बुधवार, 10 जून 2015

सोनी पाण्डेय की कविताएँ

डॉ सोनी पाण्डेय की छह कवितायेँ
समर्पित स्त्री की व्यथा

1.
मेरे मौन को
तुम समझते हो
अपनी विजय
सुनो !
सुनायी दे रही है
तूफान की आहट.
मैँ जानती हूँ
तुम नहीँ सुनोगे
क्योँकि,
तुम प्रकृति के प्रकोप के बाद ही
चैतन्य होते हो ।

2.
मुझे याद है
विदा करते हुऐ
माँ ने दिया था
एक पिटारी
जिसमेँ बंद किये थे उसने
अपना साहस, धैर्य, त्याग
बडे जतन से सजाया था
अपने मौन की परिभाषा
कहा था
पिता का दिया खत्म हो जाऐगा
नहीँ खत्म होगी
मेरे संस्कारोँ की थाती ।

3.

मुझे छूकर तो देखो
मैँ पाषाण प्रतिमा नहीँ
पंचतत्व से निर्मित
साकार मूरत हूँ
माँ, बहन, बेटी
पत्नी, प्रेयसी होने से पहले
औरत हूँ ।

4.

झरोखोँ से झांकती हूँ
क्योँकि दरवाजे पर
परम्पराओँ के
संस्कारोँ के
सात पहरे हैँ
जिन्हेँ लांघते ही
समाप्त हो जाऐँगी
सारी वर्जनाऐँ
निकल आऐँगे डेँगे
जिन्हेँ दरो - दीवार से
टकराकर
तोड़ती रही लडकी
हाँ
अब लड़कियाँ उड़ रही हैँ ।

5.
मैँ तटबंधोँ मेँ बंधी
नदी हूँ
हाँ, तुम्हारे लिऐ ही तो
हँसते -हँसते सह गयी
बहती रही
अविरल
पर काश तुम
अति न करते
तो ये तटबंध
कभी नहीँ टूटते ।

6.
आशा की कुछ बूँदे ही
बहुत है
जीने के लिऐ
मैँने सारा समन्दर कब मांगा
टूटते हुऐ तारे से सीखा है
धूल मेँ मिलने का गुर
मैँने सारा आकाश कब मांगा ।

7.
मैँ स्वर्गकामी नहीँ हूँ
इस लिऐ सभी वर्जित अनुष्ठान
पूर्ण करती हूँ
हाँ एक सत्य और है
मैँ मुक्तिपथगामिनी भी नहीँ
इस लिऐ
हँसते हुऐ निभाती हूँ
अपने समस्त कर्तव्योँ को ।

8.
ये घर
ईँट पत्थरोँ का नहीँ
मेरी भावनाओँ का है
जिसे मैँने बडे जतन से बनाया है
तुम सहेजना
आँगन की किलकारियोँ को
डोली की रस्मोँ को
भाँवर की कसमोँ को
भावना . सिन्होरा . सिन्दूर को
और इस बगिया के
बुलबुल को
रखना सहेज कर ।

9.
तुम्हारे साथ
जीऐ हर लमहेँ को
बाँध लेना चाहती हूँ
आँचल के छोर मेँ
गठिया लेना चाहती हूँ
शब्दोँ मेँ डूबे एहसासोँ को
रख देना चाहती हूँ
बचपन के गुल्लक मेँ
जिसे सिराहने रख कर
रात भर सजोती रहूँ
तुम्हारी हँसी की खनक
शायद यह एहसास ही
अकथ प्रेम है ।

10.

परत दर परत
तुम खुलते गये
और मैँ मोम की तरह
पिघलती गयी
किन्तु
तुम्हारे नेह का साँचा
मैँ जानती हूँ
इतना मजबूत नहीँ कि
उसमेँ ढल सके
एक नयी मूर्ति ।

अब मैँ यकीन कर लेना चाहती हूँ

अब मैँ यकीन कर लेना चाहती हूँ
कि सूरज दहकता है और
उसकी किरणेँ गाती हैँ
सतरंगी क्रान्ति गीत
दहकता है मलय पवन
शोला बन
गंगा की लहरेँ उफनतीँ हैँ
लावे की तरह
चूल्हे की चिन्गारी लिख सकती है
उत्थान पतन
हाँ बस करना होगा यकीँ
कि यहीँ लिखी जाती है
इबारत उन सभ्यताओँ की
जिनके अवशेष बताते हैँ
उस युग के क्रान्ति का आख्यान
और हम लेते हैँ सबक
नव क्रान्ति का
क्रान्ति होती रही है
क्रान्ति होती रहेगी
जब जब टकराऐँगीँ अहंवादी ताकतेँ
जीवन .जमीन .जंगल .
पहाड और पानी से
तब तब सूरज दहकता हुआ लाल रंग उगलेगा
और फिजा मेँ फैलाऐगा
सूर्ख लाल रंग
मेरी हथेलियोँ की मेँहदी
हाथ की चूडियाँ
माँग का सिन्दूर
और रसोँई की दीवार तक
फैलाऐगा लाल रंग
हाँ मुझे यकीन होने लगा है

