शनिवार, 26 जुलाई 2014

/////संवेदनाओं के स्वर////



बाइस फुटी गुलाब नें पास में पनप रह बोनसाई बरगद से कहा दद्दू कैसा लग रहा है। आश्रय प्रदाता आज खुद छाँव मे पल रहा है। शुक्रिया गुलाब भाई आपनें पहचाना तो मै अपनी पहचान खोता जा रहा हूँ। कालान्तर मे क्या हुआ करता था और क्या होता जा रहा हूँ।। बसते थे हमारी फुनगिंयों पर पंछियों के गाँव के गाँव। कब की हमनें धूप की परवाह जब पथिको को सुहाती मेरी छाँव।। पवन में तेरी मादक गंध सुरभित करती मेरा ठाँव। पखेरु कलरव मय संगीत बरबस घुंघरू मेरे पाँव।। नियति की मात्र कठपुतली बन। कर रहा मै जीवन यापन।। सच कहा बडे भाई समझा निजता का महत्व। प्राण विहीन कैसा असतित्व।। बडे दिखनें की चाहत में गंधहीन हो गया हूँ। तुम्हे छोटा करते करते खुदही छोटा हो गया हूँ।। आदिम जनित बीमारी हमें होती जा रही है। हमारी जात जन्म खोती जा रही है।।



गोप कुमार मिश्र"


(चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 23 जुलाई 2014

                                                           विस्फोट 



पुष्प पुष्प गूंथूं?
सुरभि भर श्वास भरूं?
तिनका तिनका चुन लूँ
स्वप्न नीड़ रचूँ?
कल्पना की बैसाखी थामे
पलायन की ओर बढूँ?

संग न होने का 
चरम तक बींधता दुःख.. 
मनाऊं.. या..
मौन की नम चादर ओढ़ लूँ?
यथार्थ के सूने आंगन की
चलूँ, किवाड़ खड़काऊँ?

प्रश्न मत करना कोई..
प्रश्न स्फुलिंग बन उठते हैं..
कोई घुटता मौन जब टूटता है
तोड़ कर सारे बाँध..
बहुधा..
वो विस्फोट.. अंतिम ही होता है. 


अपर्णा अनेकवर्णा 

सोमवार, 21 जुलाई 2014

                                               अभी और जीना था हमें 


हमे
इस पेड़ से उतर के चल देना हैं
अपनी लटकी हुई आँखों के साथ,
उलटे पंजो पर चल कर
चुप चाप
अपनी अपनी रस्सी को 
अपने हांथो में लेकर,

वहाँ.......
जहाँ हम पढ़ते थे
जहाँ हम खेलते थे
जहाँ हम एक दुसरे की चोटिया पकड़ कर लड़ते थे,
हमको अपने आंगन के पेड़ के आमो में
अपना हिस्सा भी लेना हैं,
अपने गुड्डा गुडिया का बटवारा भी करना हैं,

हमको
अभी चल देना हैं
अपनी फांसी को झुट्लाकर,
हम बहुत अहिस्ता अहिस्ता चलेंगी
जैसे हम छुपा छुपायी पर
एक दुसरे की नजरो में आये बिना चलती थी,
हमको
चलते चलते
अपने स्कूल भी जाना हैं
और होमवर्क न पूरा करने पर
बेंच पर खड़े होने की सजा भी पानी हैं
बहुत से काम हैं
हमको अभी
अपनी सभी सहेलियों से भी मिलना हैं
उनकी कानाफूसियों का जवाब भी देना हैं,

वो जवाब जो
उनकी माये गोल कर गई हैं,
हम इस पेड़ की फासी से उतर कर
बस एक बार,
उन सभी जगहों पर जाना चाहते हैं
जहाँ हम रोज़ पता नहीं कितनी बार जाते थे,
हमको अपनी सहेलियों को बताना हैं
उनके कानो में
अपने मरने का राज,
बताना ये भी हैं की
कल जब तुम
किसी सुनसान जगह से गुजरना तो,
हमारा हश्र याद रखना,

एक बार तो
जाना हैं
इस पेड़ से नीचे उतर कर,
हम
अपनी सहेलियों को
इस पेड़ पर मरते नहीं,
इसकी छाँव में खेलते देखना चाहती हैं.........................

बुधवार, 16 जुलाई 2014

                                                         !!!!!!!!मैं और कविता !!!!!!!



