शनिवार, 7 मार्च 2015

मायामृग की कविताओं में स्त्री संवेदना..


आज गाथांतर पर, स्त्री संवेदनाओं की गहरी पड़ताल करती मायामृग की कविताएँ| 


ये कविताएँ प्रासंगिक हैं बी.बी.सी. के इंटरव्यू पर, महिला दिवस पर, झोल वाली चारपाई की श्यामा पर, स्त्री की हाँ और स्त्री की न को भी हाँ समझे जाने की विद्रूपताओं पर, ये कविताएँ स्त्री मन की गहरी पड़ताल ही नहीं करतीं विसंगतियों पर करारी चोट भी करती हैं, बिना किसी शोर के बिना किसी रोर के. तो आइये पढ़ते हैं, मायामृग  की कुछ कविताएँ विश्व महिला दिवस पर..


'देह भर दृश्‍य में मन भर मांगने की छूट नहीं
मांग लो कि जो मांगना हो
राहत की तरह मांगना
अधिकार इस गोले से बाहर नहीं जाते
तुम रोशनी के गोले में हो,
उनकी आंखें अंधेरे से देखती है
तुमको रोशनी में रहकर देखनी हैं अंधेरे की आंखें----।'




 १     असहमति के सोलह साल
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विवाह के सोलह साल बाद
सोचती है श्‍यामली
कभी सहमति नहीं ली गई उसकी
देह उसकी थी देहपति दूसरा था.....
सहमति नहीं ली गई उसकी
जब पहली बार किन्‍हीं निगाहों ने
बाहर से भीतर तक नाप डाला उसे
उसकी देह के बारे में जितना जानते थे शोहदे
उतना तो खुद उसे नहीं पता.....
असहमति तोड़ना पुरुषत्‍व भरा है
यही जानकर सहमति के बिना
जीती रही है उसके साथ
जिसके साथ बिना सहमति के बांध दिया गया था उसे
जीवन भर के लिए....
कि इसकी ना में हां है
यह जुमला जाने कितनी बार सुना
जाने कितनी बार पढ़ा पुरुष की निगाहों में
कुल तीस साल की उम्र में
पहले चौदह साल पिता की सहमति के थे
बाद के सोलह पति की.....
जाने कौन तय करता है सहमतियां
जाने क्‍यूं नही पढ़ी जाती असहमतियां
सहमत और असहमत के वाक युद्ध में
वह हमेशा से मौन है
यह जाने बिना कि उसके मौन को हां समझा जाएगा.....
उसने कहा ना...
बोला नखरे दिखाती है साली
उसने कहा हां
बोला चालू है यार....
वह चुप है.....वह मानता है सहमति मिल गई.....


२      चांद-रातें
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चांदनी के झूले में झूलती है स्‍त्री
चांद-रातों में जब वह होती है चांद के साथ अकेली...।
घर भर के लोगों को नींद में भरमाकर
सबसे आंख बचाकर
सिर्फ उसे देखता है चांद
जब वह लगाती है बाहर लोहे के गेट पर
रात का ताला
सुनसान गली में उसके साथ
अकेला होता है चांद....।
उसी के लिए ठहरता है चांद
अलसुबह सबके उठने से पहले
बताकर जाता है उसे
रात भर की कहानी
उसे जाते हुए देखकर हाथ हिलाती है स्‍त्री
हाथ हिलते हैं और आंगन में बिखरी चांदनी
बुहारी जाती है...।
दिन खुलते-खुलते खुलती है सबकी आंख
सब चढ़ता सूरज देखते हैं तब
चुपके से मैले कपड़ों के ढेर में जा छुपता है चांद
स्‍त्री गट्ठर उठाती है और चल देती है
इधर रसोईघर से उठता है धुआं
उधर चांद चमकता है अलगनी पर...।
सफेद चीनी मिट्टी की प्‍लेटों पर
हल्‍दी के दाग
चांद के धब्‍बे हैं, जानती है स्‍त्री
उसके सधे हाथ लौटा लाते हैं चमक
चांद उतर आता है सिंक में
और ठंडे पानी में चुपचाप बह जाती है मैली चांदनी...।
उसके चेहरे में चांद है
पहली बार कहा था उसके प्रेमी ने
तब से चांद उसके सपनों में था
चांद रातें अमावस नहीं जानतीं थीं...।
गरम पानी से रगड़ रगड़ कर चमकाती है फटी एडि़यां
चेहरे पर लगाती है मुस्‍कुराहट की गाचनी
और दिन ढलते ढलते उसकी आंखों में उतर आता है चांद...।
कट जाता है जब दिन कटते कटते
कल सुबह के लिए सब्‍जी काटकर रखते हुए
बतियाती है स्‍त्री पड़ोस की स्त्रियों से
चमकते हैं स्त्रियों के चेहरे
सब की सब बात करती हैं चांद रातों की
कभी चांद की...कभी रातों की...।
चांदनी के झूले में झूलती है स्‍त्री
सुबह के चांद से रात के चांद तक
जितना आगे जाती है...उतना पीछे लौट आती है
वह अकेली झूलती है झूला चांदनी का
उसके साथ झूलती हैं चांद-रातें....।