मुझसे मत पूछना पता

सुनोँ !
मुझसे मत पूछना पता
काबे और काशी का
मत कहना जलाने को
दीया आस्था का
क्योँकि मेरी जंग जारी है
अंधेरोँ के खिलाफ
मैँ साक्षी हूँ
इस सत्य का कि
अंधेरोँ की सत्ता कायम
आज भी
सुनो !
तुम्हारे आस्था के केन्द्र पर
मेरी माँ रखती थी
अपने विश्वास का कलश
पूजती थी
गाँव के डीह .ब्रह्म .शीतला को
निकालती थी अंगुवा पुरोहित को
देती थी दान .भूखे .नंगोँ. भिखमंगोँ को
कडकडाती ठंड मेँ नहाती थी कतकी
जलाती थी दीपक
तुलसी के चौरे पर आस्था का
रखती थी विश्वास कि
ये सारे जप. तप. होम. व्रत
की अटल दीवार
उसके परिवार को
बेटियोँ को
रखेगा सहेज कर
होगा चतुर्दिक मंगल
किन्तु नहीँ रोक पायी
शहीद होने से अपनी कोख के प्रथम अंश को
दहेज की बलिबेदी पर
वह आज भी चित्कारती है
पकड कर पेट को
नहीँ रोक पाये तुम्हारे काबे काशी
वेद पुराण
उसके कोख को छिलने से
इस लिऐ मुझसे मत पूछना पता
किसी काबे काशी का
मेरी जंग अंधेरोँ के खिलाफ जारी है ।










-परिचय-
नाम- डा. सोनी पाण्डेय

पति का नाम - सतीश चन्द्र पाण्डेय
जन्मतिथि- 12-07-1975
शिक्षा - एम.ए. हिन्दी, बी.एड. पी.एच.डी, कथक डांस डिप्लोमा, बाम्बे आर्ट
अभिरुचि - लेखन, चित्रकला, साहित्यिक पुस्तकेँ पढना
सम्प्रति - अध्यापन
संपादन - गाथांतर हिन्दी त्रैमासिक
विभिन्न पत्र पत्रिकाओँ मेँ कविता कहानी, लेख का प्रकाशन
पता - संपादक गाथांतर, श्री रामचन्द्र पाण्डेय, कृष्णा नगर. मऊ रोड, सिधारी आजमगढ
मोबाईल नम्बर- 9415907958

शनिवार, 7 मार्च 2015

मायामृग की कविताओं में स्त्री संवेदना..


आज गाथांतर पर, स्त्री संवेदनाओं की गहरी पड़ताल करती मायामृग की कविताएँ| 


ये कविताएँ प्रासंगिक हैं बी.बी.सी. के इंटरव्यू पर, महिला दिवस पर, झोल वाली चारपाई की श्यामा पर, स्त्री की हाँ और स्त्री की न को भी हाँ समझे जाने की विद्रूपताओं पर, ये कविताएँ स्त्री मन की गहरी पड़ताल ही नहीं करतीं विसंगतियों पर करारी चोट भी करती हैं, बिना किसी शोर के बिना किसी रोर के. तो आइये पढ़ते हैं, मायामृग  की कुछ कविताएँ विश्व महिला दिवस पर..


'देह भर दृश्‍य में मन भर मांगने की छूट नहीं
मांग लो कि जो मांगना हो
राहत की तरह मांगना
अधिकार इस गोले से बाहर नहीं जाते
तुम रोशनी के गोले में हो,
उनकी आंखें अंधेरे से देखती है
तुमको रोशनी में रहकर देखनी हैं अंधेरे की आंखें----।'




