतें सरलीकरण करती गयीं। आगे की पूजा भोग थाल से घट कर पान,फूल,बताशे पर आ गयी। ज्योत्सना के सामने महज तीस साल में एक अन्ध आस्था ऐसी रुढी बनकर उभर कि पूरे ससुराल क्षेत्र में कि आस्था का सैलाब उमड़ पड़ा। यह उसके लिए शोध का विषय था कि कैसे छोटे छोटे भ्रम भक्ति में और फिर अन्ध भक्ति में बदलते हैं।वह चुप चाप इस यात्रा को दर्ज करती रही और साठवे साल में उसकी आत्म कथा आई ‘‘देखो देखो चमइया हमार सुतूही।’’आज वह  छात्राओं के बीच अपनी आत्मकथा पर बात करते हुए समाज में फैले अन्ध आस्था में लिपटी अपनी जिन्दगी और पुन: उस भ्रम से बाहर निकलने की लम्बी दास्तान सुनाते -सुनाते भावुक हो उठी....बस मैं तुम सभी से आज इतना ही कहना चाहती हूँ कि सोचो,समझो और अपनी बात कहना सीखो।हम औरतों को पिता सत्ता ने ऐसे ही तमाम जंजीरों में जकड़ रखा है। ....अपनी इस यात्रा को इस तरह दुनिया के सामने लाना जोखिम भरा है....पर जो सहा न गया उसे कहा....आगे तुम सब को कहना है।
लड़कियाँ देर तक तालियाँ बजाती रहीं....ज्योत्सना को लगा ...मन से मनो बोझ उतर गया।

नोट : जातिसूचक शब्दों का प्रयोग यथार्थ के सन्दर्भ से है, लेखिका की उनसे कोई सहमति नहीं है

सोनी पाण्डेय







गुरुवार, 22 जून 2017

सुरेन्द्र रघुवंशी

   सुरेन्द्र रघुवंशी की कविताओं की भावभूमि का विस्तार मनुष्यता की पूरी धरती नापता है।यहाँ औरत भी है,प्रकृति भी और अन्नदाता के साथ -साथ जीवन संघर्ष भी।

आज गाथांतर वरिष्ठ कवि का स्वागत करता है तथा साथ ही कवि की कविताऐं अपने पाठकों के सम्मुख करते हुए यह उम्मीद करता है कि कविताओं के संसार से गुजरते हुए वह कुछ न कुछ जीने की ललक जरुर पाएगा इस जलते हुए समय में।

।।  याद करो  ।।

खण्डहर होते उन निर्जन किलों को बार-बार देखो
जिनके कँगूरों पर सूखी घास सरसरा रही है
इनमें वे किले भी शामिल करो
जो कभी राज दरबार  हुआ करते थे
और अब वे सरकारी दफ़्तर या संग्रहालय हैं

इतिहास के कानों में दर्ज़ घोड़ों की टापों को सुनो
टप टप टप तब तबअब अब कब कब????
राजाज्ञाओं के पालन में घुड़सवार सैनिकों के चाबुकों की फट-फट फटकार सुनो
जो गरीब किसान मज़दूरों की चमड़ी उधेड़ने से उपजती थीं

उन स्त्रियों का करुण क्रंदन सुनो
जिनको पैरों में जूती की तरह पहना गया
ज़मीन और पैरों के बीच जिन्हें घिसा जाता रहा
जिनकी आवाज़ का गला घोंटा गया
और वे डरती हुईं
इशारों में जीने लायक संकेतों में बतियाती रहीं

राज दरबारों के क्रूरतम और जनविरोधी
आदेशों की वास्तविक पड़ताल करो
समय की अदालत में बुलाओ उन दीवारों को
गवाही के लिए जिन्होंने  देखा है सच
और जिनका पुनरदृश्यांकन ज़रूरी है
वर्तमान व्यवस्था को सबक के लिए।

******

                  ।।   सावधान  ।।

मन के मैदान में
क्रूरता के गड्ढे खोदने वालों से सवधान
ह्रदय के खुले समतल  में
विभाजन की दीवारें बनाने वालों से सावधान
सवधान कपट के घोड़ों की टापों से
संवेदनाओं की फसलें कुचलने वालों से

लौटा दो अवसरवादी सियासत के नुमाइंदों को
अविलम्ब अपने दरवाजों से
वे आपके दरवाजे की शोभा नहीं
बल्कि विषधर हैं जिनको दूध पिलाने से
उनका विष ही बढ़ेगा
और कहने की जरूरत नहीं
कि विष घातक है जीवन के लिए

नीले आसमान को चिड़ियों के लिए
अविलम्ब ख़ाली करो गिद्धों !