  ३    झूठ बोलती स्‍त्री
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बहुत सारे सच जमा होते जाने पर
जरुरी हो जाता है जब उन्‍हें कह देना
तब झूठ बोलती है स्‍त्री....।
झूठ बोलती है स्‍त्री
कि हां सब ठीक है, मां से बात करते हुए
पिता को आश्‍वस्‍त करते हुए
कि उन्‍हें जरुरत नहीं है यहां आने की
कि जैसे उन्‍हें सिर्फ वहीं जाना चाहिए
जहां सब ठीक ना हो...।
झूठ बोलती है
कि उसने तो पहले ही खा लिया था
बनाते बनाते, ये जो कम रहा है शेष
इससे चल जाएगा उसका काम
वैसे भी उसे भूख कम लगती है इन दिनों
तुम संतुष्‍ट होते हो जाते हो झूठ से
क्‍योंकि तुम जानते हो सच...।
रात भर के सफर में
बहुत पीछे छूट गई स्‍त्री
आवाज देने के लिए तलाशती रही अपनी आवाज
सुबह होने तक...जहां तुम्‍हारा दिन शुरु होता है
और उसकी यात्रा...।
शेष देह को संभालते हुए
झूठ बोलती है स्‍त्री प्रेम की आड़ लेकर
नहीं बताती कि हाथ छूट गए थे
पहले कदम के साथ ही
कि बिस्‍तर पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गया था....प्रेम।
चेहरे पर आंख के ठीक नीचे की चोट
कितनी भी सच हो
नहीं टिक पाती स्‍त्री के झूठ के सामने
कहीं भी तो गिर सकता है कोई,
गिरने को कहां चाहिए कोई बहाना
होठों को जरा सा खींचकर मुस्‍कुराते हुए
सच को गिरा देती है आंख से, आंख छिपाकर
जब झूठ बोलती है स्‍त्री....।
झूठ बोलती है स्‍त्री कि बचा रहे तुम्‍हारा सच
तुम्‍हारे कमजोर सच
जाने कब कसे जाएं संदेह के पंजों में
स्‍त्री बनाती है तुम्‍हारे लिए रक्षा कवच
झूठ की ध्‍वनियां मंत्रों से बिंधी हैं
ये समझते समझते ही समझ आएगा तुम्‍हें...।
रहने दो, तुम सच की जीत के ये आख्‍यान
स्‍त्री के झूठ
शास्‍त्रों की मदद से नहीं पढ़े जा सकते
अपने ही सच नहीं सुन सकते स्‍त्री के मुंह से
स्‍त्री के सच जानने की बात जाने दो...
कविता की तरह नहीं बांचे जाते स्‍त्री के सच
तुम्‍हारी कल्‍पना में बहुत सुंदर है स्‍त्री
उसे उतना ही समझो
सत्‍यं और शिवम जप-तप-पाठ के लिए छोड़ दो....।



  ४   छौंकी गई कविता
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सच...
कोई जादू नहीं जानती है वह
जो करती है उसमें जादू जैसा नहीं है कुछ भी
उसे बस अच्‍छा लगता है कविता लिखना
वह लिखती है....।
धुंधली सुबह में होता है कविता का पहला पाठ
जब आखिरी तारा उसे देखते ही मूंद लेता है आंख
ठीक वैसे जैसे उसका बेटा
करता है शरारत, अक्‍सर...।
वह जानती है शरारती तारे को उठते ही
चाहिए गरम दूध
ि‍फ्रज से निकालती है
और गैस के चूल्‍हे पर गरम करती है कविता
उफनने से पहले उसके सधे हाथ
संभाल लेते हैं और कविता अपनी लय से बाहर नहीं जाती....।
आंगन भर फैले शब्‍दों को बुहारकर
डाल आती है आलोचना के खाते में
और पानी की बाल्‍टी लेकर पौंछ डालती है भेद-मतभेद
जरा से गीलेपन में बार बार ि‍फसलने से बच जाती है कविता....।
उसे याद रहते हैं कविता के सारे संस्‍कार..सारे कर्म
भले ही भूल जाए कविता का गणित...।
कल के ठंडे विचारों को निकाल कर छीलती है
काटती है शब्‍द दर शब्‍द..कभी गोल, कभी लंबाई में
गरम करती है कड़ाही में वैयाकरण
छौंकती है काव्‍यशास्‍त्र के सिद्धांत
और कविता की खुशबू
दूर तक फैल जाती है, कवियो के उठने से पहले...।
नहीं, सच में जादू नहीं जानती है वह
कविता भी नहीं जानती है वह
जानने का काम तो तुम्‍हारा है....वह तो रचती है बस...
तुम चाहो तो इसे जादू कह लो....।




