बुधवार, 9 नवंबर 2016

सोनी पाण्डेय की कहानी

कहानी


सुरमा भोपाली...
                                  सोनी पाण्डेय






.. चुनमुनिया धीरे-धीरे खोद कर छोटी बहन को जगा रही थी......रे मुनिया ! .....हूं......सोने दे कह मुनिया ने करवट फेर ली । चुनमुनिया ... बुचिया ssssमोर बुचिया....सुन न ।मुनिया बाँह टेरते हुए गुस्से में उठ बैठी ,तू पगला गयी है, जीजा को देखने के लिए । हट नहीं तो ,हम जा रहे हैं माई के लग्गे सोने ....।मुनिया बाहर मड़ ई में पहुँची ,माँ खाट से गायब । सोचने लगी अक्सर माई रात को कहाँ गायब हो जाती है ? बगल की खटिया पर बूढ़ी आजी की नाक धूम- धढ़ाम बम फोड़ रही थी, जिसके खौफ से वह यहाँ नहीं सोती थी । जाकर एक दम से आजी को झकझोर कर जगा दिया ......ए आजी ! .....आजी रे sssss बुढ़िया अकबका कर उठ बैठी ......अरे मोर लठिया कहाँ बा ? कमर पर हाथ धरे मुनिया सामने तनी खड़ी नाक फूला -पचका रही थी । अरे मुअनी ....तोके डाहे के मोही मिलेलीं रात- बिरात। अपनी महतारी के काहें न झिकोरे ली । बूढ़ी के क्रोध की सीमा न थी । यही तो हम भी पूछ रहे हैं कि माई है कहाँ ?मुनिया गुस्से में बोली । आजी -----अपने भतार के यहाँ। कह करवट फेर सो गयी । सोई की आँख मूनते रेल गाड़ी की तरह नाक की छूक छूक धांय ,छूक छूक धांय शुरु । मुनिया माँ की खटिया पर जा कर लेट गयी ।उम्र कोई दस साल ।सोचने लगी .....दिदिया का भतार जीजा ,वह उससे मेले में मिलने को मरी जा रही है ।माई के भतार बाऊ .....वह रात को अक्सर गायब रहती उसके साथ ।करवट बदल कर चद्दर तान लिया ,बरखा के दिन  ,रात सिहरने लगी थी । भतार पुराण है क्या बला ,सोचती रही ।सोचते -सोचते नींद में तितलियाँ नाचनें लगीं ....लाल, नीली, पीली ,हरी, बैंगनी ....फर -फर फर्र ...पंख फैलाए उड़ती जातीं ...उड़तीं जातीं दूर देस ।एक सिवान में रंग- बिरंगे फूल ,तितलियाँ फूलों पर नाचने लगीं ।इतने में एक परी आ ग ई ....थोड़ी देर में कुमार भी । दोनों एक दूसरे संग खेलने और तितलियाँ पकड़ने लगे । भोर हुई तो चेतना आई....अरे ये तो परी का भतार है और नींद का जय सिया राम ।उठ कर बैठ गयी । 
                    मड ई के सूराखों में से भोर का उजाला झांकने लगा तो बुढ़िया जय सिया राम, जय सिया राम ....सिव -सिव- सिव रटती ...लाठी फटकारती, जोर लगा कर खेत की ओर भागी ..देर से रोके थी ,उजास की बाट जोह रही थी ।जब सहा न गया । पड़ोसी के घूरे के पास बैठ गयी । मन जब हल्का हुआ वापस लौटी । रास्ते में चुपचाप चोरों की तरह लौटते देख पड़ोसी फुल्लन की माई को शंका हुई । अपने दुवार की जांच -पड़ताल करते घूरा तर पहुँची और झनझना उठीं ......रण उ- पूत उ करती मुनिया के दुवार पर पहुँचीं । मुनिया के पिता दुवार खरहरा से झाड़ रहे थे .....ठहर कर खड़े हो गये ।का भया भौजी ! .तर्जनी तान कर चेतावनी देने लगी ...हे भौजी -भौजा से काम नहीं चलेगा ,मिनट में साफ करिए ना त माथ गिरेगा भिनहिए ,कह देते हैं । मुनिया के पिता को समझते देर नहीं लगी थी।ये उसकी माँ का आए दिन का काम था ।फरुआ ले घूरा पर पहुँचे और उठा -उठा पास के सगड़ा में पच -पच थुकते फेंकने लगे ।इधर आँगन में माँ चूल्ह पोतते सास पर पिल पड़ीं.......इ बुढ़़िया की चिठिये हेरा ग ई है बरम्हा किहा । रोज -रोज कुकुर झौं कराती है । जवानी भर कपार पर चढ़ी रही अब छाती पर मूंग दर रही है । पोतनहर आँगन में धप्प से पटकी ही थी कि हांड़ी फूट कर पानी छितरा गया । मारे क्रोध के कपार पीट -पीट रोने लगी । चुनमुनिया नहीं चाहती थी घर में आज राढ़ मचे सो माँ को पुचकार कर नहाने भेज पानी काछ खाना बनाने बैठ गयी । बुढ़िया अभयस्त हो चुकी थी पतोह की .....नहा धो कर एक लोटा जल सूरुज नरायन ,एक लोटा तुलसी जी में रखे सिव जी की पिंड़ी पर चढ़ा आँगन में चुल्हानी पीढ़ा रख कर बैठ गयी । चुनमुन ने आजी को खाना परोस दिया ......खा कर बुढ़िया गाँव में निकल ग ई ......ये उसका रोज का काम रहता ।घर में आग लगे बजर गिरे .....वह दुवारी- दुवारी घूमती तफरी करती । शाम को अन्धेरा होने से पहले लौटती तो बहू से रोज तोर चिकस मोर लोढ़ना होता ।
                मुनिया की माई ,बड़ी बहन चुनमुन सज धज ग ईं धराऊँ कपड़े पहन । टोले भर की लड़कियाँ ,औरतों उसके दुवार पर आ जमीं । इन्तजार था तो झुल्लन पाठक के ट्रैक्टर का । आते ही लड़़कियाँ ठेल- ठाल के चढ़ने लगीं .....एक का फीता दूसरी से नोचा कर खुल गया ,वह लपक कर उसकी भी नोंच कर खोल दी ।देखते -देखते झोंटा -झोंटी कुत्ती- बुजरी चालू । झुल्लन ने दोनों लड़कियों को खींच कर अलग किया । चेतावनी दी ..कल से रहा लोगन ,ना त केहू के ना ले जाईब । औरतों ने बचाव किया ।झुल्लन खुद कूद कर ट्राली पर चढ़ गये और बारी- बारी से सबको चढ़ाने लगे । चुनमुन कुछ ज्यादा ही सजी धजी थी । झुल्लन रिश्ते में तो चाचा लगता था लेकिन देख कर मुस्कुराहट रोक न सका । बीस साल का हट्टा कट्टा गबरु जवान .....ना जाने कितनी लड़कियों के प्रेम पत्र चुनमुन पहुँचा चुकी थी झुल्लन चाचा को ।ज्यादतर आज वही लड़कियाँ ट्रैक्टर पर लदी थीं जिनके प्रेम पत्र का जवाब अभी शेष था । ट्रेक्टर गाँव के उबड़- खाबड़ खडंजे पर हिचकोले खाता चल पड़ा ।जो चला तो लड़कियों के ख्वाब लहराने लगे ।झुल्लन ने आवाज दी .......अरे कुछ गाना बजाना भी होगा की सुन्ने सपाटे चलना है ।बड़ी औरतों ने पहले देवी गीत आरम्भ किया पीछे लड़कियाँ और जवान बहुऐं कजरी ,झूमर गा गा कर लहालोट । जैसे मैराथन की दौड़ हो, रेस लग ग ई कि कौन झुल्लन के मन का गीत सुनाए और वह मुड़़ कर देख तनिक मुस्कुरा दे । रास्ते भर औरतों का झुण्ड का झुण्ड मेले की ओर रेले चला जा रहा था .....औरतों का सावन मेला, गौरी धाम का पूरे इलाके में सरनाम था ।ज्यादातर औरतें हरी साड़ियों और हरी चूड़ियों में सजी धरती की हरियाली का उत्सव मना रहीं थीं ।आज सतमी को लगने वाला गौरी पूजन मेला था । औरतें कोरस में गा रही थीं ......सड़क पर खम्हा गाड़ के पिया चल ग ईलें बिदेसवा ........सड़क पे खम्हा ........ssssssss ।
                  ट्रैक्टर झटके से रुका ....झुल्लन गमछे की पगड़ी बाँधते उतरा तो मुन्ना बो ने हँस के कहा ....म उरी कहिया बन्हायेंगे ए बबुआ जी । झुल्लन लजा गया ....कौनों मिलती ही नहीं भौजी का करें । लड़कियों का झुण्ड़ ठण्डी आहें भरने लगा । सबसे पहले सब की सब मन्दिर की ओर चलीं ....चुनमुन बार- बार पीछे पलट कर देखती ....मुनिया छोटी लड़कियों के साथ मगन .....रह -रह कर रुमाल में गठियाए रुपये की थाह ले लेती । आजी ने आते वक्त बीस रुपये मेले के लिए दिया था । बाऊ ने दस ....माई ने पाँच .....पहले के धरे दस रुपये को मिलाकर कुल पैंतालिस रुपये । रास्ते भर किसिम -किसिम के खिलौनों और मिठाईयों की कल्पना करते आई थी । आजी से मन रखने के लिए पूछ लिया था .....का लोगी आजी ? बुढ़िया की आँखें भर आईं ,आँख मलते हुए पोती से दुलार से कहा.....मिले तो बुचिया भोपाली का सुरमा भोपाली ले लेना । पाँच का मिलता है ।आज कल अन्हार होते दिखता नहीं । झुल्लन की माई कहती है सवा महीने लगाने से आँख का मैल कट जाता है, आँख से गिरते लोर को आँचल से पोंछ पोती को कलेजे से लगा लिया । किसी ने तो बुढ़िया की सुध ली ,वरना सब रोज मौत मांगते थे आज कल । लड़की का गला भर आया ......आजी के झुलझुल कपोलों को चूमते हुए आश्वस्त किया .......चिन्ता न करो आजी ,खोज के लाऐंगे।
                   मन्दिर के पास पहुँच औरतें दो -दो रुपये का धार ,बताशा, फूल ले लाईन में लग ग ईं ।अन्दर गर्भ गृह में देह पर देह छिलाता ....शिव जी का लिंग पूजने की औरतों में होड़ लगी थी। कुछ ऊपर से ही झूकी औरतों पर लोटा का जल चढ़ा चल देतीं .....हो ग ई पूजा ।औरतें अन्हरी ,निपूती करतीं रहतीं । अज़ीब दृश्य था ,चढ़ावे का हलुआ पूड़ी पानी में सना कर लुगदी ......आदमी तो दूर कुत्ते न पूछें । केला, अमरुद दो पूजारी औरतों को टेर- टेर खोजते ,प्लास्टिक की बोरी में भर -भर पीछे के बरामदे में फेंकते जाते और वह फिरसे ठेलों पर पहुँच जाता । एक पूजारी बही खाते पर बोरियों की संख्या दर्ज करता और कुजड़ों से हुज्जत करता कि जल्दी दाम लाओ ।इधर दूध, गंगा जल ,और अभिषेक का जल पूरे परिशर में लात -लात फैल कर अस बिछलहर फैलाए हुआ था कि दो चार के पैर का कल्याण हो चुका था ।आस्था का महासैलाब ......अन्धभक्त औरतें और हर औरत से चढ़ावे का पाँच रुपया वसूलता पंड़ा हर -हर महादेव का बीच -बीच में ललकार लगाता रहता । 