******
             ।। बागड़ चर गई फसल हमारी ।।

अच्छी खासी लहलहाती फसल  थी खेत में
आवारा ,असामाजिक सांड़ों से उसकी रक्षा हेतु
नुकीले काँटों के अधिकारों से लैस बागड़ को
खेत के चारों ओर तैनात कर दिया गया।

हवा में हिचकोले खाती जा रही हरी कच्च
जवान फसल के सौन्दर्य को देखकर
काँटों से भरी बागड़ के मुंह में पानी आ गया
बागड़ के शरीर में जगह- जगह उग आये दाँत

बागड़ अपनी तैनाती का उद्देश्य भूल
बलात कोमल फसल पर टूट पड़ी
यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य घटना थी
कि दिनदहाड़े और सरेआम बागड़ फसल को चर रही थी

बागड़ ने इसका कारण अपनी भूख बताया
उसने निरन्तर फसल चरने को
अपने हक़ की तरह दर्शाते हुए
इस पर जन स्वीकृति की मुहर चाही
जो थोड़े से प्रयास से मिल भी गई

बागड़ ने कुरेदने पर यह भी बताया
कि वह खुद भोपाल और दिल्ली की
बड़ी बागड़ों द्वारा चरी जाकर ही
इस खेत की निगरानी का अधिकार पा सकी है
कि हमें भी ऊपर देना पड़ता है
तब जाकर  यहां बैठे हैं साहब

कितने ही खेत चिल्ला रहे हैं
"बागड़ हमारी फसल खा गई साहब ! "
वे फसलभक्षी बागड़ों से ही बागड़ों की शिकायत कर रहे हैं।
जिसे कोई नहीं सुन रहा है
अमानवीय और बहरे हो गए अंधड़ में
कौन किसकी सुनता है?

*****

                     ।। जागरण ।।

नींदों को समन्दरों में डुबोकर
रहना है रातभर सफ़र में
काली रातों और बिगड़ैल दिनों के खिलाफ़
न्याय के सूरज को लाने के लिए
विश्राम को तिलांजलि देते हुए
वर्जित है ऊँघना समय की इस ऊँची चट्टान पर

अमानवीय खाइयों को पाटकर
विश्वास के पुल की बहाली के लिए
क्रियाशील रहना होगा आँखों से खुमारी उतारकर

नींदों के सपनों से निकल
दैत्य अब प्रत्यक्ष सामने आकर हमलावर हो गए है
अपनी संचित ऊर्जा को एकत्र कर
इनकी नाभि में शर संधान करके
इनके विश्व विजयी होने के दम्भ को चूर करते हुए
अमृत कुंड सोखकर इन्हें धराशाही करने का
माक़ूल वक़्त है ये

   ****

।। बुद्धा सिंह की तलाश ।।

रेल्वे की टिकिट खिड़की के पास चिपका है
बुद्धा सिंह की तलाश का पर्चा

नाम बुद्धा सिंह
उम्र सत्तर साल
हुलिया पर्चे में छपी फोटो मुताबिक

हाथ में बुद्धा सिंह गुदवाई द्वारा लिखा है
शरीर इकहरा
स्वभाव सीधा साधा
थाना केन्ट ,गुना

पता देने वाले को उचित इनाम दिया जायेगा।
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आँखों में विश्वास और चेहरे पर मुस्कान लेकर
आखिर कहां चला गया बुद्धा सिंह
या भाग गया परिजनों से नाराज़ होकर
अथवा फसल बर्बादी और कर्ज़ के बोझ से दबकर
गले के गमछे से फंदा बना कर
किसी पेड़ की डाली से झूल तो नहीं गया बुद्धा सिंह

आशंकाओं के अंधड़ के बीच
आखिर शुकूनदायी है
बुद्धा सिंह की तलाश का यह पर्चा
जो समय की दीवार पर उम्मीदों की तरह चिपका है
कि आख़िर सत्तर साल के बूढ़े  बुद्धा सिंह की ज़रूरत
परिजनों को ही सही पर किसी को है तो सही।

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         ।।  माँ  ।।

मनुष्यता की उर्वरा धरती पर
तुम करुणा और वात्सल्य के
दो पय पर्वत हो माँ !

