गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014


आज मैं ने सुप्रसिद्ध कथाकार मित्र Vivek Mishra जी का कहानी संकलन 'हानियाँ तथा अन्य कहानियाँ


' पढ़ना प्रारम्भ किया .पहली कहानी 'गुब्बारा 'पढी -- विवेक जी का कथा - शिल्प अद्भुत है .कहानी शब्दों के 


माध्यम से धीरे - धीरे आराम से ह्रदय में उतर अपना घर बना लेती है .कहानी 'गुब्बारा 'एक पुत्र के पिता के 

सीवियर हार्ट -अटैक से मृत्यु - पूर्व की मनोदशा से प्राम्भ होती है .किसी दुसरे शहर से बुंदेलखंड के सीमित 

सुविधा वाले नर्सिंग - होम में भर्ती पिता को देखने आये पुत्र की मनोदशा का सजीव चित्रण - "मैं नर्सिंग होम 



पहुंचकर अपने को संयत करता आई .सी .यू .की और बढ़ रहा था .आई.सी.यू.के दरवाजे पर पहुंचकर मैं 

ठिठक 
गया था .अब उनके और मेरे बीच में शीशे का दरवाजा था .जिसके खुलते ही उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह

 जाने वाली थी जो पिताजी की लाल हथेलियों से बनी थी ,जिसे तोड़कर कोई उस निश्चिन्त सोते बच्चे को 

सपने में भी हरा नहीं सकता था .वह हथेलियाँ बहुत मजबूत थीं .उनकी उँगलियों में दिशा थी और मेरे मन के 


किसी कोने में पिताजी के अजेय होने का विश्वास "


पूरी कहानी आसपास मृत्यु - पूर्व का सन्नाटा बुनते हुए आगे बढ़ती है ;कुछ इस तरह कि पाठक साँस रोक 


धड़कते दिल से भीगी साँसें छोड़ते हुए कहानी का अंत पढ़कर पूरे सन्नाटे को अपने मौन में जीने के लिए 

मजबूर हो जाता है .अंत की कुछ पंक्तियाँ देखें -- "उनकी आखिरी सांस मेरे भीतर चली गई .उनकी और मेरी 


आँखें एक हो गई थीं ..उनकी साँसें मेरे भीतर जाते ही मैं एक गुब्बारे सा ऊपर उठने लगा था 



..............................

.................................. "
पढ़ें पूरी कहानी 'गुब्बारा ' --

गुब्बारा

अगस्त का आख़िरी हफ़्ता था। बारिश बहुत कम हुई थी ।  बादल आसमान पर ठहरे थे। बरसने के लिए उन्हें किसी ख़ास चीज़ की तलाश थीजो शायद ज़मीन पर नहीं थी। हम उन्हें बरसने पर मजबूर नहीं कर सके थे। हाँउन्हीं बादलों से होती हुई कोई सूचना हमारे मोबाईल तक पहुँच सकती थी।मैं  दिल्ली में था। मोबाइल की घण्टी बजी। झाँसी से भईया का फोन था । पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था। भईया ने बताया था पिताजी कराह रहे थेछाती पर कई मन बोझ बता रहे थे। उनके फेफड़ों में हवा नहीं जा रही थी और रह-रहकर आँखें फैल रही थीं।  छाती फट पड़ने को थी जब उन्होंने मुझे ख़बर करने को कहा था।  इतने दर्द में भी उनकी स्मृति मेंमैं था ।

     ख़बर सुनकर मेरा शरीर सूखे पत्ते सा हवा में तैरने लगा था।  शरीर का भार जाता रहा था। ज़मीन मुझे अपनी ओर नहीं खींच पा रही थी। मेरे भीतर का तरल पलभर में सूख गया था। पिताजी की गर्म लाल हथेलियाँ स्मृति से निकलकर मुझे पकड़ने को बढ़ींपर मुझे न छू सकीं। मेरे फेफड़ों में भी हवा नहीं घुस पा रही थी ।

     मैं उसी दिन जान सका थामेरे भीतर कितने भार में पिताजी थेजो मेरे शरीर से निकल कर स्मृति में घुल रहे थे। मैं ख़ाली हो रहा था। बहुत हल्कापर मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। अनायास हीदूर घर की चौखट से बंधी डोर टूटती-सी लग रही थी। मैं कटी पतंग-सा आसमान में गोते खा रहा थाडूब रहा था। पिताजी डोर समेट कर जा रहे थे। मुश्किल से खींची साँसों मेंसफ़ेद बाँहदार बनियान से उठती  पिताजी के पसीने की गन्ध घुल रही थीकभी पत्थर के कोयले की अँगीठी परलोहे की कढ़ाई में पकता कठहल महकने लगता थापिताजी कठहल बहुत अच्छा बनाते थे। वे कभी तादान पर रख्खा तबला उतार कर झाड़ते और बजाने लगते। कभी बाँसुरी बजातेकभी आफिस से लाया हुआ कामलालटेन की रोशनी में करने लगतेकभी किसी पेपर के पीछे बालपेन से राम का स्कैच बना देतेरामायण के रामबिल्कुल सजीवकभी छत पर बैठे गमलों की गुड़ाई करतेघण्टों। पता नहीं वे पौधों के बहुत क़रीब थे या ऐसा सिर्फ़ लोगों से दूर रहने के लिए करतेपर हर समय अपने में डूबे। बाहर की दुनिया से कटेपिताजी।