                              मुनिया ने नन्दी पर चढ़ाया केला उठाया ही था कि माई ने चट से मार छीन कर वापस धर दिया ......केतनी बार समझाए हैं कि सिव जी का परसाद नहीं खाते,...लड़की ने गुस्से में झनक कर कहा ....इ तो नंदी बाबा का परसाद था । माँ हाथ पकड़ खींचते बाहर निकली ...सामने पूड़ी -हलुवे के लुगदी का पहाड़ देख लड़की का मन मचल गया ।कितने दिन हुए हलुआ- पूड़ी खाए .....आजी भी एक दिन कह रही थी । मन में सोचती ,यहाँ इतना घूरा पर फेंका है और हम खाने को तरशते है .....बक्क महादेव जी आप अच्छे नहीं जो आपका चढ़ाया परसाद नहीं खाते । इ तो गलत बात है । लड़की अपने विचारों में मस्त -मगन फ्राक की झालर पकड़ चल रही थी कि रुकने को कहा गया । एक जगह खड़े हो पूरे समूह ने तय किया सभी लोग बारह बजे तक मेला घूम टेक्टर के पास मिलेंगे । सब छितर गयीं ।लड़कियाँ इसी मौके की तलाश में थीं । मुनिया की माई बेटियों को ले काली जी तर चली .....उसकी माँ ने कहलवाया था मिलने को । पास ही मायका था । यहाँ का हाले आलम और गजब ,जैसे रोअना महोत्सव चल रहा हो । दो औरतें एक दूसरे से मिलते पहले भेंट- भेंट रोती फिर हाल चाल कुशल क्षेम होता । एक पेड़ के नीचे नानी को बड़की मामी संग बैठी देख मुनिया खिल गयी ....उ देख माई ,नानी । माँ बेटी लपक कर पास पहुँचीं ।मिलना- मिलाना होने के बाद नानी ने झोले में से निकाल सबको हलुआ पूड़ी खाने को दिया । मुनिया खुश हो गयी । चलते समय नानी ने माँ को पचास चुनमुन को दस ,मुनिया के हाथ पर एक- एक के पाँच सिक्के रखे तो खुशी का ठिकाना नहीं ।खिल उठी कि मन भर मेला करेगी ।अब मेला की बारी थी ,लाईन से पटेहरों की दुकान, लाली ,पाऊडर, इसनो,ं चूड़ी ,झूमका ,झाला और रंग- बिरंगी फीतों की लड़ियों से सजी थीं । कुछ दुकानों पर ब्रा ऐसे टंगा था जैसे अरगनी पर कपड़ा । माई एक दुकान पर बैठ मोल भाव करने लगी .......चुनमुन भी माँ के साथ बैठ ग ई .....खूब मोल भाव कर सोलह साल की ब्याहता चुनमुन के लिए फोम वाले दो ब्रा खरीद लिये गये। मुनिया देख -देख कुढ़ रही थी ..कमर पर हाथ धरे खड़ी माँ को गुस्से से घूर रही थी .....दुकान वाली ने माँ से कहा "एहू बहिनी के कुछ कीन दा" .।.देखा मुँह बनवले ठाढ़ हयी।माँ पिनक ग ई...का लेगी ?..,.. लेती काहें नहीं ?.......रुमाल की गठरी दिखाते हुए बोली .....धरी तो है एतना । दुकान वाली हँसने लगी ......मुनिया का गुस्सा और चढ़ गया ......बहन की ओर हाथ नचा कर कहा ......अउर इ नहीं धरीं का ? माँ ने एक घमका खड़े होकर पीठ पर धर दिया ....तू हूं भतार को दिखाएगी का । मामला बढ़ता उससे पहले सामने से दामाद को आते देख मुनिया की माई सम्हल ग ई ।हे हे हे .......ले ले बुचिया ......ले ले फीता जितना चाहे । मुनिया खुश हो गयी ....दो रुपये मीटर का तीन जोड़ी फीता ले लिया । लाल, हरा ,नीला .......छ: मीटर का बारह रुपया । लेने के बाद माँ से कहा .....ले लिया ......माँ दामाद से बतियाने में मगन थी .....उसे ठेल कर कहा ...पैसा दे दे । तू नहीं देगी .....मुनिया तमक उठी । माँ ने कस कर घूरा ,जानती थी माई जीजा के सामने ही थूर देगी । रुमाल से निकाल बारह रुपये दिया और भेद- भाव देख उदास हो गयी । बड़ी बहन जीजा को देख -देख मुस्कियाती ,दोनों में कुछ इशारेबाजी चल रही थी ।माँ ने दूसरे दुकान से दामाद को रुमाल खरीद कर दिया और जेब में कड़कती सौ की नोट मेला दिखाई दे मुस्कुराने लगी । ।चूड़ीहारे के यहाँ चुनमुन को भर- भर हाथ चमकीली लाल -हरी चूड़ियाँ पहनाई ।हरे रंग की सस्ती चूड़ी खुद भी पहनी । बढ़ ई की दुकान से चौकी बेलना लिया ....बिसादे से चालन ,डोम से इस्सर दलिद्दर गीन कर सूप लिया । दामाद ने लजाते हुए सास से कहा ..... इसे उधर नाच दिखा दूँ ? सास ने हँस कर कहा .....ले जाईं ।दोनों हवा में कटीें पतंग की तरह लहराते आँखों से ओझल हो गये। इसी साल जेठ में ब्याह हुआ था ।दो साल का गवना .......पति बी.ए.में झुल्लन के साथ कालेज में पढ़ता था। उसी की साठ गाँठ से भेंट तय हुआ था । 
                 मुनिया का मन कभी गरम गरम जलेबी पर मचलता कभी पकौड़ी पर । माँ थी की नाम ही नहीं लेती । अपना सामान खरीद कर माँ एक चबूतरे पर बैठ गयी ....सामने कठघोड़वा का नाच चल रहा था .....बायीं तरफ एक छोटी लड़की बाँस का बड़ा सा लट्ठ लिए रस्सी पर चल रही थी ....बीच -बीच में पब्लिक ताली बजाती .....दायीं तरफ मदारी रुठी बंन्दरिया को बन्दर से मनवा रहा था ।लोग बन्दरिया की अदा देख हो हो हँसते ।यहाँ बच्चों की संख्या अधिक थी ।मुनिया की बगल में एक लड़की रबड़ की गुड़िया ,चूल्हा, चाकी कंगन, बाली लिए अपनी आजी को दिखा रही थी ....मुनिया का मन मचल उठा ।बूढ़ी औरत को देख आजी के सूरमें का भी खयाल आया ,जानती थी माँ खिलौने नहीं खरीदेगी सो लड़की से पूछने लगी .....कहाँ से लिया .....लड़की ने सामने कोहारों की दुकान की ओर इशारा किया । बूढ़ी ने अपनी पोती को साथ लगा दिया ....जा दिला दे ....माँ ने हामी भरी तो वह तीर की तरह लड़की का हाथ पकड़ चल पड़ी ।दस रुपये की सुनहरे बालों वाली गोरी मेम गुड़िया ली ग ई .....गुड़िया की गृहस्थी बसे सो प्लास्टिक का दस रुपये में कप प्लेट ...थाली कटोरी बाल्टी का सेट ।कुल पचास में से बत्तीस रुपये खर्च हो चुके थे ।अचानक मुनिया के कान में सूरमा भोपाली की लाउडस्पिकर से आवाज गूँजी .....वह ठीक मैदान के उसी छोर पर खड़ा था अपनी साईकिल लिए जिधर उनका ट्रैक्टर खड़ा था ..लड़की की बांछे खील गयीं .....पाँच रुपया रुमाल के दूसरे कोने में गठिया लिया ताकि भूल से भी खर्च न हो ,माँ की तरफ देखा, वह औरतों से बतकुच्चन में मस्त थी । एक तरफ लाईन से हलवाईयों की दुकान सजी थी ......रंग- बिरंगीं मिठाईयाँ .......कढ़ाई में गरम पकौड़ी तेल में नाच कर सुनहरी हुई जा रही थी .......जब मुँह पानी से भरने लगा लड़की का धैर्य टूट गया । दो रुपये की जलेबी और दो की पकौड़ी सफाचट करने के बाद दोनों लड़कियों ने अठ्ठन्नी का बर्फ खरीद कर चूस लिया .....एक रुपये की बरफी खाई ,अठ्ठन्नी का चिनिया बदाम ले झोले में डाल कर आगे बढ़ी ।सामने किसिम -किसिम के गुब्बारे -फिरकी और बाँसुरी वाले बच्चों को रिझाने के लिए तरह- तरह के आवाज निकाल रहे थे । थोड़ी देर खड़ी होकर मुनिया देखती रही और यह सोच कर आगे बढ़ी कि एक दिन में फूट- फाट जाएगा । एक जगह बैठ कर मुनिया ने रुमाल में गठियाए रुपये खोल कर गिना ,पाँच निकाल कर अब तक कुल साढ़े सैंतीस खर्च हो चुका था ।अब अढ़ाई रुपया बचा था ......लौटने लगी तो एक कोने मिट्टी का चूल्ला- चाकी देख पुन पुन भागी ........चूल्हा ,चाकी ,कलछूल, थरिया तसली ,बटूली ले झोले में रख वह हँसती- गाती माँ के पास पहुँची । माँ ने झोले का वजन देख आँख नचा कर उलाहना दिया ........फूंकी आई रुपया ......लड़की ने अनसुना कर दिया । बारह की शर्त थी, दोपहर के दो बज चुके थे ......धीरे धीरे औरतों का समूह टैक्टर तर जुटने लगा ।मुनिया भी माँ संग आ गयी ।बाकि छोटी लड़कियाँ एक दूसरे को अपना झूमका ,झाला खिलौना दिखाने में मगन, औरतों का मंहगाई का रोना चल ही रहा था कि झुल्लन भी अपनी माँ संग आ गया । नहीं पहुँची तो चुनमुन ......माँ को भीतर- भीतर क्रोध आ रहा था लेकिन कहे तो क्या कहे कि बेटी बिना गवने के भतार संग घूम रही है मेला- ठेला । वह बेचैन हो इधर -उधर देखने लगी ।औरते देर होने का उलाहना दिए जा रही थीं ।मुनिया खुश हो रही थी कि अब दिदिया की कुटाई तय। इतने में झुल्लन लप से ड्राइबर की सीट से कूद कर सरसराते हुए निकल गया । 
                  