कवितायें मुझे मिलती हैं 
चौराहों पर ,तिराहों पर 
और अक्सर 
दोराहों पर 

संकरी पगडंडियों पर कवितायें 
निकलती हैं 
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा 
और डगमगा देती हैं मेरे पैर 

इक्क्का दुक्का दिख ही जाती है
तहखानों में अंधेरो को दबोचे
उजालों से नहाए
महानगरों की पोश कोलोनियों में

पिछले दिनों गुजरते हुए गाँव के
साप्ताहिक बाज़ार में
उसने आकर मुझसे मिलाया अपना हाथ
और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए ,दबा कर अपनी बायीं आँख

मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में
वो थाम कर घंटो तक
बैठती हैं मेरा हाथ
थपथपाती है मेरा कन्धा
अपनी आँखों में
सब कुछ ठीक हो जाने की आश्वस्ति लिए

सच तो ये है कि
कविताये मुझे घेर लेती हैं
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान
सटाक ,सटाक पड़ती हैं मेरी पीठ पर
और छोड़ जाती हैं
गहरे नीले निशान .....

मेरी पीठ पर पड़े गहरे नीले निशान ही तो हैं मेरी कवितायें

मृदुला शुक्ला 


मंगलवार, 15 जुलाई 2014

जीवन की हठ
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हर ढलते हुए दिन के साथ खुश होता हूँ 
कि नयी सुबह आने वाली है ....
हर आती हुई नयी सुबह फैलाती है एक डरावनी धुंध 
कि इसे भी तो बीत ही जाना है ,
इसी ख़ुशी और डर के बीच ज़िंदा है जीवन 
ज़िंदा हूँ मैं.....

एक दिन एक नयी सुबह मेरा प्राप्य होगी
और जीवन सुबह के आगे ,
एक शाम को चुनौती देगा ......
कि उसने ठान लिया है शाम की नीरसता का विरोध
कि उसने सुबह का स्वर्णिम समय देखा है।


अश्विनी आदम 

सोमवार, 14 जुलाई 2014

बस / यूं ही !!!!!!
=====

मैं/ अभी /भी रोता हूँ
और/बेतरह
जैसे /पैदा होते ही रोया था
बेवजह
***

गो/कि/ अब /हम/मुहज़्ज़ब हो गए हैं
अब /न /तो/हम/ आशियाने जलाते हैं
न/ आदमी की गर्दनें उड़ाते हैं
तअज्जुब है
फिर/भी /हम /रात में /
बड़े आराम से सो जाते हैं
***
पर/ मैं/ अब /भी रोता हूँ
और/बेतरह
जैसे बचपन में रोया करता था
कोई खिलौना टूटने पर
या /बेवजह
***

अब/ कहां /कोई स्त्री -देह को देखता है
वासनामय दृष्टि से
या/ निगाहों से /ही/ सारे कपडे उघाड़ कर
निरम्बर करता है/उसे
और/रेंग कर
सांप की मानिंद /'कंटूरों' पर
लाज से तर करता है/उसे

पर /मैं/अब/भी/ रोता हूँ
और/बेतरह
जैसे / वांछित न मिलने पर रोता था
या/वेवजह

अब/ कहां कोई स्त्री की कोख फाड़ कर
बच्चा निकाल लेता है
और/झोंक देता है/
आग में
और/फिर/गाने लगता है
वन्दे मातरम् /
गर्व से / राग में

पर/मैं/अब/भी/ रोता हूँ
और/ बेतरह
कभी /तो/ कोई वजह होती है
कभी /बेवजह


कलीम अव्वल 

शनिवार, 12 जुलाई 2014

                                                "तिनकों की पाठशाला "


तिनको की पाठशाला में नहीं सिखाई जाती
भाषा प्रतिरोध की
वे सीखते हैं धारा के साथ बह जाने की कला
उनके बुजुर्ग जानते हैं तिनके
कभी नहीं बनते सहारा किसी
डूबते हुए का

फिर भी वे बरगलाते हैं गढ़ कर
नवजात तिनको को
अविश्वसनीय मुहावरें और कहावते

घाट घाट का पानी पिए ये
लम्बी दाढ़ियों वाले बुजुर्ग तिनके
रुक कर ठिठक कर
बह कर ,अकड़ कर
देखने जानने और
जान बूझ कर अनजान बनने की
तमाम कवायदों के बाद
आज तक नहीं समझा पाये

एक दूसरे का हाथ थाम किसी
सैलाब के सामने बाँध बन कर क्यूँ नहीं देखा
बवंडरों के भंवरो में उलझे
बवंडरों की आँखों में आँख डाल
किरकिरी सा क्यूँ नहीं कसके ....