     पिताजी नास्तिक नहीं थेपर पूरे आस्तिक भी नहीं थे। गाँधी जी की कई बातें बताते थेपर काँग्रेसी नहीं थे। हिन्दू उत्थान की बातें करतेपर जन-संघी नहीं थे। दुर्गा पूजा में शामिल होते थेपर प्याज और अंडे खा लिया करते थे। समाज के सभी वर्गों में समानता को बढ़ावा देते। किसी भी ग़रीब की मदद को तैयार रहतेपर कम्यूनिस्टों से चिढ़ते थे। ब्राह्मणों में जन्म लेकर भी चतुरचालाक और पैने नहीं थेपिताजी।  सदा ब्राह्मण विमर्श से दूर अपनी रिक्त्ता में  मुस्कराते। अपनी सत्तासी साल की माँ की मौत पर फूट-फूट कर रोने वाले एक भावुक इंसानइस घनघोर सदी में बहुतमिसफ़िट, पर अपने में मस्त।

     असहनीय पीड़ा झेलते नर्सिंग होम पहुँचे पिताजी के मन में क्या रहा होगाज़रुर उनके मन में माँ रहीं होंगी……या फिर दफ़्तर जाते समयसाथ ले जाने वाला चमड़े का चेन लगा थैलाजिसे वह हमेशा अपने पास रखते थेजिसमें रखी डायरी में कभी-कभी कुछ लिख लिया करते थे। हो सकता है उन्हें अपने पिताजी की याद आई होजो उनके बचपन में ही दिल का दौरा पड़ने से गुज़र गए थे। उनकी मौत महोबा में हुई थीसन पचास में उन्होंने रेलवे अस्पताल में दम तोड़ा था। उससे पहले पिताजी की तरह उन्हें भी कभी दिल का दौरा नहीं पड़ा था। आज भीबुंदेलखण्ड की राजधानी बनने का सपना संजोने वालेपर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शहर झांसी में एंजियोग्राफीएंजियोप्लास्टी और हार्ट सर्जरी के लिए कोई जगह नहीं थी। शहर के हर मोड़ परहर चौराहे पर नर्सिंग होम कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थेपर उनमें बैठे डाक्टर-नर्सें और स्टाफ़ किसी की जान बचाने को तत्पर स्वास्थ्य कर्मचारी कम और मुसीबत में फंसे किसी मरीज़ और उसके परिवार को हलाल करने की फ़िराक में बैठे कसाई ज्यादा लगते थे।

     मैं रात ट्रेन से उतरकर सीधा थ्री-व्हीलर में बैठकर नर्सिंग होम की ओर चल पड़ा। दिल्ली से झांसी छ:घण्टे का सफर बहुत बेचैनी से कटा था। अब जबकि मैं झांसी पहुँच चुका था और थ्री-व्हीलर पैनी चुभने वाली आवाज़ के साथ मुझे स्टेशन  से इलाहाबाद बैंक होता हुआकानपुर रोड पर बने डॉ मिश्रा के नर्सिंग होम की ओर ले जा रहा था। मैं वहाँ पहुँचना नहीं चाहता था। इसी बीच कई बार मैंने उनका हाल फोन पर पूछा था। उनकी स्थिति गम्भीर थी……अभी कुछ कहा नहीं जा सकता था। जो प्राथमिक उपचार संभव थादे दिया गया था। मैं उन्हें दर्द में असहायतड़पता हुआ देखना नहीं चाहता था। मेजर हार्ट अटैक था।

     मैं नर्सिंग होम पहुँचकर अपने को संयत करता हुआ आई.सी.यू की ओर बढ़ रहा था। आई.सी.यू के दरवाजे पर पहुँचकर मैं ठिठक गया था। अब उनके और मेरे बीच में एक शीशे का दरवाज़ा थाजिसके खुलते ही उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह जाने वाली थीजो पिताजी की लाल हथेलियों से बनी थीजिसे तोड़कर कोई उस निश्चिंत सोते बच्चे को सपनों में भी डरा नहीं सकता था। वह हथेलियाँ बहुत मज़बूत थीं। उनकी उँगलियों में दिशा थी और मेरे मन के किसी कोने में पिताजी के अजेय होने का बचकाना विश्वास। आई.सी.यू के बाहर बैन्च पर माँ बैठी थीं। वह सुबह ग्यारह बजे पिताजी की छाती मलती हुईबदहवास भईया के साथ नर्सिंग होम में दाखिल हुई थीं।  अब अन्धेरा हो गया था। कोरिडोर में लटके पीले बल्ब अन्धेरे से लड़ रहे थे। इन्हीं आठ-नौ घण्टों में माँ कई साल बूढ़ी हो गई थीं। आँखें किसी गहरे कुएँ में डूबी थीं।  मुझे देख कर उनके होंठ कुछ कहने को हिले थेपर शब्द गले में घुँट गए थे।  होंठो से एक फुसफुसाहट के साथ हवा निकली थीजिससे दर्द निकलकर पीले बल्बों की रोशनी के साथ कौरीडोर में तैरने लगा था। अगस्त की नमी हवा में घुलकर दुख को और भारी कर रही थी। मैं कुछ कहना चाहता थाउन्हें ढाँढस बँधाना चाहता थापर मैं उनके गले लगकर फफक कर रो पड़ा था।