              अचानक बादल उमड़ने लगे .....अफरा -तफरी सी ज़मीन पर दुकान सजाए दुकानदारों में मच ग ई । बरसात का दिन होने से सब तैयारी के साथ थे प्लास्टिक का छाजन तनने लगा । बड़ी दुकाने पहले से तैयारी के साथ लैस थे । लोग घर की ओर लौटने लगे तो औरतों की भनभनाहट बढ़ी ।माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँचने लगा ......हल्की बूंदा -बांदी भी शुरु हो गयी ..झुल्लन की माई ने सबको ऊपर चढ़ कर बैठने का आदेश दिया ताकि उसके आते ट्रैक्टर चल दे । औरतें लड़कियाँ भरभरा कर चढ़ने लगीं ।इतने में मुनिया के कान में आवाज पड़ी .....ले लो ,ले लो भोपाल का सुरमा लगाते ही रौशनी लौट आए जो लगाए इसके गुन गाए ले लो ले लो sssssss........ मुनिया भागी ......माँ चिल्लाने लगी ...अरे मुअनी अब तू कहाँ भागी ......। बस इ हे से आई माई ....कह मुनिया लपकी चली जा रही थी कि सूरमा भोपाली खुद साईकिल समेत आ धमके ।लड़की ने झट रुमाल में गठिआया रुपया निकाल सूरमें वाले के हाथ पर धर गिड़गिड़ाई ......जल्दी दो चाचा। सुरमावाले ने सिक्के गिन कहा .......पाँच और लाओ । मुनिया को गुस्सा आया ..... काहें? आजी तो बोली थी पाँच का है । सुरमावाला पैसे लौटा साईकिल आगे बढ़ाने लगा । साथ -साथ बड़बड़ाते भी जा रहा था एतना महंगाई है और आज ले पाँचे रुपया रहेगा ।पाँच का तो खाली डिबिया नहीं मिलती। ..मुनिया रुआंसी हो गयी । रुको- रुको चाचा .....बस तनी सी कह बिजली की गति से माँ का रुख किया ।माँ का आँचल पकड़ हाँफते हुए कहा .....माई जल्दी पाँच रुपया दे ......काहें रे ? कौन सौदा पसारी अब तेरा रह गया ..माँ चिल्ला रही थी । गुस्से की लाली उसके आँख में पहले ही उतर कर तांडव कर रहा था ,अब और बढ़ गया । लड़की भी उसी आवेश में चिल्लाई .....आजी का सुरमा लेना है । इतना सुनते ही माँ ने झोंटा पकड़ कर घमाघम मुक्के घमकाना शुरु कर दिया ।बड़ी का गुस्सा छोटी पर निकलने लगा ....लोग खड़े होकर तमाशा देखने लगे तो टोले की औरतों ने बीच- बचाव कर माँ बेटी को अलग किया ।माँ राग कढ़ा कर चेकरने लगी .....हमार तो करमे फूट गया रे विधाता ....बुढ़िया ना जाने कौन जादू टोना ठेल है कि बेटी उसकी सुनती ही नहीं .......इधर मुनिया का हाल बेहाल ....लड़की सुबक -सुबक रो रही थी ....बाल बिखर कर चिड़िया का खतौना हो चुका था ।काजल भर मुँह फैल गया था ।उधर सूरमा वाला चिल्ला रहा था ..... ये आखिरी डिबिया है भाई लोग .....आईए ले जाईए .....माताओं बहनों को लगाईए ....बच्चे बूढ़ों को लगाईए । लड़की छटपटा उठी ....कुछ सूझ नहीं रहा था .....सामने से बहन झुल्लन के साथ आती दिखी तो बेचैनी और बढ़ने लगी, जानती थी , उसके आते ट्रैक्टर चल देगा। .....कभी सूरमा वाले को देखती कभी ट्रैक्टर की ओर .....तभी सामने से गुड़िया वाला अपना खोमचा लिए आता दिखाई दिया....लड़की भागी .....माँ गालियों की वर्षा करते पीछे भागी । झोले से गुड़िया निकाल गुड़िया वाले को लौटाने लगी तो उसकी ना नुकुर सुन बौखला उठी ....एक बच्चा बाँसुरी खरीद दस की नोट बढ़ाया ही था कि वह गुड़िया फेंक दस की नोट लपक सुरमें वाले की ओर भागी ...आखिरी ड़िबिया झट खरीद वापस मुड़ी ही थी कि सूरसा की तरह मुँह बाए माई को देख सहम ग ई ......माँ चोटी पकड़ घसीटते हुए लेकर चली ....लड़की के पास अब अपार धैर्य का पहाड़ ना जाने कहाँ से आ गया था ....वह लगभग माँ के साथ दौड़ते हुए चली जा रही थी । रास्ते भर लोग रोकते- टोकते रहे ......ट्रैक्टर के पास बड़ी बहन पहले से खड़ी थी । हाथ में झोला भर सामान देख मन ही मन माँ खुश हुई कि चलो दामाद मनजोग मिला । वह छोटी को छोड़ बड़ी को प्यार से झिड़कने लगी ....एतना टाईम लगा दी .......।
             