मृदुला शुक्ला 

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

                                                  " क्या  हम आज भी खड़े है उस मोड़ पर  ??? "


वह सावलीँ सी लडकी
जो मटमैले दुपट्टे के कोर को
दबाये दाँत से
रोप रही है धान के नन्हेँ पौधे
धरती की छाती मेँ
उसकी निगाहेँ अब देख रही हैँ
पूरब के कोन से सूरज का उगना
वह छोडना चाहती है
सूरज के घर मेँ दक्खिन का कोना
इस लिऐ मेरी तरफ देख कर
लहराती है हर्ष से हवा मेँ हाथ
और हवा मेँ घुल कर आती है आवाज 
हम भी अबकी आऐँगेँ
स्कूल मैडमजी ।
वह लडकी अब पढना चाहती है
सोनी
      कल सोनी पांडे जी की यह कविता कई बार पढ़ी। .... दिमाग में घूमती रही वो सांवली सी लड़की जो शायद समाज के पिछड़े वर्ग से आती है , निर्धन है   जो पढ़ना चाहती है उसकी आँखों में अनगिनत सपनें है ,वह भी जीवन को एक दिशा देना चाहती है …
                           इसके ठीक विपरीत मैं जूझ रही हूँ एक  ऐसी लड़की से जो दसवी में  सीबीएसई बोर्ड में टेन पॉइंटर है ,बारहवीं की कक्षा जिसने 93 %अंकों से उत्तीर्ण की है , और पहले ही प्रयास में मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण की है। 



चित्र गूगल से साभार 

 …… वो है एक मेधावी  , अनुशाषित , परिश्रमी क्षात्रा। …… परन्तु दुर्भाग्य वो एक लड़की है , वो भी एक कम विकसित प्रदेश की..... जहाँ नारी होना शायद अपराध है , जहाँ है उस के  पैरों में जकड़ी है कई बेड़ियां। .... मान्यताओं की ,रूढ़ियों की , और अंधविश्वासों की। .... शायद इसीलिए उसके माता -पिता ने सख्त आदेश दिया है की उसे निज शहर के अतिरिक्त किसी अन्य शहर में ,हॉस्टल में पढ़ने नहीं जाने देंगे। .... और निज शहर मिलने की सम्भावना नहीं है। …कल दिखी मुझे कुछ कुचले हुए सपनों के साथ , माता -पिता की इक्षा के आगे नतमस्तक, वीभत्स्व मौन धारण करे  ……
 वह लड़की 
जो भाग्य से लड़ते हुए 
 अनवरत श्रम करते हुए 
पहुँच गयी है क्षितिज पर 
की जरा सा हाँथ बढ़ा कर 
रख लेगी हथेली पर सूरज को 
अचानक रोक दी गयी है 
रूढ़ियों और मान्यताओं की 
बेड़ियों द्वारा 
आँखों में आंसू भर कहती है 
मैडम जी 
मैं मेडिकल की पढाई 
पढ़ना चाहती हूँ 
                           उसके माता -पिता के निर्णय से हैरान -परेशान मैं तुलना कर रही हूँ दो लड़कियों की। …क्या फर्क है जहाँ  लड़की शिक्षा या अपने मन की शिक्षा पाने के मूलभूत अधिकार से सिर्फ इसलिए वंचित कर दी जाती है क्योंकि उसके ऊपर समाज की वर्जनाएं है , जहाँ लड़की सिर्फ विवाह करने के लिए पाली जाती है , और पुरानी सोच के चूहे  लड़की के सपनों को कुतर -कुतर कर खा जाते है। …
                                               शायद कुछ साल बाद वो लड़की मुझे मिले …हांथों में खनकती हुए चुडियों , और सिन्दूर भरी मांग के साथ , ……पर तब उसकी आँखों में कोई सपना नहीं होगा। …निस्तेज नीरव सी होंगी आँखें। .......... परंतु यह लड़की अकेली नहीं है , आधी आबादी ऐसी अनेकों लड़कियां होंगी , जो तथाकथित समाज के ठेकेदारों के लिए मिसाल होंगी। .... सहो ,वो भी तो सह रही है। …… यही तुम्हारा धर्म है.…… और समाज की  परंपरा को निभाते हुए , इस अलिखित कानून के आगे सर झुकाते हुए , कितनी जिन्दा लाशें घूम रही है ,कितनी हत्याएँ रोज हो रही है…दुखद उनकी गिनती नही है। 
                                             क्या हम आज भी खड़े हैं उस मोड़ पर……

वंदना बाजपेयी 
(आपके  विचार आमंत्रित हैं )