     कमरे में ख़ामोशी थी। पंखे की सरसराहट ख़ामोशी में धीरे-धीरे मिल रही थी। कमरे की हवा में दवाओं और अस्पताल की गंध के साथ पिताजी की पसीने की गंध भी घुली थी। जिसे सूँघ कर मैं बचपन में निश्चिंतखुले आसमान के नीचेखरारी खाट पर भूतजिन्नराक्षसचोर-डाकूमंगलवासियों और हर उस चीज़ के डर सेजो बचपन में हो सकता हैनिडर होकर सो जाया करता था। उनकी हाथ की नसों में नीडल्स धँसी हुईं थीं जिनसे बूँद-बूँद द्रव उनके शरीर में जा रहा था।

     अगले सत्तर घण्टे कुछ नहीं कहा जा सकता थाहिलना-डुलनाखाना-पीना बोलना सब बन्द। दिल की हर धड़कन एक बीप के साथ ई.सी.जी  मॉनीटर पर उछल रही थी। हर उछाल में धड़कते रहने की एक घायल कोशिश थी। हर एक बीप में एक कमज़ोर याचना थी। प्राणों की याचना। मुँह पर ऑक्सीजन लगी थीफिर भी कठिनाई से साँस जा रही थी। दवाओं के असर से आँखें बोझिल थींपर कोशिश करके जब खुलतीं तो एक बार पूरे  कक्ष में घूम जातीं………कुछ तलाशती हुईं।

     इस बारउनकी आँखों ने मुझे देख लिया था। ये वही आँखें थींजिनके पीछे खड़ा होकर मैं दुनिया देखने की कोशिश करता था। उन आँखों को पहनते हीमैं खुद पिताजी बन जाता था। उन्हीं आँखों से आँसू ढलक गए थे। भीषण पीड़ा के बाद मिले आराम की विश्रान्ति थीउन आँखों में। मैंने उनका हाथ पकड़ा तो उन्होंने अपनी गर्म हथेली से मेरा हाथ हल्के से दबाया थायह एहसास वैसा ही थाजैसे परीक्षा से पहलेवह मेरा कन्धा दबाते थे।

     दो दिन और दो रातें बीत चुकी थीं।  हम सब थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे।  पिताजी के मुँह से ऑक्सीजन हटा दी गई थी। सुबह उन्होंने दो चम्मच सेब का रस पिया था। लगता थाख़तरा टल गया था। सत्तर घण्टे पूरे होने मेंएक ही घण्टा बाकी था। रात तेज़ बारिश हुई थीपर सुबह बादल छट गए थे,  चमकदार धूप खिली थीहवा में सावन की नमी के साथनर्सिंग होम की क्यारियों में खिले फूलों की खुनकी मिली थी।  वह रविवार था। माँ ने भईया से कहकर घर से अपना चश्मा मंगा लिया थावह पल्लू से पोंछ कर उसे पहन रही थींमैं बाहर बरामदे में खड़ा था । माँ ने चश्मे के पार से देखा थापिताजी की आँखें बड़ी होकरऊपर उठ रहीं थीचेहरा सख़्त और लाल हो गया था। उनकी साँस में ऐसी आवाज़ थीजैसे खिलाड़ी छूटती साँस बचाकर,अपना पाला छूने की कोशिश कर रहा होपर कई हाथ उसे खींचकर उसेउसके पाले से दूर लिए जा रहे हों।  उनकी साँस के इस स्वर मेंमाँ की चीख़ भी शामिल थीजिसस मेरे नाम के जैसा कोई शब्द बना था।  भईया डाक्टर को बुलाने दौड़ गए।  मैने दोनों हाथों से उनकी छाती को दबाना शुरु कर दिया।