                   बड़ी ज़मीन में नज़रें जमाए मुस्कुराती रही । मुन्ना बो ट्रैक्टर की टाली पर खड़ी तमाशा देर से देख रही थी .....बाह -बाह बबुनी ,मनसेधु मन जोग मिला कह ताली पीट हँसने लगी ।बड़ी लजा के गड़ी जा रही थी ।झुल्लन ने नारा लगाया ......अरे अब चलबो करेगी जनता की डरामे चलेगा ।बैठते हैं बबुआ जी कह मुनिया कि माई टाली पर चढ़ गयी ।ऊपर औरतों प्लास्टिक का तिरपाल गोवर्धन पर्वत की तरह धारण किए हुए थीं ।माँ बेटी भी ओढ़ कर बैठ ग ईं । हल्की रिमझिम फुहारों ने मौसम को सुहाना बना दिया था । बगल की छोटकी ,पुनिया अपनी गुड़िया निकाल एक दूसरे को दिखा रही थीं ........मुनिया ने मुट्ठी खोल सूरमा की डिबिया को देखा ....आँसू आँख से निकल कर गले तक भर आया .....वह मुँह फेर कर सुबकने लगी । बड़ी अपनी सहेलियों से घुटनों में मुँह छुपाए खुसुर-फुसुर में मस्त थी । झुल्लन की माई ने बहुओं को ललकारा .........हे !कंठ रुन्हा गया का जी की रास्ता सुने कटेगा । मुन्ना बो ने मुँह चमका कर कहा ......अब का गाऐं चाची जी ?सावन है कजरी गाओ अउर का गाओ गी ।...झुल्लन की माई भी उसी अन्दाज में बोलीं । बहुऐं सोच बिचार करने लगीं ......मुन्ना बो ने राग कढ़ाया ........ पिया कहत त सारनाथ जाइत पिया मेला देख आइत पिया ना ..... आई सावन की बहार पड़ता पानी का फुहार मजेदार यार छतवा लगा के पिया मेला देख आइत पिया ना ....... रास्ता गाते बजाते कट गया ।मुनिया की रोते- रोते सिसकी बंध गयी थी । रह- रह कर गुड़िया याद आती । ट्रैक्टर झटके से उसके दुवार पर रुका । सबसे बाद में वह उतरी ।माँ बहन घर में उतरते चली गयीं । वह उतर कर घर के बरामदे में बूझे मन से आकर आजी की खटिया के पास खड़ी हो ग ई । बुढ़िया ने हँस कर पूछा .....का -का मोल लाई मोरी बुचिया ? लड़की की मुट्ठी में अब भी सुरमें की डिबिया जस की तस पड़ी थी ....हथेली फैला दिया ...अरे बाह ,ले आई रे मुनिया ,मेरा काजल । रो पड़ी भावातिरेक से ....लड़की के चेहरे को अपनी बूढ़ी निर्बल हथेलियों में धर चूमने लगी । इस बुढ़िया की सुध किसी को तो घर में है सोच लहालोट थी ।लड़की आजी की खुशी देख गुड़िया का गम भूलने लगी । 