 १     असहमति के सोलह साल
-----------------------------------------
विवाह के सोलह साल बाद
सोचती है श्‍यामली
कभी सहमति नहीं ली गई उसकी
देह उसकी थी देहपति दूसरा था.....
सहमति नहीं ली गई उसकी
जब पहली बार किन्‍हीं निगाहों ने
बाहर से भीतर तक नाप डाला उसे
उसकी देह के बारे में जितना जानते थे शोहदे
उतना तो खुद उसे नहीं पता.....
असहमति तोड़ना पुरुषत्‍व भरा है
यही जानकर सहमति के बिना
जीती रही है उसके साथ
जिसके साथ बिना सहमति के बांध दिया गया था उसे
जीवन भर के लिए....
कि इसकी ना में हां है
यह जुमला जाने कितनी बार सुना
जाने कितनी बार पढ़ा पुरुष की निगाहों में
कुल तीस साल की उम्र में
पहले चौदह साल पिता की सहमति के थे
बाद के सोलह पति की.....
जाने कौन तय करता है सहमतियां
जाने क्‍यूं नही पढ़ी जाती असहमतियां
सहमत और असहमत के वाक युद्ध में
वह हमेशा से मौन है
यह जाने बिना कि उसके मौन को हां समझा जाएगा.....
उसने कहा ना...
बोला नखरे दिखाती है साली
उसने कहा हां
बोला चालू है यार....
वह चुप है.....वह मानता है सहमति मिल गई.....


२      चांद-रातें
-------------------
चांदनी के झूले में झूलती है स्‍त्री
चांद-रातों में जब वह होती है चांद के साथ अकेली...।
घर भर के लोगों को नींद में भरमाकर
सबसे आंख बचाकर
सिर्फ उसे देखता है चांद
जब वह लगाती है बाहर लोहे के गेट पर
रात का ताला
सुनसान गली में उसके साथ
अकेला होता है चांद....।
उसी के लिए ठहरता है चांद
अलसुबह सबके उठने से पहले
बताकर जाता है उसे
रात भर की कहानी
उसे जाते हुए देखकर हाथ हिलाती है स्‍त्री
हाथ हिलते हैं और आंगन में बिखरी चांदनी
बुहारी जाती है...।
दिन खुलते-खुलते खुलती है सबकी आंख
सब चढ़ता सूरज देखते हैं तब
चुपके से मैले कपड़ों के ढेर में जा छुपता है चांद
स्‍त्री गट्ठर उठाती है और चल देती है
इधर रसोईघर से उठता है धुआं
उधर चांद चमकता है अलगनी पर...।
सफेद चीनी मिट्टी की प्‍लेटों पर
हल्‍दी के दाग
चांद के धब्‍बे हैं, जानती है स्‍त्री
उसके सधे हाथ लौटा लाते हैं चमक
चांद उतर आता है सिंक में
और ठंडे पानी में चुपचाप बह जाती है मैली चांदनी...।
उसके चेहरे में चांद है
पहली बार कहा था उसके प्रेमी ने
तब से चांद उसके सपनों में था
चांद रातें अमावस नहीं जानतीं थीं...।
गरम पानी से रगड़ रगड़ कर चमकाती है फटी एडि़यां
चेहरे पर लगाती है मुस्‍कुराहट की गाचनी
और दिन ढलते ढलते उसकी आंखों में उतर आता है चांद...।
कट जाता है जब दिन कटते कटते
कल सुबह के लिए सब्‍जी काटकर रखते हुए
बतियाती है स्‍त्री पड़ोस की स्त्रियों से
चमकते हैं स्त्रियों के चेहरे
सब की सब बात करती हैं चांद रातों की
कभी चांद की...कभी रातों की...।
चांदनी के झूले में झूलती है स्‍त्री
सुबह के चांद से रात के चांद तक
जितना आगे जाती है...उतना पीछे लौट आती है
वह अकेली झूलती है झूला चांदनी का
उसके साथ झूलती हैं चांद-रातें....।