पिताजी ने फिर ज़ोर से साँस ली। उन्होंने पूरा  ज़ोर लगायावापस अपने पाले में आने के लिएपर उनकी कोशिश कमज़ोर थीउन्हें कई हाथ अनजाने में खींच रहे थे। डॉक्टर आ गया था। उसने मुझे धकेलकरपिताजी की छाती को दोनों हाथों से दबाया। मुझे उनके मुँह में साँस देने को कहामैंने अपने मुँह से अपनी साँस उनके मुँह में छोड़ीडॉक्टर ने छाती दबाई। पिताजी ने ज़ोर से साँस छोड़ी। मैंने फिर उनके मुँह में साँस छोड़ने के लिए अपना मुँह झुकाया। मैं इस बार उन्हें साँस दे पाताउन्होंने अपनी साँस छोड़ दी। उनकी आँखें स्थिर हो गईं। चेहरे पर आए पीड़ा के निशान मिट गए। उनकी आख़री साँस मेरे भीतर चली गई।  उनकी और मेरी आँखें एक हो गई थीं। उनकी साँस मेरे भीतर जाते हीमैं एक गुब्बारे-सा ऊपर उठने लगा था। पिताजी पलंग पर लेटे एकटक मुझे देख रहे थे। मैं कमरे में उठती आवाज़े नहीं सुन पा रहा थालोग अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे। किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं था।  मैं छत से टकराता हुआकिसी गुब्बारे-सा रोशनदान से बाहर उड़ गया था। मेरे चेहरे ने पिताजी की आँखें पहन ली थीँ। अब मुझमें पिताजी रहने लगे थे। अब मुझे किसी से शिकायत नहीं थी।  मैं घण्टों गमलों की गुड़ाई करने लगा था।

     सबसे कटाअकेला।  

वीणा वत्सल की समीक्षात्मक टिप्पढ़ी  के साथ विवेक मिश्रा की बेहतरीन कहानी "गुब्बारा "पढ़िए आज गाथान्तर के ब्लॉग पर 

विवेक मिश्र की कहानी


                                                        








आज मैं ने सुप्रसिद्ध कथाकार मित्र Vivek Mishra जी का कहानी संकलन 'हानियाँ तथा अन्य कहानियाँ


' पढ़ना प्रारम्भ किया .पहली कहानी 'गुब्बारा 'पढी -- विवेक जी का कथा - शिल्प अद्भुत है .कहानी शब्दों के 


माध्यम से धीरे - धीरे आराम से ह्रदय में उतर अपना घर बना लेती है .कहानी 'गुब्बारा 'एक पुत्र के पिता के सीवियर हार्ट -अटैक से मृत्यु - पूर्व की मनोदशा से प्राम्भ होती है .किसी दुसरे शहर से बुंदेलखंड के सीमित सुविधा वाले नर्सिंग - होम में भर्ती पिता को देखने आये पुत्र की मनोदशा का सजीव चित्रण - "मैं नर्सिंग होम पहुंचकर अपने को संयत करता आई .सी .यू .की और बढ़ रहा था .आई.सी.यू.के दरवाजे पर पहुंचकर मैं ठिठक गया था .अब उनके और मेरे बीच में शीशे का दरवाजा था .जिसके खुलते ही उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह जाने वाली थी जो पिताजी की लाल हथेलियों से बनी थी ,जिसे तोड़कर कोई उस निश्चिन्त सोते बच्चे को सपने में भी हरा नहीं सकता था .वह हथेलियाँ बहुत मजबूत थीं .उनकी उँगलियों में दिशा थी और मेरे मन के किसी कोने में पिताजी के अजेय होने का विश्वास "
पूरी कहानी आसपास मृत्यु - पूर्व का सन्नाटा बुनते हुए आगे बढ़ती है ;कुछ इस तरह कि पाठक साँस रोक धड़कते दिल से भीगी साँसें छोड़ते हुए कहानी का अंत पढ़कर पूरे सन्नाटे को अपने मौन में जीने के लिए मजबूर हो जाता है .अंत की कुछ पंक्तियाँ देखें -- "उनकी आखिरी सांस मेरे भीतर चली गई .उनकी और मेरी आँखें एक हो गई थीं ..उनकी साँसें मेरे भीतर जाते ही मैं एक गुब्बारे सा ऊपर उठने लगा था ................................................................ "
पढ़ें पूरी कहानी 'गुब्बारा ' --

गुब्बारा

अगस्त का आख़िरी हफ़्ता था। बारिश बहुत कम हुई थी ।  बादल आसमान पर ठहरे थे। बरसने के लिए उन्हें किसी ख़ास चीज़ की तलाश थीजो शायद ज़मीन पर नहीं थी। हम उन्हें बरसने पर मजबूर नहीं कर सके थे। हाँउन्हीं बादलों से होती हुई कोई सूचना हमारे मोबाईल तक पहुँच सकती थी।मैं  दिल्ली में था। मोबाइल की घण्टी बजी। झाँसी से भईया का फोन था । पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था। भईया ने बताया था पिताजी कराह रहे थेछाती पर कई मन बोझ बता रहे थे। उनके फेफड़ों में हवा नहीं जा रही थी और रह-रहकर आँखें फैल रही थीं।  छाती फट पड़ने को थी जब उन्होंने मुझे ख़बर करने को कहा था।  इतने दर्द में भी उनकी स्मृति मेंमैं था ।