               झोले में से खोज कर चिनियाबदाम निकाल आजी की हथेलियों पर धर दिया .....जानती थी आजी को बहुत पसन्द है ।बुढ़िया आँचल में रख फफक कर रो पड़ी । लड़की आजी के पोपले गालों को चूम गले से लिपट गयी और जोर -जोर से रोने लगी । बूढ़ी औरत ने पोती के बालों का हाल देख जान लिया था कि मामला क्या हो सकता है । आजी- पोती का मधुर रुदन प्रकृति को भी रास आया .....उस रोज मौसम की सबसे अच्छी बरखा हुई ।जीव जन्तु से ले धरती का रोम रोम तर हो गया । 
 

सोनी पाण्डेय
 कृष्णा नगर ,म ऊ रोड सिधारी ,
आज़मगढ़ 
उत्तर प्रदेश 276001▶ 

बुधवार, 2 नवंबर 2016

अमन त्रिपाठी की कविताऐं

१. लड़की मुसलमान है ___

किसी को नहीं पता था
कि वो मुसलमान है
शक्लोसूरत हिंदू जैसी
चलना ढलना हिंदू जैसा
बोलना बतियाना वैसे ही
जैसे वहाँ हिंदू बोलते थे

वो सब तो ठीक था!

हाथ भी जोड़ती थी
पूजा तक में आती थी
लड़की थी
अचानक किसी रोज़
लोगों को पता चला-
वो मुसलमान है
अजी वो,
हाँ वही वही
हाँ वही लड़की
वो मुसलमान है
लड़की - मुसलमान है !

***
हिंदू दिखना ज़्यादा ज़रूरी था
इंसान होने की बजाय हाथ जोड़ना
ज़्यादा ज़रूरी था
सर झुकाने इज़्ज़त देने की बजाय
हमारी सभ्यता में दिखना ज़्यादा ज़रूरी था
होने की बजाय

***
जब तक लोगों की नज़र में वो हिंदू थी
वो आम लड़की थी
जब उसके मुसलमान होने का पता चला
वो खास लड़की थी
जैसे वहाँ कोई और लड़की थी ही नहीं
लड़की ! वो भी मुसलमान !

______________

२. आत्महत्या और चांद ___ ...