 ५     पानी वाला घर
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समूह में विलाप करती स्त्रियों का
स्‍वर भले ही एक है
उनका रोना एक नहीं...
रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से
सामूहिक बहाने पर....
कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से
बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं...
कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।
बेमौका नहीं रोती स्‍त्री....
मौके तलाशकर रोती है
धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...।
पानियों से बनी है स्‍त्री
बर्फ हो जाए कि भाप
पानी बना रहता है भीतर
स्‍त्री पानी का घर है
और घर स्‍त्री की सीमा....।
स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती
पानी घर बदलता नहीं....।
विलाप....
नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है
तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे
याद दिलाते हैं कि-
उसका बहना एक उत्‍सव है
उसका होना एक मंगल
नदी को नदी में ही रहना है
पानी को घर में रहना है
और घर
बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...।
घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में....
गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर
आंगन तक...।
घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है...
स्‍त्री गली में झांकती है,
गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....।
....गली की उस ओर से उठ रहा है
स्त्रियों का सामूहिक विलाप....।





 ६     चयनित सुख
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स्‍वतंत्रता का झंडा उसके हाथ में पकड़ाकर
घोषणा हो गई है
अब स्‍वतंत्र है स्‍त्री....
स्‍वतंत्र कि हां कह सकती है
हर पूछे गए प्रश्‍न के उत्‍तर में
चाहे तो चुप रहकर भी दे सकती है स्‍वीकृति
यूं भी मान लिया जाएगा मौन को सहमति के खाते में....।
चयनित सुखों में से कुछ सुख उसके भी हैं
चाहे तो रख सकती है
बुरे दिनों के लिए बचाकर
या कि खर्च कर ले सांझ होने से पहले
अंधेरा होने पर इन्‍हीं को जला सकती है
दीया बनाकर....।
मनोनीत दुखों में कुछ दुख उसके भी हैं
जिन्‍हें हर सुबह उठकर टांग देना है
खूंटी पर
कि जिन पर लटकते रहना दुखों को भुला देने जैसा है
चुप्पियां भी वहीं हैं, उन्‍हीं खूंटियों पर
जिनमें रुदन इसी तरह अटका हुआ लटक रहा है
मैले कपड़ों के बीच....हिचकियों के साथ।
मिल गए सुखों को नकाराना
और सुख का नए सिरे से चुनाव
दुखों को मनोनीत करना है
संतोष का सुख उसके हिस्‍से है,
चाहे तो आंचल में सहेज ले
या उठाकर रख दे आलमारी में
जहां रखे हैं बीते हुए समय के टुकड़े
सोने के जेवरों के बीच....।
स्‍वंत्रता का झंडा ऊंचा रहे
स्‍वतंत्र है स्‍त्री कि झंडे को जितना भी ऊंचा उठा कर
लगा सकती है गगनभेदी नारा
गगन में नारों की सीमा नहीं
अनंत विस्‍तार तक गूंज रहेगी
इतनी स्‍वतंत्रताओं के बीच अगर
खुश नहीं है स्‍त्री तो ना हो
खुशी के लिए स्‍वतंत्रता की परिभाषाएं तो नहीं बदली जा सकतीं...।



    ७    इस एक दृश्‍य के बाद

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विवस्‍त्र स्‍त्री देह पर आकर गिरता है 
प्रकाश का वृत 
देह के बंध खुलते खुलते खुल जाएगी रोशनी 
सूरज में चमकती है एक लपट तेजी से
मंच पर अंधेरा बताता है कि स्‍त्री की देह केन्‍द्र में है----।

आह, कि कैसा तिलिस्‍म रचती है देह

देह ही रचती है दृश्‍य---दृश्‍य में कुछ नहीं बदला-- 
तो जरुर बदला होगा कुछ देखने वालों के भीतर
प्रेक्षागृह मेंं बजती हैं तालियां----।

स्‍त्री, लो यह प्रकाश का पुंज तुम्‍हारा हुआ

तुम्‍हारे ताप हरने को पसरा हुआ है 
एक ठंडा अंधेरा
नेपथ्‍य में रची जा रही है अगले दृश्‍य की भूमिका
तुम्‍हें सिर्फ संवाद पर होंठ हिलाने हैं
थोड़ा सा कसाव रहे देह में, आंख ठहरी रहे दृश्‍य बदलने से पहले
विदूषक भर देगा इस दृश्‍य और अगले दृश्‍य का अंतराल----।

प्रकाश धीरे धीरे मंद होता है--- उठो

तुम्‍हारे इर्द गिर्द के अंधेरे में अब तुम भी शामिल हो
यहां भेद मिट जाता है देह और विदेह का--।

देह भर दृश्‍य में मन भर मांगने की छूट नहीं

मांग लो कि जो मांगना हो 
राहत की तरह मांगना
अधिकार इस गोले से बाहर नहीं जाते
तुम रोशनी के गोले में हो
उनकी आंखें अंधेरे से देखती है 
तुमको रोशनी में रहकर देखनी हैं अंधेरे की आंखें----।