     ख़बर सुनकर मेरा शरीर सूखे पत्ते सा हवा में तैरने लगा था।  शरीर का भार जाता रहा था। ज़मीन मुझे अपनी ओर नहीं खींच पा रही थी। मेरे भीतर का तरल पलभर में सूख गया था। पिताजी की गर्म लाल हथेलियाँ स्मृति से निकलकर मुझे पकड़ने को बढ़ींपर मुझे न छू सकीं। मेरे फेफड़ों में भी हवा नहीं घुस पा रही थी ।

     मैं उसी दिन जान सका थामेरे भीतर कितने भार में पिताजी थेजो मेरे शरीर से निकल कर स्मृति में घुल रहे थे। मैं ख़ाली हो रहा था। बहुत हल्कापर मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। अनायास हीदूर घर की चौखट से बंधी डोर टूटती-सी लग रही थी। मैं कटी पतंग-सा आसमान में गोते खा रहा थाडूब रहा था। पिताजी डोर समेट कर जा रहे थे। मुश्किल से खींची साँसों मेंसफ़ेद बाँहदार बनियान से उठती  पिताजी के पसीने की गन्ध घुल रही थीकभी पत्थर के कोयले की अँगीठी परलोहे की कढ़ाई में पकता कठहल महकने लगता थापिताजी कठहल बहुत अच्छा बनाते थे। वे कभी तादान पर रख्खा तबला उतार कर झाड़ते और बजाने लगते। कभी बाँसुरी बजातेकभी आफिस से लाया हुआ कामलालटेन की रोशनी में करने लगतेकभी किसी पेपर के पीछे बालपेन से राम का स्कैच बना देतेरामायण के रामबिल्कुल सजीवकभी छत पर बैठे गमलों की गुड़ाई करतेघण्टों। पता नहीं वे पौधों के बहुत क़रीब थे या ऐसा सिर्फ़ लोगों से दूर रहने के लिए करतेपर हर समय अपने में डूबे। बाहर की दुनिया से कटेपिताजी।

     पिताजी नास्तिक नहीं थेपर पूरे आस्तिक भी नहीं थे। गाँधी जी की कई बातें बताते थेपर काँग्रेसी नहीं थे। हिन्दू उत्थान की बातें करतेपर जन-संघी नहीं थे। दुर्गा पूजा में शामिल होते थेपर प्याज और अंडे खा लिया करते थे। समाज के सभी वर्गों में समानता को बढ़ावा देते। किसी भी ग़रीब की मदद को तैयार रहतेपर कम्यूनिस्टों से चिढ़ते थे। ब्राह्मणों में जन्म लेकर भी चतुरचालाक और पैने नहीं थेपिताजी।  सदा ब्राह्मण विमर्श से दूर अपनी रिक्त्ता में  मुस्कराते। अपनी सत्तासी साल की माँ की मौत पर फूट-फूट कर रोने वाले एक भावुक इंसानइस घनघोर सदी में बहुतमिसफ़िट, पर अपने में मस्त।

     असहनीय पीड़ा झेलते नर्सिंग होम पहुँचे पिताजी के मन में क्या रहा होगाज़रुर उनके मन में माँ रहीं होंगी……या फिर दफ़्तर जाते समयसाथ ले जाने वाला चमड़े का चेन लगा थैलाजिसे वह हमेशा अपने पास रखते थेजिसमें रखी डायरी में कभी-कभी कुछ लिख लिया करते थे। हो सकता है उन्हें अपने पिताजी की याद आई होजो उनके बचपन में ही दिल का दौरा पड़ने से गुज़र गए थे। उनकी मौत महोबा में हुई थीसन पचास में उन्होंने रेलवे अस्पताल में दम तोड़ा था। उससे पहले पिताजी की तरह उन्हें भी कभी दिल का दौरा नहीं पड़ा था। आज भीबुंदेलखण्ड की राजधानी बनने का सपना संजोने वालेपर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शहर झांसी में एंजियोग्राफीएंजियोप्लास्टी और हार्ट सर्जरी के लिए कोई जगह नहीं थी। शहर के हर मोड़ परहर चौराहे पर नर्सिंग होम कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थेपर उनमें बैठे डाक्टर-नर्सें और स्टाफ़ किसी की जान बचाने को तत्पर स्वास्थ्य कर्मचारी कम और मुसीबत में फंसे किसी मरीज़ और उसके परिवार को हलाल करने की फ़िराक में बैठे कसाई ज्यादा लगते थे।