और चांद लौटता रहा
देर-देर तक उसके दरवाज़े पर
थपकियाँ देकर चांद चिंतित था
उसने धरती से हवाओं, फूलों,
चिड़ियों और पौधों की एक सभा बुलायी
और उसने जानना चाहा कि क्या धरती पर जीवन की मात्रा कम हो रही है
चांद फुटपाथों पर भटका
और उसने फुटपाथ पर सोने वाले हर आदमी के चेहरे के अंदर झांककर देखा
चांद नदियों से होकर गुजरा और उसने नदियों के बहने की आवाज सुननी चाही
चांद सोते हुए बच्चों के खिलौनों के पास गया चांद झगड़ते हुए भाई बहनों के पास गया
चांद, अपने प्रेमी की याद में रोती प्रेमिका के पास भी गया
वह हर जगह गया
लेकिन वह नहीं जा पाया उस दरवाजे के पार ! कई-कई दिनों तक चांद लौटता रहा देर-देर तक उसके दरवाजे पर थपकियाँ देकर-

***

दरवाजे के तिलिस्म से बाहर ले चलूँ
उससे पहले एक बात - मैं कल्पना करता हूँ कि   एक लड़की,
जो अरसे से आत्महत्या के बारे में सोच रही है बल्कि इस समय भी वो किसी से वैसी ही बातें कर रही है,
से वो पूछे - क्या तुम्हारी बालकनी से चांद दिखता है ?
मैं कल्पना करता हूँ कि लड़की जो आत्महत्या करना चाहती है
वह इस बेमौके पूछे गए सवाल पर झुंझलाए और धीमे से कहे - क्या वाहियात सवाल है.

***
चांद जो कि दरवाजे पर थपकियाँ दिये जा रहा है
और अंदर वह लड़की झुँझलाकर कहती है-
क्या वाहियात सवाल है...
चांद आज भी चला जाता है
मैं भी चाहता हूँ वह चला जाय झुँझलाने के बाद शायद वह लड़की बढ़े जीवन की तरफ और दरवाज़ा खोलकर बालकनी में आने पर उसे चांद अपनी जगह पर ही दिखना चाहिये - ______________

३. दीवाली में ___

पता चला है
दीये लाने की कवायद में-
श्रीराम कोंहार ने
अब दीये बनाना बंद कर दिया है
सुरेन्दर चपरासी के घर भी दीवाली आएगी
और सबेरे से चार बार रिरिया चुका है पैसे को पैसे मिलें तो उसके घर कुछ सामान आ जाए पांचवीं बार रिरियाने के लिये
फिर काम में लगा है
अखबार में खबर है -
इतने जवानों की मौत और त्योहारी माहौल खराब होने का एक भद्दा सा अभिनय
बाहर के सामान उपयोग में नहीं लाएँगे
दीये जलाएँगे और गरीबी दूर करेंगें
इस तरह सुन रहे हैं ताकते हुए कोंहार, चपरासी...
-