पानी से भरे हुए बादलों को
पृथ्वी पर बरसाने के लिए
तुम उनमें ज़रूरी हो गए  अनगिनित छिद्र हो

दुःख सुख और प्रेम में
सबसे पहले बरसने वाली
पृथ्वीनुमा गोल दो बोलती आँखें हो

संघर्षों के सूरज के झुलसाते ताप से
जीवन की धरा को बचाने वाली
सूरज और पृथ्वी के बीच तनी हुई
सफेद इच्छाओं वाली
काली सघन और मजबूत  विस्तार में फैली हुई
अनन्त केश राशि हो तुम माँ !

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                ।।धरती-आकाश।।

जब गर्मी होती है असहनीय
धरती आकाश के भरोसे मौसम से हारती नहीं
उसके जेहन में बरसात का सुन्दर सपना होता है

काले बादलों के शरीर में हरियाली के बीज हैं
जिसे धरती अपनी कोख में धारण कर लेगी
धरती का गर्भाशय सृजन की सारी विधाओं का आधार है

धरती को देखते हुए आकाश
आश्वासन की मधुर मुस्कान बिखेरता है
और धरती आकाश से नजरें मिलाती हुई
अपनी उमस को अनदेखा करती है

हवाएं बदलाव के गीत गा रही हैं
और धरती की त्वचा पर घास के रोंगटे खड़े हो गए हैं
                   - सुरेन्द्र रघुवंशी

सुरेन्द्र रघुवंशी

जन्म- 2 अप्रैल सन 1972
गनिहारी , जिला अशोकनगर मध्यप्रदेश में
शिक्षा- हिंदी साहित्य , अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर ।
आकाश वाणी और दूरदर्शन से काव्य पाठ
देश की प्रमुख समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं ' समकालीन जनमत' , ' कथाबिम्ब' , ' कथन' , 'अक्षरा' , 'वसुधा' , ' युद्धरत आम आदमी' , 'हंस' , 'गुडिया' , ' वागर्थ', ' साक्षात्कार' , ' अब' , 'कादम्बिनी' , ' दस्तावेज' , ' काव्यम' , ' प्रगतिशील आकल्प' ' सदानीरा' ' समावर्तन ' एवं वेब पत्रिकाओं ' वेबदुनिया' , ' कृत्या' सहित देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में
कविताएँ , कहानी, आलोचना प्रकाशित ।
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा ' जमीन जितना' काव्य संकलन प्रकाशित
दूसरा काव्य संकलन 'स्त्री में समुद्र'
तीसरा काव्य संकलन ' पिरामिड में हम ' ।
शिक्षक आन्दोलन से गहरा जुडाव
विभिन्न जन आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी
अपने नेतृत्व में मध्य प्रदेश में 11000/- सरकारी शिक्षकों की सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से नियुक्ति ।
मध्य प्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग में शिक्षक के रूप में कार्यरत ।
विभिन्न सामाजिक और मानवीय सरोकारों के विषयों पर विभिन्न मंचों से व्याख्यान ।
कुछ कविताओं का अंग्रेजी और फिलीपीनी टेगालोग भाषा एवं मराठी , गुजराती एवं मलयालम आदि भारतीय भाषाओँ में अनुवाद ।
कविता कोष में कविताएँ शामिल ।
हिंदुस्तान टाइम्स डॉट कॉम और नवभारत क्रॉनिकल का संयुक्त बोल्ट अवार्ड ।
एयर इंडिया का रैंक अवार्ड ।
मानवाधिकार जन निगरानी समिति में रास्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य के रूप में कार्य ।
प्रांतीय अध्यक्ष मध्य प्रदेश राज्य शिक्षक उत्थान संघ
जनवादी लेखक संघ में प्रांतीय संयुक्त सचिव (म. प्र.)
एडमिन/ सम्पादक-
'सृजन पक्ष' -वाट्स एप दैनिक एवं फेसबुक साहित्यिक पत्रिका
'जनवादी लेखक संघ'- फेसबुक साहित्यिक पत्रिका
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