     मैं रात ट्रेन से उतरकर सीधा थ्री-व्हीलर में बैठकर नर्सिंग होम की ओर चल पड़ा। दिल्ली से झांसी छ:घण्टे का सफर बहुत बेचैनी से कटा था। अब जबकि मैं झांसी पहुँच चुका था और थ्री-व्हीलर पैनी चुभने वाली आवाज़ के साथ मुझे स्टेशन  से इलाहाबाद बैंक होता हुआकानपुर रोड पर बने डॉ मिश्रा के नर्सिंग होम की ओर ले जा रहा था। मैं वहाँ पहुँचना नहीं चाहता था। इसी बीच कई बार मैंने उनका हाल फोन पर पूछा था। उनकी स्थिति गम्भीर थी……अभी कुछ कहा नहीं जा सकता था। जो प्राथमिक उपचार संभव थादे दिया गया था। मैं उन्हें दर्द में असहायतड़पता हुआ देखना नहीं चाहता था। मेजर हार्ट अटैक था।

     मैं नर्सिंग होम पहुँचकर अपने को संयत करता हुआ आई.सी.यू की ओर बढ़ रहा था। आई.सी.यू के दरवाजे पर पहुँचकर मैं ठिठक गया था। अब उनके और मेरे बीच में एक शीशे का दरवाज़ा थाजिसके खुलते ही उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह जाने वाली थीजो पिताजी की लाल हथेलियों से बनी थीजिसे तोड़कर कोई उस निश्चिंत सोते बच्चे को सपनों में भी डरा नहीं सकता था। वह हथेलियाँ बहुत मज़बूत थीं। उनकी उँगलियों में दिशा थी और मेरे मन के किसी कोने में पिताजी के अजेय होने का बचकाना विश्वास। आई.सी.यू के बाहर बैन्च पर माँ बैठी थीं। वह सुबह ग्यारह बजे पिताजी की छाती मलती हुईबदहवास भईया के साथ नर्सिंग होम में दाखिल हुई थीं।  अब अन्धेरा हो गया था। कोरिडोर में लटके पीले बल्ब अन्धेरे से लड़ रहे थे। इन्हीं आठ-नौ घण्टों में माँ कई साल बूढ़ी हो गई थीं। आँखें किसी गहरे कुएँ में डूबी थीं।  मुझे देख कर उनके होंठ कुछ कहने को हिले थेपर शब्द गले में घुँट गए थे।  होंठो से एक फुसफुसाहट के साथ हवा निकली थीजिससे दर्द निकलकर पीले बल्बों की रोशनी के साथ कौरीडोर में तैरने लगा था। अगस्त की नमी हवा में घुलकर दुख को और भारी कर रही थी। मैं कुछ कहना चाहता थाउन्हें ढाँढस बँधाना चाहता थापर मैं उनके गले लगकर फफक कर रो पड़ा था।

     कमरे में ख़ामोशी थी। पंखे की सरसराहट ख़ामोशी में धीरे-धीरे मिल रही थी। कमरे की हवा में दवाओं और अस्पताल की गंध के साथ पिताजी की पसीने की गंध भी घुली थी। जिसे सूँघ कर मैं बचपन में निश्चिंतखुले आसमान के नीचेखरारी खाट पर भूतजिन्नराक्षसचोर-डाकूमंगलवासियों और हर उस चीज़ के डर सेजो बचपन में हो सकता हैनिडर होकर सो जाया करता था। उनकी हाथ की नसों में नीडल्स धँसी हुईं थीं जिनसे बूँद-बूँद द्रव उनके शरीर में जा रहा था।

     अगले सत्तर घण्टे कुछ नहीं कहा जा सकता थाहिलना-डुलनाखाना-पीना बोलना सब बन्द। दिल की हर धड़कन एक बीप के साथ ई.सी.जी  मॉनीटर पर उछल रही थी। हर उछाल में धड़कते रहने की एक घायल कोशिश थी। हर एक बीप में एक कमज़ोर याचना थी। प्राणों की याचना। मुँह पर ऑक्सीजन लगी थीफिर भी कठिनाई से साँस जा रही थी। दवाओं के असर से आँखें बोझिल थींपर कोशिश करके जब खुलतीं तो एक बार पूरे  कक्ष में घूम जातीं………कुछ तलाशती हुईं।

     इस बारउनकी आँखों ने मुझे देख लिया था। ये वही आँखें थींजिनके पीछे खड़ा होकर मैं दुनिया देखने की कोशिश करता था। उन आँखों को पहनते हीमैं खुद पिताजी बन जाता था। उन्हीं आँखों से आँसू ढलक गए थे। भीषण पीड़ा के बाद मिले आराम की विश्रान्ति थीउन आँखों में। मैंने उनका हाथ पकड़ा तो उन्होंने अपनी गर्म हथेली से मेरा हाथ हल्के से दबाया थायह एहसास वैसा ही थाजैसे परीक्षा से पहलेवह मेरा कन्धा दबाते थे।