  ३    झूठ बोलती स्‍त्री
-------------------------
बहुत सारे सच जमा होते जाने पर
जरुरी हो जाता है जब उन्‍हें कह देना
तब झूठ बोलती है स्‍त्री....।
झूठ बोलती है स्‍त्री
कि हां सब ठीक है, मां से बात करते हुए
पिता को आश्‍वस्‍त करते हुए
कि उन्‍हें जरुरत नहीं है यहां आने की
कि जैसे उन्‍हें सिर्फ वहीं जाना चाहिए
जहां सब ठीक ना हो...।
झूठ बोलती है
कि उसने तो पहले ही खा लिया था
बनाते बनाते, ये जो कम रहा है शेष
इससे चल जाएगा उसका काम
वैसे भी उसे भूख कम लगती है इन दिनों
तुम संतुष्‍ट होते हो जाते हो झूठ से
क्‍योंकि तुम जानते हो सच...।
रात भर के सफर में
बहुत पीछे छूट गई स्‍त्री
आवाज देने के लिए तलाशती रही अपनी आवाज
सुबह होने तक...जहां तुम्‍हारा दिन शुरु होता है
और उसकी यात्रा...।
शेष देह को संभालते हुए
झूठ बोलती है स्‍त्री प्रेम की आड़ लेकर
नहीं बताती कि हाथ छूट गए थे
पहले कदम के साथ ही
कि बिस्‍तर पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गया था....प्रेम।
चेहरे पर आंख के ठीक नीचे की चोट
कितनी भी सच हो
नहीं टिक पाती स्‍त्री के झूठ के सामने
कहीं भी तो गिर सकता है कोई,
गिरने को कहां चाहिए कोई बहाना
होठों को जरा सा खींचकर मुस्‍कुराते हुए
सच को गिरा देती है आंख से, आंख छिपाकर
जब झूठ बोलती है स्‍त्री....।
झूठ बोलती है स्‍त्री कि बचा रहे तुम्‍हारा सच
तुम्‍हारे कमजोर सच
जाने कब कसे जाएं संदेह के पंजों में
स्‍त्री बनाती है तुम्‍हारे लिए रक्षा कवच
झूठ की ध्‍वनियां मंत्रों से बिंधी हैं
ये समझते समझते ही समझ आएगा तुम्‍हें...।
रहने दो, तुम सच की जीत के ये आख्‍यान
स्‍त्री के झूठ
शास्‍त्रों की मदद से नहीं पढ़े जा सकते
अपने ही सच नहीं सुन सकते स्‍त्री के मुंह से
स्‍त्री के सच जानने की बात जाने दो...
कविता की तरह नहीं बांचे जाते स्‍त्री के सच
तुम्‍हारी कल्‍पना में बहुत सुंदर है स्‍त्री
उसे उतना ही समझो
सत्‍यं और शिवम जप-तप-पाठ के लिए छोड़ दो....।



  ४   छौंकी गई कविता
--------------------------
सच...
कोई जादू नहीं जानती है वह
जो करती है उसमें जादू जैसा नहीं है कुछ भी
उसे बस अच्‍छा लगता है कविता लिखना
वह लिखती है....।
धुंधली सुबह में होता है कविता का पहला पाठ
जब आखिरी तारा उसे देखते ही मूंद लेता है आंख
ठीक वैसे जैसे उसका बेटा
करता है शरारत, अक्‍सर...।
वह जानती है शरारती तारे को उठते ही
चाहिए गरम दूध
ि‍फ्रज से निकालती है
और गैस के चूल्‍हे पर गरम करती है कविता
उफनने से पहले उसके सधे हाथ
संभाल लेते हैं और कविता अपनी लय से बाहर नहीं जाती....।
आंगन भर फैले शब्‍दों को बुहारकर
डाल आती है आलोचना के खाते में
और पानी की बाल्‍टी लेकर पौंछ डालती है भेद-मतभेद
जरा से गीलेपन में बार बार ि‍फसलने से बच जाती है कविता....।
उसे याद रहते हैं कविता के सारे संस्‍कार..सारे कर्म
भले ही भूल जाए कविता का गणित...।
कल के ठंडे विचारों को निकाल कर छीलती है
काटती है शब्‍द दर शब्‍द..कभी गोल, कभी लंबाई में
गरम करती है कड़ाही में वैयाकरण
छौंकती है काव्‍यशास्‍त्र के सिद्धांत
और कविता की खुशबू
दूर तक फैल जाती है, कवियो के उठने से पहले...।
नहीं, सच में जादू नहीं जानती है वह
कविता भी नहीं जानती है वह
जानने का काम तो तुम्‍हारा है....वह तो रचती है बस...
तुम चाहो तो इसे जादू कह लो....।




 ५     पानी वाला घर
-------------------------
समूह में विलाप करती स्त्रियों का
स्‍वर भले ही एक है
उनका रोना एक नहीं...
रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से
सामूहिक बहाने पर....
कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से
बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं...
कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।
बेमौका नहीं रोती स्‍त्री....
मौके तलाशकर रोती है
धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...।
पानियों से बनी है स्‍त्री
बर्फ हो जाए कि भाप
पानी बना रहता है भीतर
स्‍त्री पानी का घर है
और घर स्‍त्री की सीमा....।
स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती
पानी घर बदलता नहीं....।
विलाप....
नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है
तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे
याद दिलाते हैं कि-
उसका बहना एक उत्‍सव है
उसका होना एक मंगल
नदी को नदी में ही रहना है
पानी को घर में रहना है
और घर
बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...।
घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में....
गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर
आंगन तक...।
घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है...
स्‍त्री गली में झांकती है,
गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....।
....गली की उस ओर से उठ रहा है
स्त्रियों का सामूहिक विलाप....।