अमन त्रिपाठी
शिक्षा - बी.टेक तृतीय वर्ष
लखनऊ
मो. नं. - 9918260176

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

रुचि भल्ला की कहानी

कहानी
---------------------- शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक .
......... ---------------------------------------------------- बूढ़ी होती 2015 की शाज़िया की यादें अब भी 1945 सी जवान हैं। उम्र की देह बूढ़ी होती चली जाती है पर देह के अंदर दिल सदाबहार के फूल सा ताजा रह जाता है। शाजिया के घर की खिड़की पर 1945 वाली याद हर शाम जाकर खड़ी हो जाती है उसी ताज़गी के साथ ....गुलाबी आँखों से कुमार की छत को देखती हुई .... वहाँ पतंग उड़ाता कुमार अब रहता नहीं है पर शाजिया को दिखता है अब भी वहीं । बीते बरसों में शाज़िया की आँखों में मोतियाबिंद उतर आया है पर कुमार अब भी वैसा दिखता है उसे उन आँखों से । अठारह का कुमार .... और वो सोलह के गुलाबी गालों वाली ।1945 में कुमार छत पर शाजिया के लिए आता था ।पतंग तो बहाना था । उसे शाजिया के संग वक्त बिताना होता था ।वो पतंग के साथ बहुत कुछ लाता कभी नीले कंचे कभी हरी चूड़ियाँ कभी खट्टा चूरन मीठे अमरूद चमेली के फूल लेमनचूस की गोलियाँ मखमली मोरपंख और गुलाबी कविताएँ ... शाजिया भी उसके लिए लाती थी ... परांठे में मक्खन की पर्तें लगा कर... हाथ में आम के अचार का महकता टुकड़ा छुपा कर । वक्त पतंग के साथ उड़ता रहा कुमार चौबीस का वो बाइस की हो गई....तभी एक रोज़ कुमार चला गया कहीं आगे की पढाई करने ....और जाते हुए शाजिया की खिड़की को दे गया लंबा इंतजार। जाते-जाते उसके हाथ कोई वादा तो नहीं दिया पर उसके हाथों में गीली मेंहदी की खुशबू वाली याद थमा गया। शाजिया उस खुशबू के साथ खिड़की पर खड़ी रहती ।ऊन के गुलाबी गोले साथ लिए , इंतजार की सिलाईयों पर तारीखों के फंदे डालती रहती। कुमार के लिए मेंहदी की खुशबू वाले मफलर बुनती जाती शाजिया अब बड़ी हो रही थी । साथ ही बड़ा होता जा रहा था हाथ में थमा इंतजार की ऊन का गोला भी । ये बात उन दिनों की है जब एक घर के आँगन में गुलाब खिलता तो खुशबू घर से जुड़े कई आँगनो में महकती थी .... पतंगें उछलते -कूदते कई घरों की छतें लाँघती जाती थीं । घरों के दरवाजों पर नाम बेशक अलग होते पर लोग घरों के अंदर एक दिल के होते थे ।वो वक्त ही ऐसा था .... कहते हैं वक्त सदा एक सा नहीं रहता , घूमता है उसका पहिया और देखते-देखते घूम गया । वक्त की आयी इस तेज आँधी में पतंगें फड़फड़ायीं .... गमले टूटे ..... गुलाब से खुशबू का लाल रंग बह गया ।बहुत कुछ बदला इस बीच .... नहीं बदला तो शाजिया का कुमार के लिए इंतजार। वो खिड़की से देखती ....उसे उड़ती पतंग दिखती ... कुमार नज़र नहीं आता .... कुमार पतंग के साथ उड़ते हुए कहीं दूर निकल गया था ...... इतना दूर कि शाजिया की आँखें खिड़की से उसका पीछा नही कर पातीं । ....इस इंतजार के साथ शाजिया अब बड़ी हो रही थी ... बड़ी हो रही थी उसकी उम्र ..... और ब्याह दी गई शाजिया एक दिन ..... विदा हो गई नए घर में .... ये नया घर सारा उसका अपना था .... नहीं थी तो केवल उसके कमरे की खिड़की। वैसे ये खिड़की बहुत बड़ी थी ....दूर तक दुनिया दिखती थी ... सिर्फ कुमार के घर की छत नज़र नहीं आती थी वहाँ से। शाजिया खिड़की बंद रखती थी। उसके हाथ अब घर के कामों में उलझे रहते ..... बुनाई करने का उसे वक्त नहीं मिलता .... और वैसे भी सर्दियों का वो गुलाबी मौसम बीत चुका था। शाजिया की उंगलियां अब क्रोशिया बुना करतीं इस नए मौसम में। घर की साज-सजावट का सामान बुनतीं ....मेजपोश .... चादर कुशन सिरहाने के गिलाफ.....। कुछ दिन बीते .... शाजिया मायके जा रही थी अम्मी-अब्बू के पास। ट्रेन पटरियों पर दौड़ रही थी ... दौड़ रहा था संग-संग शाजिया की आँखों का इंतजार .... शाजिया अपने घर की गली तक पहुँची ही थी कि उसके घर की खिड़की से आती सेंवईं की खुशबू दौड़ते हुए उसके गले जा लगी । घर के बाहर तांगा आ रुका।तांगे से नीचे उतरती शाजिया के साथ उसकी उम्र भी उतरने लगी , वो 1945 की हो आयी ।दौड़ते हुए अपने घर से गले मिली और भागते हुए जा पहुंची अपने कमरे में और रुक गई जाकर खिड़की के पास । शाजिया अर्से बाद खिड़की खोल रही थी पर अब वहाँ खिड़की के सामने कुमार की छत नहीं थी ।वहाँ उस छत पर अब सकीना खड़ी थी उसकी छुटपन की सहेली हाथ में किताब लिए । शाजिया कुमार को तलाश ही रही थी कि तभी कमरे के अंदर आते हुए अम्मी ने बताया, " सकीना के अम्मी-अब्बू ने कुमार का घर खरीद लिया है ।" चाय का कप मेज पर रखते हुए अम्मी बोल रही थीं , " एक रात अचानक बहुत तेज हवा के साथ आँधी चली शाजिया.... बहुत तेज तूफान था उस रात ....जलजला आया था शहर में .... और बहुत कुछ तबाह कर गया ... गिरा गया कई घरों की नींव ....उड़ा कर ले गया अपने साथ कई घरों की छतें .... उस रात कुमार का परिवार यहीं रुक गया था हमारे घर ....सुबह मुँह अँधेरे सरहद पार कर गया। सुना है ...अब दिल्ली में रहता है उनका परिवार ।" अम्मी की आवाज़ काँप रही थी उनके काँपते हाथों में नीले रंग का मखमली डिब्बा भी काँप रहा था ।शाजिया के हाथों में थमाते हुए बोलीं, "जाते हुए कुमार ये तुम्हारे लिए दे गया है, तुम्हारी शादी का तोहफा। "अम्मी डिब्बा थमा कर चली गईं । शाजिया ने कँपकँपाते हाथों से उसे खोला....डिब्बे में काँच की हरी चूड़ियाँ थीं ......शाजिया और कुमार का पसंदीदा हरा काँच रंग ।शाजिया हाथों में वो चूड़ियाँ पहनने लगी , अपने हाथ उसने कलेजे से लगा लिए। चूड़ियाँ कुमार की याद से खनकने लगीं। खनकती चूड़ियों में से आम के अचार का स्वाद उसके कमरे में महकने लगा ....। यादें कच्चे आम सी हरी हो आयीं ....इतनी हरी कि शाजिया पर आम और चूड़ियों का हरा रंग उतरने लगा। शाजिया हरी हो आयी। ....अलमारी खोल कर सिलाईयाँ निकाल बैठी और बुनने लगी कुमार की यादों का अधूरा मफलर .... तबसे बुन रही है शाजिया खिड़की पर खड़ी हुई ..... फिर ससुराल नहीं लौटी ...। सरहद के आर-पार पहरा देते सिपाही ये बात बताते हैं कि हर रोज़ आधी रात को सरहद पर दो दिल कहीं से आकर मिलते हैं ....हर सुबह सरहद पर दिखते हैं उन्हें हरे काँच की चूड़ियों के टुकड़े ....गुलाबी ऊन की बिखरी कतरनें ...और मिलते-बिछड़ते कदमों के निशान .... ।सरहद के आर -पार के सिपाहियों ने उन कदमों के निशान से पता लगाया है .... ये पाँव शालमी गेट और कश्मीरी गेट से आते-जाते हैं .... पर सिपाहियों को मालूम है इन निशानों की हकीकत कि रूहों के पाँव नहीं होते .... उनके पास तो सिर्फ दिल होता है ... और दिलों को आपस में मिलने से कोई सरहद रोक नहीं सकती ..........

- Ruchi Bhalla
परिचय नाम : रुचि भल्ला
प्रकाशन : परीकथा एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ... समाचारपत्रों में कविताएं प्रकाशित... काव्य संग्रह : कविताएँ फेसबुक से , काव्यशाला , सारांश समय का , क्योंकि हम ज़िन्दा हैं , कविता अनवरत ,ब्लाॅग : पहलीबार हमरंग गाथांतर अटूट बंधन प्रसारण : आकाशवाणी के इलाहाबाद तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण ... काव्य-मंच ... संपर्क : C -9 803 पुरी प्राणायाम सेक्टर 82 फरीदाबाद हरियाणा मोबाइल नं 09560180202 ई. मेल ruchibhalla72@gmail.

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

सोनी पाण्डेय की कवितायेँ


1--------

तुम्हारे जाने के बाद .......

तुम्हारे जाने के बाद 
जाना कि 
कैसे रखता है धैर्य खोकर अपनी टहनियों से 
सूख कर गिरे पत्तों को पतझड में दुवार का बरगद 
जबकि सबसे अधिक जरुरत थी उसे उन दिनों 
पत्तों की चादर की 
शुष्क होते मौसम में ।
फटी बिवाईयों सूखी टहनियों का सिहरना 
पपडियाये सूखे होंठ की दरारों से खून की लाली का झलकना 
मैंने देखा है टभकते दर्द की अनुभूति में सिहरते 
बरगद को 
तुम्हारे जाने के बाद ।

तुम्हारे जाने के बाद भी निकलता है सूरज 
गली के मुहाने से 
बिखेरता है सिन्दुरी छुवन हथेलियों पर 
सुलगा देता है ठण्डी पडी राख में दबी यादों की चिन्गारी से 
जीवन के अलाव को 
अब भुले से यादों की बस्ती में सावन नहीं आता 
पतझड  ने डाल लिया है डेरा 
बरगद सिहरता है 
सुलगता है 
दहकता है 
तुम्हारे जाने के बाद 
मैंने देखा है ।

2---------

रंग निरगुन सा रंगा सांची .......