     दो दिन और दो रातें बीत चुकी थीं।  हम सब थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे।  पिताजी के मुँह से ऑक्सीजन हटा दी गई थी। सुबह उन्होंने दो चम्मच सेब का रस पिया था। लगता थाख़तरा टल गया था। सत्तर घण्टे पूरे होने मेंएक ही घण्टा बाकी था। रात तेज़ बारिश हुई थीपर सुबह बादल छट गए थे,  चमकदार धूप खिली थीहवा में सावन की नमी के साथनर्सिंग होम की क्यारियों में खिले फूलों की खुनकी मिली थी।  वह रविवार था। माँ ने भईया से कहकर घर से अपना चश्मा मंगा लिया थावह पल्लू से पोंछ कर उसे पहन रही थींमैं बाहर बरामदे में खड़ा था । माँ ने चश्मे के पार से देखा थापिताजी की आँखें बड़ी होकरऊपर उठ रहीं थीचेहरा सख़्त और लाल हो गया था। उनकी साँस में ऐसी आवाज़ थीजैसे खिलाड़ी छूटती साँस बचाकर,अपना पाला छूने की कोशिश कर रहा होपर कई हाथ उसे खींचकर उसेउसके पाले से दूर लिए जा रहे हों।  उनकी साँस के इस स्वर मेंमाँ की चीख़ भी शामिल थीजिसस मेरे नाम के जैसा कोई शब्द बना था।  भईया डाक्टर को बुलाने दौड़ गए।  मैने दोनों हाथों से उनकी छाती को दबाना शुरु कर दिया।

पिताजी ने फिर ज़ोर से साँस ली। उन्होंने पूरा  ज़ोर लगायावापस अपने पाले में आने के लिएपर उनकी कोशिश कमज़ोर थीउन्हें कई हाथ अनजाने में खींच रहे थे। डॉक्टर आ गया था। उसने मुझे धकेलकरपिताजी की छाती को दोनों हाथों से दबाया। मुझे उनके मुँह में साँस देने को कहामैंने अपने मुँह से अपनी साँस उनके मुँह में छोड़ीडॉक्टर ने छाती दबाई। पिताजी ने ज़ोर से साँस छोड़ी। मैंने फिर उनके मुँह में साँस छोड़ने के लिए अपना मुँह झुकाया। मैं इस बार उन्हें साँस दे पाताउन्होंने अपनी साँस छोड़ दी। उनकी आँखें स्थिर हो गईं। चेहरे पर आए पीड़ा के निशान मिट गए। उनकी आख़री साँस मेरे भीतर चली गई।  उनकी और मेरी आँखें एक हो गई थीं। उनकी साँस मेरे भीतर जाते हीमैं एक गुब्बारे-सा ऊपर उठने लगा था। पिताजी पलंग पर लेटे एकटक मुझे देख रहे थे। मैं कमरे में उठती आवाज़े नहीं सुन पा रहा थालोग अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे। किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं था।  मैं छत से टकराता हुआकिसी गुब्बारे-सा रोशनदान से बाहर उड़ गया था। मेरे चेहरे ने पिताजी की आँखें पहन ली थीँ। अब मुझमें पिताजी रहने लगे थे। अब मुझे किसी से शिकायत नहीं थी।  मैं घण्टों गमलों की गुड़ाई करने लगा था।

     सबसे कटाअकेला।  

                         Nirdesh Nidhi

                               

नाम - निर्देश निधि       
  जन्म - 3 जून,1961
स्थान - जसपुर नैनीताल,   
   शिक्षा – एम॰ फिल.  {इतिहास}
लेखन विधा – कविता कहानी, संस्मरण ,समसामयिक लेख। विभिन्न स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं जैसे दैनिक जागरण ,अमर उजाला,  पंजाब केसरी,  कादंबिनी, अविराम, विज्ञान गरिमा सिंधु  आदि में कवितायें, लेख प्रकाशित । हंस’, पाखी विपाशा’, बिंदिया , कथा (मार्कण्डेय) ,पूर्वकथन, बुलंदप्रभा आदि में कहानियाँ प्रकाशित। वर्तमान मेँ – बुलंदप्रभा त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका मेँ उपसंपादक | साहित्यिक गतिविधियों एवं सामाजिक कार्यों में निरंतर सक्रियता।

निर्देश निधि,                                          
पता-द्वारा - डॉ. प्रमोद निधिविद्या भवनकचहरी रोडबुलंदशहर,(उप्र) पिन- २०३००१              मोबाइल .... ९३५८४८८०८४ (9358488084)   ईमेल- nirdesh.nidhi@gmail.com                                                                   

-आज फिर चली हैं गोलियां

माँ बाबू जी को जागा रही है सुबह सुबह
बड़ी हड़बड़ाई रुआंसी घबराई
आज फिर घाटी में चली हैं गोलियां
बिददों के वालिद हो गए शिकार
उसकी यतीम चीखें
उभर आईं मेरे माँ के चेहरे पर
उसकी माँ का फटा कलेजा फंस गया है
मेरी माँ के कलेजे में
आज बिददों के वालिद की बारी थी
कल कौन जाने किसकी होगी
मैं बचपन से ही जी रही हूँ
घाटी में आए दिन मरना
कभी सैनिकों का कभी अपना
मन सहमा सहमा रहता है हरदम
आज तक ले नहीं सकी हूँ एक भी उन्मुक्त किशोरी सांस
माँ तो बूढ़ी हो रही है
यही सब देखते सहते
फिर भी उसे अभी तक आदत नहीं पड़ी है मौत की
क्योंकि आदतें पड़ती हैं वही जो
किसी न किसी तरह का आराम देती हैं
पर मौत
? वो भी घर के सिरोधार की
किसी तरह का कोई आराम दे सकती है क्या
  