 ६     चयनित सुख
-----------------------------------------
स्‍वतंत्रता का झंडा उसके हाथ में पकड़ाकर
घोषणा हो गई है
अब स्‍वतंत्र है स्‍त्री....
स्‍वतंत्र कि हां कह सकती है
हर पूछे गए प्रश्‍न के उत्‍तर में
चाहे तो चुप रहकर भी दे सकती है स्‍वीकृति
यूं भी मान लिया जाएगा मौन को सहमति के खाते में....।
चयनित सुखों में से कुछ सुख उसके भी हैं
चाहे तो रख सकती है
बुरे दिनों के लिए बचाकर
या कि खर्च कर ले सांझ होने से पहले
अंधेरा होने पर इन्‍हीं को जला सकती है
दीया बनाकर....।
मनोनीत दुखों में कुछ दुख उसके भी हैं
जिन्‍हें हर सुबह उठकर टांग देना है
खूंटी पर
कि जिन पर लटकते रहना दुखों को भुला देने जैसा है
चुप्पियां भी वहीं हैं, उन्‍हीं खूंटियों पर
जिनमें रुदन इसी तरह अटका हुआ लटक रहा है
मैले कपड़ों के बीच....हिचकियों के साथ।
मिल गए सुखों को नकाराना
और सुख का नए सिरे से चुनाव
दुखों को मनोनीत करना है
संतोष का सुख उसके हिस्‍से है,
चाहे तो आंचल में सहेज ले
या उठाकर रख दे आलमारी में
जहां रखे हैं बीते हुए समय के टुकड़े
सोने के जेवरों के बीच....।
स्‍वंत्रता का झंडा ऊंचा रहे
स्‍वतंत्र है स्‍त्री कि झंडे को जितना भी ऊंचा उठा कर
लगा सकती है गगनभेदी नारा
गगन में नारों की सीमा नहीं
अनंत विस्‍तार तक गूंज रहेगी
इतनी स्‍वतंत्रताओं के बीच अगर
खुश नहीं है स्‍त्री तो ना हो
खुशी के लिए स्‍वतंत्रता की परिभाषाएं तो नहीं बदली जा सकतीं...।



    ७    इस एक दृश्‍य के बाद

------------------------
विवस्‍त्र स्‍त्री देह पर आकर गिरता है 
प्रकाश का वृत 
देह के बंध खुलते खुलते खुल जाएगी रोशनी 
सूरज में चमकती है एक लपट तेजी से
मंच पर अंधेरा बताता है कि स्‍त्री की देह केन्‍द्र में है----।

आह, कि कैसा तिलिस्‍म रचती है देह

देह ही रचती है दृश्‍य---दृश्‍य में कुछ नहीं बदला-- 
तो जरुर बदला होगा कुछ देखने वालों के भीतर
प्रेक्षागृह मेंं बजती हैं तालियां----।

स्‍त्री, लो यह प्रकाश का पुंज तुम्‍हारा हुआ

तुम्‍हारे ताप हरने को पसरा हुआ है 
एक ठंडा अंधेरा
नेपथ्‍य में रची जा रही है अगले दृश्‍य की भूमिका
तुम्‍हें सिर्फ संवाद पर होंठ हिलाने हैं
थोड़ा सा कसाव रहे देह में, आंख ठहरी रहे दृश्‍य बदलने से पहले
विदूषक भर देगा इस दृश्‍य और अगले दृश्‍य का अंतराल----।

प्रकाश धीरे धीरे मंद होता है--- उठो

तुम्‍हारे इर्द गिर्द के अंधेरे में अब तुम भी शामिल हो
यहां भेद मिट जाता है देह और विदेह का--।

देह भर दृश्‍य में मन भर मांगने की छूट नहीं

मांग लो कि जो मांगना हो 
राहत की तरह मांगना
अधिकार इस गोले से बाहर नहीं जाते
तुम रोशनी के गोले में हो
उनकी आंखें अंधेरे से देखती है 
तुमको रोशनी में रहकर देखनी हैं अंधेरे की आंखें----।