रंग घोल लिया है टहटह लाल 
विदाई की चादर रंगा लिया है रंगरेज 
टांक दिया है चाँदनी का चँदावा चादर में 
तारों की झालर लगा सजा रही हूँ 
उस दिन जाऊँगी ओढ़ कर 
रंग निरगुन सा रंगा सांची 
जिस दिन आएगी डोली 
तुम्हारे देस से ।

रंग रही हूँ रंगरेज 
चमचम चमकते जुगनुओं के पंख सा श्वेत 
चमकिला 
सजा रही हूँ अमलतास के रंग में घोल कर 
जोड़ा , 
पहले लपेट देना श्वेत रंग में रंगी चुनर में 
फिर सजा देना ऊपर से जोड़ा ऊढा 
जिस दिन रंगूँगी रंग निरगुन सा सांची ।

3-----

मौन गुनती हूँ आज भी ....

मौन गुनती हूँ आज भी 
तुम्हारे आँखों की भाषा 
जिसमें लिखी थी तुमने 
राग गुलाबी 
प्रेम अनुरागी 
बजते थे तार - तार अमृत सा 
सितार धुन 
तुम्हारी आँखों में 
मौन सुनती हूँ आज भी 
जब उमड़ते हैं बादल मिलन के 
सजती है धरती 
चाँद थोड़ा और होता है मदहोश जब 
मैं पढ़ लेती हूँ 
सूखी पड़ी लहकती 
दहकती धरती पर 
तुम्हारे मौन आँखों की भाषा

ये प्रेम का सिन्दुरी विहान था 
जानकर 
संजोये रहती हूँ जीवन की उम्मीद 
जरुरी है जीने के लिए 
बचा रहना आँखों से आँखों का मौन मिलना 
गुनना स्नेह अनुरागी ।

4-----------

माँ तुम्हारे गीत .........

माँ तुम्हारे गीत और जीवन
जैसे कलरव बादलों का 
जैसे गुनगुन भौरों का 
जैसे महकी हो अभी - अभी 
खिली हुई रातरानी 
कहा हो तितली से 
सो जा नन्हीं  परी । 
   माँ तुम्हारे गीत  और जीवन 
    जैसे अँखुवाऐ गेंहूँ की बालियों का कहना 
     ठहरो बस पकने को है भूख 
      जैसे सिहरते हुए जाडे में कहा हो अलाव ने                                 
         बैठो दम साध कर कि शेष है जीने भर 
         आग राख में 
          जैसे कहा हो चौखट ने मुंडेर से अभी - 
            अभी 
             रखा हैं पाँव दुलहीन ने
             पडा है छाप आलते की लाली का 
             घर भरा है खुशियों से ।
माँ तुम्हारे गीत 
जैसे नूर आसमानी 
जैसे  भरी झोली फकीर की 
जैसे साँझ की लाली 
जैसे रंग सतरंगी , रंगी हो भोर 
जैसे आ बसी हो 
देह में मधु की नरम मिसरी ।

         माँ तुम्हारे गीत......

              
            
5----------

मैंने सुना है अपने शहर के अन्तरनाद को .......

जब साँझ ढलती है 
रातरानी की मधुर देह सजती है 
गाती है राग अमर जीवन का 
रंग कर रंगरेज सुबह की चादर 
फैला देता है आकाश के छत पर 
मेरा शहर जागता है 
करघे पर तान कर तकली भर धागा 
बुनता है सूत - सूत जोड कर 
अरमानों की म ऊवाली साड़ी 
ये साड़ी थोडी सिली मिलेगी कबीर के लहरतारा में 
मीरा के प्रेम गीतों में 
घुँघरुओं की खन खन सी खनकती 
करघे की लय में 
मैंने सुना है अपने शहर के अन्तरनाद को ......

जब आती है साथ साथ 
आवाज अजान और आरती की 
उठती है लोहबान और अगरबत्ती की गन्ध 
मन्दिर , मस्जिद और मज़ारों से 
ये शहर हँसता है खिलखिलाकर 
जब मिलते हैं गले 
ईद और होली में 
राम और रहमान 
चाँदनी तान लेती है चँदावा नूर का 
मैंने सुना है अपने शहर के अन्तरनाद को .....

6-----

किसी दिन आऊँगी मैं .....

मेरे जाने के बाद 
तुम उदास हो 
कि जैसे सूख कर गिर गयी हूँ 
तुम्हारी साख से

देखना 
मैं मिलूँगी 
ओस की चिड़िया बन 
मोती चुनते 
तुम्हारी हथेलियों पर
जब चाँद थोड़ा अलसा कर 
सर्द रातों में सिकुड़ कर बैठेगा 
आकाश की गोद में

देखना 
मैं मिलूँगी 
तुम्हारे कानों में हरहराती 
बासन्ती पवन संग गुनगुनाते 
जब सूरज थोड़ा गरम होगा

मैं आऊँगी हर उस रात को 
जब वन बेला महकेगी 
मैं आऊँगी हर उस भोर में
जब हर सिंगार की गन्ध में नहाए तुम
आँखें मीचे मन की अतल गहराईयों में 
मुझे निहार रहे होगे

देखना मैं आऊँगी.......

सोनी पाण्डेय

परिचय

नाम --सोनी पाण्डेय
शिक्षा ----एम.ए.हिन्दी साहित्य
शोध---निराला का कथा साहित्य :कथ्य और शिल्प
संप्रति -----ड्राप आउट लड़कियों को शिक्षण ।
                 लेखन
प्रकाशन ----काव्य संग्रह ----मन की खुलती गिरहें 
गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक का संपादन

कथादेश ,कथाक्रम ,आजकल ,कृतिओर ,संवेदन,यात्रा ,सृजनलोक ,समकालीन जनमत ,संप्रेषण आदि पत्रिकाओं तथा दैनिक हिन्दुस्ता और दैनिक भास्कर बिहार ,नयी दुनिया मध्य प्रदेश के साथ -साथ स्त्री काल ,अनुनाद,लाईव इण्डिया,पहली बार ,सिताब दियारा ,हमरंग आदि ब्लागों पर रचनाओं का प्रकाशन।

नेपाली भाषा में कुछ कविताओं का अनुवाद।

हिन्दी के अतिरिक्त भोजपुरी में कविता/कहानियों का लेखन एवं अनुवाद।

पता -----कृष्णा नगर 
             म ऊ रोड ,सिधारी ,
              आज़मगढ़ ,उत्तर प्रदेश
              पिन -276001
मोबाईल नम्बर---9415907958
ईमेल--pandeysoni.azh@gmail.com