 

    

    बड़े भैया


ढलक गए थे अकस्मात ही अंतिम ढलान
तब बड़े भैया को देखा था मैंने
रातों रात बाबा बनते
खोलकर आँखें सी लिए थे होंठ
पी लिए थे सब दुख नीलकंठ बनकर महान
ढोए थे जिम्मेदारियों के अनगिन गट्ठर
चौबीस बसंतों के अदने अनुभवों के कच्चे कंधों पर 
तब सकड़ों बार देखा था उन्हें
गृहस्थी के हवन कुंड की समिधा बनते
अपने सुख चैन हमारी खाली हथेलियों पर रखते
हमारे उदास चेहरों पर सिलते अपनी मुस्कान 
भैया के भीतर उपजे हरे हरे घाव
कहाँ देख पाई थी तब मैं अंजान
तभी तो टीसते रहते हैं मेरे अंतस में
वो अब तक अविराम
सोचती हूँ ,
क्या भैया की अभिलाषाओं में
कभी लहराया ना होगा उनके सिर पर
माँ का स्नेहिल आँचल
क्या बाबा की शीतल छाँव को
ढूंढा न होगा कभी अबोध आयु ने उनकी
दुनियाँ की तपती धूप से होकर हैरान
सींचकर अपने ही थमें आंसुओं से खुद को
नरम पौधे से भैया ने    
उगाया था खुद में दरख्त का विधान
ओढ़ा दिया था सबको साया घना
अपने डैनों को देकर वितान।
    

8 -  हमारा किसान

धरतियों के चंद टुकड़े
नन्हें शिशु सहोदर की तरह
पालता है हमारा किसान
बैल के संग बैल बनता
मिट्टियों के सौंधे इत्र में सना
नन्हें बीजों से भरता धरतियां
आसमानों पर लगता टकटकी
अतिथि मेघ के आतिथ्य को व्याकुल
बाट जोहता हर घड़ी
कड़ी मेहनत उपजती खेत में
लहलहाती फसल बन
तब मिट्टियों की संगिनी संग
खेतों के बरसाने में
खेलता क्षणिक खुशियों की होलियाँ
पंचतारा संस्कृति का पेट भरता
खुद मेहनतों के खाये हुए शरीरों पर
अंगोछा अटकाए
खाता अधपेट ही
धान की निर्धन रोटियाँ
छिनी हुई लाड़ली धरतियों के
मुआवज़ों की जंग लड़ता
फटी एड़ियों से
न्यायालयों के गलियारे घिसता
रह जाता बिन उगे बीज सा
नए समाजों की बंजर धरतियों में
हमारा किसान ।

   गरीबी

ये गरीबी भी
बड़ी कालजयी अवस्था है
वसुधैव कुटुंभ्कम की पक्षधर
घुमक्कड़ी में प्रवीण
हठीली आधुनिका है
तभी तो,
जा बसती है कहीं भी
किसी भी
द्वीप-महाद्वीप
देश-परदेश
शहर-कस्बे या गाँव में
प्रबल आर्थिक समृद्धियों के
पैमानों के, शीर्ष की छाँव में
उसके लिए हर जगह
घर आवंटित है
कभी भी,
किसी को रख छोड़ती है
अपनी अछूत, बदरंग छाँव में
जबरदस्ती गले पड़ी
भयानक विभीषिका है
घुमक्कड़ी में प्रवीण
हठीली आधुनिका है ।

 




   मैं निष्काम


मैं निष्काम          
सभी कर्मों से दूर
फलों से भी बहुत दूर निकाल आया हूँ
ढूँढता हूँ द्वार मोक्ष का
तुमने मुझे माना ब्रह्मलीन
पर क्या मैं हो पाया हूँ ?
अशरीरी हुआ बार बार
पूछता हूँ मुझसे ही मैं
यहाँ मिट गई हैं
प्राण और निष्प्राण की रेखा
सारे बंधनों से उन्मुक्त हुआ हूँ अब भी क्या
भ्रमित हुआ सोचता हूँ मैं
सिर्फ काया तो नहीं था मैं
क्यों बिलखती हैं अब
पार्थिव मेरी काया पर अनगिनत काया
कुछ सच्ची कुछ माया
बिलखन में  जीवित कायाओं की
अब भी क्यों उलझता हूँ मैं
निर्लिप्त हुआ भी
आसक्त क्यों हूँ ?
स्वयं से ही स्वयं पूछता हूँ मैं ।